गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

दबाव के आगे कार्रवाई रूकी

घोटालेबाजों का जमाना महाधिवक्ता है सुराना - 6
पार्टी के प्रति निष्ठा के चलते देवराज सुराना ने महाधिवक्ता पद का सफर कर लिया हो पर विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ रही है। धम कमाने में कानूनी दांव पेंच ने नैतिकता का तो किनारे किया ही परिवार की महिला सदस्य भी कानूनी दांव पेंच में फंस गई। अब जब सरकार को जेब में रखने का दावा हो तो फिर प्रशासन से उम्मीद बेमानी हो जाती है। यही सब कारण है कि आम लोगों का कानून से भरोसा उठने लगा है।
महाधिवक्ता पद तक पहुंचने देवराज सुराना व उनके परिजनों पर दर्जनभर से अधिक मामले ऐसे हैं जो उन्हें सीधा कटघरे पर खड़ा करता है लेकिन शासन-प्रशासन कानूनी पेचदगीयों में इस कदर उलझी है कि कार्रवाई की आस में लोग अपना सिर धुन रहे हैं। जब मंदिर की जमीनों को बेचने-खरीदने में दुनियाभर के नियम कानून है तब सुराना परिवार के नानेश बिल्डर्स द्वारा गोपियापारा स्थित श्री हनुमान मंदिर की भाठागांव स्थित बेशकीमती जमीन का घोटाला कैसे कर लिया गया। इस संपूर्ण मामले में भाजपा सरकार की भूमिका पर भी जांच होनी चाहिए जब जोगी शासनकाल में इस पर बंदिश लगाई गई थी तब आनन-फानन में डॉ. रमन सरकार में इस जमीन की खरीदी बिक्री की अनुमति कैसे दी गई।
इस मामले में फर्जी मुख्तियार नामा से लेकर खरीदी बिक्री में जो घपले हुए उस पर कार्रवाई की बजाए प्रशासनिक स्तर पर लीपापोती की गई। जिस कलेक्टर ने इसकी बिक्री को रोका उसी ने अचानक सरकार बदलते ही रजिस्ट्री की अनुमति कैसे दे दी। इस पूरे मामले का जांच प्रतिवेदन भी समझने योग्य है कि किस तरह से जांच प्रतिवेदन में तहसीलदार और उपपंजीयक के विरुध्द कार्रवाई की बात कही गई लेकिन अचानक सारा मामला भूला दिया गया। इस जमीन की रजिस्ट्री के बाद जब विवाद बढ़ा तो इसे रामसागर पारा के सुशील अग्रवाल और रवि वासवानी को बेचा गया। इन लोगों के नामांतरण की फाईल जब तहसीलदार ने रोकी तो कैसे नानेश बिल्डर्स ने दूसरे के नाम रजिस्ट्री के बाद अपने नाम डायवर्सन करा लिया।
हिन्दूवादी पार्टी का दंभ भरने वाली भाजपा ने श्री हनुमान मंदिर की बेशकीमती जमीन पर खेले गए खेल को कैसे चुपचाप देखते रही। यह सब ऐसा सवाल है जिसका जवाब सरकार को देना ही होगा। बहरहाल इस पूरे मामले की राजधानी ही नहीं न्यायधानी में भी जमकर चर्चा है और आने वाले दिनों में इसका खामियाजा भी भुगतना पड़े तो आश्चर्य नहीं है।

आदिवासी अधिकारियों ने भी रमन के खिलाफ मोर्चा खोला

आयोग से शिकायत, पदोन्नति से वंचित
आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग को लेकर भले ही भाजपा के आदिवासी नेताओं की मुहिम फेल हो गई हो लेकिन अब आदिवासी अफसरों ने अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर सरकार के लिए नई मुसिबत खड़ी कर दी है। करीब आधा दर्जन आदिवासी अधिकारियों ने पदोन्नति में भेदभाव का आरोप लगाया है और इनमें से कुछ ने आयोग में शिकायत तक कर दी है।
भाजपा में आदिवासियों की उपेक्षा को लेकर आदिवासी नेता पहले ही नाराज हैं। नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर से लेकर रामविचार नेताम ने समय-समय पर सरकार के खिलाफ खड़ा होने की कोशिश की है यहां तक कि आरक्षण कम किए जाने को लेकर भी आदिवासी नेता नाराज हैं। ऐसे में आदिवासी होने की वजह से पदोन्नति नहीं देने का आरोप डॉ. रमन सिंह को भारी पड़ सकता है और इस मामले में यदि कांग्रेस खड़ी हुई तो मामला तूल पकड़ सकता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार अपनी उपेक्षा को लेकर डॉ. राजमणि, डॉ. आर.आर. मंडावी और डॉ. आर.एन. नेताम ने आयोग से शिकायत की है कि आदिवासी होने के कारण उन्हें पदोन्नति से वंचित किया जा रहा है। आयोग में की गई शिकायत काफी गंभीर है और इसका परीक्षण चल रहा है। डॉ. राजमणि रायपुर में पदस्थ हैं वहीं डॉ. आर.आर. मंडावी कांकेर में हैं।
सूत्रों ने बताया कि तीन-तीन अधिकारियों के द्वारा आयोग से की गई शिकायत पर फिलहाल सरकार में बेचैनी है और वह यह जानने में लगी है कि कहीं इसके पीछे राजनीति तो नहीं है। बहरहाल आदिवासी अधिकारियों के इस नए आरोप से एक तरफ जहां सरकार बेचैन है वहीं कांग्रेस के इसे मुद्दा बनाने से नई मुसिबत का अंदेशा भी है।

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

बड़े अखबारों की नई खिचड़ी

छत्तीसगढ़ में स्थापित हो चुके बड़े अखबारों की सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के साथ अलग तरह की खिचड़ी पक रही है। वैसे भी राय बनने के बाद छत्तीसगढ़ की मीडिया में नया परिवर्तन आया है कभी रुपया दो रुपया फीट पर जमीन पाने भोपाल के चक्कर लगाने पड़ते थे और दूसरे उद्योग चलाने से पहले सोचना पड़ता था।
राय बनने के बाद परिवर्तन बड़ी तेजी से आया है। सकारात्मक खबरों के चक्कर में उन खबरों पर भी बंदिशें लगनी शुरु हो गई जिससे राय या देश को सीधे नुकसान उठाना पड़ रहा है। कोई अखबार वाला शॉपिंग मॉल की तैयारी में है तो कोई आयरन उद्योग में कूद रहा है। किसी के नए धंधे करने से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। इसलिए अखबार वाले भी अखबार के साथ दूसरा धंधा कर सकते हैं लेकिन धंधा के लिए गंदा समझौता उचित नहीं है।
यही वजह है कि अखबारों की विश्वसनियता पर सवाल उठने लगे हैं। चौक-चौराहों पर इसकी चर्चा होने लगी है और रिपोर्टरों को यह सब भुगतना भी पड़ रहा है। इन दिनों ग्राम सुराज को लेकर भी अखबारों की भूमिका भाढ की तरह हो गई थी। सुराज दल को जिस पैमाने पर गांव वालों के कोप भाजन बनना पड़ा है वह खबरों में कहीं नहीं दिखी। सरकारी विज्ञापन के दबाव में स्थानीय अखबार जिस तरह से सरकारी प्रचार का माध्यम बनता जा रहा है वह स्वस्थ पत्रकारिता के लिए चिंता का विषय है। भ्रष्ट मंत्रियों के विज्ञापन भी उतनी ही प्रमुखता से प्रकाशित किए जाने लगे है ऐसे में आम लोगों की सोच भी अखबारों के प्रति बदल जाए तो नुकसान इस प्रदेश का ही होना है।
और अंत में....संवाद के खिलाफ खबर जुटाने में लगे एक पत्रकार की किस्मत अच्छी है कि उसकी नौकरी अभी तक उस अखबार के दफ्तर में कायम है वरना संवाद के खाटी अधिकारी ने तो फोन कर उसे नौकरी से निकालने का फरमान सुना ही डाला था।

पूर्व मंत्री के कान्हा किसली का दौरा पर्यटन के जिम्में

साल में परिवार सहित दो दौरा
भाजपाई राजनीति को तार-तार कर कांग्रेस में मंत्री पद पाने वाले ब्राम्हण नेता भले ही भाजपाईयों के दुश्मन हो लेकिन पर्यटन मंत्री के दोस्ती का लाभ उन्हें गाहे-बगाहे अब भी मिल रहा है और साल में परिवार सहित कान्हा किसली यात्रा का खर्च पर्यटन विभाग उठाता है।
छत्तीसगढ क़ी भाजपाई राजनीति में तूफान मचा कर जोगी शासनकाल में मंत्री बन बैठे इस नेता को लेकर कांग्रेस ही नहीं भाजपा के लोग भी भद्दी गाली देते हैं। कभी राजधानी की राजनीति में एक क्षत्र राय करने वाले पूर्व मंत्री को इन दिनों राजनैतिक दुर्दिन का सामना करना पड़ा रहा है लेकिन उनके अब भी पर्यटन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से मधुर संबंध है।
भले ही भाजपाई इस पूर्व मंत्री को पसंद नहीं करते लेकिन जीत हार की गणित समझने वाले बृजमोहन अग्रवाल को इससे कोई मतलब नहीं है इसलिए उनके इस पूर्व मंत्री से न केवल संबंध बने हुए हैं बल्कि उनके विभाग पर्यटन भी उनका पूरा ध्यान रखता है। बताया जाता है कि पूर्व मंत्री और उनका परिवार साल में दो बार कान्हा किसली की यात्रा करता है और कहा जाता है कि इस यात्रा का पूरा खर्च पर्यटन विभाग द्वारा किया जाता है।
इस मामले में जब पर्यटन विभाग के अधिकारियों से पूछताछ की गई तो उन्होंने खामोशी ओढ़ ली लेकिन मीडिया से जुड़े एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि ऐसा तो यहां चलते रहता है यात्रा कोई करे बिल किसी के नाम पर एडजेस्ट कर दिया जाता है। सूत्रों के मुताबिक पर्यटन में भारी गड़बड़ी चल रही है निर्माण कार्य से लेकर प्रचार प्रसार में मनमाने गड़बड़ी से लोग हैरान है जबकि यहां के अधिकारियों पर कार्रवाई की बजाय रिकवरी निकालकर मामला रफा-दफा किया जाता है। बहरहाल मंत्री और पूर्व मंत्री की जोड़ी को लेकर पार्टी में भी चर्चा है लेकिन कोई खुलकर सामने नहीं आ रहा है।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

पानी और धरती बचाने वाले अब कहां हैं...

आमापारा बाजार के पीछे का तालाब पाटा जा रहा
आर्ट ऑफ लिविंग हो या राजधानी में जल जमीन बचाने में लगी संस्था हो किसी की नजर अभी तक आमापारा बाजार के पीछे सरकारी स्तर पर पाटे जाने वाले तालाब की ओर नहीं है। आसपास के लोग दबी जुबान पर इसका विरोध जरूर कर रहे हैं लेकिन नेतृत्व का अभाव इसे आंदोलन का शक्ल नहीं दे पा रहा है। ऐसे में रजबंधा तालाब या लेडी तालाब की तरह यह कारी तालाब भी सरकार बलि चढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं है।
एक तरफ पूरी दुनिया में जल, जमीन और जंगल बचाने का अभियान चल रहा है। छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तक अपने को इस अभियान का हिस्सा मानते हैं लेकिन दूसरी तरफ इसी सरकार के अधिकारी कुछ भू-माफियाओं के ईशारे पर कारी तालाब को पाटा जा रहा है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे लोगों का ध्यान अभी तक इस तरफ नहीं गया है और भू-माफिया अपना खेल खुले आम खेल रहा है।
आमापारा क्षेत्र में वैसे तो लाईन से पांच तालाब है और इन तालाबों से लगी बेशकीमती जमीनें पहले ही अवैध कब्जे का शिकार है। हांडी तालाब से लेकर करबला तक तालाबों पर निगाह रखने वालों ने अवैध कब्जों के लिए गरीबों का सहारा लिया और फिर खुद ही बिल्डिंग खड़ी कर बेच दी। आमापारा का ऐतिहासिक महत्व है। मंदिरों के अलावा सब्जी बाजार में रोज हजारों लोग आते हैं ऐसे में तालाब को सुन्दर बनाकर अन्य बगीचों में भीड़ कम की जा सकती है। इस मामले में पर्यावरण प्रेमी कब ध्यान देंगे यह देखा है।

