बुधवार, 30 जून 2021

अमरजीत की अकड़...

 

सत्ता का अपना चरित्र होता है, सत्ता का नशा भी सर चढ़कर बोलता है और कई बार तो सत्ता की कुर्सी में बैठते ही आदमी, अंधा, गूंगा और बहरा भी हो जाता है। लगता है छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के खाद्य मंत्री अमरजीत भगत ने महात्मा गांधी के तीन बंदरों को कुछ ज्यादा ही पढ़ लिये है या उस सिद्धांत को कुछ ज्यादा ही आत्मसात कर चुके है इसलिए उन्हें अब पत्रकारों के वे सवाल सुनाई नहीं देते जो जनसरोकार से जुड़े होते हैं, हम तीन करोड़ की कहानी की बात को बाद में बतायेंगे अभी तो हम शराब बंदी के सवाल पर खाद्य मंत्री अमरजीत भगत के जवाब पर ही चर्चा करना चाहते हैं।

छत्तीसगढ़ में शराब बंदी का दावा कर सत्ता में आई कांग्रेस सरकार को अब शराब बंदी को लेकर उठ रहे सवाल अच्छे नहीं लगते जबकि शराब की वजह से बढ़ते अपराध के आकड़े नई तरह की चिंता पैदा करने वाली है। औसतन हर महीने 40 से पचास मामले सामने आ रहे हैं, पारिवारिक कलह से लेकर हत्या, बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे है और महासमुंद के रेल पट्टी में अपनी पांच बेटियों के साथ एक महिला का सामूहिक आत्महत्या कोई कैसे भूल सकता है।

हालांकि प्रदेश के मुखिया भूपेश बघेल ने जनजागरण चलाने और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मोहन मरकाम ने शराब बंदी के सवाल पर कहा है कि अभी ढाई साल बचा है। ऐसे ही सवाल जब खाद्य मंत्री अमरजीत भगत से पूछा गया, कई बार पूछा गया लेकिन भगत को सुनाई नहीं दिया, उन्होंने सवाल सुनाई देने की बात कहकर अपने कदम आगे बढ़ा दिये। 

जब यह वीडियो वायरल हुआ तो भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने खाद्य मंत्री सहित पूरी सरकार पर हमला बोल दिया लेकिन सत्ता का अपनी चरित्र है। अमरजीत भगत ने जिस तरह से शराब बंदी के सवाल पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसमें हैरानी की बात नहीं है क्योंकि सत्ता में बैठे व्यक्ति का अपना अलग ही रवैया होता है, फिर अजीत जोगी के करीबी रहे अमरजीत भगत के बारे में कहा जाता है कि उनकी निगाह और महत्वाकांक्षा भी अलग तरह की है जोगी खेमे की राजनैतिक शैली का उन पर असर भी है और वे मौके का फायदा उठाने से चूकते भी नहीं है, यही वजह है कि उन्हें जब कांग्रेस अध्यक्ष की बजाय देर से मंत्री बनाया गया तो इसकी वजह टीएस बाबा का विरोधी बताया गया और कहा जाता है कि बाबा के खिलाफ कदम ताल करने में वे देर भी नहीं करते। अब गांवों में निजी अस्पताल के मामले में ही उनके बयान को देख लीजिए, उन्होंने किस तरह से मुख्यमंत्री को कमांडर बताते हुए बाबा को उसकी हैसियत समझाने की कोशिश की है यह सबके सामने है। तब देखना है कि सत्ता की अकड़ से अभी प्रदेश को और कितना और क्या-क्या देखना है।

मंगलवार, 29 जून 2021

बघेल-बाबा में बढ़ते मतभेद...

 

प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के बीच सत्ता संघर्ष किसी से छिपा नहीं है लेकिन अब कई मामलों में यह खुलकर सामने आने लगा है तो इसकी वजह ढाई-ढाई साल के फार्मूले का सच है या खुद को बीस साबित करने की रणनीति का हिस्सा है यह तो वक्त ही बतायेगा लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्णय पर जिस तरह से उनके ही स्वास्थ्य मंत्री टीएस बाबा ने असहमति जताते हुए सवाल खड़ा किया है वह किस बात का संकेत हैं।

हालांकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पास जिस तरह का बहुमत है उसने सारे अंदेशे को विराम दे दिया है लेकिन मुख्यमंत्री के पास जिस तरह का बहुमत है उसने सारे अंदेशे को विराम दे दिया है लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लेकर कुछ मंत्रियों की नाराजगी भी खुलकर सामने आने लगी है। मुख्यमंत्री बघेल पर जिस तरह से सबकुछ अपनी मर्जी चलाने का आरोप बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे मंत्रियों के बीच भी तल्खी बढऩे लगी है। यही नहीं संगठन के लोगों को सत्ता में भागीदारी देने में हो रहे विलंब की वजह से भी मुख्यमंत्री के प्रति आक्रोश अब कांग्रेस के भीतर साफ तौर पर महसूस की जा सकती है।

ढाई-ढाई साल के कथित फार्मूले को लेकर जो बवाल काटे जा रहे थे वह भले ही टांय-टांय फिस्स हो गया हो लेकिन जिस तरह से समय-समय पर टीएस बाबा, मोहम्मद अकबर, रुद्र गुरु सहित कई मंत्री और विधायकों का रुख प्रकट होने लगा है उसके बाद ये कहना गलत नहीं होगा कि आने वाला ढाई साल कैसा होगा। 

सत्ता और संगठन में भले ही मतभेद सामने नहीं आया है लेकिन लाल बत्ती की चाह में घेरेबंदी और देर होने की वजह से सत्ता के प्रति नाराजगी भी अब जोर पकडऩे लगा है। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम ने सत्ता के कार्यों पर संतोष भी जताया है लेकिन ये कौन नहीं जानता कि मोहन मरकाम पिछले दो साल से किस तरह से कार्य करते रहे हैं। और अब जब शराबबंदी से लेकर दूसरे वादों की बात हो या केन्द्र की मोदी सरकार की आलोचना की बात हो उनके तेवर का कहीं पता नहीं होता।

हैरानी की बात तो यह है कि संगठन से जुड़े लोगों की सत्ता में भागीदारी कब होगी इसका भी पता किसी को नहीं है। पिछले कई महीने से अब-तब की आस में बैठे कांग्रेसियों का सब्र भी जवाब देने लगा है जब सवाल यही है कि बघेल-बाबा के मतभेद की वजह से देर हो रही है या अकबर-रुद्रगुरु के तेवर की वजह से देर हो रही है। ऐसे में यदि संगठन कमजोर नेतृत्व के पास रहा तो सत्ता में बवाल उठना तय है और वर्तमान संगठन का हाल किसी से छिपा भी नहीं है।

सोमवार, 28 जून 2021

वे बेवकूफ बनते रहे और ये धोखा देते रहे...


ये इतना बड़ा सचा है जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई तीन दशक से बेवकूफ बन रहे हैं, ठगे जा रहे है और कोई इन्हें इन तीन दशकों से धोखा दे रहे हैं। हम बात यहां कश्मीरी पंडितों का कर रहे हैं जिनका राजनैतिक शोषण की एक ऐसी कहानी है जो दुनिया में अपनी तरह का अजूबा मामला है। और कहा जाए कि कश्मीरी पंडित अब भी धोखा खाने तैयार है तो गलत नहीं होगा।

यही वजह है कि जब कल कश्मीर को लेकर बैठक हो रही थी तब भी कश्मीरी पंडितों का कोई प्रतिनिधि नहीं था और न ही बैठक में सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुर्नवास के लिए कोई योजना का जिक्र भी नहीं किया लेकिन यदि कश्मीरी पंडितों से पूछा जाए तो वह अब भी भाजपा को ही अपना रहनुमा बतायेंगे तो हैरान होने की बात नहीं है, क्योंकि भाजपा ने कश्मीरी पंडितों के अत्याचार का मुद्दा 1991 से लगातार देश-विदेश के हर मंच से किया है। अपने हर चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने कश्मीरी पंडितों के पुर्नवास का वादा किया है नौकरी से लेकर दूसरा पैकेज का वादा किया जाता रहा है। लेकिन साढ़े 12 साल की सत्ता में भाजपा ने सिवाय राजनैतिक शोषणा के कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ भी नहीं किया इसके बाद भी यदि कश्मीरी पंडितों को भाजपा से उम्मीद है तो इसका मतलब क्या हो सकता है।

कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का इतिहास सिर्फ 31 साल पुराना है और तब केन्द्र में भाजपा के समर्थन में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी रातों रात एक लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़़कर भागना पड़ा लेकिन भाजपा ने सत्ता नहीं छोड़ी, तब कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और राज्यपाल जगमोहन थे जो भाजपा के पसंद के थे। इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार होते रहा, लेकिन भाजपा तब कुछ नहीं बोली।

हैरानी की बात तो यह है कि इसके बाद जब सत्ता चली गई तब अचानक 1991 में भाजपा कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का मुद्दा अपनी चुनावी घोषणा पत्र में लेकर आयी और चूंकि यह उसके हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति को सूट करती है इसलिए यह मुद्दा देश के हर राज्य में गूंजता रहा और कश्मीरी पंडित यह भूल गए कि यह सब अत्याचार किसके राज में हुआ तब से आज तक भाजपा कश्मीरी पंडितों का मुद्दा उठाते रही और कश्मीरी पंडित भाजपा को अपना रहनुमा मानते रहे।

2014 के बाद मोदी सत्ता ने भी कश्मीर पंडितों का मुद्दा उठाते रही लेकिन आप हैरान हो जायेंगे कि धारा 370 हटने के बाद भी भाजपा ने कश्मीरी पंडितों के लिए वादा के अलावा कुछ नहीं किया उसने कश्मीरी पंडितों के लिए उतनी भी नौकरी नहीं दी जितनी मनमोहन सरकार ने दी। मोदी सत्ता के आने के बाद भी कश्मीर में हालात नहीं सुधरे है और पिछले साल जिस तरह से घाटी में कश्मीर पंडितों की हत्या हुई है वह हैरान कर देने वाली है क्योंकि कश्मीर की पूरी सत्ता मोदी सत्ता के पास ही है।

तब सवाल यही उठता है कि क्या कश्मीरी पंडितों का मुद्दा भाजपा के लिए चुनावी फायदे का जरिया है। कश्मीरी पंडितों का राग अलाप वह पूरे देश में हिन्दू वोटों का ध्र्वीकरण करती है। सवाल तो कई है लेकिन देखना है कि अब कश्मीरी पंडितों की स्थिति क्या बनती है वे क्या सोचते है या क्या करते हैं। क्या वे अब भी खामोशी से अपनी पहचान के लिए तरसते रहेंगे!

