शनिवार, 11 अप्रैल 2015

चार में सेंट्रल रिसर्च लैब तक नहीं बना सकी सरकार


प्रशासनिक आतंकवाद का नमूना...
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। प्रदेश में प्रशासनिक आतंकवाद के चलते राजधानी स्थित डॉ. भीमराव अंबेडकर अस्पताल में प्रस्तावित सेंट्रल रिसर्च लैब चार साल बीत जाने के बाद भी स्थापित नहीं हो पाया है। हालत यह है कि इस ओर न तो स्वास्थ्य मंत्री का ध्यान है और न ही मुख्यमंत्री  का कोई दबाव काम आ रहा है।
मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के निर्देश पर यहां मेकाहारा में सेंट्रल रिसर्च लैब स्थापित किया जाना है और इसके लिए सारी औपचारिकताएं पूरी भी कर ली गई है। लेकिन प्रशासनिक तत्परता की वजह से अभी तक लैब का काम शुरू नहीं हो पाया है जबकि इंडियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च सेंटर ने इसके लिए 6 करोड़ रुपए अनुदान की स्वीकृति भी दे दी है।
प्रदेश के इस सबसे बड़े अस्पताल को सर्वसुविधायुक्त बनाने की बात तो की जाती है लेकिन सुविधाओं के लिहाज से यहां पर्याप्त व्यवस्था के अभाव में मरीजों व उनके परिजनों को भटकना पड़ता है। हालत यह है कि संैपलों की जांच के लिए मेडिकल कालेज से लेकर अस्पताल तक के चक्कर लगााने पड़ते हैं।
बताया जाता है कि इसी को देखते हुए अस्पताल में सेंट्रल रिसर्च लैब स्थापित करने का प्रस्ताव था लेकिन प्रशासनिक लचरता की वजह से चार साल में भी लैब स्थापित नहीं हो पाया है। हालांकि सरकार द्वारा इसके लिए नोडल अधिकारी की नियुक्ति कर दी गई है लेकिन इसके आगे कुछ भी नहीं किया गया।
सूत्रों के मुताबिक सेंट्रल रिसर्च लैब में पैथालॉजी, बायोकेमेस्ट्री व माइक्रो बायोलॉजी विभाग का एक साथ संचालन किया जाना है। इसके चलते माइक्रो बायोलाजी विभाग से संबंधित जांच के सैंपल आज भी मेडिकल कालेज में ही कलेक्ट किया जाता है।
इधर इस संबंध में हमारे सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री व स्वास्थ्य मंत्री ने इस बारे में कई बार पत्र लिखा है लेकिन प्रशासनिक अफसरों के रवैये के कारण ही सेंट्रल लैब की स्थापना में देर हो रही है. जानकारी के मुताबिक राज्य सरकार ने सेंट्रल लैब की स्थापना को मंजूरी देने के बाद भी प्रशासनिक आतंकवाद के चलते ही इसमें विलंब होता जा रहा है।

नियत नहीं मजबूरी...