महंगाई पर राजनीती

छत्तीसगढ ही नहीं पूरे देशभर के भाजपाईयों ने महंगाई के खिलाफ दिल्ली में जुट गए। उनकी इस कार्रवाई से महंगाई पर कितना लगाम लग पाया यह तो वही जाने लेकिन नए नवेले अध्यक्ष नीतिन गडकरी की वजह से रैली में जरूर व्यवधान आ गया। उद्योगपति से भाजपा के प्रमुख पद पर पहुंचे नीतिन गडकरी के लिए गर्मी की चिलचिलाती धूप में कुछ करने का पहला मौका था लेकिन उनकी किस्मत दगा दे गई। वैसे भी महंगाई को लेकर कांग्रेस और भाजपा केवल राजनीति कर रही है। उन्हें इस बात की कतई चिंता नहीं है कि महंगाई पर लगाम कसे।
यदि छत्तीसगढ़ की रमन सरकार महंगाई पर इतनी चिंतित है तो वह छत्तीसगढ़ के लोगों का कुछ तो भला कर ही सकती है। महंगाई बढ़ने की मूल वजह को तलाशने की बजाय इस पर डॉ. रमन सिंह सरकार की राजनीति अंधेरगर्दी से कम नहीं है। क्या भाजपा सरकार यह बात भूल गई है कि यहां के अकूत संपदा के चलते इस देश का पहला टैक्स फ्री राय बनाने की चर्चा हो चुकी है। लेकिन शासन में आते ही अंधाधुंध भ्रष्टाचार ने इस राय को भी देश के दूसरे रायों की तरह ही संक्रमण दौर पर खड़ा कर दिया है।
वास्तव में महंगाई बढ़ने का आर्थिक सिध्दांत सच है कि मांग के अनुरूप पूर्ति नहीं होने की वजह से महंगाई बढ़ रही है लेकिन क्या सरकारों ने कभी चिंता की कि मांग इतनी क्यों बढ़ने लगी। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में तो कम से कम कहा जा सकता है कि काले धन ने मांग और पूर्ति के सिध्दांत को डगमगा दिया है। छत्तीसगढ सरकार चाहे तो कुछ नियम कानून बनाकर राय में बढती महंगाई को कंट्रोल कर सकती है।
1. कृषि जमीनों के दूसरे किसी भी उपयोग पर प्रतिबंध लगा दे।
2. भ्रष्टाचार में लिप्त मंत्रियों और अधिकारियों की संपत्ति राजसात कर ले।
3. नई राजधानी के नाम पर फूंके जा रहे करोड़ों-अरबों रुपए को आम लोगों के फायदे के लिए लगाये।
4. सरकारी भवनों व बंगलाें, आवासों में हो रहे बिजली के खर्चों पर कटौती करें।
5. अधिकारियों व मंत्रियों के फिजूलखर्ची पर रोक लगाये।
6. पहले की तरह राशन दुकानों से सामग्री बेचे।
7. कालाबाजारी करने वालों को कड़ी सजा दिलवाये उनकी संपत्ति राजसात करें।
इसके अलावा भी कई उपाय है जो सरकारी स्तर पर किए जा सकते हैं।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

देश प्रेम का चेहरा लगाओं घपलेबाजी से पैसा कमाओं

तिरंगा लगाने के नाम पर युवाओं के आदर्श बनने वाले जिंदल उद्योग समूह के नवीन जिंदल का असली चेहरा धीरे-धीरे सामने आने लगा है। इसी दम पर सांसद की सीढ़ी का भी सफर तय कर चुके हैं लेकिन पैसा कमाने की भूख कहें या भाजपाई राज की सेटिंग कहें। जिस पैमाने पर रायगढ़ में इस उद्योग समूह ने खेल खेला है वह उसके देश प्रेम के ढकोसले को तो उजागर करता ही है मुख्य सचिव जाय. उमेन के नोटशीट ने रमन सरकार के चेहरे को भी आईना दिखा दिया है कि इस तरह से छत्तीसगढ़ को बड़े पैमाने पर लूटने का खेल चल रहा है।
छत्तीसगढ़ में मची लूट खसोट की यह सबसे खतरनाक कड़ी है बालको हादसे का मामला हो या उद्योगों को जमीन हड़पने की छूट का मामला हो कहीं न कहीं सरकार के मुखिया की भूमिका संदिग्ध नजर आती है ऐसे में जब बाढ़ ही खेत खाने लगे तो फसल रुपी आम छत्तीसगढ़िया के भविष्य को बर्बाद होने से कौन रोक सकता है। दरअसल यह सारा खेल अरबों रुपए का है जिसमें उर्जा विभाग अपने पास रखने वाले मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और जिंदल उद्योग समूह के एम.डी. के बीच हुई मुलाकात के बाद शुरु हुई। इस खेल में राय के लोगों को पॉवर कट का सामना करना पड़ा जबकि जिंदल पावर लिमिटेड को अरबों रुपए का फायदा हुआ।
छत्तीसगढ़ राय ने यह नियम बनाया है कि बिजली उत्पादन करने वाले उद्योग सीएसईबी को ही बिजली देंगे। इसी नियम के अनुरूप मेसर्स जिंदल पॉवर लिमिटेड तमनार जिला रायगढ़ और छत्तीसगढ़ विद्युत बोर्ड के बीच एग्रीमेंट हुआ। इसके तहत जिंदल द्वारा कुल विद्युत उत्पादन का 37.5 प्रतिशत बिजली विद्युत मंडल को जिंदल द्वारा दिया जाना था। लेकिन यह सब नहीं हुआ। वास्तव में एग्रीमेंट के मुताबिक छत्तीसगढ़ विद्युत बोर्ड यह बिजली 2 रुपए 88 पैसे में खरीदी करती। इधर जिंदल ने वर्ष 2009 में 8028.02 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन किया और उसने छत्तीसगढ़ को केवल 1337.84 मिलियन यूनिट बिजली ही दिया जबकि कुल उत्पादन के हिसाब से छत्तीसगढ़ को 3015.50 मिलियन यूनिट बिजली मिलनी थी। यानी 1672.66 मिलियन यूनिट बिजली छत्तीसगढ़ को कम मिली।
पूरा खेल यहीं से शुरु हुआ। जिंदल ने 1672.66 मिलियन यूनिट बिजली छत्तीसगढ़ को देने की बजाय इसे दूसरे को बेच दिया। बताया जाता है कि वर्ष 2009 में बिजली बाहर बेचने का औसत दर 7-8 रुपए था इस लिहाज से जिंदल ने 4 रुपए प्रति यूनिट अधिक दर पर बिजली बेची जिससे उन्हें 700 करोड़ से अधिक का लाभ हुआ जबकि यही बिजली वह राय को बेचती तो उसे 2.99 प्रति यूनिट से पैसा मिलता।
इस सारे खेल में किसकी भूमिका यह जांच का विषय है। एक तरफ प्रदेश में लोग बिजली संकट से जूझ रहे है और दूसरी तरफ जिंदल को बिजली खरीदने की बजाय उसे लाभ पहुंचाया जा रहा है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि उर्जा विभाग मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पास है तब यह सब हुअआ ऐसे में उनकी भूमिका को लेकर संदेह उठना स्वाभाविक है और करोड़ों में लेन देन के आरोप भी लग रहे हैं।उनकी भूमिका पर संदेह इसलिए भी उठता है कि मुख्य सचिव पी.जाय. उमेन ने अपने नोटशीट में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और जिंदल पॉवर लिमिटेड के एमडी नवीन जिंदल से हुई बैठक की बात लिखी है। इस पत्र में कई तरह के खुलासे हैं जो मुख्यमंत्री की भूमिका पर संदेह व्यक्त करने के लिए काफी है।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

मंत्री परिवार की जमीन के बाद पेट्रोल पंप में रूचि


एक का उद्धाटन हुआ दूसरे की तैयारी
प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के परिजनों ने अब पेट्रोल पम्प के व्यवसाय में उतर गया है। चावल-दाल के धंधे के बाद मंत्री परिवार ने भाजपा शासन काल में जमीन का भी खूब कारोबार किया और अब जमीनी धंधे में मंदी को देखते हुए पेट्रोल पम्प के व्यवसाय में कदम रखा है। पहला पेट्रोल पम्प नई राजधानी में उद्धाटित हो गया है और दूसरा पम्प मंदिर हसौद में तैयार किया जा रहा है जिसका उद्धाटन एक-दो माह में किए जाने की खबर है।
छत्तीसगढ़ की भाजपाई राजनीति में बृजमोहन अग्रवाल का अपना रूतबा है और कहा तो यहां तक जाता है कि उनकी दबंगता का लोहा मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी मानते हैं। यही वजह है कि भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही बृजमोहन अग्रवाल को न केवल मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पद दिया गया बल्कि उनकी दबंगता का फायदा भी उनके समर्थकों ने खूब उठाया। चावल-दाल के पुस्तैनी धंधे की राजनीति में भी इस परिवार का दबदबा है यही वजह है कि राय बनने के बाद जब यहां के जमीनों की कीमत बढ़ने लगी तो मंत्री भाईयों की रूचि में जमीन के धंधे में होने लगी। हालांकि इसकी वजह से मंत्री भाईयों पर कई आरोप लगे और यहां तक कहा जाने लगा कि विवादास्पद जमीनों की खरीदी-बिक्री में भारी रूचि रही। डॉ. मल्होत्रा का मामला हो या समता कालोनी के महोबिया वकील की जमीन का मामला हो मंत्री भाई सुर्खियों में रहे।
इस बीच पर्यटन विभाग, शिक्षा विभाग और पीडब्ल्यूडी विभाग में जमकर घोटाले हुए इन घोटाले में मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की संलिप्तता तो सामने नहीं आई है लेकिन बृजमोहन अग्रवाल के विभागों में जबरदस्त घपलेबाजी जनचर्चा का विषय है। इधर हमारे भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक जमीन के धंधे में लगातार हो रही मंदी और बदनामी की वजह से मंत्री परिवार ने पेट्रोल पम्प के धंधे में कदम रखा है। सूत्रों के मुताबिक बृजमोहन अग्रवाल के अनुजद्वय विजय और यशवंत अग्रवाल के नाम पेट्रोल पम्प का आबंटन हो चुका है।
बताया जाता है कि नई राजधानी के ग्राम चेरिया में आबंटित पेट्रोल पम्प का फरवरी माह में उद्धाटन हो चुका है। सादे समारोह में इस पम्प का उद्धाटन रामजी लाल अग्रवाल के हाथों हुआ और इसमें गिनती के लोगों को ही आमंत्रित किया गया था। सूत्रों के मुताबिक दूसरा पेट्रोल पम्प मंदिर हसौद गैस गोदाम के पास स्थित है यह अभी निर्माणाधीन है इसका उद्धाटन एक-दो माह में किए जाने की चर्चा है। मंत्री भाईयों के पेट्रोल पम्प व्यवसाय में कूदे जाने को लेकर कई तरह की चर्चा है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

अब गृहमंत्री की दमदारी कहां गई


क्यों नहीं हुआ अमितेष पर जुर्म दर्ज
वैसे तो छत्तीसगढ़ की राजनीति में अभी भी शुक्ल परिवार के वर्चस्व को नकारा नहीं जा सकता। इस परिवार के खिलाफ कार्रवाई करने से आज भी शासन-प्रशासन के हाथ-पैर फूलने लगते है। इसलिए सट्टा का मामला हो या बिजली चोरी का मामला पुलिस मकान मालिक शुक्ल पर कार्रवाई से अपने को दूर ही रखती है। जबकि किरायेदार की करतूतों पर मकान मालिकों के खिलाफ जुर्म दर्ज किया जाता है।
छत्तीसगढ सरकार और उसकी पुलिस के द्वारा किस तरह भेदभाव किया जाता है इसका ताजा उदाहरण पुराना बस स्टैण्ड स्थित होटल हेमटन का है जहां पुलिस ने पिछले हफ्ते क्रिकेट में सट्टा का भंड़ाफोड़ कर दो-तीन लोगों को गिरफ्तार किया था लेकिन पुलिस ने होटल मालिक की तरफ आंख उठाने की भी हिमाकत नहीं की। जबकि यहां की पुलिस ने किरायेदारों की करतूत पर मकान मालिकों के खिलाफ दर्जनभर से अधिक मामले बना चुकी है।
यही हाल पचपेढ़ी नाका स्थित नेस्ट बार का है यहां खुलेआम बिजली चोरी होती रही और जब मामला पकड़ाया तो यहां कार्रवाई के नाम पर अमितेष शुक्ल के समर्थक गौतम मिश्रा के खिलाफ ही कार्रवाई की गई। राजधानी पुलिस के इस रवैये से अंदाजा लगाया जा सकता है कि शुक्ल परिवार का यहां कितना दबदबा है। इस मामले में जब पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से पूछताछ की गई तो वे इसका जवाब देने से बचते रहे एक वरिष्ठ अधिकारी का तो यहां तक कहना था कि मुझे इस मामले में न घसीटों जिस थाने का मामला है वहीं पूछताछ करों।
बताया जाता है कि पुराना बस स्टैण्ड स्थित होटल हेमटन और पचपेढ़ी नाका स्थित नेस्ट बार की जगह का मालिक राजिम के विधायक अमितेष शुक्ल का है और इसे किराये पर दिया गया है। पुलिस के इस भेदभावपूर्वक कार्रवाई को लेकर कई तरह की चर्चा है और कहा जा रहा है कि दोनों ही स्थानों पर असामाजिक तत्वों का जमावाड़ा होता है लेकिन पुलिस यहां जांच करने से घबराती है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