शनिवार, 26 जून 2021

कश्मीर न नीयत न विश्वास

 

धारा 370 हटने के बाद केन्द्र की मोदी सत्ता ने जम्मू कश्मीर के नेताओं के साथ बैठक की। बैठक में जिस तरीके से कश्मीर के नेताओं ने केन्द्र की नियत पर सवाल उठाते हुए अविश्वास की लकीर खीची है उसका परिणाम क्या होगा अभी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन इस बैठक  के बाद जो सवाल उठे हैं उसके बाद तो मोदी सरकार की नियत पर ही सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल सिर्फ कश्मीर के नेता ही नहीं उठा रहे हैं बल्कि सालों भाजपा का साथ देने वाले कश्मीरी पंडित भी सवाल उठा रहे हैं।

सवाल यह नहीं है कि मोदी सत्ता ने बैठक उन लोगों के साथ क्यों की जिन्हें कैद करके रखा गया था या जिन्हें गलत कहते रही है। सवाल यह है कि क्या केन्द्र सरकार सचमुच कश्मीर की भलाई के लिए कार्य करना चाहती है तो फिर उसने कश्मीरी पंडितों के लिए धारा 370 हटने के बाद क्या किया, धारा 370 हटने के बाद कश्मीर के विकास के लिए क्या किया, और आगे वह क्या करना चाहती है। 

बैठक में जिस तरह से कश्मीरी नेताओं ने आक्रोश व्यक्त किया और मोदी सत्ता की नियत पर सवाल उठाये उसके बाद भी बैठक में मोदी सत्ता ने कश्मीर की शांति के लिए कोई योजना को सामने क्यों नहीं लाया। बैठक में केन्द्र ने क्यों नहीं बताया कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों को किस तरह से पुर्नवास करेगी और चुनाव कब करायेगी। ऐसे में क्या यह नहीं माना जाए कि केन्द्र ने बैठक इसलिए बुलाई क्योंकि कश्मीर के हालात को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच में सवाल उठने लगे थे, नेताओं को जेल में ढूंसने, इंटरनेट सेंवा बंद करने, रोजगार व्यवसाय ठप्प होने और लोगों का जीवन मुश्किल हो जाने का सवाल अमेरिका के उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने  उठाये थे जिससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की थू-थू होने लगी थी।

या फिर अगले साल होने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव को ध्यान में रखकर यह बैठक बुलाई गई थी। हो सकता है क्योंकि भाजपा की राजनीति में कश्मीर, पाकिस्तान और हिन्दू-मुस्लिम ही केन्द्र में रहा है तब सवाल यह है कि बैठक में कश्मीरी नेताओं के स्वर को उत्तरप्रदेश के चुनाव में इस्तेमाल किया जाए। तब सवाल यही है कि आखिर केन्द्र सरकार कश्मीर को लेकर कोई ठोस योजना क्यों नहीं बना रही है। जो कश्मीरी पंडित भाजपा पर इतना भरोसा करती है धारा 370 हटने के साल भर बाद भी उनके पुर्नवास के लिए केन्द्र ने कुछ भी पहल क्यों नहीं किया।

अब इस बैठक के बाद जो सबसे बड़ा सवाल है कि क्या भारतीय जनता पार्टी आगे भी कश्मीर को चुनाव मुद्दा बनाकर भुनाएगी। सवाल कई है लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि यदि भारत सरकार के प्रति कश्मीरियों में विश्वास नहीं जगेगा तो फिर ऐसे बैठकों का क्या मतलब है।

शुक्रवार, 25 जून 2021

मोदी का कद नापते योगी...

 

उत्तरप्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर राजनैतिक दलों की सक्रियता बढ़ गई है। देश व प्रदेश की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी के लिए सत्ता में वापसी बढ़ी चुनौती है। लेकिन जिस तरह से उत्तरप्रदेश और दिल्ली में ठन गई है वह हैरान करने वाली इसलिए है क्योंकि भाजपा को अनुशासन वाली पार्टी कही जाती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि उत्तरप्रदेश में भाजपा उसके ईशारे पर चले लेकिन उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नजर 2024 है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरे गुजरात गैंग की नींद उड़ गई है। दरअसल उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ का कद इतना बढ़ गया है कि वहां नरेन्द्र मोदी का कद छोटा पडऩे लगा है। और उत्तरप्रदेश में जो कुछ चल रहा है वह सिर्फ कद की लड़ाई है।

हालांकि उत्तरप्रदेश की राजनीति को जानने वाले बताते है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तरप्रदेश में अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया है, संगठन से लेकर सत्ता तक अपने लोगों को बिठा दिया है यहां तक कि राज्यपाल आनंदी बेन को बिठाया गया लेकिन योगी आदित्यनाथ काबू में नहीं रह गया। दरअसल यह हर कोई जानता है कि दिल्ली का सफर उत्तरप्रदेश से होकर जाता है और जब पूरी भाजपा में मोदी के बाद योगी का प्रचार हो तो गुजरात गैंग की बेचैनी स्वाभाविक है।

कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी की ताकत और रवैये को लेकर संघ की बेहद नाराज है और अब तो संघ ने भी योगी का खुलकर समर्थन कर दिया है लेकिन पार्टी में पूंजी के सहारे पकड़ रखने वाले गुजरात गैंग को पूरा विश्वास है कि वह आगे भी अपनी मनमानी चलाएगी। ऐसे में टकराव भले ही ऊपर से कम दिखाई दे रहा हो लेकिन भीतर खाने में यह बड़े रुप में महसूस किया जा सकता है।

बताया जाता है कि जिस तरह का खेल हो रहा है या सरकार की अक्षमता सामने आई है उसे लेकर संघ बेहद नाराज है और योगी का समर्थन इसी नाराजगी का नतीजा  है। हालांकि मोदी गुट इससे अनजान नहीं है इसलिए वह योगी को कमजोर करने या अपने दबाव में रखने का उपाय कर रही है यानी मोदी की नजर 2022 है तो योगी की नजर 2024 है।

बुधवार, 23 जून 2021

नासमझ सत्ता निष्ठुर सत्ता!

 

अभी महिने भर भी नहीं हुआ है जब केन्द्र की मोदी सरकार ने न्यायालय से कहा था कि सेन्ट्रल विस्टा में बन रहे प्रधानमंत्री के महल (आवास) के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है और कोरोना से निपटने, टीकाकरण के लिए पर्याप्त पैसे है लेकिन महिना भी नहीं बीता कि उसने कोरोना से मृत लोगों को मुआवजा के लिए चार लाख नहीं होने का रोना रो दिया।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि मोदी सत्ता की प्राथमिकता क्या है, सचमुच उसे इस देश की समझ नहीं है या फिर वह इतनी निष्ठुर हो चुकी है कि उसे आम लोगों की तकलीफे से कोई लेना देना नहीं है।

यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि मोदी सत्ता की करतूत से हम देश के लोगों को अनेकों बार परेशानियों का सामना करना पड़ा है, लोगों की बेहिसाब मौते हुई है और कोरोना तो सीधे-सीधे मोदी सत्ता की लापरवाही का नरसंहार साबित हो चुका है। नासमझी और निष्ठुरता को सिलसिलेवार ढंग से देखना हो तो नोटबंदी की लाईने और इसकी वजह से डेढ़ सौ मौतों से शुरु हुआ सफर अब भी जारी है कोरोना को लेकर लापरवाही का नमस्ते ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सरकार बनाने का लोभ को कोई कैसे भूल सकता है, फिर अचानक लॉकडाउन की नासमझी भरे फैसले से सड़कों में भूखे-प्यारे चलते मजदूर और सड़कों में उनकी मौत क्या सत्ता की नासमझी और निष्ठुरता नहीं है। दूसरी लहर में मौतों का तांडव, चिताओं की लम्बी लाईन, ऑक्सीजन की कमी, गंगा में बहती लाशे, सार्वजनिक क्षेत्र की बीस कंपनियों को बेच देना, रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड का इस्तेमाल और सेन्ट्रल विस्टा, तीन हजार करोड़ की मूर्ति, आठ हजार करोड़ का खुद का विमान, प्रधानमंत्री के काफिले की गाडिय़ों का बदलाव से लेकर मोदी सरकार के किसी भी फैसले को देख लीजिए उसके पीछे सत्ता की नासमझी, लापरवाही और निष्ठुरता ही नजर आयेगी।

तब क्या मोदी सत्ता ने यह जान लिया है या मान लिया है कि हिन्दू-मुस्लिम और राष्ट्रवाद का रोग इतना भयावह है कि वह चार लाख मुआवजा न दे और कुछ भी करे तब भी सत्ता उसकी जाने वाली नहीं है। कोरोना का नरसंहार और कोरोना के मृतकों को चार लाख नहीं देने की बात क्या सत्ता का अत्याचार नहीं है। मोदी सरकार के लिए भले ही चार लाख रुपया कोई मायने नहीं रखता हो लेकिन इस बात को समझना होगा कि जिनके परिवार में कोरोना से मौत हुई है उनके लिए चार लाख रुपए क्या मायने रखते हैं, जिन्होंने ईलाज में लाखों रुपए गंवा देने के बाद भी जान नहीं बचा पाये उनके लिए चार लाख क्या मायने रखते हैं। शायद नरेन्द्र मोदी को परिवार और उसके दुख और परेशानी का अंदाजा नहीं होगा कि उनके लिए चार लाख के क्या मायने है।

ऐसे में सवाल यही है कि अपनी रईसी और अपना अहंकार बरकरार रखने करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करने को तैयार सत्ता आखिर चार लाख  रुपए के लिए मना क्यों कर रही है जबकि लोकतंत्र में सत्ता तो जनता के हित के लिए बनी होती है।

मंगलवार, 22 जून 2021

श्री राम मंदिर चंदा का बंदरबाँट

 https://youtu.be/_1XJRSl-0ME

संघ का करतूत अयोध्या में दिखा...?

 

श्रीराम के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को प्रभु राम ने पूंजी-सत्ता सब सौंप दी है लेकिन उनकी नियत अब भी साफ नहीं है और अब तक श्रीराम मंदिर निर्माण के नाम पर जिस तरह की धोखाधड़ी, छल, चंदाखोरी और दूसरे मामले सामने आने लगे हैं उसके बाद तो यह कहना मुश्किल हो गया है कि श्री राम के नाम पर लूट की प्रतिस्पर्धा नहीं चल रही है।

ताजा मामला तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा खरीदी जा रही जमीनों की वैधानिक और राशि को लेकर मामला सामने आया है। पहले मामले में अयोध्या  के मेयर शामिल है तो दूसरे मामले में मेयर का भांजा शामिल है। संघ के चंपत राय की भूमिका तो किसी से छिपी ही नहीं है। हालत यह है कि संघ, भाजपा से जुड़े लोग कम कीमत पर जमीन खरीद कर मंदिर ट्रस्ट को ज्यादा कीमत में जमीन धड़ल्ले से बेच रहे है और राम के नाम पर सत्ता में काबिज लोगों को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता। तब यह पैसों का बंदरबांट नहीं तो और क्या है।

अयोध्या के मेयर ऋषिकेश उपाध्याय के भांजे दीप नारायण ने दशरथ महल बड़ास्थान के महंत से जो जमीन बीस लाख में खरीदी उस जमीन को ट्रस्ट को ढाई करोड़ में बेच दी। दस्तावेज देखते ही पहली नजर में सब गड़बड़झाला दिख रहा है। राजस्व विभाग के अधिकारी भी इस रजिस्ट्री पर खुलेआम उंगली उठा रहे है लेकिन न ट्रस्ट की बेशर्मी रुक रही है और न ही सत्ता की बेशर्मी।

तब सवाल यही है कि जो संघ अपने को संस्कार, चरित्रनिर्माण और पता नहीं किस-किस तरह की नैतिकता सिखाने का दावा करता है वह क्या ऐसा ही संस्कार और चरित्र निर्माण करता है। हालांकि हमने पहले भी कहा है कि संघ ने जिस तरह से इस देश को धर्म के नाम पर नफरत में झोका है, राष्ट्रपिता की हत्या में शामिल होने क आरोपों के अलावा कितने ही आरोप संघ पर है और आजादी के बाद से अब तक संघ की गतिविधियों पर चार बार बंदिश भी लग चुका है तब सवाल यही है कि देश के लिए जरूरी क्या है।

श्रीराम जन्मभूमि के नाम पर चंदा हजम करने का आरोप न तो नया है और न ही भाजपा का झूठ ही नया नहीं है। पहले के चंदे का हिसाब आज तक नहीं हुआ और अब नये चंदे में जिस तरह के घपले सामने आ रहे है उसके बाद तो संघ के संस्कार पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

रविवार, 20 जून 2021

हिन्दू-मुस्लिम के अलावा कोई मुद्दा नहीं...