रमन सरकार ने निगम मंडल व आयोग के अध्यक्षों व सचिवों को सरकारी मकान देने पर रोक लगा दी है। निश्चित ही यह सराहनीय कदम माना जा सकता है लेकिन यदि इसमें यह भी जोड़ दिया जाता कि जिन मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के पास राजधानी में स्वयं का मकान है उन्हें भी बंगले या मकान नहीं दिये जायेंगे तो यह सरकारी धन के दुरूपयोग रोकने में कारगर कदम होता। मगर अफसोस यह है कि यह सरकार की नियत नहीं बल्कि आर्थिक संकट से जूझने की मजबूरी है।
छत्तीसगढ़ जैसे नये राज्य में विकास की अपार संभावना है लेकिन सरकारी धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के चलते विकास की रफ्तार धीमी पड़ गई है। हम यहां प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के मंत्रिमंडल के सदस्यों को एक बार फिर याद करते हैं जिन्होंने मंत्री होने के बाद भी सरकारी बंगला लेने से मना कर दिया था। इसमें सत्यनारायण शर्मा, तरूण चटर्जी, धनेंद्र साहू, मो. अकबर, विधान मिश्रा जैसे मंत्री थे जिन्होंने सरकारी बंगला नहीं लिया था। लेकिन भाजपा की सरकार बनते ही राजधानी में जिन लोगों के बड़े बड़े मकान थे उन लोगों ने न केवल बंगले लिए बल्कि हर साल इस पर करोड़ों रूपए भी खर्च कर रहे हैं। मंत्रियों के बंगलों के रखरखाव में ही सरकार को हर साल करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं।
रमन सरकार में भ्रष्टाचार और सरकारी धन के दुरुपयोग को लेकर विपक्षी दलों व मीडिया  ने कई दफे आवाज उठाई लेकिन बहुमत के दम पर इस तरह की आवाज दबा दी गई।
पिछले दो कार्यकाल में निगम मंडल के अध्यक्षों व सचिवों ने सरकारी धन का जिस बेदर्दी से दुरुपयोग किया वह हैरान कर देने वाला है। आबंटित बंगले तक खरीद लिये गए और सरकार के मुख्यमंत्री इस ओर आंख मूंदे रहा।
हालांकि रमन सरकार के इस निर्णय से सरकारी धन का दुरुपयोग तो रुकेगा लेकिन यह सब सांप गुजरने के बाद लाठी पिटने की स्थिति है।
आर्थिक संकट से जूझ रही सरकार का यह निर्णय नियत की बजाय मजबूरी भरा कदम है यदि नियम है तो मंत्रियों व विधायकों व सांसदों के संबंध में कदम उठाये जाने चाहिए।
इधर इस निर्णय को लेकर भाजपा में असंतोष है तो आर्थिक संकट की वजह से लिए इस निर्णय पर यही कहा जा रहा है कि  सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया ?

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

हाउसिंग बोर्ड भ्रष्टाचार में मशगूल



अपने घर का सपना चकनाचूर, धंधा करने लगा बोर्ड, गुणवत्ता भी कमजोर 
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। छत्तीसगढ़ हाउसिंग बोर्ड के अधिकारियों की करतूतों ने अपने घर के सपने को चकनाचूर कर दिया है। गुणवत्ताविहिन निर्माण ने अपने घर का सपना देखने वालों की गाढ़ी कमाई को लुटते देख परेशान है तो यहां बैठे अधिकारी पहुंच और पैसों की धौंस देकर उपभोक्ताओं की लुटिया डुबाने में लगे हैं।
वैसे तो छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार हर विभाग में आम बात हो गई है। राम नाम की लूट ने आम लोगों की जीवन को नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। इस खेल में हाउसिंग बोर्ड भी शामिल है। सरकारी जमीन पर निर्माण के बाद भी वह निजी बिल्डरों की तरह मकान बेच रही है लेकिन गुणवत्ता का कोई पता नहीं है।
बोरियाकला हाउसिंग बोर्ड की बदहाली तो चीख-चीख कर भ्रष्टाचार की कहानी बयां कर रही है। खिड़कियों व दरवाजे की लकडि?ां को छोड़ दें तो दीवारों में पड़ी दीवारें भी यहां के इंजीनियरों की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। ऊपर से हाऊसिंग बोर्ड के अधिकारियों का रूतबा यह है कि वे ऐसे मकानों को सौंपने उपभोक्ताओं पर दबाव बना रहे हैं।
हमारे सूत्रों के मुताबिक बोरियाकला हाउसिंग बोर्ड में मकान बुक कराने वालों को घटिया दर्जे के इस मकान को सौंपने दबाव बनाया जा रहा है। यहां मकान बुक कराने वाले कई सरकारी कर्मियों व अधिकारियों को धमकाया जा रहा है तो जुबान खोलने पर प्रताड़ित करने की धमकी भी दी जा रही है।
हमारे सूत्रों के मुताबिक पीपल एक में बने बंगलों का बेहद बुरा हाल है। यहां बने बंगालों की दीवारें टेढ़ी है, चौखट दीवारों से अलग हो रहे हैं, बिजली की पाईप जगह-जगह प्लास्ट से बाहर दिखने लगे हैं। छत की डिजाइन को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और ऐसे में मकान का पचेशन लेने के दबाव के चलते उपभोक्ताओं में रोष व्याप्त है।
यहां मकान बुक कराने वाले एक सरकारी अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि मकान का पजेशन शीघ्र लेने उन्हें धमकी दी जा रही है तो एक अन्य सरकारी अधिकारी ने जब गुणवत्ता की शिकायत की तो पहले तो उन्हें चुप रहने धमकी दी गई फिर उनका तबादला अन्यत्र करवा दिया गया।
सूत्रों का कहना है कि हाउसिंग बोर्ड के द्वारा मकान की आड़ में आम लोगों को लूटा है तो यहां पदस्थ अधिकारियों ने भ्रष्टाचार की सारी सीमाएं लांघ दी है। सामानों की खरीदी में तो भ्रष्टाचार  की ही गई गुणवत्ता को भी नजरअंदाज किया गया।
हमारे सूत्रों का दावा है कि यहां के भ्रष्टाचार की रकम कमीशन के रूप में ऊपर तक पहुंचाई गई  और सत्तापक्ष से जुड़े कई नेताओं को अनाप-शनाप कमाने का मौका भी दिया गया।
बहरहाल हाउसिंग बोर्ड के इस रवैये से उपभोक्ता तो परेशान है। भ्रष्टाचार की कहानी भी चौक चौराहे पर सुनाई देने लगी है। अब देखना है कि जीरो टारलेंस की दुहाई देने वाली सरकार हाउसिंग बोर्ड में महामारी की तरह मचाई भ्रष्टाचार से कैसे निपटती है।