दामाद की दमदारी , सरकारी की लाचारी

घोटालेबाजों का जमाना है महाधिवक्ता सुराना है- 5
जनसंघ की टिकिट से चुनाव लड़ चुके महाधिवक्ता देवराज सुराना ही नहीं उनके दामाद विजयचंद बोथरा भी दमदार है यही वजह है कि इनके परिवार के खिलाफ एक के बाद एक केस तो दर्ज हुए लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। मंदिर से लेकर आदिवासियों की जमीन हड़पने का मामला हो या श्रीमती चेतना सुराना का ही मामला हो पुलिस सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और सत्ता के प्रभाव में फर्जीवाड़ा जमकर चलता रहा। क्या अब भी सरकार इस मामले पर कार्रवाई की बजाय खामोश रहेगा।
दरअसल छत्तीसगढ क़ी भाजपाई राजनीति में सुराना परिवार का जबरदस्त दबदबा है और कहा जाता है कि इनके खिलाफ जुबान खोलने वालों की पार्टी में खैर नहीं। यही वजह है कि जब देवराज सुराना को महाधिवक्ता बनाया गया तब भी किसी ने विरोध नहीं किया और आज जब उन्हें लेकर पार्टी की बदनामी हो रही है तब भी कोई खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। वास्तव में देवराज सुराना ही नहीं उनके परिवार के कवर्धा निवासी विजयचंद बोथरा भी दमदार हैं और कहा जाता है कि मुख्यमंत्री के गृह जिले के होने के कारण उनका डा. रमन सिंह से सीधे संबंध है और जिस व्यक्ति का मुख्यमंत्री से सीधे संबंध हो उसके खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद किया जाना निरर्थक माना जाता है यही वजह है कि बदनामी से कई भाजपाई दुखी तो हैं लेकिन वे अपना दुख दबी जबान में ही व्यक्त करते हैं।
बताया जाता है कि आदिवासियों की जमीनें फर्जी तरीके से खरीदने के मामले में न केवल विजयचंद बोथरा बल्कि उनके पुत्र विनित बोथरा तक शामिल हैं और इसी तरह इस बात की भी चर्चा है कि सुराना परिवार को उनके मामले से बचाने में बोथरा परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कवर्धा के इस प्रभावशाली बोथरा परिवार के भी अपने किस्से हैं और कहा जा रहा है कि सरकार के कई वरिष्ठ अधिकारी तक इस परिवार की पहुंच का लोहा मानते हैं और कई महत्वपूर्ण नियुक्तियां भी इनके इशारे पर हुई हैं।
यही वजह है कि सुराना-बोथरा परिवार की पहुंच ने चेतना सुराना के मामले में पुलिस के हाथ पैर बांध दिए हैं। पुलिस इस्तेगासा तो पेश कर दी है लेकिन श्रीमती चेतना सुराना की अनुपस्थिति पर चुप्पी साध रखी है। चेतना सुराना मामले का सबसे दुखद पहलु तो यह है कि देवराज सुराना महाधिवक्ता है और शासन-प्रशासन को महाधिवक्ता से सलाह लेना होता है ऐसे में बहुत संभव है पुलिस खामोश रहे। बहरहाल सुराना-बोथरा परिवार की इस जुगलबंदी के किस्से आम लोगों में चर्चा का विषय है और यही हाल रहा तो सरकार को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

जल स्तर गिरने की चिंता आखिर कौन करें?

आमापारा बाजार के पीछे का तालाब पाटा जा रहा
यह राजधानी के भू-माफियाओं की साजिश है या एक प्रभावशाली मंत्री की करतूत यह तो जांच का विषय है लेकिन आमापारा बाजार के पीछे स्थित तालाब को जिस तेजी से पाटने की कार्रवाई की जा रही है उससे राजधानी के गिरते जल स्तर से चिंतित लोगों में बेचैनी है और वे शीघ्र ही इस संबंध में महापौर से चर्चा कर तालाब को पाटने की बजाय उसके सौंदर्यीकरण के लिए चर्चा करेंगे।
कभी राजधानी रायपुर तालाबों का शहर हुआ करता था लेकिन सरकारी अधिकारियों और भू-माफियाओं की साजिश ने शहर के तालाबों को लिलना शुरु कर दिया। अवैध कब्जों के अलावा धन्ना सेठों को तालाब पाटकर जमीनें दी गई जिसका परिणाम है कि रायपुर का जल स्तर तेजी से गिरा है बल्कि यहां के लोग भीषण गर्मी से भी परेशान है। पटवा शासनकाल में सरोवर हमारी धरोहर का नारा देकर तालाबों को संरक्षित करने का प्रयास किया गया लेकिन राय बनने के बाद हाल के सालों में भू-माफियाओं की नजर फिर तालाब पर पड़ने लगी है। बताया जाता है कि निगम अधिकारियों से सांठगांठ कर अवैध कब्जे करवाना और तालाब पटवाने में लगे भू-माफियाओं के षड़यंत्र का खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है।
बताया जाता है कि इन दिनों नगर निगम रायपुर आमापारा बाजार के पीछे स्थित कारी तालाब को पाटने में अपना दिमाग दौड़ा रहा है। इस सबके पीछे प्रदेश सरकार के एक दमदार मंत्री और कुछ भू-माफियाओं का हाथ बताया जा रहा है। यदि हमारे भरोसेमंद सूत्रों पर गौर करें तो आमापारा स्थित घासीदास प्लाजा के पीछे की जमीनों को एक मंत्री के भाई और कुछ भू-माफियाओं द्वारा खरीदी जा चुकी है और इन लोगों ने साजिशपूर्वक निगम को तालाब पाटने दबाव बनाया। इसके तहत रोज शहरभर के कचरों को तालाब में फेंका जा रहा है और जिस तेजी से तालाब पाटने की कार्रवाई की जा रही है उससे आश्चर्य नहीं की माह दो माह में तालाब पाट दिए जाएंगे।
बताया जाता है कि राजधानी के मध्य स्थित इस बेशकीमती जमीन पर भी कई लोगों की नजर है और बहुत संभव हो निगम यहां कोई काम्प्लेक्स खड़ा करें। इधर पर्यावरण को लेकर चिंता जताने वाले निगम के इस तालाब पाटने की कार्रवाई से अपने को आश्चर्यजनक रुप से दूर रखा है जबकि बजरंग नगर, शिवनगर और खपराभट्ठी के लोग तालाब पाटने का विरोध कर रहे हैं। एक तरफ राजधानी पेयजल संकट से जूझ रहा है ऐसे में शहर के तालाबों को पाटना कहां तक उचित है जबकि निगम इसके सौंदर्यीकरण में ध्यान देकर इस क्षेत्र की खूबसूरती बढ़ा सकती है। बहरहाल तालाब पाटने को लेकर मंत्री की रूचि की वजह से लोग सामने नहीं आ रहे हैं और दबी जुबान पर इसकी चर्चा चल रही है।

छोटों की लड़ाई, जनसंपर्क में मलाई

वैसे तो कोई अखबार छोटा-बड़ा नहीं होता यह बात जिसके बारे में खबर छपती है उससे पूछा जा सकता है लेकिन छत्तीसगढ़ में जनसंपर्क विभाग ऐसा विभाग है जो अखबारों को छोटे-बड़े में नापता है। छत्तीसगढ़ जनसंपर्क ने अखबारों की मुख्यत: तीन श्रेणी बनाई है पहला नेशनल, भले ही प्रदेश के बाहर से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं का सुर्कुलेशन हजार-पांच सौ हो या छत्तीसगढ में 200 प्रतियां ही क्याें न बिकती हो वह नेशनल हो जाता है और उसे उसी ढंग से महत्व दिया जाता है। दूसरी श्रेणी में नवभारत, भास्कर, नई दुनिया जैसे अखबार होते हैं और तीसरी श्रेणी सांध्य दैनिकों या राय में छपने वाली साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पत्र-पत्रिकाओं की है।
नेशनल हो या दूसरी श्रेणी के अखबार इन्हें जनसंपर्क विभाग से कभी दिक्कत नहीं होती और यदि हुई भी तो वे सीधे मुख्यमंत्री तक पहुंच जाते हैं लेकिन जनसंपर्क विभाग का रवैया तीसरी श्रेणी मानी जाने वाली पत्र-पत्रिकाओं के साथ इसी श्रेणी की होती है सरकार भी ऐसे लोगों के लिए कोई नीति नहीं बनाती परिणाम स्वरुप ये लोग सेटिंग में लग जाते हैं। आपस में लड़ाई भी इनमें यादा है इसलिए जनसंपर्क कुछ को दाना डाल अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। प्रदर्शन विज्ञापन इन्हें दिया जाता है वह भी 3-5 हजार में यदि किसी ने थोड़ी ताकत दिखाई तो दस हजार तक पहुंचा जा सकता है। ऐसे छोटे अखबार वाले जो जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों की चमचागिरी नहीं कर पाते वे अब एक मंच की तलाश में लगे हैं ताकि कोई विज्ञापन नीति बनाई जा सके।
और अंत में....
जनसंपर्क के नियमित सूची से हकाले गए एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक बेहद दुखी है और वे इस बारे में जनसंपर्क का पोल खोलने में इधर उधर खबर के लिए भटक रहे हैं ऐसे में विभाग में एक जगह उन्हें सलाह मिली कुछ नहीं कर पाओगे पैसा ऊपर तक पहुंचता है।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

शहादत पर राजनीति

प्रदेश के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने बस्तर की घटना पर सीधे सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर प्रहार कर यह बताने की कोशिश की है कि नक्सलियों की शहादत से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। इस पर कांग्रेस से केवल पूर्व मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जबकि लग रहा था कि डॉ. रमन सिंह के इस बयान से कांग्रेसी तिलमिला जाएंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ तो इसके पीछे कांग्रेस नेताओं का बिक जाने की चर्चा है। शहादत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए लेकिन छत्तीसगढ में राय बनने के बाद कांग्रेस और भाजपा में राजनीतिक फायदे की लड़ाई लड़ी जाती है उन्हें इस बात से कतई कोई मतलब नहीं है कि यहां कोई क्या कर रहा है।
यही वजह है कि जोगी शासन काल में असली मुद्दों को छोड़ भाजपा ने जोगी के घोटाले की बारात तो निकाली लेकिन सत्ता में आते ही कुछ नहीं किया। नई राजधानी का विरोध तो किया लेकिन सत्ता में आते ही राजधानी बनाने में लग गए। कांग्रेस भी यहां जो कुछ कर रही है वह सिर्फ अपने राजनैतिक लाभ के लिए कर रही है। क्या कांग्रेसी सिर्फ इसलिए डॉ. रमन के खिलाफ कुछ नहीं कहते क्योंकि वे नाराज हो जाएंगे यदि यह आम चर्चा सच है तो मिल बैठकर लुटने की ऐसी अंधेरगर्दी कहीं नहीं हो सकती। प्रदेश के कांग्रेसी इन दिनों डॉ. रमन सरकार को बर्खास्त करने की मांग पर अड़ी हुई है वह भी तब जब बस्तर नरसंहार के बाद उनके केन्द्रीय गृहमंत्री ने नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर ली है। कांग्रेस तब क्यों खामोश रही जब डॉ. रमन सरकार बाल्को हादसे पर वेदांता के अनिल अग्रवाल को बचा रही थी या कमलेश्वर अग्रवाल और डॉ. खेमका को मंडी समिति की जमीन कौड़ी के मोल दे रही थी या पुष्प स्टील को खदान दे रही थी या गृहमंत्री ननकीराम कंवर का कानून व्यवस्था पर दलाल-निकम्मा का तोहमत लगा रहे थे। दो-दो मंत्री के रहते राजधानी में लगातार बिगड़ती कानून व्यवस्था पर कांग्रेसी चुप क्यों रहते हैं। पर्यटन में करोड़ों अरबों के घपले और पीडब्ल्यूडी मंत्री पर कमीशनखोरी की चर्चा हो या मंडी कर्मचारी के आत्महत्या का मामला हो। यह सच है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति दयनीय है। राजधानी में अपराध के ग्राफ बढ़े हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों की मनमानी ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है।
सचिव से लेकर मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। संविदा नियुक्ति के नाम पर नेताओं और अधिकारियों के रिश्तेदारों को ढूंसा जा रहा है। तब भी कांग्रेसियों ने मुद्दा नहीं बनाया तब भला बस्तर नरसंहार को लेकर वह किस मुंह से डा. रमन के बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। इस मांग पर डा. रमन को भी सोनिया- राहुल का नाम नहीं घसीटना चाहिए लेकिन वे जानते हैं कि उनकी कोप से कांग्रेसी घबराते हैं इसलिए वे कुछ नहीं कहेंगे। वास्तव में बस्तर में जो कुछ हुआ उसके बाद राजनीति नहीं होनी चाहिए।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