 

जिस काला धन को विदेश से वापस लाने का दावा कर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी अब खामोश है और काला धन दो गुना हो गया, जिस महंगाई को कम करने का दावा था वह भी लगभग दो गुना हो गया, दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का दावा ने तो कितनो की ही नौकरी छीन ली। न आतंकवादियों का कमर टूटा न भ्रष्टाचार का खेल ही खत्म हो रहा है उसके बाद भी भाजपा यदि चुनावों में जीत का दावा कर रही है, आयेगा तो मोदी ही का दावा कर रही है तो इसका मतलब साफ है कि धर्म अब जहर बन चुका है और राष्ट्रवाद कोढ़।

देश में सबका साथ सबका विकास का नारा जब जुमला बन जाए और जनता से किये वादों पर सत्ता की चुप्पी हो तो फिर चुनाव जीतने का सशक्त माध्यम झूठ-नफरत और अफवाह के अलावा कुछ हो भी नहीं हो सकता। पिछले 90-95 साल से या यूं कहें कि आजादी के बाद से धर्म को लेकर नफरत का जो बीज बोया गया वह परवान चढ़ चुका है और जब तक आदमी स्वयं धोखा नहीं खायेगा तब तक यह परवान उतरने वाला भी नहीं है।

यही वजह है कि इस देश में चल रहा किसान आंदोलन अपने रिकार्ड दिन गितने आगे बढ़ रहा है और सत्ता इस आंदोलन से इसलिए भी विचलित नहीं है क्योंकि वह जानती है धर्म का जहर फैल चुका है। हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति सत्ता तक पहुंचने के लिए ज्यादा सुविधाजनक रास्ता है तब वह किसान की नाराजगी से क्यों विचलित हो। विचलित तो वह पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम और इसे लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शन से भी नहीं है क्योंकि अब भी ऐसे जहर बुझे लोग हैं जो साफ कहते हैं कि हिन्दु धर्म को बचाने वे दो सौ रुपए लीटर या उससे अधिक में भी खरीदी कर सकते हैं। यानी महंगाई भी इस हिन्दू-मुस्लिम के आगे बौनी है। आप चिखते रहे महंगाई डायन खाय जात हे और डायन धर्म की राजनीति के सहारे सत्ता तक पहुंचा देगी।

ऐसे में राहुल गांधी को छोड़ शेष कांग्रेसी अब भी सिर्फ प्रदर्शन के नाटक पर निर्भर है तो इसका मतलब साफ है कि सत्ता की मनमानी को रोकने का कोई कारगर न तो उपाय है और न ही नफरत की राजनीति का कोई तोड़ ही है। इस खेल में इन दिनों पूंजी महत्वपूर्ण हो चला है और यदि पूंजी भी सत्ता के साथ है तब बर्बादी का नया अध्याय लिखा जायेगा। यही वजह है कि सत्ता अब विदेशी बैंक में बढ़ रहे पूंजी के प्रति लापरवाह है, उन्हें उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं करनी है और न ही नाम ही सार्वजनिक करने हैं क्योंकि चुनाव में बांटे जाने वाले काले धन विदेशों से ही आयेंगे। 

तब सवाल यही है कि आम आदमी क्या करे, क्योंकि सत्ता ने तो विरोध के स्वर को पहले ही पप्पू घोषित कर रखा है और जनता भी उन्हें पप्पू मान चुकी है इसलिए जैसे तैसे परिवार चलायें, मस्त रहें सत्ता तो उन्हीं की रहेगी।

शुक्रवार, 18 जून 2021

विरोध के स्वर...

 

राजनीति जो करा दे वह कम है, और जब सवाल अस्तित्व बचाने का हो तो राजनीति किसी नौटंकी से कम नहीं होता। ये हाल है छत्तीसगढ़ में भाजपा की। छत्तीसगढ़ में 15 साल की सत्ता का सुख भोगने वाली भाजपा लगभग दर्जनभर सीट में सिमट गई है और इन दिनों वह एक बार फिर अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। यह लड़ाई कम नौटंकी ज्यादा है कहा जाए तो कम नहीं होगा। क्योंकि एक तरफ पूरे देश में आम आदमी जिस तरह से केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त है केन्द्र की लापरवाही के चलते कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं, वैक्सीन की कमी बड़ा मुद्दा  है उसे छोड़ छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी कुछ और ही मुद्दों पर आंदोलन करने जा रही है। ये वे मुद्दे हैं जिसके बारे में डॉ. रमन सिंह की सरकार ने 15 साल कुछ नहीं किया।

दरअसल मोदी सत्ता की लापरवाही से हुए कोरोना नरसंहार के बाद भाजपा के सामने प्रधानमंत्री मोदी की छवि की चिंता है, महामारी के इस दौर में आक्सीजन की कमी और दवा की कालाबाजारी भारतीय जनता पार्टी के लिए कभी मुद्दा नहीं बना, पेट्रोल, डीजल, खाद्य तेलों के अलावा राशन की बढ़ती कीमत भी भाजपा के लिए इन दिनों कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि यदि वे इसे मुद्दा बनायेंगे तो फिर प्रधानमंत्री की छवि का क्या होगा।

हैरानी की बात तो यह है कि 15 साल सत्ता में रहने के दौरान जिन पर शराब की नदिया बहाने, दारु वाले बाबा की तोहमत लगने और जिनके राज में शराब ठेकेदारों के हाथों दस-दस हजार में थाना खरीदे जाने का आरोप लगता रहा है वे अब वादा निभाओं और भूपेश सरकार के ढाई साल को असफल बताते हुए आंदोलन कर रहे हैं। असल में यह जनता के लिए आंदोलन के नाम पर राजैतिक नौटंकी है कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि यह हर व्यक्ति जानता है कि आज जनता के लिए असल मुद्दा महंगाई और बेरोजगारी के साथ कोरोना है ऐसे में मोदी सरकार  की टैक्स नीति के चलते आम आदमी व्यापारी किसान मजबूर किस तरह से परेशान है यह किसी से छिपा नही है।

एक तरफ छत्तीसगढ़ भाजपा अपने अस्तित्व बचाने छटपटा रही है तो दूसरी तरफ देश की सत्ता अपनी छवि चमकाने विरोध के स्वर या असहमति के स्वर को कुचल देना चाहती है। जो ट्वीटर कभी भाजपा के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का  सबसे बेहतर हथियार था वही ट्वीट के खिलाफ अब पूरी सत्ता की ताकत लगी है। सत्ता की ताकत तो विरोध में प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ भी लगी है। यूएपीए कानून का जिस  तरह से बेजा इस्तेमाल किया गया वह किसी से छिपा नहीं है, पढऩे-लिखने वाले छात्रों, कलाकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को जेल में डाला गया और इसके बाद कोर्ट ने जो तीखी टिप्पणी की वह कौन नहीं जानता।

गुरुवार, 17 जून 2021

पैसा खुदा से कम नहीं...

 

आर्थिक झंझावतों से गुजर रहे देश की राजनीति भी इन दिनों प्रसव वेदना से गुजरने लगी है, देश की सबसे बड़े राजनैतिक दल के भीतर भी सब कुछ ठीक नहीं है, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में गड़बड़झाला है कई राज्यों में स्थिति डावाडोल है लेकिन हम आज बात करेंगे, देश की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने वाली भाजपा की।

वैसे तो भाजपा पर नरेन्द्र मोदी, अमित शाह की मजबूत पकड़ है और वे जो चाहे पार्टी में वही होगा तब सवाल यही है कि क्या भाजपा में अधिनायकवाद ने कदम बढ़ा दिया है। हालांकि भाजपा नेताओं के तमाम दावों के बाद भी हमारा शुरु से मानना रहा है कि जिस तरह से कांग्रेस में गांधी परिवार के इतर कुछ भी नहीं है उसी तरह भाजपा में संघ परिवार की स्थिति है।

देशभर की तमाम पार्टियों को परिवारवाद के नाम पर गरियाने वाली भाजपा में भी वहीं होता है जो संघ परिवार चाहता है, लेकिन स्थिति में थोड़ा बदलाव हुआ है और अब वही होगा जो गुजरात गैंग चाहता है। गुजरात गैंग क्या है और इनमें कौन कौन लोग जुड़े हैं इस पर कभी विस्तार से जानकारी दी जायेगी। अभी तो भाजपा के भीतर की स्थिति को समझने की कोशिश होनी चाहिए।

वैसे तो भाजपा को शुरु से ही पूंजीवादियों, व्यापारियों की पार्टी कहा जाता रहा है लेकिन अटल-अडवानी की जोड़ी के हटने के बाद यह साफ तौर पर दिखने भी लगा है कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि संघ किनारे कर दिये गए है बल्कि सवाल यह है कि वर्तमान परिदृश्य में क्या पैसा और पूंजी ही महत्वपूर्ण हो चला है और जिसके पांस पूंजी की ताकत होगी वही पार्टी को अपने हिसाब से चलायेगा?

तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि संघ की भूमिका इतनी बेबस क्यों है? इसके लिए इतिहास में ज्यादा दिन पीछे जाने की जरूरत नहीं है। यह 2013-14 की ही बात है। कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में माहौल था और संघ को सत्ता की राह आसान तो दिख रहा था लेकिन वह हर  कदम सोच समझ कर चलना चाहते थे। ऐसे में मामला आडवानी और मोदी के बीच जा फंसा। भाजपा का एक बड़ा वर्ग चाहता था कि आडवानी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए लेकिन संघ ने एक दांव खेला कि पैसा कौन लायेगा। यानी पूंजी की जवाबदारी के आगे आडवानी मौन रह गये और नरेन्द्र मोदी ने बाजी मार ली। आखिर तीन बार के मुख्यमंत्री और सहारा डायरी तो इसका संकेत था ही।

और जब संघ और पूरी भाजपा ही पूंजी के आगे नतमस्तक हो तब फिर सवाल बेमानी है कि पार्टी कौन चलायेगा। और यह बात न केवल नरेन्द्र मोदी जानते है बल्कि पूरा गुजरात गैंग जानता है कि जब तक पूंजी की ताकत रहेगी उनका न तो योगी आदित्यनाथ ही कुछ कर पायेगा और न ही संघ ही कुछ कर पायेगा।

यही वजह है कि गुजरात गैंग ने सबसे पहले योगी आदित्यनाथ का पर कतर देना चाहते हैं क्योंकि मोदी के बाद कौन के सवाल पर अब भी योगी ही है। जबकि योगी से पहले अमित शाह थे। इसलिए उत्तरप्रदेश की दमदारी और कट्टर हिन्दू चेहरा के बाद भी यदि योगी पर वार हो रहे हैं और संघ तथा पूरी भाजपा इसे खामोशी से दख रहा है तो जान लीजिए की पूंजी की ताकत ने अपना प्रभाव जमा लिया है।

बुधवार, 16 जून 2021

संघियों का ये कैसा राष्ट्रहित...

