मंगलवार, 27 मार्च 2012

चोर-चोर मौसेरे भाई...


पता नहीं यह कहावत कब बनी और किस संदर्भ में बनी लेकिन 1980 के लोकसभा के चुनाव में यह नारा जन-जन तक पहुंचा था और तभी से राजनीतिक दलों पर यह जुमला फिट बिठाया जाने लगा।
टीम अन्ना के आंदोलन को लेकर भले ही एक बहुत बड़ा तबका उनके साथ है लेकिन जिस तरह से प्रभावी लोकपाल को लेकर राजनैतिक दलों का नजरिया है वह घोर आश्चर्यजनक है। आखिर गरीबी और महंगाई से मुक्ति के लिए भ्रष्टाचार पर अंकुश क्यों नहीं लगाना चाहिए? कड़े से कड़ा कानून क्यों नहीं बनना चाहिए? आखिर संसद में पहुंचने वालों के चाल चेहरा और चरित्र क्यों ठीक नहीं होना चाहिए?
दरअसल भ्रष्टाचार की प्रमुख वजह नहीं तलाश करना ही सारी समस्याओं का जड़ है। अन्ना के प्रभावी लोकपाल के कई मुद्दों से हम सहमत नहीं है लेकिन इस बात पर हमारी सहमति जरूर है कि लोकपाल संसद में ही बने और इस देश में संसद का स्थान सर्वोच्च है।
वास्तव में चाहे राज्य की सरकार हो या केन्द्र की कुछ चीजे कर लेनी चाहिए। संतुलित विकास के लिए मुख्यालयों को राजधानी में रखने की बजाय जिलों में कर देना चाहिए? इसी तरह प्रत्येक सरकारी कर्मचारी वह चाहे किसी भी स्तर का हो उनके लिए संपत्ति की घोषणा नौकरी के पहले ही दिन से अनिवार्य हो और वहीं बात सरपंच से लेकर संसद सदस्यों के लिए भी लागू कर देना चाहिए?
इसी तरह चुनाव लडऩे वालों की जमानत राशि को लेकर भी नियम होने चाहिए। जिस देश में एक बहुत बड़ा तपका गरीबी में या दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद में लगा रहता हो वहां 5 हजार रुपये जमानत राशि रखना उन्हें सीधे-सीधे उनके चुनाव लडऩे के अधिधकार से वंचित करना नहीं तो और क्या है?
सवाल यहीं है कि आखिर इसे लागू कैसे किया जाए। जब जमानत राशि बढ़ाने में राजनीतिक दलों की साजिश हो और भ्रष्टाचार में उनकी सीधे लिप्तता हो तब आम आदमी इसे लागू कराने क्या करें।
इन दिनों अंसतुलित विकास के चलते देश भर में जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं। और यह आंदोलन तो कहीं कहीं हिंसक रूप भी ले चुका है ऐसे में सरकार को चाहिए की वह नये सिरे से इस बारे में सोचे?
एक कहानी चर्चित है कि जब हिटलर के द्वारा लगातार हमले किये जा रहे थे, हर देश यह सोच कर चुप हो जाता था कि ये हमले वहां हो रहे हैं हमें क्या करना है और अंत में जब उस पर हमले हुए तो वह अकेला खड़ा था।...