जिस केस का वकील उसी का आर्बिटेटर बना

घोटालेबाजों का जमानामहाधिवक्ता है सुराना-४
देवराज सुराना व उनके परिवार की कंपनियों द्वारा मंदिर और आदिवासियों की जमीन हड़पने की कहानी के बीच हाईकोर्ट को अंधेरे में रखकर आर्बिटेटर (मध्यस्थ) बनने की कहानी भी अजूबा है और यह सब इतनी चालाकी से किया गया कि कोर्ट तक को अंधेरे में रखा गया या कोर्ट को धोखा दिया कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
इस सबके बाद भी महाधिवक्ता बने रहने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है यह सवाल जन मानस में तैर रहा है। महाधिवक्ता देवराज सुराना जनसंघ के जमाने से वकीली के साथ राजनीति से जुड़े रहे और वे चुनाव तक लड़ चुके हैं शायद पार्टी में उनकी सेवा ने ही भाजपा सरकार को उन्हें महाधिवक्ता बनाने की प्रेरणा दी हो। वैसे भी अपराधियों से गठजोड़ राजनीति की नई कहानी नहीं है। इस बार पर हम यहां ऐसे मामले का खुलासा कर रहे हैं जो उच्च न्यायालय को धोखा देने की कहानी को बयान करती है। दरअसल पूरे मामले की कहानी सदानी मार्केट और गुढ़ियारी के थोक व्यापारियों के बीच चल रहे विवाद की है। बताया जाता है कि गुढ़ियारी मार्केट को सदानी मार्केट में
शिफ्ट करने का मामला जब कोर्ट पहुंचा तो देवराज सुराना को सदानी मार्केट की तरफ से वकील नियुक्त किया गया और बाद में जब मामला उलझता गया और हाईकोर्ट ने जब इस मामले को सुलझाने आर्बिरेटर नियुक्त करने का फैसला लिया तो गुढ़ियारी के व्यापारी यह देखकर दंग रह गए कि देवराज सुराना को ही आर्बिटेटर बनाया गया। जबकि नियमानुसार केस में नियुक्त वकील को आर्बिटेटर नहीं बनाया जा सकता।
इस मामले में पता चला कि देवराज सुराना ने हाईकोर्ट को धोखा दिया और यह बात छिपाई कि वे इस केस में वकील रहे हैं। इधर यह भी पता चला है कि गुढ़ियारी थोक व्यापारी इस मामले को कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं। इधर देवराज सुराना के आर्बिरेटर बनने से गुढ़ियारी के व्यापारियों को न्याय की उम्मीद नहीं है और वे कहते हैं कि आर्बिरेटर यानी भगवान होता है और जो किसी का वकील हो वह कैसे सही फैसला देगा। बहरहाल इस मामले को लेकर गुढ़ियारी के व्यापारियों में बेहद आक्रोश है और वे इस मामले में शीघ्र ही निर्णय ले सकते हैं।
मंत्री का है साथ तो

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

जमीन नपवाने में लगे पत्रकार

छत्तीसगढ क़ी राजधानी में वैसे तो एक से एक धुरंधर पत्रकार है और इनमें से कई ऐसे हैं जो अपने नाम का खाते हैं इन्हें बैनर से यादा मतलब नहीं है। ऐसे ही एक पत्रकार की ईच्छा है कि भ्रष्टाचार को अखबारों से ही खत्म किया जाए। हालांकि प्रतिद्वद्विता के कारण यह बताना मुश्किल हो जाता है कि कौन पत्रकार किस प्रेस में काम कर रहा है। आए दिन पत्रकार मोटी तनख्वाह के फेर में अखबार बदल रहे हैं और इसके साथ ही उनकी विश्वसनियता भी बदलने लगी है यानी मालिक की पॉलिसी के मुताबिक चलना मजबूरी आदत बनते जा रही है। यही वजह है कि कई पुराने खाटी पत्रकार इधर-उधर हो गए हैं और उनकी इच्छा है कि अवैध कब्जों और पैसे के दम पर भू-उपयोग बदलने को लेकर नगर निगम कोई रणनीति तैयार करें।
इनका कहने का मतलब साफ है कि अखबार वालों ने भी सरकार जमीनों पर कब्जा किया है और ऐसे कब्जे तो हटे ही लीज की शर्तों का भी पालन होना चाहिए तब कहीं जाकर पत्रकारों की विश्वसनियता पर सवाल उठने बंद होंगे। अखबार चलाने ली गई जमीनों पर जिस तरह से व्यवसायिक भवन का निर्माण हो रहा है उससे आम लोगों का सवाल उठाना स्वाभाविक है। ऐसे में फिल्ड में काम करने वाले पत्रकारों को ही मालिक की करतूतों को सुनना ही पड़ता है। रजबंधा मैदान में बड़े-बड़े अखबारों के कब्जे को लेकर न केवल सवाल उठ रहे हैं बल्कि नए महापौर किरणमयी नायक से भी ऐसे पत्रकार उम्मीद कर रहे हैं कि वह कुछ करें।
और अंत में....
शहर में जिद करों और एक अखबार सारा संसार का नारा देने वाले अखबार के शॉपिंग माल की चर्चा इन दिनों जोरों पर है कहा जा रहा है कि भू-उपयोग बदलने में सरकार ने भी रूचि दिखाई और अखबार की दफ्तर की जगह शॉपिंग मॉल जल्द नजर आएगा। यदि किसी ने आपत्ति नहीं की तब।

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

प्रदेश के बड़े मगरमच्छों के खिलाफ 6 सौ मामले...

अब छत्तीसगढ क़ा क्या होगा
सरकार मामला दबा रही

छत्तीसगढ़ राय बनने के बाद यहां के उच्च पदस्थ अधिकारियों और मंत्रियों ने चौतरफा लूट मचा रखी है और यही वजह है कि लोक आयोग जैसी संस्था में शिकायतों का ग्राफ बढता जा रहा है और सरकार खुद को बचाने किसी भी मामले में कार्रवाई नहीं कर रही है।
छत्तीसगढ़ राय निर्माण के बाद वैसे तो सरकार ने लोकायुक्त के मुकाबले लोक आयोग का गठन कर अपनी मंशा जाहिर कर दी थी कि वह अपने नेताओं और मंत्रियों को किस तरह से संरक्षण देना चाहते है और अब राय निर्माण के दस साल में यही सब हो भी रहा है। बताया जाता है कि लोक आयोग के पास लगभग 6 सौ मामले लंबित है। इनमें सरकार के कई महत्वपूर्ण मंत्री और अधिकारियों के नाम है। हालत यह है कि इन लोगों के खिलाफ मिली शिकायतों की ठीक से न तो जांच हो रही है और न ही जांच में सहयोग ही किया जा रहा है।
वैसे लोक आयोग ने पिछले साल दर्जनभर मामले में कार्रवाई के लिए राय सरकार से अनुशंसा भी की थी लेकिन पता चला है कि इस मामले में सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है।
छत्तीसगढ़ में निर्माण के क्षेत्र में खासकर पीडब्ल्यूडी, पर्यटन, सिंचाई, स्वास्थ्य, खनिज और पंचायत विभाग में भारी भ्रष्टाचार करने की खबर है और मंत्री से लेकर अधिकारियों के खिलाफ मय सबूत शिकायतें की गई है लेकिन इन मामलों की जांच तक नहीं हो रही है इस संबंध में बताया जाता है कि सरकार जानबूझकर बल की कमी उत्पन्न कर रही है जिससे चौतरफा जांच प्रभावित हो वहीं सरकार के दबाव की भी चर्चा है।इधर पता चला है कि यदि लोक आयोग को सरकार छूट दें तो प्रदेश के आधा दर्जन मंत्री और दर्जनभर से अधिक अधिकारी कटघरे में जा सकते हैं। ऐसे में सरकार अपनी बदनामी से बचने आयोग की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में फेंक रही है। दूसरी तरफ इस बार बजट सत्र में रिपोर्ट नहीं पेश करने को लेकर भी सरकार कटघरे में है और कहा जा रहा है कि मानसून सत्र में रिपोर्ट पेश की जाएगी। बहरहाल लोक आयोग पर दबाव को लेकर रमन सरकार कटघरे में है और कहा जाता है कि प्रदेश के भ्रष्ट मगरमच्छों को बचाने की कोशिश हो रही है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

संवाद में 18 करोड़ का घोटाला...


आडिट आपत्ति के बाद लीपापोती शुरु
अपने निर्माण के साथ ही विवादों में घिरे छत्तीसगढ़ संवाद में अनियमितता की कहानी थमने का नाम नहीं ले रही है संविदा नियुक्ति के मामले में लेन-देन में फंसे यहां के अधिकारी अब छत्तीसगढ क़े बाहर से प्रकाशित होने वाले कथित नेशनल अखबारों को व्यवसायिक दर पर विज्ञापन देने के मामले में बुरी तरह फंस गए हैं। इस मामले में अधिकारियों द्वारा कमीशनखोरी की भी चर्चा है और अब आडिट आपत्ति के बाद इस मामले की लीपा-पोती की जा रही है। मुख्यमंत्री के विभाग में चल रहे घपलेबाजी के उजागर होने के बाद भी किसी तरह की कार्रवाई नहीं होने पर सीधे सचिव बृजेन्द्र कुमार पर उंगली उठने लगी है।
छत्तीसगढ़ बनने के बाद राय सरकार के विज्ञापन से मिलने वाले कमीशन पर खड़ा संवाद के अधिकारी कमीशनखोरी में मस्त हो गए हैं। वैसे तो संवाद में यह सब नया नहीं है। पहले किराये के भवन में संचालित होने को लेकर विवाद में रहे जनसंपर्क के अधिकारियों पर कमीशनखोरी का आरोप लगते रहा है। इसके बाद संविदा नियुक्ति के मामले में संवाद विवादों में घिरा लेकिन मुख्यमंत्री का विवाद होने के कारण कोई कार्रवाई नहीं हुई और यहां के अधिकारियों द्वारा मुख्यमंत्री के नाम से धमकी-चमकी देने की वजह से कई पत्रकारों की नौकरी तक खतरे में पड़ चुकी है।
ऐसे में इस विभाग में चल रहे घपलेबाजी की तरफ कोई देखना ही नहीं चाहता और प्रकाशन से लेकर विज्ञापनों के डिजाईन के नाम पर मनमाने रुप से अनियमितता की जा रही है हालत यह है कि करोड़ों की संपत्ति के स्वामी होते यहां के अधिकारियों की शिकायतों की फाईलें दब जाती है और सूचना का अधिकार कानून भी यहां आकर दम तोड़ देता है। ताजा मामले का खुलासा तब हुअआ जब आडिट विभाग ने तथा कथित नेशनल अखबारों को विज्ञापन के नाम पर भुगतान पर आपत्ति की। दरअसल इन अखबारों को डीएवीपी रेट से भुगतान करने की बजाय व्यवसायिक दर पर भुगतान किया गया जो डीएवीपी दर से 10 गुणा अधिक होता है।
बताया जाता है कि डीएवीपी की बजाय व्यवसायिक दर पर भुगतान की कहानी कमीशनखोरी से जुड़ी हुई है और हर भुगतान के एवज में 10 फीसदी राशि अलग से लिए जाने की चर्चा है। बताया जाता है कि आडिट आपत्ति के बाद अफसरों ने इस पर लीपापोती का खेल शुरु कर दिया है और यह सब उच्च स्तर पर किया गया। बताया जाता है कि लीपापोती के तहत उन अखबारों को डीएवीपी की दर पर पुन: विज्ञापन दिए जा रहे हैं ताकि भुगतान को एडजेस्ट किया जा सके। इसी तरह इसकी कहानी भी गढ़ी जा रही है।
इधर यह भी पता चला है कि इस मामले में ऊपर तक पैसा पहुंचाये जाने का हल्ला है। किस स्तर तक पैसा पहुंचाया गया है यह तो जांच का विषय है लेकिन प्रदेश के मुखिया के विभाग में चल रहे 18 करोड़ के इस घपलेबाजी को लेकर कई तरह की चर्चा है और कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री और सरकार की छवि बनने वाले इस विभाग की करतूत से सरकार की छवि पर भी असर पड़ेगा। बहरहाल मुख्यमंत्री के विभाग में ही चल रहे भ्रष्टाचार की आम लोगों में बेहद चर्चा है और कहा जा रहा है कि सालों से जमें अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं हुई तो स्थिति और भी बदतर होगी।

ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने पीडब्ल्यूडी में गड़बड़झाला