 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में कहा जाता है कि उसके संघ चालक, प्रचारक सभी काम राष्ट्रहित में कते है, राष्ट्रहित की वजह से वे परिवार नहीं बसाते और राष्ट्र निर्माण में ही अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं।

तब सवाल यह उठता है कि राष्ट्रहित क्या है और संघ के राष्ट्रहित का क्या मतलब है। यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे है क्योंकि अयोध्या में जो जमीन घोटाले का आरोप सामने आया है उसके केन्द्र में जो नाम चर्च में है वे हैं चम्पत राय। चम्पत राय विश्व हिन्दू परिषद के बड़े चेहरे रहे हैं और संघ के प्रचारक भी रहे है यानी संघ के अनुसार चम्पत राय जो भी काम करते है वह राष्ट्रहित और राष्ट्र निर्माण के अनुरुप होता है तब सवाल यही उठता है कि राम मंदिर निर्माण के लिए जो जमीन घोटाले की खबर आ रही है उसकी हकीकत क्या है।

हकीकत में देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के लिए जो जमीन दी गई यानी 70 करोड़ जमीन के अलावा ट्रस्ट और जमीन क्यों खरीद रही है क्या इसके लिए कोर्ट से ईजाजत ली गई। दूसरा सवाल यही है कि क्या ट्रस्ट को कुछ भी कीमत पर जमीन खरीदने का अधिकार है। तीसरा सवाल उत्तरप्रदेश राजस्व अधिनियम के उल्लंघन का है कि आखिर रजिस्ट्रार ने बाजार दर से कम में रजिस्ट्री क्यों की और इसके एवज में होने वाली राजस्व घाटा के लिए क्या रजिस्ट्रार को बर्खास्त नहीं कर दिया जाना चाहिए या संघ के राष्ट्र हित कानून से उपर है।

ऐसे में सवाल यदि संघ के संस्कार पर भी उठ रहे हैं तो यकीन मानिये मोदी सरकार के इस दौर में संघ की प्रतिष्ठा भी गिरी है क्योंकि नरेन्द्र मोदी भी संघ के प्रचारक रहे हैं और राजनैतिक शुद्धिकरण के चलते संघ में आये हैं चूंकि प्रचारक राष्ट्रहित में काम करते है और परिवार के झंझट में नहीं पड़ते इसलिए नरेन्द्र मोदी के शादीशुदा होने के बाद भी प्रचारक बनना  और न बनना किसे धोखा देना था यह संघ ही जाने। संघ प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी जी भी रहे और गुजरात कांड के बाद एक संघ प्रचारक जो राष्ट्रहित में ही काम करते हैं दूसरे संघ प्रचारक नरेन्द्र मोदी को राष्ट्र धर्म सिखलाने गुजरात जाते है तो कौन राष्ट्रहित का काम कर रहे थे यह भी संघ जाने।

तब सवाल यही है कि क्या संघ के प्रचारक राष्ट्रहित में ही काम करते हैं तब प्रचारक से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी का हर निर्णय क्या राष्ट्रहित में ही है। यह सवाल संघ के राष्ट्रहित की सोच को भी प्रदर्शित करता है कि आखिर नोटबंदी की लाईन में डेढ़ सौ लोगों की मौत क्या राष्ट्रहित में था, कोरोना की चेतावनी को नजर अंदाज करके नमस्ते ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता का लोभ क्या राष्ट्रहित का निर्णय था, रिजर्व बैंक का रिजर्व फंड का उपयोग यदि राष्ट्रहित का निर्णय मान भी ले तो क्या 8 लाख करोड़ रुपये उद्योगपतियों का राईट ऑफ करना राष्ट्रहित का निर्णय है? या बढ़ती बेरोजगारी बढ़ती महंगाई और टैक्स में बढ़ोत्तरी भी क्या राष्ट्रहित का निर्णय है।

चूंकि संघ के मुताबिक प्रचारक राष्ट्रहित में ही निर्णय लेते हैं इसलिए बंगारु लक्ष्मण से लेकर राघव जी का कार्य भी क्या राष्ट्रहित का ही है? तब सवाल यही है कि राम मंदिर ट्रस्ट को मिले चंदा का खर्च राष्ट्रहित में है और घोटाले तो हो ही नहीं सकते भले ही कानून का उल्लंघन हो जाए।

मंगलवार, 15 जून 2021

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण-4

 

1989 में सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल चुकी थी, बाफोर्स के भूत ने और परिवारवाद से चिढ़ ने भारतीय राजनीति को नई दिशा दी थी। यह वह दौर था जब लोगों को विश्वनाथ प्रताप सिंह से बहुत उम्मीद थी और इनके सामने न केवल पांच साल सरकार चलाने की चुनौती थी बल्कि फिर सत्तासीन होने की चुनौती थी।

वीपी सिंह ने धर्मनिरपेक्षता को जीवित रखने का प्रयास शुरु किया और मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर दी, समूचा पिछड़ा वर्ग इस फैसले से उत्साहित था, लेकिन हिन्दूत्व की राह में यह बड़ा रोड़ा हो सकता था। लालकृष्ण अडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक राममंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा का दांव चल दिया। रथयात्रा को रोकने पर सरकार गिरा देने की धमकी से एक बार फिर सरकार न चला पाने का दाग उभरकर सामने आ गया। भाजपा जो चाहती थी या संघ की सोच के अनुसार सब कुछ हो रहा था, गठबंधन की राजनीति ने एक बार फिर भाजपा को ताकतवर बना दिया था ऐसे में रथयात्रा को रोकने की हिम्मत कौन करे वह भी जब इस देश की भावना और आस्था से जुड़े प्रभु राम जी के नाम पर हो।

रथयात्रा की घोषणना ने देश की हवा में नफरत की फिंजा फैला दी, सामाजिक सौहाद्रर्य, गंगा जमुना संस्कृति, सामाजिक एकता डगमगाने लगा। कई जगह पर दंगे हुए, रक्तपात होने लगा। लेकिन इस यात्रा को रोकने की हिम्मत की लालू प्रसाद यादव ने। भाजपा अब तक स्वयं को ताकतवर तो समझ रही थी लेकिन वह जानती थी कि उस पर लगे साम्प्रदायिकता का दाग वह अकेले नहीं धो पायेगी। सरकार गिर गई लेकिन  कांग्रेस ने चन्द्रशेखर को समर्थन देकर चुनाव कुछ दिनों के लिए टाल दिया। लेकिन वह हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण करने पर लगातार अपने वोट बढ़ा रही थी लेकिन अचानक वह हुआ जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।

श्री पेरुबंदुर में राजीव गांधी को बम विस्फोट से उड़ा दिया गया। चुनाव चल रहा था, हिन्दी भाषी क्षेत्र में भाजपा ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो रही थी लेकिन इस घटना ने भाजपा को फिर सत्ता से पीछे ढकेल दिया। नरसिंम्हन राव की अगुवाई में कुछ दलों के समर्थन से कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो गई थी और उधर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर कांग्रेस में फूट पडऩे लगी। नारायण दत्त तिवारी-अर्जुन सिंह जैसे नेता अपनी अलग राह चुन चुके थे।

पति के दुख की पीड़ा ने सोनिया गांधी को घर में कैद कर रखा था। विवाह के बाद भारतीय बहु का फर्ज निभाने वाली सोनिया गांधी पर जब पार्टी के भीतर ही विदेशी के बाण चले तो दूसरे कहां मौका छोडऩे वाले थे। एक तरफ कांग्रेस के भीतर ही लड़ाई चल रही थी तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक शक्तियां सिर उठाने लगी। हालांकि भाजपा को अपनी ताकत दिखाने का मौका तो तभी मिल गया था जब शहबानों प्रकरण में बहुमत की ताकत से राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले बदल दिये थे। ये तुष्टीकरण पर प्रहार माना गया और हिन्दू वोट खिसकने का डर से कांग्रेस इतनी भयभीत हो गई कि उसने हिन्दू वोटों की खातिर राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। भूमिपूजन भी तय हो गया।

ये एक तरह से हिन्दू कुंठा की जीत थी। जो हिन्दू कुण्ठा प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को सोमनाथ के जीर्णोद्धार के कार्यक्रम से दूर रखा था वह राजीव गांधी पर सफल हो गया था।  राम मंदिर के ताला खुलने के फैसले भले कांग्रेस ने किया लेकिन यह ध्रुवीकरण की राजनीति का नया मोड़ था। ज्ञान पर नफरत के ध्वजारोहण का एक और चरण था।

सोमवार, 14 जून 2021

राम नाम की लूट...

 

राम मंदिर निर्माण के नाम पर जिस तरह से भ्रष्टाचार करने की खबरें आ रही है, वह हैरान कर देने वाला है। हालांकि राम के नाम पर न तो दुकानदारी नई है और न ही लूट-मार की कहानी ही नहीं है लेकिन ताजा मामले में जिस तरह से राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट पर दो करोड़ की जमीन  को दस मिनट के भीतर 18 करोड़ में खरीदी की गई वह साफ संकेत देता है कि राममंदिर ट्रस्ट में बैठे लोग किस तरह से मंदिर निर्माण की आड़ में अवैध रुप से पैसा कमाने में लगे हैं।

दरअसल आस्था के नाम पर जिस तरह खेल चल रहा है वह न तो समाज हित में है और न ही धर्म के हित में ही है। ताजा मामला एक ऐसे जमीन घोटाले और साजिश की ओर संकेत करते हैं जो लोगों की आस्था पर प्रहार है। वैसे तो राम मंदिर निर्माण के मुद्दे में जब से संघ और भाजपा ने हस्तक्षेप किया तभी से पैसों के हिसाब किताब को लेकर सवाल उठते रहे हैं, पिछली बार हुए हजार करोड़ से उपर के चंदे का कोई हिसाब किताब नहीं दिया गया और इस बार भी बीस हजार करोड़ से अधिक रकम इकट्ठा हुआ है।

ऐसे में जिस तरह से जमीन घोटाले की खबर सामने आई है उसके बाद ट्रस्ट से जुड़े लोगों की भूमिका और नियत पर सवाल उठ रहे हैं। इस घोटाले का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ट्रस्ट से जुड़े लोगों ने राम के नाम पर किस तरह से लूट मचा रखी है। चूंकि पूरे प्रकरण का दस्तावेज सार्वजनिक हो गया है तब ट्रस्ट निर्माण करने वालों की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं।

राम के नाम पर इस तरह से कोई घोटाला करेगा यह सोचा ही नहीं जा सकता था लेकिन पूरे प्रकरण में जिस तरह का खेल खेला गया उसमें सत्ता की भागीदारी से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ट्रस्ट के सचिव चंपत राय और ट्रस्ट के एक सदस्य अनिल शर्मा के मिलीभगत से केवल दस मिनट में जमीन की कीमत 2 करोड़ से बढ़कर 18 करोड़ हो गई और हैरानी तो यह है कि जमीन खरीदने के लिए स्टाम्प की खरीदी भी जमीन बिकने के दस मिनट पहले ही कर ली गई। यानी जिस जमीन को दो करोड़ में खरीदा जाना था उसे 18 करोड़ में खरीदने के लिए स्टाम्प दो करोड़ में खरीदने के पहले ही खरीद लिया गया। यही नहीं दोनों ही खरीदी बिक्री में ट्रस्ट के सदस्य अनिल शर्मा और अयोध्या के मेयर गवाह भी बन गए।

ऐसे में सवाल यह है कि मोदी सत्ता ने जो ट्रस्ट बनाई है वह क्या कर रही है। हालांकि संघ और भाजपा पर राम के नाम पर राजनीति करने और  लोगों की आस्था से खिलवाड़ करने का आरोप पहले भी लगता रहा है लेकिन इस जमीन घोटाले में रजिस्ट्री के दस्तावेज सामने आने के बाद सब कुछ साफ होने लगा है। देखना है कि इस घोटाले को दबाने के लिए सत्ता का प्रभाव कहां तक जाता है।

शनिवार, 12 जून 2021

शराब में सराबोर भूपेश सरकार...