मंत्रियों के आगे असहाय मोदी..


जनरल वी.के. सिंह ने मीडिया के लिए जिस तरह के अपशब्द का प्रयोग किया उससे एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने मंत्रियों पर पकड़ के दावे खोलकर रख दिया। भारत सरकार के मंत्रियों की बदजुबानी लगातार बढ़ रही है और प्रधानमंत्री खामोश हैं। सत्ता में आने के पहले भाजपा ने नरेंद्र मोदी की जो छवि गढ़ी थी वह अब चूर-चूर होने लगा है। लालकृष्ण आडवाणी से लेकर जसवंत सिंह को किनारे लगाकर जिस तरह की छवि बनाई गई थी वह बिखरने लगा है। तेज, कड़क, ईमानदार और गफलत बर्दाश्त नहीं करने की कड़ी छवि अब नेस्तानाबूत होने लगा है।
भाजपा को रिकार्ड बहुमत मिलने के बाद पूरी पार्टी को ठीक कर देने का दावा की हवा तो उसी दिन निकल गई थी जब अरूण जेटली, स्मृति ईरानी और नीतिन गडकरी  को मंत्री बनाया गया था लेकिन मोदी प्रशंसक इसे तत्कालीन मजबूरी कहकर टालते रहे और मोदी विद डिफरेंस का नारा देते रहे लेकिन इसकी भी पोल खुलने लगी जब मंत्री साध्वी ने हिन्दुओं को अधिक बच्चा पैदा करने का बयान दे दिया। इसके बाद तो मानो मंत्रियों में अपशब्द कहने की होड़ मच गई। गिरिराज मिश्र से लेकर वी.के.सिंह के बोल शर्मसार कर देने वाला है। लेकिन सारा मामला माफी और निंदा तक ही रह गया।
न खाने दूंगा न खाऊंगा से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चेतावनी नक्कार खाने की तूती बनते गई और वही सब दोहराया जाने लगा जिसकी आलोचना कर भाजपा सत्ता में आई। सबसे दुखद बयान तो गिरिराज मिश्र और जनरल वी.के. सिंह का आया और इन दोनों बयानों के पीछे का षड?ंत्र खोजा जाने लगा है।अब तो आप लोग भी कहने लगे हैं कि सरकार की असफलता से ध्यान भटकाने के लिए ही इस तरह की बयानबाजी की जा रही है तो गिरिराज सिंह के गोरी चमड़ी वाले बयाने के पीछे संघ का मोदी पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। बढ़ती महंगाई और भूमि अधिग्रहण बिल में मोदी सरकार बैकफुट पर आ चुकी है। ऐसे में भले ही मोदी समर्थकों की उम्मीद जीवित हो पर सच तो यही है कि भाजपा की यह सरकार भी उसे ढर्रे पर चल रही है जिस रास्ते की आलोचना करते वह सत्ता तक पहुंची है।ं