लागत मूल्य बढ़ाकर की जाती है करोड़ों की कमाई
छत्तीसगढ़ में पीडब्ल्यूडी विभाग ने भ्रष्टाचार के नए तरीके ईजाद किए है और इसके चलते यहां के अधिकारी हर साल करोड़ों रुपए कमा रहे हैं। आरोप तो मंत्री बृजमोहन अग्रवाल पर भी लगाए जा रहे हैं कि उनके आने के बाद शुरु हुए इस खेल में ठेकेदारों को तो फायदा पहुंचाया ही जा रहा है बल्कि घटिया निर्माण के एवज में 20 से 25 प्रतिशत कमीशन तक लिए जा रहे हैं।
छत्तीसगढ में पीडब्ल्यूडी विभाग में जिस तरह से घपलेबाजी की जा रही है वह आश्चर्यजनक है। बताया जाता है कि पैसे कमाने के नए-नए तरीके ईजाद किए जाने की वजह से निर्माण का स्तर न केवल निम्न दर्जे का हो गया है बल्कि सरकार को भी हर साल करोड़ों-अरबों रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है। बताया जाता है कि पिछले माह पीडब्ल्यूडी ने दर्जनभर ई टेण्डर जारी किया था और इसके लिए ठेकेदारों को पहले से ही तैयार कर लिया गया था जिसके तहत इन कामों को 35 प्रतिशत बिलों पर टेण्डर स्वीकृत कर लिया गया।
एक ठेकेदार ने आश्चर्य व्यक्त किया कि जब 20 से 25 प्रतिशत राशि विभाग के अधिकारियों व उच्च पदस्थ लोगों को कमीशन के रुप में दिया जाता है तब भला 35 प्रतिशत बिलों पर कोई काम कैसे कर सकता है और इसे मिला दिया जाए तो यह राशि 50 प्रतिशत से अधिक होती है। इस बारे में जब छानबीन की गई तो पता चला कि यह सब मंत्रालय स्तर पर रचा गया खेल है जिसके तहत चहेते ठेकेदारों को 35 प्रतिशत बिलों में टेण्डर भरने कहा गया था।
बताया जाता है कि इस रेट पर क्वालिटी से समझौता तो किया ही जा रहा है निर्माण में भी अत्यंत घटिया दर्जे के करने की छूट दी गई है। इधर यह भी पता चला है कि अपने चेहतों को टेंडर देने यह रणनीति जानबूझकर अपनाई जाती है और बाद में निर्माण लागत में वृध्दि कर दी जाती है ताकि ठेकेदारों को इस दर पर भी कोई घाटा न हो। राजधानी के दमदार माने जाने वाले मंत्री बृजमोहन अग्रवाल इस विभाग के मंत्री है और कहा जाता है कि इस तरह के खेल की जानकारी उन्हें भी है। दूसरी तरफ हाल में दिए गए दर्जनभर टेण्डर को लेकर कई तरह की चर्चा है और कहा जा रहा है कि इस मामले में जमकर कमीशनखोरी हुई है।इधर पीडब्ल्यूडी में पदोन्नति को लेकर हुई लेनदेन का मामला कोर्ट में जाने से हड़कम्प मचा हुआ है। बहरहाल पीडब्ल्यूडी में चल रहे व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार की कहानी आम लोगों में चर्चा का विषय है और कहा जा रहा है कि यदि मुख्यमंत्री ने यहां हस्तक्षेप नहीं किया तो डामर कांड से भी बड़ा कांड उजागर हो सकता है। जिसका जवाब देना सरकार को मुश्किल होगा।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

अब मुख्यमंत्री का मौन!


छत्तीसगढ ही नहीं पूरा देश बस्तर में जवानों की मौत से स्तब्ध है। कांग्रेस और भाजपा नक्सली समस्या को लेकर एक दूसरे का मुंह नोच रहे हैं और आम आदमी तमाशाबीन है। वह जानना चाहता है कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है। सरकार क्या कर रही है। उसे इस बात से भी मतलब नहीं है कि नक्सली समस्या का मामला केन्द्र का है या राज्य का। पिछले 6 सालों से डा. रमन सिंह मुख्यमंत्री है और उन्होंने इस समस्या को हल करने क्या कदम उठाये हैं।
राजनैतिक बयानबाजी या गलतियां एक दूसरे पर थोपने की राजनीति से आम लोगों को कोई लेना देना नहीं है। हर बार शहीद होते जवानों के लिए मोमबत्तियां जलाने का सिलसिला कब खत्म होगा। क्या सलवा जुडूम ही इस समस्या से छुटकारे का उपाय है नहीं तो फिर सरकार ने इसे प्रश्रय क्यों दिया। जवानों की बलि और आदिवासियों को भेड़ बकरी की तरह काटे जाने का यह सिलसिला चलता रहेगा। यदि पिछली कांग्रेस सरकार ने नक्सलियों को नहीं छेड़ने की गलती की है तो फिर 6 सालों में भाजपा शासनकाल ने क्या किया। क्या यह सच नहीं है कि छत्तीसगढ में नक्सलियों ने समनान्तर सरकार चला रखी है जहां सिर्फ उनका कानून चलता है और आदिवासी भेड़ बकरी की तरह कभी पुलिस तो कभी नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं।
यदि नक्सलियों से भिड़ने केन्द्र सरकार सुविधाएं नहीं दे रही है तब राज्य सरकार क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रह सकती है। मंत्रियों और अधिकारियों पर हो रहे खर्चों में कटौती कर धन का उपयोग नक्सली समस्या को दूर करने में लगाने की बजाय 18 हजार रुपए वेतन बढ़ाने वाली सरकार के पास इस बात का जवाब है कि सुविधा के नाम पर वह केन्द्र को ही क्यों कोसते रही है। छत्तीसगढ में कानून व्यवस्था की स्थिति किसी से छिपी नहीं है और न ही भ्रष्टाचार ही किसी से छिपा है दोषारोपण की लड़ाई में माहिर लोग यह समझ लें कि यह समस्या अब विकराल रुप धारण कर चुका है इसके लिए बाकी निर्माण कार्य रोक कर भी लड़ाई लड़ी जा सकती है।
हर बात के लिए मीडिया पर दोषारोपण करने वाले डा. रमन सिंह ने पत्रकार विनोद दुआ के सवाल पर चुप्पी साध ली तो इसका मतलब साफ है कि कानून व्यवस्था पूरी तरह बिगड़ चुकी है। खुद डा. रमन सिंह के जिले के कलेक्टर को दलाल और एसपी को निकम्मा कहने वाले गृहमंत्री ने विधानसभा में यह बात स्वीकारा है कि थाने वाले दारू वालों की बात ज्यादा सुनते हैं उनकी नहीं। इस स्वीकारोक्ति के बाद भी कोई मुख्यमंत्री यह कहे कि प्रदेश की कानून व्यवस्था नियंत्रण में है तो आम लोग इसे मजाक ही समझेंगे। मुख्यमंत्री अपने दावे में यह कहते नहीं थकते कि उन्होंने दंतेवाड़ा से लेकर सुदूर बस्तर में पचासों सभा ली है और कभी कुछ नहीं हुआ। लेकिन यह कहते हुए वे भूल जाते हैं कि ऐसी सभाओं की तैयारी हफ्ते भर पहले से होती है और वे सुरक्षा जवानों से घिरे भाषण देते हैं। शायद इसलिए विनोद दुआ ने उन्हें बीच में रोक दिया और पूछा था आप महात्मा गांधी नहीं हो जो अत्याचारी अंग्रेजों के सामने लाठी टेककर पहुंच जाते थे।
बस्तर में गांव के गांव उजड़ रहे हैं लोग शिविर में रहने मजबूर है इसके बाद भी हर शहादत के बाद यह कहा जाना कि अब मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा मजाक नहीं तो और क्या है।
कुछ सवाल सीधे मुख्यमंत्री से-
0 छत्तीसगढ क़ो नक्सलियों से मुक्त करने कब और कैसे लड़ाई की जाएगी।
0 क्या केन्द्र पैसा नहीं देगा तो वे पैसे का इंतजाम कैसे करेंगे।
0 सरकारी सुविधाओं में कब तक विस्तार कर अपनी जेबें गरम की जाती रहेगी।
0 नई राजधानी किसके लिए बनाई जा रही है।
0 मीडिया में छापी जा रही भ्रष्टाचार की खबरों पर वे क्या करते हैं।
0 भ्रष्ट नेताओं को मंत्रिमंडल से कबर हटायेंगे।
0 भ्रष्ट अधिकारियों की छुट्टी कब होगी।इसके अलावा भी कई सवाल है जो समय-समय पर सीधे मुख्यमंत्री से पूछे जाएंगे चाहे मुख्यमंत्री कोई भी हो?

सरपंच की हठधर्मिता से उद्यमी आत्महत्या करने मजबूर

विद्युत मंडल भी कनेक्शन देने असहाय
यह तो जिसकी लाठी उसकी भैस की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना कृषि उपकरण के निर्माण के लिए लघु उद्योग लगाने वाले उद्यमी श्रीमती सोनिया को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। कहा जाता है कि भाजपाई सरपंच की दादागिरी की वजह से शासन-प्रशासन भी मूक दर्शक बना है और मामला बिगड़ता जा रहा है।
मामला दुर्ग जिले के पिरदा पंचायत का है। यहां श्रीमती सोनिया ने गांव की बस्ती से 1 किलोमीटर दूर कृष यंत्र के निर्माण के लिए लघु उद्योग स्थापित किया है और सरपंच द्वारा इस पर अड़ंगा लगाया जा रहा है। बताया जाता है कि मामला लेन-देन का है इसलिए सबसे पहले सरपंच ने भूमि के डायवर्सन नहीं होने व गांव की महिलाओं द्वारा शौच जाने की बात कहकर उद्योग को बंद करने की चेतावनी दी और तहसीलदार ने डायवर्सन नहीं होने के नाम पर उद्योग बंद करने कहा।
इसके बाद श्रीमती सोनिया ने एसडीएम से गुहार लगाई तो उन्हें कहा गया कि ग्राम की जनसंख्या दो हजार से कम हो तो डायवर्सन की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है कृषि औजारों और मवेशियों के लिए मकान का निर्माण डायवर्सन करना नहीं है। इस आदेश के बाद भी सरपंच अपने रुख पर अड़ा रहा इस बीच विद्युत कनेक्शन के लिए राशि जमा की गई और विद्युत विभाग ने जब खंभा गड़ाना शुरु किया तो सरपंच ने इसका भी विरोध किया और विद्युत मंडल असहाय है।
इधर उद्यमी श्रीमती सोनिया के पति जयपाल ने आरोप लगाया है कि सरपंच ने रुपए की मांग की थी और नहीं देने पर दादागिरी कर रहे हैं जबकि लघु उद्योग के कारण गांव के दर्जनभर परिवार को रोजगार मिल रहा है। उन्हाेंने कहा कि वे पुलिस से लेकर सभी लोगों का चक्कर लगा चुके है लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा है और उसके सामने आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस संबंध में जब सरपंच बलदेव परघानिया से बात करने की कोशिश की गई तो वे उपलब्ध नहीं हुए।

आरडीए पर कमल भारी

बजट की आधी राशि कमल विहार में खर्च होगी
आम लोगों की शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए रायपुर विकास प्राधिकरण ने अपने कुल बजट की आधी राशि कमल विहार योजना में खर्च करने का निर्णय ले लिया है। जबकि इस योजना का सांसद रमेश बैस कई विधायकों सहित हजारों लोगों द्वारा विरोध किया जा रहा है।
यह सरकार की हठधर्मिता है या नौकरशाहों की मर्जी यह तो वहीं जाने लेकिन जिस कमल विहार योजना को बंद करने की मांग उठ रही है इसी योजना को आरडीए न केवल चालू रखने तत्पर है बल्कि अपने कुल बजट की आधी राशि तक इसमें लगा रहा है।
अपनी योजना को पूरा करने आरडीए ने हुडको से 500 करोड़ रुपया ऋण लेने का भी निर्णय ले लिया है और इसकी गारंटी राय सरकार द्वारा लिए जाने की खबर है। यही नहीं इसे हर हाल में पूरा करने तमाम हथकंडे अपनाने की भी खबर है।
उल्लेखनीय है कि कमल विहार योजना का न केवल आमलोग बल्कि भाजपा के सांसद और विधायक तक विरोध कर रहे है। सांसद रमेश बैस के अलावा कई भाजपा नेताओं का मानना है कि नगर निगम चुनाव में हार की वजह कमल विहार योजना ही रही है और इसे जनता की राय समझकर यह योजना बंद की जानी चाहिए। इन तमाम दलीलाें को नजरअंदाज करके भी कमल विहार योजना को लागू की जा रही है। बहरहाल आरडीए के इस बजट को लेकर भाजपा में ही तीखी टिप्पणी की जा रही है।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

पुरस्कार पाने के आसान नुश्खे...