 

शराब बंदी को लेकर सत्ता में आई भूपेश सरकार के राज में अब गांव-गांव में शराब की नदियां बहने लगी है। अवैध शराब कारोबारियों को जिस तरह से प्रश्रय दिया जा रहा है वह चिंतनीय है। अवैध शराब के खेल में जिस तरह से माफिया, पुलिस और नेताओं की मिलीभगत भी सामने आने लगी है। 

ऐसे में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव की शांति छिन गई है और परिवार के परिवार बर्बादी की कगार पर है लेकिन सत्ता को शराब से होने वाली कमाई ही दिखाई दे रहा है। महासमुंद की रेल पटरी में जिस तरह की लाशें बिछी वह क्या आगे भी बिछती रहेगी। यह सवाल इसलिए है क्योंकि  अवैध शराब के कारोबारियों के शिकंजे में पूरा छत्तीसगढ़ फंस चुका है। बेमचा की उमा और उसकी पांच बेटियों की आत्महत्या का मामला भले ही कुछ दिनों बाद भूला दी जाए लेकिन सच तो यही है कि शराबी पति या शराबियों की वजह से न केवल घरेलु हिंसा बढ़ी है बल्कि अपराध में भी बढ़ोत्तरी हुआ है। सामाजिक ताने-बाने भी टूट रहे हैं और परिवार भी बिखर रहा है।

ऐसे में शराबबंदी की पहल कांग्रेस ने इसलिए की थी क्योंकि रमन सरकार में शराब की नदिया बहने लगी थी, थाने दस-दस हजार में बिकने की चर्चा थी और डॉ. रमन सिंह दारु वाले बाबा कहलाने लगे थे। शराब से परेशान छत्तीसगढ़ के लोगों ने कांग्रेस के वादे पर भरोसा किया और कांग्रेस प्रचंड बहुमत से जीत भी गई। कहा जाता  है कि शराब बंदी के वादे की वजह से महिलाओं ने कांग्रेस को एकतरफा वोट दिया था लेकिन  ढाई साल बाद भी भूपेश सरकार ने शराब बंदी की बात तो दूर इसके लिए न तो कोई सामाजिक जागरुकता ही चलाई और न ही कोई सरकारी स्तर पर ही पहल हुआ उल्टे अवैध शराब के कारोबारियों को प्रश्रय दिए जाने की खबर आने लगी है।

राजधानी रायपुर में ही किस तरह के लोग अवैध शराब का कारोबार कर रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है और इन लोगों की सत्ता से नजदिकियां भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में सरकार यदि शराब में डूब गई है कहा जाए तो गलत नहीं होगा जबकि यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले ढाई साल में सत्ता का शराब को लेकर क्या मापदंड है। जबकि सत्ता चाहे तो चरणबद्ध ढंग से भी शराब बंदी कर सकती है। यह ठीक है कि जिन राज्यों में शराबबंदी है वहां भी अवैध शराब बन रहे है लेकिन जागरुकता अभियान और चरणबद्ध ढंग से इसे अमलीजामा तो पहनाया ही जा सकती है।

शुक्रवार, 11 जून 2021

देश की पूरी दुनिया में बेइज्जती कर दी मोदी ने...

 

क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए? क्या ये झूठ बोलने का संस्कार उन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मिला है? क्या देश में वैक्सीन  को लेकर प्रधानमंत्री के बयान झूठ का पुलिंदा है।

सवाल बहुत से हैं, लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री बात-बात पर झूठ बोले तो न केवल देश को शर्मिन्दा होना पड़ता है बल्कि पूरी दुनिया में्  देश की बेइज्जती भी होती है। ताजा मामला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह बयान है जिससे पूरी दुनिया में भारत की न केवल थूथू होने लगी है बल्कि यहां के वैज्ञानिक भी अपमानित महसूस कर रहे हैं।

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहली बार झूठ नहीं बोले है और न ही उनकी हरकत से पहली बार ही देश शर्मसार हुआ है। इनसे पहले भी वे लगातार कई बार झूठ बोल चुके हैं, कोरोना की दूसरी लहर के नरसंहार को लेकर तो पूरी दुनिया में भारत की छवि को धक्का लगा है। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना वैक्सीन को लेकर जिस तरह से अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि भारत को विदेशों से वैक्सीन प्राप्त करने में दशकों लग जाता था, पोलियो, चिकनपाक्स, हेपेटाइटीस बी हो देशवासियों को दशकों लग जाते थे। प्रधानमंत्री ने जिस अहंकार के साथ यह बात कही उससे साफ है कि उन्हें इस देश के वैक्सीन के न तो इतिहास की जानकारी है और न ही यहां के वैज्ञानिकों की क्षमता का ही पता हैं।

प्रधानमंत्री के इस कथन से दूसरे देशों में भारत की जो छवि बनी वह किसी बेइज्जती से कम नहीं है, भारत को जिस तरह से असहाय बताया गया वह प्रधानमंत्री को न तो शोभा देता है और न ही इससे भारत की छवि ही बनती है। वैक्सीन को लेकर प्रधानमंत्री मोदी बेशक अपना पीठ थपथपाते लेकिन सच तो यह है कि भारत में वैक्सीन 1948 से ही बनने लगा था, वैक्सीन के मामले में भारत दुनिया के कई देशों की वैक्सीन देता है और वैक्सीनेशन में तो भारत का नाम 1995 में ही गिनिज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज हो चुका है। 

तब प्रधानमंत्री का इस तरह से वैक्सीन को लेकर की गई दावे का झूठ अब सामने आ गया है। दुनिया के कई देश कहने लगे है कि ये कैसा प्रधानमंत्री है जो अपनी देश के इतिहास से नावाकिफ है, अपने ही देश के वैज्ञानिकों का अपमान कर रहे हैं। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री का यह वीडियो पूरी दुनिया में वायरल हो रहा है और भारत की क्षमता पर सवाल ही नहीं उठ रहे हैं बल्कि दुनियाभर में रह रहे भारतीयों को शर्मिन्दगी तक उठानी पड़ रही है। इसे लेकर कांग्रेस सहित कई दलों ने आपत्ति भी की है।

गुरुवार, 10 जून 2021

अर्थव्यवस्था की बर्बादी जानबूझकर की जा रही...

 

क्या मोदी सरकार अर्थव्यवस्था की बर्बादी जानबूझकर कर रही है, क्या मोदी सरकार कुछ चंद ऐसे लोगों के हाथों में पूंजी सौंपना चाहती है जो उनके इशारे पर चले?

आप कहेंगे ऐसे कैसे हो सकता है? कोई सरकार अपनी अर्थव्यवस्था क्यों बर्बाद करेंगी, देश की पूंजी कुछ गिने चुने हाथों में क्यों सौंपेगी? इससे उन्हें क्या लाभ है। फिर वह सत्ता जो अपने को घोर धार्मिक और राष्ट्रवादी बताते नहीं थकती। वह यह सब क्यों करेगी। तो इसका सीधा सा जवाब है कि सत्ता में लंबे समय तक बने रहने के लिए मोदी सरकार यह सब जानबूझकर कर रही है, कहा जाए तो गलत इसलिए भी नहीं होगा क्योंकि यह वह फार्मूला है जो आज से सत्तर साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक संचालक ने प्रस्तुत की थी।

आप यकीन नहीं करेंगे तो संघ के सरसंघ चालक गुरुजी गोवलकर की पुस्तक  'वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंडÓ को पढ़ लीजिए। इसे पढ़ोगे तो समझ जाओगे कि अर्थव्यवस्था की कमर तोडऩे का मकसद क्या है। यह गुरुजी गोवलकर की पुस्तक में विस्तार से बताया गया है। गोवलकर ने लिखा है कि सत्ता में हमेशा बने रहने के लिए 95 प्रतिशत देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करना जरूरी है। गोवलकर के नियम के अनुसार 95 प्रतिशत देशवासियों को गरीब बनाया जाता है और चंद गुलाम किस्म के लोगों को शक्तिशाली बनाया जाता है ऐसा हो जाने से सत्ता हमेशा हमेशा के लिए हथियाया जा सकता है।

अब आप सोचेंगे कि मोदी सरकार ने क्या किया है तो फिर बीते सात साल को बारिक से देखना होगा कि देश की अर्थव्यवस्था क्यों बर्बाद हुई, इसमें मोदी सत्ता की क्या भूमिका रही। तो मोदी सत्ता के आने के बाद क्या हुआ इसे समझने की जरूरत है। शुरुआत नोट बंदी से हुई कहा  जाए तो गलत नहीं होगा, इससे लोगों की जमा पूंजी पर क्या असर पड़ा यह किसी से छिपा नहीं है, फिर जीएसटी से मध्यम वर्ग के व्यापारियों  की कमर टूटने लगी। बैकों का एनपीए बढऩे लगा, सरकारी उपक्रम बेचा जाने लगा, रोजगार खत्म किया जाने लगा, दंगों से खरबों रुपये की सरकारी संपत्ति को नुकसान होता है यह भी कौन नहीं जानता।

इसके अलावा बीते सात सालों में संविधान को कमजोर किया गया, श्रम कानून को बदलकर उद्योगों का हित साधा गया, छोटे व्यापार की बजाय बड़े व्यापार को प्रश्रय दिया गया, यस बैंक का डूबना, जेट एयरवेज, आईएल एंड एफएस, बीएसएनएल, एयर इंडिया, वोडाफोन समेत कई कंपनी बर्बादी के कगार पर पहुंच गई। यदि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को माने तो 2016 से 2018 तक रोज 1095 अमीर भारतीय भारत छोड़कर विदेशों में बस रहे हंै। इसकी वजह से देश का अरबों-खरबों रुपया विदेश चला गया।

बीते 7 सालों में कई कंपनियां बंद हो गई, कई डिफाल्टर हो गयेे और चंद लोग तमाम मुश्किल के बाद भी पूंजी बढ़ाते रहे, वैसे तो गुलाम उद्योगपति कौन है यह किसी से छिपा नहीं है। जिन उद्योगपतियों ने सत्ता की नहीं सुनी, उन्हें भारत से निकल जाने दिया गया, और जो सुनी वे  अडानी, अंबानी, रामदेव सहित कई नाम आप गिन सकते है। अर्थव्यवस्था की इस बदहाली पर सरकार चुप है, वह आरबीआई का रिजर्व पैसा निकाल लिया है, चार लाख नई करेंसी छापने की खबर का मतलब भी जानना चाहिए क्योंकि इससे करेंसी की वैल्यू कम होना तय है और डॉलर  सौ रुपये के पार हो जायेगा।

तब देखना होगा कि क्या गोवलकर के किताब 'वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंडÓ की अर्थव्यवस्था लागू की जा रही है। गोवलकर अपनी किताब में लिखतेे हैं अच्छे प्रशासन को यह तय करना चाहिए कि उनके राज्य में जनता की कमाई कम से कम हो और ज्यादा धनवान हो तो नियंत्रण कठिन होता है इसलिए पंूजी दो चार हाथों से ज्यादा न हो। अब आप बीते सात सालों को परखें और तय करे कि सत्ता क्या कर रही है।

बुधवार, 9 जून 2021

फिर ममता ने भाजपा को पटकनी दी...

