बुधवार, 24 मार्च 2021

सत्ता की तिलमिलाहट...


देश में बदहाल होती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई, नाराज होते किसान, निजीकरण के नाम पर आरक्षण पर प्रहार, बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त युवा और प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा ही यदि अच्छे दिन की आहट है तो फिर दिल्ली में एलजी का पावर और बढ़ाने तथा महाराष्ट्र और बंगाल में प्रपंच भी किसी तमाशा से कम नहीं है।

शुरुआत दिल्ली में केजरीवाल के कामकाज से शुरु किया जा सकता है जहां की योजनाओं के परिणाम ने विकास के नए दरवाजे ही नहीं खोले हैं बल्कि मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की लोकप्रियता को भी बढय़ा है ऐसे में एलजी को अधिकाधिक महत्व देना क्या केन्द्र की सत्ता की सोची समझी रणनीति नहीं है।

तब मुंबई में आईपीएस परमबीर सिंह के एक पत्र को लेकर मचा बवाल को षडय़ंत्र का हिस्सा मानने से कैसे इंकार किया जा सकता है।

भले ही नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री है लेकिन भाजपा के पास न देश की राजधानी की सत्ता है और न ही आर्थिक राजनीति मानी जाने वाली मुंबई की ही सत्ता है। ऐसे में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को बचाये रखने की है, मुंबई जब आर्थिक राजनीति है तो वहां से पार्टियों को फलने फुलने का साधन भी पर्याप्त मिलता है ऐसे में मुंबई की सत्ता होने का मतलब साफ है।

इन दो महानगरों की सत्ता जब विरोधियों के पास हो और तीसरे महानगर चेन्नई की सत्ता दूर की कौड़ी हो तो कलकत्ता के लिए तिलमिलाहट तो स्वाभाविक है और इस तिलमिलाहट में प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा उनके भाषणों में साफ दिखने लगा है। टीएमसी का मतलब समझाने में लगे प्रधानमंत्री की मंशा पर जो लोग आज ताली बजा रही है वही जब कोई भारतीय जनता पार्टी का मतलब भारतीय जनता पार्टी या भुगतों जनता पार्टी कहने पर नाराज होते है।

दरअसल सात साल की सत्ता की नीति ने देश को जिस राह पर चलाया है उससे देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था ने आम आदमी का जीवन स्तर नीचे की ओर ले गया है। आम आदमी को धर्म जाति में इस तरह उलझा दिया है कि उनकी सोच ही बदल गई है। जिन लोगों का गुस्सा बढ़ती-महंगाई, छिनते रोजगार पर निकलना चाहिए वह गुस्सा प्यारे बच्चे पर निकलने लगा है।

कोई भी देश यदि अपने धर्म और जाति की श्रेष्ठता को लेकर उलझा रहेगा तो वहां आप किसी जरूरी मूलभूत मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित कर ही नहीं सकते, यही वजह है कि अब दूसरे राजनैतिक दल भी अपने को हिन्दूवादी साबित करने में लगे है।

राजनैतिक दलों में सत्ता हासिल करने की होड़ होनी चाहिए लेकिन उनके मुद्दे धर्म और जाति की बजाय आम आदमी से जुड़े होने चाहिए लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह से राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद के नाम पर लोगों के दिमाग को मपा गया उसने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को हिलाकर रख दिया है।

ऐसे में जब देश के प्रधानमंत्री की भाषा ही मर्यादा की सीमा लांघने लगे, किसी के साथ हुई दुर्घटना को मजाक बना दिया जाए और सत्ता के लिए सिर्फ झूठ का सहारा लिया जाए या नफरत फैलाई जाए तो इसका मतलब साफ है कि देश से बड़ा पार्टी हो गया है।