गुरुवार, 31 जनवरी 2013

कड़वा सच


छत्तीसगढ़ के विकास का दावा करने वाली सरकार इन दिनों रोड़ शो में व्यस्त है। तो विपक्षी कांग्रेस इस रोड़ शो के विरोध में काल झंडा लिए खड़ी है। रोड़ शो का ऐसा विरोध पहले कभी नहीं हुआ और न ही हर रोड़ शो के पहले ऐसी गिरफ़्तारियाँ की गई।
राजनैतिक दांव पेंच में छत्तीसगढ़ के संतुलित विकास की अवधारणा दब गई है। नई राजधानी की चमक जितनी चटक हुई है। गांवों में पसरा सन्नाटा उतना ही गहरा हुआ है। सरकार की इस अजीबो गरीब विकास की अवधारणा से गांव की स्थिति दिल दहला देने वाली है। भारतीय व्यवस्था की रीढ और धान का कटोरा कहलाने वाली छत्तीसगढ़ की कृषि की दुर्दशा खून के आंसू रोने पर मजबूर है। सरकार  की नीति के चलते हजारों एकड़ कृषि भूमि उद्योगों व नई राजधानी तथा विकास की भेंट चढ गयी है
 तो किसानों के लिए यह विकास फ़ांसी का फ़ंदा  बनने लगा है।
रमन सरकार लाख विकास का दावा करे लेकिन सच तो यह है कि कृषि क्षेत्र को नजर अंदाज करने की उसकी नीति ने गांवों की हालत बदतर कर दी है। भले ही आंकड़ों में उत्पादन बढाने की बात हो रही हो लेकिन सच का अंदाजा गांवों की हालत देख कर लगाया जा सकता है। बड़े शहरों में ही तमाम सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। यहां तक की निजि क्षेत्र भी सारी सुविधाएं बड़े शहरों में ही कर रहे हैं और गांवो की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है। गांवों में रोजगार का संकट खड़ा है।
सरकार को भले ही यह बात कड़वी लगे लेकिन सच तो यह है कि यह सामंतशाही प्रवृत्ति है। एक तरफ़ शहरों में तमाम सुविधाएं हैं तो गांवों में पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और  यहां तक की सड़कें तक ठीक से नहीं है। मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते गांवों को लेकर इस सरकार ने कोई नीति तैयार नहीं की।
सरकर ने जिलों का गठन तो कर दिया लेकिन क्या किसी जिले में मेकाहारा जैसे अस्पताल उसने खोले? या राजधानी रायपुर, बिलासपुर जैसी दूसरी सुविधांए उपलब्ध कराई हैं? नई राजधानी में स्वयं की सुविधाओं के लिए अरबों रुपए फ़ूंकने की योजना बनाने वाली सरकार और बड़े अधिकारियों ने क्या कभी सोचा है कि सभी विकासखंडों में मेकाहारा जैसे सर्व सुविधा युक्त अस्पताल खोला जाए या कालेज खोला जाए जिससे आम लोगों को उसके विकासखंड में उ'च शिक्षा मिल सके। उल्टे सरकार की नीतियों ने सरकारी स्कूलों एवं अस्पतालों को बरबाद करने का काम ही किया है।
रमन सिंह की सरकारी नीति पर गौर करें तो गांवों के लिए उदासी के अलावा कुछ नहीं है। गोदाम एवं कृषि बाजार का पता नहीं है। मोटर पंप के कनेक्शन की जटिलता से किसान परेशान हैं। सिंचाई सुविधाओं के विस्तार पर अघोषित रोक लगाई जा चुकी है और लोग पलायन करने को मजबूर हैं।
दरअसल समस्या सरकार की नियत की है। कृषि को लेकर अपनाई जाने वाली अधकचरी नीति के अलावा गांवों में सन्नाटा के लिए सरकार में बैठे मंत्रियों व अफ़सरों की सोच है। क्योंकि ये सभी लोग राजधानी में ही रहना पसंद करते हैं। इसलिए सभी विभागों के कार्यलय राजधानी में ही रखे जाते हैं। जिसकी वजह से सुविधा व रोजगार के लिए लोग शहरों की ओर आ रहे हैं। एक बार विधायक और सांसद बनने वाले जन प्रतिनिधि भी अपने विकासखंडा में सुविधा बढाकर रहने की बजाए वे अपने परिवार को शहरों में ही ले आते हैं जिसकी वजह से गांवों का विकास अवरुद्ध हैं। छत्तीसगढ़ बनने के बाद भी अधिकांश गांवों के हालातों में कोई बदलाव नहीं आया है।
कुल मिलाकर यह साफ़ है कि नई राजधानी की चमक के बीच से गांवों के सन्नाटे  की ओर जाता रास्ता तमाम दर्द अपने भीतर समेटे हुए है और इसकी परवाह न सरकार को है और नही निजी क्षेत्र के उन लोगों को ही है जो समाज सेवा का लंबा चौड़ा दावा करते नहीं थकते।