 

पश्चिम बंगाल में मिली पराजय के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस पर प्रहार शुरु किया है इसके जवाब में जब तृणमूल सामने आई तो भाजपा की बोलती बंद हो गई है, राज्यपाल जगदीप धनखड़ के कारनामों की पोल खुलते ही पूरी भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गई है जबकि बंगाल भाजपा में बवाल मच गया है, राज्यपाल के कारनामें की खबर से दिल्ली भी सकते में है और अब वह ममता पर प्रहार के लिए नए तरीके ढंूढ रही है।

यह बात किसी से छिपा नहीं है कि बंगााल में तृणमूल कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कर न केवल मोदी शाह की बोलती बंद कर दी बल्कि चुनाव परिणाम के बाद हुए हिंसा ने भाजपा में हताशा भर दी है। हालत यह है कि भाजपा के कई दिग्गज वापस टीएमसी में जाने न केवल छटपटा रहे है बल्कि कई नेता तो ममता बैनर्जी से अपनी गलतियों के लिए माफी तक मांग रहे हैं। परिणाम से हताश भाजपा ने यहां चुनाव बाद हुए हिंसा को पहले तो हिन्दू-मुस्लिम करने की कोशिश की लेकिन सच सामने आते ही लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताने लगे लेकिन जब बंगाल की राजनैतिक हिंसा पर उठे सवाल ने भाजपा की बोलती बंद कर दी। चूंकि कोरोना काल की लापरवाही के चलते पूरे देश में जिस तरह  का नरसंहार हुआ है उससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को गहरा आघात लगा है, जबकि बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी का जीवन नारकीय बना दिया है। लेकिन मोदी सत्ता को इससे ज्यादा जरूरी काम है और वो काम है हिन्दू-मुस्लिम और विरोधियों को किनारे लगाना। और यह दोनों ही काम बंगाल में फेल हो चुका है। इधर मोदी सत्ता की करतूत से नाराज टीएमसी ने भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।

ताजा मामला राज्यपाल जगदीप धनखड़ का है। किसी राजनैतिक दल की तरह काम करने के आरोपों के बीच राज्यपाल पर जिस तरह से आरोप लगे है वह न केवल भाजपा के लिए असहनीय है बल्कि संघ के संस्कार पर भी सवाल उठा रहे हैं। टीएमसी की फायर ब्रांड सांसद महुआ मोहत्रा ने राज्यपाल जगदीप धनखड़ को इस बार निशाने पर लेते हुए राज्यपाल के करतूतों की फाईल खोलने का दावा किया है। महुआ मोहत्रा ने राजभवन में राज्यपाल के द्वारा की गई नियुक्ति की सूची जारी करते हुए कहा है कि राजभवन में राज्यपाल ने अपने रिश्तेदारों और परिचितों की नियुक्ति कर माफी मांगने और दिल्ली लौट जाने की सलाह तक दे दी है।

महुआ मोहत्रा का दावा है कि राज्यपाल के ओएसडी शेखावत को धनखड़ के बहनोई के बेटे, रूचि दुबे ओएसडी को पूर्व एडीसी दीक्षित की पत्नी, प्रशांत दीक्षित पूर्व एडीसी के भाई हैं। वलिकर, किशन धनखड़ सहित कई नाम गिनाकर मोहत्रा ने सीधा हमला किया है। यही नहीं महुआ मोहत्रा ने तो यहां तक कहा है कि संघ के पालतु लोगों को अलग-अलग राज्यों में राज्यपाल बनाकर प्रधानमंत्री ने राज्यपाल की गरिमा गिरा दी है। ममता ने भाजपाा को पटकनी दी...

पश्चिम बंगाल में मिली पराजय के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस पर प्रहार शुरु किया है इसके जवाब में जब तृणमूल सामने आई तो भाजपा की बोलती बंद हो गई है, राज्यपाल जगदीप धनखड़ के कारनामों की पोल खुलते ही पूरी भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गई है जबकि बंगाल भाजपा में बवाल मच गया है, राज्यपाल के कारनामें की खबर से दिल्ली भी सकते में है और अब वह ममता पर प्रहार के लिए नए तरीके ढंूढ रही है।

यह बात किसी से छिपा नहीं है कि बंगााल में तृणमूल कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कर न केवल मोदी शाह की बोलती बंद कर दी बल्कि चुनाव परिणाम के बाद हुए हिंसा ने भाजपा में हताशा भर दी है। हालत यह है कि भाजपा के कई दिग्गज वापस टीएमसी में जाने न केवल छटपटा रहे है बल्कि कई नेता तो ममता बैनर्जी से अपनी गलतियों के लिए माफी तक मांग रहे हैं। परिणाम से हताश भाजपा ने यहां चुनाव बाद हुए हिंसा को पहले तो हिन्दू-मुस्लिम करने की कोशिश की लेकिन सच सामने आते ही लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताने लगे लेकिन जब बंगाल की राजनैतिक हिंसा पर उठे सवाल ने भाजपा की बोलती बंद कर दी। चूंकि कोरोना काल की लापरवाही के चलते पूरे देश में जिस तरह  का नरसंहार हुआ है उससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को गहरा आघात लगा है, जबकि बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी का जीवन नारकीय बना दिया है। लेकिन मोदी सत्ता को इससे ज्यादा जरूरी काम है और वो काम है हिन्दू-मुस्लिम और विरोधियों को किनारे लगाना। और यह दोनों ही काम बंगाल में फेल हो चुका है। इधर मोदी सत्ता की करतूत से नाराज टीएमसी ने भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।

ताजा मामला राज्यपाल जगदीप धनखड़ का है। किसी राजनैतिक दल की तरह काम करने के आरोपों के बीच राज्यपाल पर जिस तरह से आरोप लगे है वह न केवल भाजपा के लिए असहनीय है बल्कि संघ के संस्कार पर भी सवाल उठा रहे हैं। टीएमसी की फायर ब्रांड सांसद महुआ मोहत्रा ने राज्यपाल जगदीप धनखड़ को इस बार निशाने पर लेते हुए राज्यपाल के करतूतों की फाईल खोलने का दावा किया है। महुआ मोहत्रा ने राजभवन में राज्यपाल के द्वारा की गई नियुक्ति की सूची जारी करते हुए कहा है कि राजभवन में राज्यपाल ने अपने रिश्तेदारों और परिचितों की नियुक्ति कर माफी मांगने और दिल्ली लौट जाने की सलाह तक दे दी है।

महुआ मोहत्रा का दावा है कि राज्यपाल के ओएसडी शेखावत को धनखड़ के बहनोई के बेटे, रूचि दुबे ओएसडी को पूर्व एडीसी दीक्षित की पत्नी, प्रशांत दीक्षित पूर्व एडीसी के भाई हैं। वलिकर, किशन धनखड़ सहित कई नाम गिनाकर मोहत्रा ने सीधा हमला किया है। यही नहीं महुआ मोहत्रा ने तो यहां तक कहा है कि संघ के पालतु लोगों को अलग-अलग राज्यों में राज्यपाल बनाकर प्रधानमंत्री ने राज्यपाल की गरिमा गिरा दी है।

मंगलवार, 8 जून 2021

फटकार के बाद मोदी...

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वैक्सीनेशन को लेकर दिया गया बयान को कुछ लोग देर आये दुरुस्त आये कह रहे हैं तो समर्थक वाह मोदी में लगे है लेकिन हकीकत में देखा जाये तो यह लातों के भूत बातों से नहीं मानते की कहावत को चरितार्थ करता है, सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से दो हफ्ते में वैक्सीन और 35 हजार करोड़ का हिसाब मांगा था, वैक्सीन की दो कीमतों पर सवाल उठाया था और सरकार की तैयारी पूछा था उसके बाद आये इस निर्णय का सच तो यही है।

हैरानी की बा तो यह है कि जिस राष्ट्र के नाम संबोधन पर पूरी दुनिया की निगाह होती है उसमें भी कोई झूठ बोल दे, लफ्फाजी करे और अपनी लापरवाही की वजह से हुए नरसंहार पर आंख मूंद ले तो यह बेशर्मी की पराकाष्ठा के अलावा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के झूठ की कहानी बताने से पहले यह बात आम लोगों को जान लेना चाहिए कि इस देश में गंगा में बढ़ती लाशें, चिताओं की लाईने और आक्सीजन तथा अव्यवस्था से हुई मौत न केवल सत्ता की लापरवाही के चलते हुई है बल्कि यह मोदी सत्ता के द्वारा किया गया नरसंहार है।

हम इसे सत्ता का नरसंहार इसलिए भी कहते हैं कि नमस्ते ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के लोभ से शुरु हुई लापरवाही आज भी जारी है, सत्ता की लफ्फाजी और झूठ का कहर आम लोगों के दैनिक जीवन पर बुरी तरह टूटा है। जिस मुक्त वैक्सीन को लेकर आज मोदी समर्थक बेशर्मी से अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश कर रहे हैं वे भी जान ले कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने दो सप्ताह के भीतर जवाब देने सरकार को नहीं हड़काया होता तो सत्ता अभी भी उत्तरप्रदेश सहित सात राज्यों में होने वाले चुनाव की रणनीति के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकती। और रणनीति भी झूठ नफरत और अफवाह पर टिकी हुई।

सुप्रीम कोर्ट के जिन सवालों की वजह से फ्री वैक्सीन की गई वह सवाल लोगों का जानना चाहिए। कोर्ट ने मोदी सत्ता से पूछा था कि जिस  35 हजार करोड़ संसद में लाया थआ वह 35 हजार करोड़ कहां कैसे खर्च किया जवाब दो, वैक्सीन की दो कीमत क्यों है, यदि पिछले साल से तैयारी थी तो ऑक्सीजन और दवाई के अभाव में लोग क्यों मरे, तैयारी थी तो वैक्सीन की कमी क्यों है, वैक्सीन को लेकर कहां क्या खर्च किया गया। ऐसे कितने ही सवालों को लेकर जह सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सत्ता को लानत भेजते हुए दो हफ्ते के भीतर जवाब देने कहा तब फ्री वैक्सीन का खेल शुरु हुआ है।

इस  संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी के झूठ से पहले बता दें कि मोदी सत्ता की तैयारी क्या थी, जब विशेषज्ञ ऑक्सीजन की जरूरत बता रहे थे तो मोदी सत्ता ऑक्सीजन विदेशों को बेच रही थी। जब दुनिया भर के देश 2020 में ही वैक्सीन खरीदने आर्डर दे रहे थे तो मोदी सत्ता असम-बंगाल में चुनाव जीतने की रणनीति बना रही थी, कोरोना की कमी होते ही दूसरे देशों को वैक्सीन बेची जा रही थी और दावा किया जा रहा था कि हमने कोरोना की लड़ाई जीत ली है और अब दुनिया को मदद करेंगे।

सत्ता की लापरवाही से हुए नरसंहार के बाद भी यदि कोई झूठ बोले तो सवाल उठना चाहिए कि क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए। प्रधानमंत्री अब भी अपनी वाहवाही की भूख मिटाने झूठ बोलते है कि भारत ने दो वैक्सीन बनाई जबकि हकीकत यही है कि भारत ने  केवल कोवैक्सीन ही बनाई और यह कारनामा भारत टेक ने किया जबकि जिस कोविशील्ड को लेकर प्रधानमंत्री मोदी दावा करते हैं वह वैक्सीन आस्ट्राजेनिका आक्सफोर्ड का है और अदार पूनावाले का सिरम इंस्टीट्यूट ने लाइसेंस लेकर कोविशील्ड तैयार किया है। यानी आप देखेंगे कल स्पूतनिक, जानसन या दूसरी कंपनी का वैक्सीन यदि भारत में तैयार होने लगे तो क्या मोदी सत्ता इसी तरह का दावा करेंगी। लापरवाही के नरसंहार का जवाब तो सुप्रीम कोर्ट ने दो हफ्ते में मांगा है लेकिन सच आपके सामने है कि मोदी सत्ता तब जागी जब सुप्रीम कोर्ट हड़काया।

सोमवार, 7 जून 2021

ढाई साल का सच!

