बुधवार, 10 नवंबर 2010

अंधा पीसे, कुत्ता खाय...

यह तो अंधा पीसे कत्ता खाय की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना स्वयं को स्थापित और बड़ा अखबार बनने की जिद में पत्रकारिता की दिनाें दिन यह दुर्गति नहीं होती। पिछले कुछ सालों से राजधानी के पत्रकारों में ही नहीं पत्रकारिता में भी बदलाव की बयार चली है। खरबों को तोड़ मरोड़ कर सनसनी फैलाने की नई परम्परा के साथ-साथ संबंधों को यादा अहमियत दी गई। अखबारों से पाठकों के साथ संबंधाें को अहमियत दी जाती है तो सवाल कभी नहीं उठते लेकिन अहमियत दी गई अफसरों और नेताओं से संबंध स्थापित करने की। इसके चलते पत्रकारों की सोच में तो अदलाव आया ही पत्रकारिता की दुर्गति भी हुई। खासकर एम्सवन्लूजिव्ह और खोजी पत्रकारिता को तो बड़ा झटका लगा है। खबरों की तह तक जाने की परम्परा का भी अनादर हुआ। इससे अखबार मालिक और पत्रकार दोनों खुश है लेकिन पाठकों का एक वर्ग जो व्यवस्था की चोर से पीड़ित है उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। अब तो अखबारों में सामाजिक और सरकारी खबरें ही यादा दिखाई देती है। अपराधिक खबरों में भी वही खबर छपती है जो पुलिस बना देती है। मेरा दावा है कि राजधानी के अखबारों में काम करने वाले क्राईम रिपोर्टरों में आधे रिपोर्टर ऐसे होंगे जो राजधानी के 23 थानों और चौकियों को महिनों से नहीं देखे होंगे। ऐसे में उन थानों या चौकियों में हो रही अच्छी या बुरी कार्रवाई की खबरें कैसे छपती होगी अंदाज लगाया जा सकता है। संपादकों का क्या? अब तो रोज संपादकीय लिखना भी जरूरी नहीं है। ग्रुप के अखबारों में काम करने वाले संपादकों को कलम चलाने की बंदिशे भी कम नहीं होती। उनकों जवाबदारी तो प्रतिध्दंदी अखबाराें से तुलना करने और छुटी खबरों के बारें में पूछताछ में ही गुजर जाती है। इस सबके बाद यदि समय बचा तो अधिकारियों और नेताओं से अखबार हित में संबंध बनाने में चला जाता है। पत्रकारिता के इस स्तर तक पहुंचने में अखबार मालिकों का खैया तो जिम्मेदार रहा ही है। स्वयं पत्रकारों का खैया भी कम जिम्मेदार नहीं है। कुछ साल पहले की बात है शहर के एक नामी गिरामी अखबार के एक रिपोर्टर ने जब आलीशान बंगला तैयार किया तो अन्य रिपोर्टर उन्हें खुब गाली देते थे लेकिन अब न तो पत्रकारिता की ऊचाई की बात होती है और न ही किसी का बंगले पर ही चर्चा होती है। जब तनख्वाह कम थी तब पत्रकारों में दुनिया बदलने का हौसला होता था लेकिन अब जब सुविधाएं बड़ गई है तो सुविधाएं बढ़ाने की जिद भी बढ़ी है। सुविधाएं छिन जाने का डर उन्हें बेहतर पत्रकारिता या खबरों से दूर रखता है। वे सोचते हैं खबरें छपने पर क्या होगा। अल्टा वे दुश्मन बन जायेंगे और इससे मिलने वाली सुविधाएं से वंचित होंगे। और फिर इस खबर के नहीं छपने से क्या होगा? बस इसी सोच के चलते ही हौज में दूध नहीं भर पाया था सभी शिष्यों ने अंधेरे का फायदा उठाकर गुरू के निर्देश की अवहेलना कर हौज को दूध की जगह पानी से भर दिया था। पत्रकारिता में भी सुविधाएं छिनने का डर कलम पर जंजीरे कसने लगी है।
और अंत में
अवैध प्लाटिंग की लगातार छप रही खबरों से दुखी एक बिल्डर ने सरकार के इस खैये का जब विरोध किया तो एक अखबार सारा संसार के रिपोर्टर ने उसे सलाह दी इस विरोध का कोई मतलब नहीं है विरोध करना है तो अखबारों के अवैध और मंत्री को दमदारी दिखाने ज्ञापन सौंपो तो कुछ हल निकल आयेगा।