रविवार, 25 अप्रैल 2021

जन की बात-9

 

सुना था सत्ता का नशा, प्रेम और मदिरा के नशे से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है, वह विवेक शून्य तो हो ही जाता है, संवेदना शून्य हो जाता है, उसकी जिव्हा ही अनाप-शनाप नहीं बोलता बल्कि मर्यादा भी भूल जाता है। वह सत्ता मद में इस कदर चूर हो जाता है कि वह अपनी ओर उठने वाली हर उंगलियों को काट देना चाहता है। असहमति के स्वर उसे देशद्रोह लगता है और जनता की पीड़ा से खुशी! उसे जनसरोकार से कोई  मतलब नहीं होता, वह तो सत्ता में बने रहने के षडय़ंत्र में व्यस्त रहता है।

कोरोना के बढ़ते प्रकोप से हर कोई चिंतित था, शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसके बांधव या परिचितों को कोरोना ने अपना ग्रास नहीं बनाया हो। लेकिन, सत्ता चिंतित होने का आंडबर ही कर रही थी क्योंकि उसे चिंता होती तो सालभर में चिकित्सा व्यवस्था कहां से कहां पहुंच जाता, आक्सीजन के अभाव में त्राहिमाम नहीं मचता। न ही कुंभ का आयोजन होता न ही चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने का उपक्रम होता। क्या लंबे अरसे के षडय़ंत्र के बाद मिली सत्ता का मोह इस तरह हावी है कि वह मनुष्यों को कीड़े मकोड़े की तरह मारने का उपक्रम कर रही है।

जब सब तरफ आलोचना होने लगी, सभी दल लोगों के निशाने पर आने लगे तब राहुल गांधी ने चुनावी रैली से दूर रहने की घोषणा कर दी। वास्तव में यह महत्वपूर्ण निर्णय था लेकिन जो लोग मध्यप्रदेश के मोह में पहली लहर को भयावह बनाने में कोई कमी नहीं रखी थी वे अब बंगाल में सत्ता के लिए निर्णय शून्य थे।

कांग्रेस के इस निर्णय से बेशर्मी की चादर हटने की उम्मीद थी लेकिन बड़ी मुश्किल से सत्तर साल में मिली सत्ता को बनाये रखने का मोह उनसे छोड़ देने की कल्पना ही बेमानी है जो झूठ-षडय़ंत्र, अफवाह और नफरत पर विश्वास रखते हैं। हालांकि इस परिस्थिति के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है क्योंकि उनसे रूढि़वादी और नफरती लोगों के आक्षेप से स्वयं को कमजोर और डरपोक बना लिया। सबसे पहले राजीव गांधी उस आक्षेप से डर गये कि उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए शहबानों के फैसले को बदल दिया, यही से वे लोग हावी होने लगे जो इस देश के सामाजिक सौहार्द के दुश्मन थे, जो अंग्रेजों के फूट डालो राज करों की नीति के प्रशंसक थे, जिसके लिए हिटलर की तरह श्रेष्ठता ही जीवन का पैमाना था।

मुस्लिम तुष्टिकरण के आक्षेप से कांग्रेस इस कदर डर गई कि वह जनेऊ धारण करने लगी, पूजा पाठ के प्रदर्शन में उतर आई। लेकिन यजि कांग्रेस ही आक्षेपों से डर गई तो फिर गांधी, नेहरु, पटेल, विवेकानंद, सुभाष, टैगोर की इस देवभूमि को लंका बनने से कौन रोक सकता है। आरोपों से बचने के लिए कांग्रेस के नेताओं में होड़ ही कुंठित धर्मालंबियों के खादपानी का काम करता है। किसी के आक्षेप से यदि जन नेता अपने मूल कर्म से भटक जाए तो इस देश के दलित, अल्पसंख्यक गरीबों का क्या होगा? न्याय, सत्य का क्या होगा।

लेकिन कांग्रेसी गांधी के राह से भटक गये, और गांधी की राह से भटकने का सीधा सीधा अर्थ था सच से दूर होना। स्वयं को विलासी बनाना, संवेदना शून्य होना। कमजोर और डरपोक होना।

कोरोना का कहर अब भी उफान पर था, लेकिन भाजपा के मंत्री तो अब भी बंगाल फतह के लिए मरे जा रहे थे, इसलिए वे ममता बेनर्जी के एक साथ चुनाव और राहुल गांधी के रैली से असहमति पर बेशर्मी से कह रहे थे कि यह तो कप्तान के जहाज को डूबते समझ का निर्णय है। क्या सत्ता इतनी बेशर्म होता है? हां होती है जब सत्ता झूठ की बुनियाद पर टिकी हो, नफरत के बीज तो फलीभूत हुआ हो। याद कीजिए 2014 का वह दिन जब कहा गया कि पहली बार कोई हिन्दू प्रधानमंत्री? याद कीजिए संसद की सीढिय़ों पर माधा टेकना? लेकिन इससे पहले तिरंगा को अशुभ बताने, संविधान को गलत बताने, आरक्षण की आलोचना को याद कर लेना।