 

वैसे तो राजनीति में निश्चित कुछ भी नहीं होता है, तब ढाई-ढाई साल वाला फार्मूला क्या बला है? छत्तीसगढ़ में जब से कांग्रेस की सरकार आई है तभी से यह चर्चा जोरों पर रही कि भूपेश बघेल और सिंहदेव उर्फ बाबा के बीच ढाई-ढाई साल का बंटवारा हुआ है, और यह चर्चा अब तेज इसलिए हो गया है क्योंकि वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का ढाई साल 17 जून को पूरा होने जा रहा है।

ऐसे में इस सच को आम लोगों को जानना भी जरूरी है कि आखिर यह ढाई साल क्या बला है और इसमें कितनी सच्चाई है। हैरानी तो लोगों को इसलिए भी है या ढाई-ढाई साल के चर्चे को बल इसलिए भी मिलता है क्योंकि इससे अब तक सीधे तौर पर नो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कभी इंकार किया और न ही सिंहदेव ने ही कभी इसका सीधे समर्थन ही किया।

यदि दोनों नेता भूपेश बघेल और सिंहदेव इस फार्मूले को इंकार कर देते तो विवाद ही नहीं होता और यदि इस सवाल पर गोल-मोल जवाब  आ रहा है तो इसका मतलब साफ है कि यह फार्मूला कहीं न कहीं अस्तित्व में रहा है। तब सच का पड़ताल जरूरी है। तब सच क्या है?

पंद्रह साल के निर्वासन के बाद जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत दर्ज करने से पहले मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार थे भूपेश बघेल और सिंहदेव! लेकिन बहुमत आते ही चरणदास महंत और ताम्रध्वज साहू भी मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल हो गए। एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर जब मुख्यमंत्री बनने की होड़ मची तो किसी का किसी से समझौता मुश्किल हो गया। हालांकि तब भी मुकाबला भूपेश और सिंहदेव में ही था और दोनों पीछे हटने को तैयार नहीं थे।

जैसा कि कांग्रेस में अमूमन होता है लड़ाई के फैसला का निर्णय हाईकमान पर छोड़ दिया गया, और दो की लड़ाई में तीसरे को फायदे की न केवल उम्मीद ही बढ़ गई बल्कि हाईकमान ने भी साफ कह दिया कि जीत का श्रेय भूपेश बघेल और सिंहदेव को है लेकिन दोनों एक नहीं हो पा रहे हैं तो फिर उनका निर्णय ही सर्वोपरि होगा और हाईकमान के इस फैसले पर सभी यानी चारों दावेदार राजी भी हो गये।

अब सुनिये इस ढाई साल का सच। जिससे न भूपेश बघेल इंकार करते हैं न ही सिंहदेव उर्फ बाबा ही सीधे इंकार करते हैं। दरअसल ढाई साल का इस सच से कांग्रेस हाईकमान ने पहले ही दिन कह दिया था कि ये तुम लोग जानो। तुम लोग मतलब भूपेश बघेल और सिंहदेव। अब असल कहानी में आते हैं, हाईकमान पर निर्णय छोड़ दाऊ, बाबा और महंत लौटने लगे और अभी वे हवाई अड्डे पर पहुंचे ही थे कि ताम्रध्वज साहू के नाम पर मुहर लगने की खबर ने इस ढाई साल के फार्मूले की नींव रखी, उल्टा पैर लौटे भूपेश बघेल, सिंहदेव और चरणदास महंत ने सीधे राहुल गांधी यानी हाईकमान से कहा कि हमारे बीच सहमति बन गई है कि भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया जाए। राहुल गांधी को सहमति का फार्मूला भी समझाया गया लेकिन कहते हैं राहुल गांधी ने साफ कह दिया कि इस फार्मूले को आप लोग जानो, अभी क्या करना है। तीनों का समवेत स्वर गूंजा भूपेश बघेल। और भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बन गये।

फार्मूले और सहमति का स्टाम्प पेपर तो है नहीं कि चुनौती दी जा सके और जब तक सीधे-सीधे दाऊ, बाबा और महंत कुछ नहीं कहेंगे यह कोई जान भी नहीं सकता कि आखिर सच क्या है, और जनता जान भी गये तो इसे लागू करवाने वाला हाईकमान को जानना ही नहीं मानना जरूरी है और हाईकमान जब किसी को कभी भी हकाल सकता है तो इस फार्मूले का मतलब ही क्या है।

रविवार, 6 जून 2021

आ गये हैं भगवाधारी!

उत्तरप्रदेश सहित देश के 11 राज्यों में अगले साल यानी 2022 को होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा ने कमर कस ली है लेकिन सर्वाधिक दिलचस्प स्थिति उत्तरप्रदेश की है। जहां भगवाधारी योगी आदित्यनाथ की सत्ता है और यह ऐसी सत्ता है जिसके आगे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भी नहीं चलती कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

ऐसे में मोदी और योगी के बीच विवाद इसलिए भी उठ खड़ा हुआ है क्योंकि भाजपा के भीतर भी योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री के रेस में है। उत्तरप्रदेश में चल रहे विवाद की एक वजह यह भी मानी जाती है कि योगी आदित्यनाथ को लेकर भाजपा में जिस तरह का उत्साह है उसे गुजरात गैंग पचा नहीं पा रहे हैं। 

दरअसल कभी अपनी सुरक्षा को लेकर संसद में जार-जार रोने वाले योगी आदित्यनाथ का उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनना असाधारण घटना थी, क्योंकि योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पसंद कभी नहीं रहे और यदि चर्चाओं पर विश्वास करें तो योगी आदित्यनाथ ने भी समय-समय पर गुजरात गैंग को अपनी ताकत का अहसास कराने से परहेज नहीं किया, इसके लिए चाहे किसी की छवि खराब हो तब भी उन्होंने इसकी परवाह नहीं की।

कट्टर हिन्दुत्व का नया चेहरा के रुप में योगी आदित्यनाथ ने कब अमित शाह को पराजित किया इसकी तारीख बताना मुश्किल है लेकिन कभी नरेन्द्र मोदी के विकल्प माने जाने वाले अमित शाह की जगह योगी आदित्यनाथ कभी का ले चुके हैं। तब गुजरात गैंग का बौखलाना स्वाभाविक है और यह मौका दिया पंचायत चुनाव के परिणाम ने। भाजपा की पंचायत चुनाव में बुरी गत बनते ही गुजरात गैंग सक्रिय हो गया लेकिन कहा जा रहा है कि योगी की कट्टर हिन्दू वाली छवि के आगे गुजरात गैंग को एक बार फिर मुंह की खानी पड़ी।

योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से जातिवाद चलाकर ब्राम्हणों के खिलाफ कार्रवाई की है यह भी भाजपा के लिए बेचैन कर देने वाला है। उत्तरप्रदेश में ब्राम्हण वोट का अपना प्रभाव है और योगी आदित्यनाथ के बारे में कहा जाता है कि ब्राम्हणों से उनका बैर बहुत पुराना है और यही वजह है कि सत्ता में आने के बाद उन्होंने परशुराम जयंती पर दिये जाने वाले शासकीय अवकाश को रद्द कर दिया ताकि ठाकुर लॉबी खुश हो सके।

कोरोना काल में भी योगी आदित्यनाथ की कार्यपद्धति को लेकर सवाल उठते रहे। विभिन्न राज्यों में फंसे उत्तरप्रदेश के छात्रों को लाने में योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से मोदी सरकार पर दबाव बनाया उसके बाद ही दूसरे राज्यों में अफरा-तफरा मची और कोरोना नियंत्रण में दिक्कतें आई। ताजा मामला तो गंगा में बहती लाशें, श्मशान में चिंताओं की लाईन है जिसके चलते सरकार की छवि बिगड़ी है लेकिन मोदी और योगी के बीच चल रहे इस लड़ाई में गुजरात गैंग असहाय है और भाजपा के कुंठित हिन्दु अभी से नारा लगाने लगे हैं- 

आ गये हैं भगवाधारी

राज तिलक की करो तैयारी।

शुक्रवार, 4 जून 2021

क्या ये नरसंहार नहीं है साहेब!

 

इतिहास में यह बात भी दर्ज होगा कि जब भीषण महामारी में देवभूमि के लोग दाना-दाना के लिए तरस रहे थे, गंगा में लाशें बह रही थी, श्मशान में चिताओं की लम्बी लाईनें थी, लोग आक्सीजन के अभाव में मर रहे थे, चारों तरफ सत्ता की लापरवाही से नरसंहार हो रहा था, तब देश की मौजूदा मोदी सरकार अपनी रईसी बरकरार रखने टैक्स पर टैक्स वसूल रही थी, राज्य वैक्सीन के लिए तरस रहे थे बल्कि प्रधानमंत्री सेन्ट्रल विस्टा में अपना महल बनाने में व्यस्त थे।

कोरोना के इस भीषण महामारी में जब आम आदमी बेरोजगारी और महंगाई की मार से नारकीय जीवन जीने मजबूर है तब सत्ता न केवल वैक्सीन पर टैक्स घटाने तैयार नहीं बल्कि सरकार का पैसा बचाने निजी अस्पतालों को फायदा पहुंचाने आम आदमी पर आर्थिक बोझ डाल रही है। पूरा देश इन दिनों वैक्सीन की कमी से जूझ रहा है, सरकारी अस्पतालों में यदि वैक्सीन उपलब्ध नहीं है और निजी अस्पतालों में वैक्सीन उपलब्ध है तो इसका मतलब क्या है? इसका मतलब साफ है कि सरकार केवल अपने फायदे देख रही है, जनता आर्थिक बोझ से मरे तो मरे।

सरकार की करतूतों की वजह से सुप्रीम कोर्ट बेहद नाराज है और अब तो उसने मोदी सत्ता से सीधे पूछ लिया कि आखिर वैक्सीन के लिए रखे वह 35 करोड़ का क्या किया? हालांकि इसका जवाब न केन्द्र देने वाला है और न ही न्यायालय ही इस सरकार को चेतावनी देने या लानत भेजने के अलावा ही कुछ कर सकती है।

आयेगा तो मोदी ही, हौसला मत टूटने देना इस मोदी का ब्रम्हा लेकर छवि चमकाने वालों को भी इस भीषण महामारी में टैक्स और रईसी दिखाई नहीं देने वाला है। तब कांग्रेस की बड़ी नेता श्रीमती सोनिया गांधी का मोदी सत्ता को लेकर किया गया प्रहार को याद करना चाहिए कि सरकार चलाना बच्चों का खेल नहीं है। वैसे भी जिन लोगों ने जीवनभर झूठ, अफवाह और नफरत की राजनीति की हो उनसे आपदा के समय भी बेहतरी की उम्मीद बेमानी है। तब क्या हाथ पर हाथ बांधकर कर 2024 का इंतजार करना चाहिए। 

क्योंकि इस सत्ता ने जिस तरह से संघीय ढांचे पर प्रहार कर संवैधानिक संस्थाओं की साख का बट्टा बिठा दिया है उसके बाद इस देश में क्या बचा रह सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य तो कैसे भी आम आदमी की पहुंच से दूर है, सत्ता की लापरवाही ने इस भीषण महामारी में लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया है ऐसे में सरकारी अस्पतालों में वैक्सीन की अनुलब्धता क्या एक तरह का नरसंहार नहीं है, क्योंकि जब सारी दुनिया अपने-अपने देश के लिए वैक्सीन खरीद रही थी तब भी मोदी सत्ता अपनी रईसी और छवि बनाने में लगी थी। 

तब एक ही नारा एक ही राग होना चाहिए 'गद्दी छोड़ो।Ó

गुरुवार, 3 जून 2021

हौसला मत टूटने देना...

