मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

सत्ता की राजनीति...

 

नक्सली हमले में मारे गये जवानों के अंतिम संस्कार के दौरान परिजनों की तस्वीरें बेहद भावुक और भीतर तक हिला देने वाली है। हालांकि आम लोग इसे कुछ दिनों बाद भूल जायेंगे नेताओं और सरकार की तो बात ही करना बेमानी है क्योंकि सत्ता की क्रूरता और संवेदनहीनता की लम्बी कहानी है।

अचानक लॉकडाउन से मजदूरों और मध्यम वर्गों की बदहाली की तस्वीरों को अब कौन याद रखता है। और यदि सत्ता को यह सब याद भी है तो वह पुनर्रावृत्ति रोकने के लिए क्या कर रही है।

महामारी की बात छोड़ भी दे तो धर्म और जाति में नफरत बोने वाले भी कहां चुप है। वे आज भी अपने को श्रेष्ठ कहते हुए दूसरे का अपमान करने से नहीं चुकते। इस दुनिया में शायद ही कुछ लोग होंगे जो अपने धर्मों का पूरी तरह पालन करते होंगे लेकिन उन्हें दूसरे धर्म से और उसे मानने वालों से बेहद नफरत है और वे अपनी नफरत का इजहार सार्वजनिक रुप से करने से भी नहीं हिचकते।

दरअसल नक्सली से लेकर दंगे और जाति से लेकर धर्म की वजह से जो अशांति फैली है, मारकाट मचा है उसके मूल में  सत्ता और उसकी राजनीति ही है। सत्ता पाने के लिए और सत्ता की रईसी बरकरार रखने के खेल में आम आदमी पिसता चला जा रहा है।

सत्ता की वजह से ही गलत लोगों को फलने-फूलने का मौका मिलता है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है। सौ करोड़ की वसूली का मामला हैरान कर देने वाला है, जिस देश में बेरोजगारी और भूखमरी बढ़ते जा रही है वहां सत्ता की रईसी की कल्पना की बेमानी है। राफेल डील का मामला भी संदिग्ध होता रहा है, सत्ता की ताकत का अहसास तो पहले से ही था लेकिन फ्रेच जर्नर के दावे ने इसकी पुष्टि कर दी। यदि दो सरकारों के बीच हुए सौदो में भी कमीशन या दलाली होने लगी है तो जान लिजिए की सत्ता ने इसे सिस्टम बना दिया है। ऐसे में अब तो सत्ता यह कहकर सारे अपराधों से मुक्ति भी पा सकती है कि जनता ने उन्हें पांच साल के लिए चुना है इसलिए इन पांच वर्षों में वे जो करें सब सही है। 

याद कीजिए छत्तीसगढ़ में एक घोटाले पर जब विपक्ष ने सवाल उठाया था तो तब के तत्कालीन मुख्यमंत्री का जवाब था 'जब बेचने वाले को आपत्ति नहीं, खरीदने वाले को आपत्ति नहीं तो विपक्ष को क्यों आपत्ति हो रही है।Ó

निजीकरण के होड़ में क्या यही सब कुछ नहीं हो रहा है, सरकार धड़ाधड़ सब बेच रही है और कई एसेट्स तो कम कीमत में बेची जा रही है।

ऐसे में बिहार में जब छात्र सिर्फ इसलिए तोडफ़ोड़ करते है कि उनकी पढ़ाई का नुकसान अब बर्दाश्त नहीं तो इसका मतलब क्या है? चार माह से कृषि कानून के खिलाफ बैठे किसानों की अनदेखी क्या सत्ता के धौंस की कहानी नहीं है। तब नक्सली हमले को लेकर जवानों की शहादत की तस्वीरों का क्या मतलब? सत्ता के लिए विकास का मतलब कमीशनखोरी और निजीकरण ही रह गया है तब बदहाल होते लोगों की चिंता कौन करें।