छत्तीसगढ राय बनने के बाद अन्य लोगों की तरह पत्रकारों में भी पुरस्कार पाने की होड़ मच गई है और पुरस्कार पाने पत्रकार भी तिकड़म करने लगे है। वैसे तो पत्रकारों को हर जगह सम्मान मिलता ही रहता है। राय बनने के बाद कुकुरमुमत्ते की तरह उग आए संस्थाएं अपनी खबर छपाने पत्रकारों को आए दिन सम्मानित करती है।
इस सबके बावजूद कई पत्रकार ऐसे हैं जो राय स्थापना के अवसर पर दिए जाने वाले फैलोशिप को पुरस्कार के रुप में लेने गणितबाजी करते हैं तो कई पत्रकारों का ध्यान विधानसभा द्वारा आयोजित उत्कृष्ठ रिपोर्टिंग पुरस्कार के लिए लगे रहते हैं। नवम्बर में रायोत्सव बनाम लुटोत्सव में दिए जाने वाले पुरस्कार कैसे किसे दिए जाएंगे यह अब मंत्री पर निर्भर होने लगा है और आखिरी वक्त पर नाम की घोषणा की जाती है। इस बार जिसे दिया गया उसके मैग्जीन के अंक में मंत्री भाई की तारीफ के पुल बांधे गए थे।
विधानसभा में इस बार दिए गए पुरस्कार की अपनी ही कहानी है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष ने अपने खास इस पत्रकार को पास दिलाने एड़ी चोटी लगाकर थक गए थे तब भी पिछली बार पास नहीं बना और इस बार पास भी बना तो पुरस्कार भी मिल गया। अब रसीदी टिकिट में दस्तखत करवाकर पुरस्कार राशि लिए जाने का मोह कोई कैसे छोड़ सकता है वह भी जब सेटिंग करके पुरस्कार पाने की कोशिश की गई हो।
छत्तीसगढ राय बनने के बाद तो मालिक भी पुरस्कारों में रूचि लेने लगे हैं और अपने चहेते पत्रकारों को पुरस्कृत करने लॉबिंग भी करने लगे हैं अब हर किसी को तो पुरस्कार दिया नहीं जा सकता इसलिए जिसे नहीं मिला या जिसकी नहीं सुनी गई उसे ओब्लाईज करने के नए तरीके ईजाद किए जा सकते हैं।
और अंत में...
पत्रकारिता पुरस्कारों को लेकर पिछले दिनों जब पत्रकारों में बहस चल रही थी तो जनसंपर्क का एक अधिकारी ने रहस्य खोला कि पहला पुरस्कार किस अधिकारी के रूचि पर दिया गया। यह सुनकर कई पत्रकार ने ऐसे पुरस्कार पाने से ही कान पकड़ लिया।

शराब से सराबोर सरकार

कभी एक जमाना था जब छत्तीसगढ धान का कटोरा कहलाता था लेकिन मध्यप्रदेश के तत्कालीन सरकारों ने ऐसी लूट मचाई कि छत्तीसगढ़ राय की मांग उठने लगी और मांग पूरी हुई तो सरकार ने धान के इस कटोरे को दारू से लबरेज कर दिया।
नई आबकारी नीति में सरकार ने दारू ठेकेदारों को इतना प्रश्रय दिया है कि वे समनान्तर सरकार चलाने लगे हैं। प्रदेश के गृहमंत्री ननकीराम कंवर के अनुसार तो पुलिस वाले उनकी बजाय दारू वालों की बात मानते हैं। यह अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है। दारु ठेकेदारों द्वारा खुले आम कानून का उल्लंघन किया जा रहा है और प्रशासन शिकायतों के बाद भी कार्रवाई नहीं कर रही है। जब धार्मिक स्थलों व शैक्षणिक संस्थानों के नजदीक दारू दुकान बंद नहीं कराई जा सकती तब भला सरकार ऐसे नियम बनाती ही क्यों है।
छत्तीसगढ़ के राजधानी में ही नियमाें का उल्लंघन करने वाली ऐसी दर्जन दुकानों को हटाने की मांग नागरिक कर रहे हैं। दुकानें तो हटाई नहीं जा रही है उल्टा शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे नागरिकों को ही पुलिस द्वारा परेशान किया जा रहा है। विवेकानंद आश्रम से लेकर तेलीबांधा तक जीई रोड में ही धार्मिक स्थलों और स्कूलों के पास दारु दुकान है और इसके विरोध में यहां के लोग सालों से आंदोलन करते आ रहे हैं। दारु ठेकेदारों की मनमानी और गुण्डागर्दी की कहानी तो ग्रामीण क्षेत्रों में सारी इंतेहा पार कर जाती है हालत यह है कि दारु ठेकेदार ही गांव-गांव में अवैध शराब बिकवाते हैं।
दारु दुकानवालों के अंधेरगर्दी का आलम यह है कि कोई उनसे दारु खरीदने पर बिल नहीं मांग सकता। नियमानुसार जिस तरह से दूसरे सामान खरीदने पर बिल दिया जाता है वैसा दारु दुकान में नहीं चलता। पिछले दिनों एक ग्राहक ने जीई रोड स्थित एक दारु दुकान से जब बोतल खरीदी और बिल मांगा तो उस ग्राहक के साथ गाली गलौज तक कर दी गई और ग्राहक ने जब थाने में इसकी शिकायत की तो उसे थाने से ही भगा दिया गया।
अंधेरगर्दी का आलम यहा है कि नेताओं द्वारा दारु ठेकेदारों को खुलेआम न केवल संरक्षण दिया जा रहा है। बल्कि पार्टनरशिप तक किया जा रहा है। वर्तमान सरकार के मुखिया के रिश्तेदार से लेकर तीन मंत्रियों पर दारु ठेकेदारों के साथ पार्टनरशिप की कहानी आम लोगों में जा सकती है। एक दारु ठेकेदार पर तो न केवल गुण्डागर्दी का आरोप है बल्कि इसके द्वारा सदर बाजार जैसे इलाके में ट्रस्ट की जमीन तक निगल रहा है और कलेक्टर ने इसे कैसे अनुमति दी यह भी जांच का विषय है।

राज्य सभा के लिए कौन,थोपने पर कांग्रेसी मौन

छत्तीसगढ़ मेंराज्य सभा सीट को लेकर भीतर ही भीतर कांग्रेसियों में जबरदस्त सुगबुगाहट है और मोहसिना किदवई की तरह आनंद शर्मा या अन्य को थोपे जाने का दबी जुबान पर विरोध भी है लेकिन छत्तीसगढ़ की उपेक्षा के सवाल पर कांग्रेसी मौन है।
कभी केन्द्र में मंत्री देने वाला छत्तीसगढ़ प्रदेश पिछले दशक भर से केन्द्र सरकार की उपेक्षा का शिकार है तो इसकी वजह स्थानीय कांग्रेसियों की बुजदिली को बताया जा रहा है जो रायसभा की सीटों पर भी अपनी बात बेबाकी से नहीं रख पाते। दरअसल छत्तीसगढ क़ांग्रेस इन दिनों कुशल नेतृत्व की शून्यता से उबर नहीं पा रहा है। अजीत जोगी सरकार की पराजय के बाद से ही कांग्रेस में जबरदस्त बिखराव देखा जा रहा है। यह अलग बात है कि कांग्रेस में टूटन नहीं हुई है लेकिन कथित बड़े नेताओं की लड़ाई ने भाजपा को मनमाने तरीके से राज करने की छूट दे रखी है।
पिछली बार राज्य सभा में मोहसिना किदवई को छत्तीसगढ़ से भेजा गया तब भी इसका दबी जुबान से विरोध हुआ और इस बार तो आनंद शर्मा को भेजे जाने की खबर पर बड़े नेता चुप्पी साध रखी है। यह अलग बात है कि राज्य सभा के लिए किसी तरह का बंधन नहीं है लेकिन मोहसिना किदवई ने रायसभा में छत्तीसगढ क़े हितों की कितनी वकालत की है यह भी किसी से छिपा नहीं है। इसलिए इस बार थोपे जाने को लेकर दबी जुबान में विरोध करने वालों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन कथित बड़े नेता अब भी इस मामले में खामोश है।
छत्तीसगढ प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति मुख्यत: दो खेमों में बंट गई है एक खेमा अजीत जोगी का है जिनके पास विधायकों की फौज के अलावा जनसंपर्क भी है तो दूसरा खेमा कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा और जोगी विरोधियों का है। दोनों ही खेमों ने अभी तक रायसभा के लिए खुलकर पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन अजीत जोगी के पुत्र अमीत जोगी के पक्ष में एक गुट का सामने आने को थोपने की परिपाटी का विरोध के रुप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष धनेन्द्र साहू ने अपनी सक्रियता से जरूर कांग्रेस में उर्जा डालने की कोशिश की है लेकिन विधायकों के समर्थन का अभाव और पिछड़े वर्ग के नेता के रुप में प्रचारित कर उन्हें अभी से हाशिये में डालने की कोशिश शुरु हो गई है। ऐसे में मंत्री नहीं बनाने की वजह से उपेक्षा शिकार यहां के कांग्रेसी राज्य सभा में भी उपेक्षा की खबर को लेकर जहां हैरान है वहीं भाजपा एक बार फिर इसे मुद्दा बनाने में लग गया है।

पहली लड़ाई में भारी पड़ी किरण


भाजपा को मुंह की खानी पड़ी...
यह तो आ बैल मुझे मार की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना नवनिर्वाचित पार्षदों की पहली सामान्य सभी की बैठक में भाजपा को मुंह की नहीं खानी पड़ती, वहीं अवैधानिक कृत्यों में साथ देने वाले निगम के अधिकारी अब अपनी चमड़ी बचाने में लग गए हैं।
राजधानी के नगर निगम में भाजपा ने अपना सभापति बिठाकर महापौर किरणमयी नायक की राह में कांटे बिछाने का संकेत पहले ही दे दिया था लेकिन भाजपाईयों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस महापौर को वे घेरने जा रही है उसके चक्कर में स्वयं घिर जाएंगे। निगम की पहली बैठक तीन दिन चली या दो दिन इसका फैसला तो बाद में होगा लेकिन बहुमत के बाद भी सत्तापक्ष को परेशान होना पड़ा। दूसरे दिन तो अभूतपूर्व हंगामा हुआ और पार्षदों को भी निगम एक्ट पढना पड़ गया। तीसरी बार पार्षद बने भाजपाई सुनील बांद्रे ने कहा कि दस साल में पहली बार उन्हें निगम एक्ट पड़ना पड़ा तो नेता प्रतिपक्ष सुभाष तिवारी ने महिला पार्षदों की आड़ लेकर महापौर को घेरने की कोशिश की नेता प्रतिपक्ष ने तो महापौर को कानूनबाज तक कह दिया।
भाजपा की ओर से सूर्यकांत राठौर, प्रफुल्ल विश्वकर्मा ने भी मोर्चा खोला जबकि कांग्रेस में प्रमोद दुबे, ज्ञानेश शर्मा ने भाजपाईयों की बखिया उधेड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी। निर्दलीय पार्षदों में दीनानाथ शर्मा, मृत्युंजय दुबे, पूर्णप्रकाश झा ने अपने तीखे तेवर दिखाये। मृत्युंजय ने तो निगम की घटना के लिए दोनों राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए तीखी टिप्पणी की। महापौर के जब बोलने की बारी आई तो उन्होंने साफ कहा कि उन्हें कानूनबाज होने में गर्व है और वे इस बात के लिए सफल हुई हैं कि कल तक पार्टी या बहुमत के कारण बंद आंखों से समर्थन करने वालों को निगम में कानून पढ़ने पढ़े। जबकि उन्होंने नेता प्रतिपक्ष पर महिलाओं की आड़ लेने के लिए आड़े हाथों लिया। महिला पार्षदों ने भी
जमकर हिस्सा लिया

नगर निगम में इस बात बड़ी संख्या में महिला पार्षद जीत कर आई है। इनमें से पहली बार भाजपा से जीत कर आई श्रीमती मीनल चौबे ने निगम के हंगामे की जमकर आलोचना करते हुए कहा कि यहां राजनीति करने की बजाय शहर के विकास पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने अपने प्रभावशाली बातों से नए नेतृत्व उभरने का संकेत दिया। जबकि अन्य महिला पार्षदों ने भी कार्रवाई में जमकर हिस्सा लिया जो आने वाले दिनों में बेहतर नजारें के संकेत हैं।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

10 करोड़ में पदोन्नति , पीडब्ल्यूडी में उन्नति


मंत्री पर भी आरोप , हाईकोर्ट में मामला
छत्तीसगढ़ में उच्चाधिकारियों व नेताओं की करतूत थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। सेवानिवृत्त आईएएस राघवन ने पदोन्नति सूची पर हंगामें पर भले ही कोई कार्रवाई नहीं हुई है लेकिन हाईकोर्ट ने पीडब्ल्यूडी में हुए पदोन्नति पर न केवल रोक लगा दी बल्कि 4 अधिकारियों का पदावतन भी कर दिया। सम्पूर्ण मामले में उच्च स्तर पर 10 करोड़ के लेन-देन की चर्चा है और पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल भी इन आरोपों से अछूते नहीं हैं।
मामले की शुरुआत को लेकर ही संदेह किया गया कि आखिर लोकसभा चुनाव के आचार संहिता लगने के चंद घंटे पहले ही डीपीसी कैसे हो गया। इस संदेह को अमलीजामा पहनाया गरियाबंद में पदस्थ इंजीनियर वर्मा ने। दरअसल प्रमोशन के असली हकदार वर्मा की बजाय शासन स्तर पर जब लेन-देन कर दूसरे इंजीनियर को इएनसी बनाने की चर्चा छिड़ी और आचार संहिता लगने के ठीक पहले डीपीसी को ऐसे बनाया गया जिससे आधा दर्जन से अधिक भ्रष्ट इंजीनियरों को पैसे के दम पर प्रमोशन दिया गया।
बताया जाता है कि इस मामले में अनुसूचित जाति के कोटे से जनवदे को ईएनसी बना दिया गया जबकि वे अनुसूचित जनजाति के कोटे के हैं। इस हेराफेरी की वजह 2.50 करोड़ के लेन-देन को बताया जा रहा है। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है इस डीपीसी के अदला बदली में अग्रवाल, पिपरी सहित सेतु निगम के ऐसे अधिकारियों को पैसा लेकर लाभ दिया गया जिन पर भ्रष्टाचार के आरोपों में विभागीय जांच तक चल रही है। सात लोगों को आनन फानन में प्रमोशन की कहानी से लेन देन की नई कहानी बाहर आने लगी है।
बताया जाता है कि इस मामले में सर्वाधिक प्रभावित गरियाबंद में पदस्थ वर्मा हुए। ईएनसी की दौड़ से बाहर होने को लेकर वर्मा ने जब हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो सारे घपले खुब ब खुद बाहर आ गए और हाईकोर्ट के निर्देश के बाद सेतु निगम के चार उन अधिकारियों को पदवतन (डिमोशन) किया गया जिन पर पैसा लेकर प्रमोशन पाने का आरोप था।
बताया जाता है कि पीडब्ल्यूडी में यह नया खेल नहीं है जब सचिव या मंत्री स्तर पर लेन देन कर पदोन्नति दी गई हो। इसके पहले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बंटवारे के दौरान भी कई तरह का घालमेल हुआ है। ताजा मामला पिंकरी और शर्मा के बीच हुए स्थानांतरण का है जब इंजीनियर ने कार्यपालन अभियंता का पद पा लिया। बहरहाल हाईकोर्ट ने डीपीसी पर बेन लगा दिया है लेकिन मंत्री से सचिव स्तर पर हुए दस करोड़ के लेन की बेहद चर्चा है।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