 

जब से मोदी सत्ता की लापरवाही के चलते इस देश में नरसंहार की तस्वीरे आई है एक नये तरह से सत्ता की छवि चमकाने का उपक्रम शुरु हो गया है, ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप युनिर्वसिटी ने एक नया खेल शुरु कर दिया है वह खेल है ''हौसला मत टूटने देना इस मोदी का भले ही पेट्रोल दो सौ हो जाए, खाने का तेल तीन सौ हो जाए नहीं तो हिन्दू खत्म हो जायेंगे ये देश इस्लामी देश बन जायेगाÓÓ।

कोरोना की इस भीषण महामारी में भी यदि सत्ता सोचती है कि वह इस नरसंहार के बाद भी अपनी रईसी बरकरार रखने और छवि चमकाने में इन ट्रोल आमी  और वॉट्सअप युनिर्वसिटी के भरोसे कामयाब हो जायेगी तो वह क्या गलत सोचती है क्योंकि नफरत के बीज इस गहरे तक बोया गया है कि कोई हिन्दू-मुस्लिम के अलावा सोच भी नहीं पा रहा है।

पहले कार्यकाल की घोर नाकामी के बाद भी मोदी सरकार दूसरी पारी के लिए जीत गई तो इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ हिन्दू मुस्लिम है ऐसे में यदि 2024 में मोदी सरकार को आने से कौन रोक सकता है। हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति का प्रभाव को लेकर भले ही भारतीय जनता पार्टी सीधी बात न करे लेकिन सच तो यही है कि इस खेल ने देश की बर्बादी की राह तो तैयार कर दी है। सत्ता की लापरवाही के चलते हो रहे नरसंहार पर न्यायालय की लगातार लताड़ और लानत के बाद भी सत्ता की बेशर्मी बढ़ते ही जा रही है, न्यायालय ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल मोदी सत्ता के लिए किया है वह किसी भी व्यक्ति के लिए डूब मरने वाली बात है लेकिन सत्ता को इन सबसे कोई मतलब नहीं है। 

कोरोना की महामारी से मरने वालों में हिन्दुओं की संख्या ही लाखों में है तब आने वाले दिनों में जब प्रतिशत में मुस्लिम आबादी बढ़ते दिखाई देगी तो वह सत्ता के लिए वोट पाने का जरिया बनेगा। नरसंहार सिर्फ बीमारी से ही नहीं हो रहा बल्कि बेरोजगारी भी इसमें मदद कर रही है। मोदी सरकार के आने के बाद करोड़ लोगों से अधिक की नौकरी चली गई। इंडियन इकानामी के ताजा आंकड़े बेहद डरावने है लेकिन सत्ता को इससे मतलब नहीं।

इसके अलावा बढ़ती महंगाई भी लोगों को मौत के नजदीक ढकेल रही है। महंगाई को रोक पाने में सरकार बुरी तरह असफल हो चुकी है और मध्यम वर्ग तेजी से गरीब होते जा रहे हैं। किसान तो वैसे भी मर रहे हैं। लेकिन सरकार की प्राथमिकता आज भी सेन्ट्रल विस्टा और उस जैसे प्रोजेक्ट है जो रईसी का नया इतिहास गढ़ लेना चाहती है। इसके बाद भी यदि हौसला न टूटने देना का खेल, खेल छवि चमकाने की कोशिस हो रही है तो उसमें यह भी जोड़ देना चाहिए कि फिक्र न करे राम मंदिर के बाहर पर्याप्त भीख मिलेगी।

बुधवार, 2 जून 2021

प्रधानमंत्री का शौक सबसे बड़ी चीज...

 

सेन्ट्रल विस्टा के निर्माण को जब केन्द्र सरकार ने अतिआवश्यक सेवा घोषित कर दिया है तब न्यायालय का फैसला तो वही होना था जिसका अंदेशा था, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन लोगों में से है जो अपनी शौक के आगे किसी को ठहरने नहीं दे सकते, भले ही वे खुद मजाक बन जायें या देश के लोगों की हालत खराब हो जाए। भले ही उनके फैसलों से लोगों की जान गई हो या देश आर्थिक बदहाली की ओर चला गया हो वे अपनी शौक के आगे किसी की नहीं सुनते, अपवाद नौ लाख वाले सूट को छोड़ कर।

ऐसे में सेन्ट्रल विस्टा की बात करने से पहले पाठकों को स्मरण दिलाना जरूरी है कि वे गरीब घर के हैं और उन्होंने चाय तक बेची है, शायद यह गरीबी की वजह से वे अपनी शौक पूरी नहीं कर पाये थे और आज जब सत्ता के सर्वोच्च पद पर है तो एक-एक करके अपनी सभी शौक पूरा कर रहे हैं। मोदी जी के कपड़े और जैकेट का शौक तो उनके चहेते लोगों के उपहार से ही पूरा हो जाता है, चश्मा और दो ढाई लाख का पेन भी शायद उनके चाहने वाले ही पूरा कर देते हैं, खानपान का शौक मोदी जी को कितना है मशरुम काजू का आटा वगैरह-वगैरह किसी से छिपा ही नहीं है। तब सरकारी संपत्ति यानी सरकारी खर्चे से जो शौक पूरा किया गया है उस पर चर्चा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जनता को तय करना है कि यह शौक कितना शानदार है और राजा का शौक निराला तो होता ही है, इतिहास राजाओं के शौक के किस्से से अटा पड़ा है। 

सेन्ट्रल विस्टा के बारे में बताने से पहले प्रधानमंत्री मोदी के उन शौक को भी जानना जरूरी है जो वे प्रधानमंत्री बनते ही पूरा करने लगे, इसे उनके समर्थक समय की जरूरत भी कह सकते है लेकिन इससे पहले देश के प्रधानमंत्री एक बंगले में रहते थे लेकिन नरेन्द्र मोदी के लिए पांच बंगले मिलाकर एक बंगला बनाया गया कल्याण मार्ग भी नाम जोरदार है। इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री के काफिले में शामिल बीएमडब्ल्यू 7 को बदला गया और इसके बदले रेंज रोवर का काफिला खरीदा गया, चूंकि बीएमडब्ल्यू सीरिज सेडान है और सामने सीट में बैठने वाले जनता को ठीक से नहीं दिखते थे और नरेन्द्र मोदी को फोटो शोटो और दिखने दिखाने का शौक है शायद इसलिए वाहनों का काफिला ही बदल दिया गया। ऐसा मानने वाले मोदी विरोधी ही है जबकि समर्थक इसे जरूरत ही बता रहे हैं। इसमें सरकार का कितना खर्च हुआ सुरक्षा कारणओं से बताना उचित नहीं है। 

लेकिन सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री को अमेरीका से होड़ भी करना है इसलिए एयर इंडिया वन खरीदा गया आठ हजार चालीस करोड़ का खर्च होना बताया जा रहा है। चूंकि शौक से बड़ी चीज दुनिया में कुछ नहीं है और शौक यदि सरकारी खजाने से पूरी हो तो फिर यह समय भी जरूरत के रुप में प्रचारित किया जाता है। यह अलग बात है कि देश में आज भी ईलाज के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं, बेरोजगारी और महंगाई ने आम लोगों का जीवन नारकीय कर दिया है लेकिन हौसला इस व्यक्ति का नहीं तोडऩा है क्योंकि ये न होगा तो हिन्दुतत्व खतरे में पड़ जायेगा, ऐसा इन दिनों वाट्अप युनिवर्सिटी के विद्यार्थी जोर-शोर से कह रहे हैं। सेन्ट्रल विस्टा को लेकर नवभारत टाईम्स के खुलासे के अनुसार सेन्ट्रल विस्टा में प्रधानमंत्री का जो बंगला बनेगा वह 15 करोड़ में बनेगा, जिसमें सभी तरह का आधुनिक सुविधा होगी, यह किसी महल से कम नहीं होगा और पुराने जमाने के राजा महाराजाओं की तर्ज पर इसके किले के भीतर परींदा भी पर नहीं मार सकता।

खर्च कितना भी होगा शौक के आगे कुछ नहीं है, हम यह नहीं कहेंगे कि इस भीषण महामारी में  इसकी क्या जरूरत है क्योंकि शौक से बड़ी चीज न देश है और न ही धर्म है।

मंगलवार, 1 जून 2021

होशियार! अच्छे दिन तो यही है...

 

गलत आदमी भी कितना सही, और मूर्ख आदमी भी कितना ताकतवर हो सकता है इसका अंदाजा किसे था, लेकिन अच्छे दिन की लालच ने सब कुछ उलट दिया था। नरसंहार के इस भयावह दौर के बाद भी यदि सत्ता की जिम्मेदारी से इतर लोग धर्म और राष्ट्रवाद के चक्कर में पड़े थे। तो इसका मतलब साफ है कि पिछले कई दशकों से नफरत का जो बीज बोया जा रहा था वह फलने फूलने लगा है। 

इतिहास गवाह है कि जिस भी राष्ट्र ने धर्म और राष्ट्रवाद को ज्यादा महत्व दिया वे न केवल पिछड़ गये बल्कि बर्बादी की राह को अग्रसर हुए। ऐसे में कोरोना की महामारी ने जो तांडव मचाया है उसे दूसरे देशों की तुलना करना सिर्फ लोगों को भ्रम में डालना है। हैरानी तो इस बात की है कि सत्ता अब भी लोगों की भावनाओं के साथ खेलने में लगी है, देश का आर्थिक ढांचा पूरी तरह से गड़बड़ा गया है। और आर्थिक ढांचे के गड़बड़ाने की वजह से महंगाई और बेरोजगारी अपने चरम पर है। लोगों का जीना दूभर होता जा रहा है लेकिन सत्ता को अपनी रईसी बरकरार रखने आज भी सेन्ट्रल विस्टा की जरूरत हैं और अपनी छवि चमकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम ही चाहिए।

यह ठीक है कि कोरोना वैश्विक महामारी है लेकिन वैश्विक चेतावनी को नजर अंदाज करना, क्या सत्ता की लापरवाही नहीं है, कोरोना से मौत के आंकड़े को छुपाने की कोशिश क्यों की गई। क्या सरकार के पास इस बात का जवाब है कि इस देश में कोरोना की बदइंजामी के चलते आक्सीजन के अभाव में कितने लोगों की मौत हुई, दवाई के अभाव में कितने लोग मर गए, सरकार की नासमझी के लाकडाउन के चलते कितने मजदूर सड़कों में मर गए, भूख और आर्थिक बदहाली के चलते कितने परिवार बरबार हो गए, कितने बच्चे अनाथ हो गए और किसी भी महामारी या आपदा से निपटने के लिए क्या योजना है?

हम जब कहते हैं कि गलत आदमी भी कितना सही, और मूर्ख आदमी भी कितना ताकतवर हो सकता है तो इसका मतलब साफ है कि भावनाएं और आस्था के विभत्स खेल ने देश में असुर प्रवृत्ति को ही बढ़ावा दिया है। जिसका दुष्परिणाम नरसंहार के रुप में देश भुगत रहा है। क्या इस देश की सत्ता की आंख तब भी नहीं खुलती है जब हमारे बाद पैदा हुआ बंग्लादेश हमें हर मामले में पीछे छोड़ देता है। भूखमरी और खुशहाली के इंडेक्स में हम यदि पाकिस्तान से भी पीछे चले जाते हैं तो फिर जीत किसी हो रही है।

और यह सब सत्ता की नासमझी की वजह से हो रही है क्योंकि सत्ता को आज भी इस बात की समझ नहीं है कि सरदार पटेल की बड़ी मूर्ति बना देने से नेहरु का कद छोटा नहीं हो जाता। आधुनिक भारत के निर्माण में जिन लोगों ने अपना सबकुछ होम कर दिया उनकी आलोचना ही नासमझी और मूर्खता है तब अच्छे दिन कैसे आ सकता है। चुनाव जीतना अलग बात और देश चलाना बिल्कुल अलग बात है साहेब।