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

छत्तीसगढ़ी फिल्म पर भी निर्णय करें..


महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने मल्टीप्लेक्स के लिए एक नया फरमान जारी करते हुए सभी मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों को अपने प्राईम टाईम 6 से 9 के शो टाईम पर मराठी फिल्म दिखाना अनिवार्य कर दिया है। यह सब मराठी फिल्मों को प्रमोट करने किया गया है।
छत्तीसगढ़ में भी छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग सरकारी उपेक्षा की शिकार है। राज्य बने 14 साल हो गये लेकिन न तो फिल्म विकास निगम ही बनाये गये और न ही सरकारी स्तर पर प्रमोट करने के कुछ उपाय ही किये गये। अपने दम पर घिसटते चल रही छत्तीसगढ़ फिल्म उद्योग में महाराष्ट्र सरकार के फैसले से आशा की किरणें यदि देखी जा रही है तो गलत भी नहीं है।
क्योंकि महाराष्ट्र की तरह छत्तीसगढ़ में भी भाजपा की सरकार है। ऐसे में छत्तीसगढ़ी फिल्मों सहित अन्य क्षेत्रीय फिल्मों को प्रमोट के लिए भाजपा शासित राज्यों में मांग उठने लगेगी। जहां तक छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग का सवाल है तो वह पूरी तरह से सरकारी उपेक्षा का शिकार है।राज्य बनने के बाद शुुरूआत में छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लेकर जो आशा बनी थी वह सरकारी नीति के चलते निराशा में बदलने लगी लेकिन छत्तीसगढ़ी निमार्ताओं और कलाकारों ने सरकारी रवैय्ये से कभी भी घुटने नहीं टेके और फिल्म निर्माण में अब भी लगे हैं। हर साल दर्जनों फिल्में बन रही है और कलाकारों के हौसले भी बुलंद है। छत्तीसगढ़ी फिल्म को प्रमोट करने में लगे प्रेम चंद्राकर से लेकर अनुज शर्मा और योगेश अग्रवाल तो मेहनत कर ही रहे हैं। एबेलोन संस्था प्रमुख अजय दुबे ने भी कलाकारों के लिए एवार्ड और सम्मान कार्यक्रम आयोजित कर छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग के लिए आक्सीजन का काम कर रहे हैं।
अपने दम पर चल रहे छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग को राज्य सरकार से अभी भी उम्मीद है और उन्हें लगता है कि देर सबेर इस दिशा में सरकार कुछ न कुछ करेगी। महाराष्ट्र सरकार के मराठी फिल्मों को प्रमोट करने के लिए जारी फरमान को लेकर यहां भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रमोट के लिए रमन सरकार से ऐसे ही कदम उठाने की मांग शुरू हो गई है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि अब छत्तीसगढ़ की सरकार को भी सोचना होगा। हालांकि फिल्म उद्योग से जुड़े एक अन्य पक्ष का कहना है कि छत्तीसगढ़ी फिल्म विकास निगम शीघ्र बनाया जाए।
महाराष्ट्र सरकार के फरमान के बाद छत्तीसगढ़ की रमन सरकार से यदि इस तरह की उम्मीद की जा रही है तो इसमें गलत भी नहीं है। क्षेत्रीय भाषा को लेकर आंदोलन कर रहे बीएल शुक्ला ने तो साफ कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास के लिए सरकार को हर क्षेत्र में कदम उठाने चाहिए तभी छत्तीसगढ़ का विकास होगा।
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