अपनी अवैध कालोनी के लिए भी खूब षड़यंत्र किया

घोटालेबाजों का जमाना महाधिवक्ता है सुराना-3
हाधिवक्ता की कुर्सी तक पहुंचे देवराज सुराना व उनके परिवार पर न केवल मंदिर व आदिवासियों की जमीन ही हड़पने का आरोप है बल्कि इन पर राय शासन के जल संसाधन विभाग को गुमराह करके नानेश बिल्डर्स द्वारा बनाई अवैध कालोनी को भी वैध करने की कोशिश का आरोप है।
दरअसल प्रदेश में भाजपा की सरकार आते ही इस परिवार ने जिस तरह से अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने हितों के लिए अवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल किया वह अंयंत्र देखने को नहीं मिलेगा। गोपिया पारा पुरानी बस्ती स्थित श्री हनुमान मंदिर की जमीन हो या फिर माना में आदिवासियों की जमीन हो सभी मामले में भाजपा शासन के अधिकारियों की भूमिका रही और कहीं न कहीं इस मामले में सरकार का भी प्रभाव रहा है अन्यथा आनन-फानन में सुराना परिवार के पक्ष में निर्णय नहीं लिए जाते।
ताजा मामला नानेश बिल्डर्स द्वारा बनाई गई कालोनी का है। दरअसल यह कालोनी नहर के पार बनाई गई थी और नहर में पुल बनाए बगैर इस कालोनी के मकान या जमीन नहीं बिकते इसलिए जमीन की अच्छी कीमत पाने सुराना परिवार द्वारा षड़यंत्र रचे जाने की कहानी है। बताया जाता है कि नहर काट कर पुलिया निर्माण के लि षड़यंत्र तो 2001 में ही रच ली गई जब देवराज सुराना के अध्यक्ष वाली देवलिला एजुकेशन सोसायटी ने कार्यपालन यंत्री जल प्रबंध संभाग-1 को एक आवेदन दिया कि उनकी सोसायटी शासन की हुडकों योजना के तहत बढ़ई और राजगिरों को रोजगारोन्मुखी शिक्षा देने के लिए ग्राम माना पहन-116 खसरा नंबर- 7191 जो कि नहर के पीछे होने से पहुंच मार्ग नहीं होने के कारण पुलिया निर्माण किए जाने की बात करते हुए देवलिला सोसायटी ने यह भी कहा कि वह पुलिया निर्माण का पूरा खर्च स्वयं वहन करेगी।
बताया जाता है कि जल संसाधन विभाग ने देवलिला एजुकेशन सोसायटी के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया यहीं नहीं 19-10-2004 को हुडकों ने भी हाथ खड़े कर दिए। लेकिन तब तक भाजपा सत्ता में बैठ चुकी थी और देवराज सुराना का ही प्रभाव था कि जिस पुलिया निर्माण को जल संसाधन विभाग ने अस्वीकार कर दिया था उसी विभाग ने अचानक नियम विरुध्द नि:शुल्क नक्शा स्टीमेट बना कर पुलिया तक निर्माण कर दिया और कहा गया कि जनहित में यह सब किया गया यानी अवैध कालोनी को सुविधा दी गई। इधर जब 2009 में अवैध कालोनी का हल्ला हुआ तब रायपुर विकास प्राधिकरण की ओर से नानेश बिल्डर्स को अवैध विकास कार्य हटाने 18 मार्च 2009 को नोटिस दी गई जिसके विरुध्द निशेघाज्ञा प्राप्त करने नानेश बिल्डर्स ने मामला न्यायालय में पेश कर दिया है।

तब क्या करें ?

कल शाम से लिखने की बिल्कुल भी इक्छा नहीं हो रही थी जब भी लिखने बैठता नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों की छाया सामने आ जाती थी
लेकिन लिखना भी है इसलिए लिख रहा हूँ आखिर यह सब क्यों हो रहा है सरकार कर क्या रही है संसद में हमले के बाद जब तत्कालीन पीएम अटल जी ने सिर्फ आर-पार का ऐलान किया था तब भी मै इतना व्यथित नहीं था
अब तो एक ही सवाल है --
जो सरकार निकम्मी है ,वह सरकार बदलनी है
लेकिन अब इसे भी राजनीती कहा जाता है तब क्या करें ?

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

अस्पताल है या कत्लखाना ?

पैसे की लालच में जान ले ली
डॉक्टरों में भगवान का रूप देखकर अपने अजीजों का जीवन सौंपने वालों को अब समझ लेना चाहिए कि बड़े-बड़े भवनों में अस्पताल चलाने वाले रुपयों की लालच में किसी की जान तक ले सकते हैं। अस्पताल में आए मरीजों से रुपये कमाने की होड़ में लगे डाक्टर अब मरीजों को उचित सलाह देने की बजाय इस चिन्ता में यादा रहते हैं कि मरीज उनकी बजाय दूसरे अस्पताल में न चला जाए। शायद डाक्टर की ऐसी ही लापरवाही की वजह से ही सतीश को अपना बेटा खोना पड़ गया और अब वह अपने बेटे के ईलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाकर डॉ. केदार अग्रवाल, डॉ. जवाहर अग्रवाल, डॉ. ओ.पी. सिंघानिया और डॉ. केडिया के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की मांग को लेकर पुलिस व न्यायालय की शरण में भटक रहा है। पोस्टमार्टम में बच्चे की मौत की वजह जटील मारक आघात बताया गया है।
मामला 18 जनवरी 2010 का है जब कोटा निवासी सतीश ताण्डी के 14 वर्षीय पुत्र मुकेश को पसली के पास दर्द की वजह से अग्रसेन अस्पताल लाया गया। इसके बाद डॉ. केदार अग्रवाल की सलाह पर एक्स-रे और सोनोग्राफी कराया गया। रिपोर्ट देखकर डॉ. केदार अग्रवाल ने पेट में तिल्ली फटने की जानकारी देकर तत्काल आपरेशन कराने की सलाह देते हुए 25 हजार रुपए खर्च बताया। दूसरे दिन सतीश द्वारा 20 हजार रुपए जमा कराया तब बताया गया कि पूरा खर्च करीब 45 हजार रुपये बताते हुए शाम को आपरेशन किया गया।
दूसरे दिन सतीश ने 20 हजार रुपए फिर जमा किया। इसके बाद बच्चे की तबियत बिगड़ने लगी तो डॉ. केदार अग्रवाल ने मरीज मुकेश को लाईफवर्थ अस्पताल के लिए रिफर कर दिया और 22 जनवरी को 11 बजे लाईफ वर्थ में शिफ्ट किया गया। रात में बच्चे के पेट में असहनीय दर्द से जब बच्चे के परिजनों ने हल्ला मचाना शुरु किया तो डाक्टरों की अनुपस्थिति में नर्स द्वारा बच्चे को दवा व इंजेक्शन दिया गया। बच्चे की तबियत बिगड़ते देख परिजनों ने पुन: डॉ. केदार अग्रवाल से संपर्क किया तो उन्होंने डॉ. ओ.पी. सिंघानिया से चर्चा की और फिर ओ.पी. सिंघानिया लाईफवर्थ में राउण्ड में आए और जानकारी दी कि बच्चे के फेफड़े में पानी भर गया और आईसीयू में भर्ती कर दिया गया और अचानक 26 जनवरी को बच्चे को जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया जबकि बच्चे की तबियत में कोई खास सुधार नहीं देखा जा रहा था।
इसके बाद 27 जनवरी को डॉ. जवाहर अग्रवाल ने सतीश को फीस के लिए न केवल डांटा बल्कि राजेश मूणत मंत्री के पास तत्काल सहायता उपलब्ध कराने कहा। तब सतीश भागा-भागा राजेश मूणत के पास गया वहां बताया गया कि 20 हजार सहायता राशि स्वीकृत हो गई है और लाईफवर्थ के नाम पर चेक जारी कर दिया जाएगा। इस सूचना के बाद सतीश ने लाईफवर्थ में अपना गरीबी रेखा वाला स्मार्ट कार्ड जमा करा दिया। इसके बाद 5 फरवरी को मुकेश को अचानक छुट्टी दे गई और 6 फरवरी को बच्चे की तबियत फिर यादा बिगड़ने पर डॉक्टरों के पास दौड़ लगाई तो लाईफवर्थ में पुन: बच्चे को भर्ती कर दिया गया। 8 फरवरी को डॉ. ओ.पी. सिंघानिया ने रात्रि 8 बजे बताया कि आपरेशन की गलती की वजह से अतड़ी चिपक गई है और पुन: आपरेशन करना होगा। इसके बाद राउण्ड में आए डॉ. केडिया ने भी आपरेशन की बात कही।
26 फरवरी को बच्चे का दुबारा ऑपरेशन किया गया लेकिन इसकी जानकारी डाक्टरों ने बच्चे के परिजनों को देने की जरूरत नहीं समझी और इसके बाद भी बच्चे के तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि मामला बिगड़ता गया और 3 मार्च को बच्चे की मौत हो गई। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है सतीश के मुताबिक बच्चे के मौत की खबर छुपाई गई और फीस का तीस हजार रुपए जमा करने दबाव बनाया गया और जब बच्चे के परिजनों ने हंगामा किया तब पुलिस की मौजूदगी में डॉ. अम्बेडकर अस्पताल में पोस्टमार्टम कराया गया तब पता चला कि बच्चे की मौत की वजह पेट में जटील मारक आघात के कारण मौत हुई है।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि इस मामले में न तो बच्चों के विशेषज्ञ डाक्टर को ही बुलाया गया और न ही मरीज के परिजनों को ही उचित सलाह दी गई। इधर सतीश तांडी का कहना है कि मरीज भाग न जाए इसलिए ईलाज न होने के बावजूद फीस के चक्कर में रोका गया। सतीश का यह भी आरोप है कि हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. केदार ने ही पहला आपरेशन किया। इधर इस संबंध में जब अग्रसेन अस्पताल व लाईफवर्थ से संपर्क की कोशिश की गई तो वे उपलब्ध नहीं थे। बार-बार संपर्क की कोशिश बेकार रही। वहीं सतीश ताण्डी ने पूरे घटनाक्रम की शिकायत पुलिस से की है और कार्रवाई नहीं होने पर न्यायालय जाने की बात कही है। राजधानी के बड़े अस्पतालों में चल रहे इस तरह के खेल की आम लोगों में जबरर्दस्त चर्चा है।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

साल में अंदर 20 करोड़ ,पक्ष-विपक्ष का गठजोड़

कहने तो तो छत्तीसगढ़ के विधायक समाजसेवा कर रहे हैं लेकिन वास्तव में इनकी रूचि ऐन-केन प्रकारेण पैसे कमाने की है यही वजह है कि वेतन भत्ते बढाने के मामले में सभी विधायक एक हो जाते हैं और महंगाई से त्रस्त आम आदमी का मामला हाशिये पर चला जाता है। छत्तीसगढ़ के लोगों की गाढ़ी कमाई का 20 करोड़ रुपया हर साल सीधे इन्हीं मंत्रियों व विधायकों की जेब में जाता है।
वास्तव में राजनीति अब व्यवसाय का रूप ले चुकी है। सिध्दांतों की बात करने वाले राजनैतिक दल के नेता पैसा कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए पैसा लेकर सवाल करने का सवाल लगाकर पैसा लेकर गायब होने की परम्परा ने लोकतंत्र के मंदिर को अपवित्र करना शुरू कर दिया है। जनसेवा के नाम पर राजनीति की वकालत करने वाले छत्तीसगढ़ के किसी विधायक ने यह नहीं कहा कि सेवा वे मुफ्त में करेंगे बल्कि अपनी तनख्वाह और भत्ता बढ़ाने गलबट्टियां करने लगते हैं।
छत्तीसगढ़ में बजट सत्र में सरकार ने महंगाई का हवाला देकर जिस पैमाने पर विधायकों के वेतन भत्ते में बढ़ोत्तरी की है वह जनसेवा के नाम पर कलंक है। इस बड़े हुए वेतन भत्ते का हिसाब लगाया जाए तो अब हर विधायक 46 हजार रुपए महिना पायेंगे। आश्चर्य का विषय तो यह है कि आम लोगें की महंगाई की तकलीफ पर आंसू बहाने वाले किसी भी विधायक ने न तो इस विधेयक का विरोध ही किया और न ही किसी ने मुफ्त में जनसेवा करने की बात ही कही। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि राजनीति का वास्तविक उद्देश्य क्या होता जा रहा है। छत्तीसगढ नया राय है और वहां विकास करने की जरूरत है। सरकारी धन का बंदरबांट कर विकास में रोड़ा अटकाया गया तो राय निर्माण की वजह पर सवाल उठेंगे। भ्रष्टाचार तो चरम पर है ही सरकारी अधिकारी अपनी सुविधा के लिए बजट का एक बड़ा हिस्सा चुरा लेते है ऐसे में जनप्रतिनिधि भी सरकारी धन का बंदरबांट करे तो स्थिति विकराल हो सकती है। इसलिए अब आम लोगों को सोचना होगा कि उसे कैसा नेता चाहिए।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

घर के जोगी जोगड़ा , आन गांव के सिध्द

संवाद में भारी अव्यवस्था
सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करने वाले जनसंपर्क और संवाद में इन दिनों भारी अव्यवस्था है। विभाग के पदाधिकारियों द्वारा पैसे खाकर दूसरे प्रांत के कर्मियों को नियमित करने और छत्तीसगढ़ के कर्मचारियों को नौकरी से निकाले जाने का मामला गरमाने लगा है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ संवाद के द्वारा शासन के नियमों को ताक में रख कर छत्तीसगढ़ के बाहर के ऐसे लोग जिनके पास संबंधित पद की शैक्षणिक योग्यताएं और रोजगार पंजीयन नहीं हैं उन्हें नियमित करने की कोशिशें लंबे समय से की जा रही है। समानता का संवैधानिक अधिकार छीने जाने के खिलाफ बोलने वाले कापी राईटर मोहन मिश्रा को सात साल बाद नौकरी से निकाल दिया गया है ताकि सुखदेव राम को लाखों रुपए कमीशन लाकर देने वाले छत्तीसगढ़ के बाहर के कर्मचारियों को नियमित करने में कोई बाधा नहीं आए।
करीबन तीन पहले छत्तीसगढ़ मूल के कर्मचारियों की संविदा अवधि तीन-तीन महीने और छत्तीसगढ़ के बाहर के ऐसे कर्मचारियों जिन्हें काम नहीं आने के कारण नौकरी से निकाले जाने का प्रस्ताव था उनसे पैसे लेकर उनके काम को सर्वश्रेष्ठ बताकर तीन-तीन साल के लिए संविदा अवधि बढ़ा दी गई थी। यहां के कापी राईटर मोहन मिश्रा ने इस अत्याचार के खिलाफ छत्तीसगढ क़े कर्मचारियों को खड़े करने की कोशिश की थी जिसके बाद छत्तीसगढ संवाद के अध्यक्ष डा. रमन सिंह के आदेश से छत्तीसगढ़ के कर्मचारियों की संविदा (तीन-तीन महीने संविदा वाले) एक-एक साल के लिए बढ़ाई गई। नियमित पदों पर भर्ती के लिए नए सिरे से भर्ती प्रक्रिया अपनानी पड़ती है विज्ञापन निकालकर आवेदन आमंत्रित करके लिखित परीक्षा और इंटरव्यू किए जाने का नियम है। उक्त नियम का पालन करते तो उन्हें कमीशन की कमाई देने वाले छत्तीसगढ़ के बाहर के कर्मचारी सव्यसांचीकर, शरदचंद्र पात्र, किशोर गनोदवाले, के.एम. ललिता वापस संवाद में नजर नहीं आएंगे। दिनांक 19-1-2005 को अध्यक्ष छत्तीसगढ़ संवाद डॉ. रमन सिंह के समक्ष आठ कर्मचारियों द्वारा प्रस्तुत आवेदन उल्लेख किया गया था कि छत्तीसगढ़ के बाहर के पांच लोगों सव्यसांचीकर (बंगाल), शरदचंद्र पात्र (उड़ीसा), किशोर गनोदवाले (महाराष्ट्र), के.एम. ललिता और जमीनल चौहान (राजस्थान) की संविदा अवधि तीन-तीन साल के लिए बढ़ा दी गई है। छत्तीसगढ़ के रहवासी मोहन मिश्रा, गोकुल ध्रुव, हेमंत मांजरे, अंजुरानी गोंडाने, सनत कुमार क्षत्री, चंद्रशेखर साहू, द्रोण कुमार कौशल और नीला ध्रुव की संविदा अवधि मात्र तीन-तीन महीने बढ़ाई गई है। उक्त आठ कर्मचारियों ने भी तीन-तीन साल संविदा बढ़ाने की मांग डॉ. सिंह से की थी लेकिन 1-1 साल के लिए उनकी संविदा बढ़ाई गई।
बताया जाता है कि बाहर के जिन पांच कर्मचारियों की संविदा कर्मचारियों की संविदा 3-3 साल बढ़ाई गई पहले उन्हें काम नहीं आने के कारण नौकरी से निकाले जाने का प्रस्ताव सुखदेवराम के वरिष्ठ अधिकारी ने रखा था लेकिन रातों-रात उनका काम सर्वश्रेष्ठ हो गया और संवाद के बोर्ड के सदस्यों को बिना जानकारी के ही इस बात से सहमत होना बताया गया। सुखदेवराम के इस कुकर्म को पुष्ट करने वाली बात यह भी है कि उक्त पांच कर्मचारियों में दो ऐसे हैं जो फाईलों को चढ़ाने उतारने के काम करते थे। बाकी के तीन लोग बड़े पदों से हैं इससे यह साबित होता है कि छोटे पद पर काम करने वाले अच्छे से काम करने वाले नहीं हो सकते हैं। छत्तीसगढ़ संवाद के कार्यालय आदेश के अनुसार दिनांक 4 अक्टूबर 2001 को भर्ती किए गए सभी संविदा कर्मियों को भर्ती के समय आरक्षण नियमों का पालन नहीं किए जाने के कारण दिनांक 16 सितंबर 2002 को (दिनांक एक अक्टूबर 2002 के संविदा अनुबंध की शर्त क्रमांक 18 का हवाला देते हुए) सेवामुक्त कर दिया गया था। इसके बाद दो पदों को छोड़कर बाकी के लिए विज्ञापन निकाला (सभी पदों के लिए निकाला जाना था)। प्रकाशन विशेषज्ञ और लेखाधिकारी पदों का विज्ञापन भी निकाला जाना था, क्योंकि इन पदों पर काम करने वालों सव्यसांचीकर और शरदचन्द्र पात्र को अन्य कर्मचारियों के साथ ही 19 सितम्बर 2002 को सेवामुक्त कर दिया गया था। दोबारा भर्ती में उक्त कर्मचारी (अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता नहीं होने के कारण) वापस नहीं आ सकते थे। इसलिए सव्यसांचीकर और शरदचन्द्र पात्र से रिश्वत लिया और बिना भर्ती प्रक्रिया के दिनांक 12 अक्टूबर 2002 से संविदा नियुक्ति बढ़ा दी। बाकी कर्मचारियों को विज्ञापित पदों के लिए फिर से आवेदन करके भर्ती प्रक्रिया से गुजरना पड़ा जिससे कुछ कर्मचारी वापस संवाद में नियुक्त नहीं हो पाए। अनिवार्य योग्यता नहीं होने और फर्जी अनुभव प्रमाण पत्रों की जानकारी होने पर सी.के. खेताम तत्कालीन मुख्य कार्यपालन अधिकारी ने सुखदेवराम को उक्त कर्मचारियों के प्रमाण पत्रों की जांच पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से कराने के लिए निर्देश किया था। लेकिन सुखदेवराम ने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे उक्त कर्मचारियों से रिश्वत खा चुके थे। प्रकाशन विशेषज्ञ पद पर भर्ती के लिए निकाले गए विज्ञापन की छायाप्रति के अनुसार संबंधित पद के लिए प्रिंटिंग टेक्नालाजी में डिग्री या डिप्लोमा अनिवार्य है। सुखदेवराम द्वारा इस पद पर पदस्थ किए गए बंगाल निवासी सव्यसांचीकरण द्वारा प्रस्तुत आवेदन में प्रिंटिंग टेक्नालॉजी में कोई योग्यता हासिल करने का उल्लेख नहीं है। रोजगार पंजीयन भी प्रमाण के साथ संलग्न नहीं है। मतलब पढ़ाई ऐसे फर्जी विश्वविद्यालय से की गई थी उसका रोजगार कार्यालय में पंजीयन नहीं हो सकता था। अनुभव प्रमाण पत्र की छायाप्रति संलग्न है, जिस संस्था ने अनुभव प्रमाण पत्र बनाया है। उसे खुद को बने ही करीब 3 साल हुए थे। दरअसल इसमें भी एक सौदा हुआ था जिसके अनुसार यहां नियुक्ति के बाद उक्त संस्था को अनैतिक रुप से लाभ पहुंचाने के लिए सव्यसांची द्वारा अब तक शासन को लाखों का चूना लगाया जा रहा है।
बताया जा रहा है कि आज उक्त अनुभव प्रमाण पत्र देने वाली संस्था युगबोध प्रकाशन को भ्रष्ट तरीकों से लाभ पहुंचाया जा रहा है। फर्जी तरीके से नौकरी कर रहे उक्त कर्मचारियों के साथ मिलकर सुखदेवराम द्वारा संवाद से होने वाले कामों में क्वांटिटी और क्वालिटी की हेराफेरी करके और न जाने कितने तरीकों से शासन को लाखों-करोड़ों का चूना रोज लगाया जा रहा है।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

पद का घमंड या संस्कार


क्या बृजमोहन इन सबसे बडे हैं
छत्तीसगढ़ में सरकार के मंत्री और अधिकरियों की करतूतें नई नहीं है। ताजा मामला विधानसभा में आयोजित उत्कृष्ठता अलंकरण समारोह का है जहां मंच पर डॉ. रमन सिंह, रविन्द्र चौबे, धरमलाल कौशिक और कवि सम्राट गोपाल दास (नीरज) के अलावा पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल भी पहुंचे। गद्दे लगे इस स्टेज पर पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को छोड़ सभी ने जूते उतारे। अब इस मामले से क्या अंदाजा लगाया जा सकता है।
दरअसल विधानसभा में हुए इस उत्कृष्ठता अलंकरण समारोह को लेकर कई तरह के सवालों ने इसे विवाद में ले लिया है। अलंकरण समारोह के नाम पर मनमानी और सरकारी रवैये से अतिथियों को अपमानजनक स्थिति से गुजरना पड़ा। बताया जाता है कि इस अवसर पर विख्यात कवि गोपाल दास नीरज को बुलाया गया था उनके कार्यक्रम शुरू होने के पहले देवी सरस्वती की प्रतिमा पर मार्ल्यापण व श्री नीरज को सम्मानित किया जाना था। इस अवसर पर मंच में जब नेताओं को बुलाया गया तो विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक, मुख्यमंत्री रमन सिंह, नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे सहित मंचस्थ सभी लोगों ने जूता नीचे उतार दिया लेकिन पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल जूता पहने ही मंच पर चढ ग़ए। इसे लेकर दर्शकदीर्घा में काना-फूसी भी होने लगी।
मौजूद लोगों ने पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के इस रवैये पर न केवल आश्चर्य जताया बल्कि कटु आलोचना भी की। किसी ने उसके पद पाने की घमंडता पर भाषण शुरू कर दिया तो कई लोगों ने तो संस्कार पर ही सवाल उठाये। बताया जाता है कि इस मामले को लेकर कांग्रेसियों की चुप्पी पर भी सवाल उठाये जाने लगे और कई लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि चूंकि बृजमोहन अग्रवाल की कांग्रेस के कई लोगों से सेटिंग है इसलिए मामला दब गया अन्यथा कोई दूसरा मंत्री होता तो इस करतूत के लिए बवाल मच जाता। बहरहाल इस मामले को लेकर शहर में कई तरह की चर्चा है और कहा जा रहा है कि यह अपमानजनक स्थिति है।
प्रेस नोट से नीरज गायब
इधर बृजमोहन अग्रवाल के जूते पहनकर स्टेज पर चढ़ने का मामले की चर्चा समाप्त भी नहीं हुई है कि श्री नीरज को प्रेस नोट से गायब करने का मामला भी चर्चा में आ गया है। कहा जाता है कि अतिथि को बुलाकर ऐसा अपमान कहीं अंयंत्र देखने को नहीं मिलेगा। क्योंकि श्री नीरज ने वहां जिस प्रकार से शमां बांधा और उन्हें बुलाया गया उसके बाद तो अखबारों को जारी किए जाने वाले प्रेस नोट में नीरज के कार्यक्रमों को स्थान दिया जाना था।