सोमवार, 11 जून 2012

भाजपा में दबाव की राजनीति...


एक पुरानी कहावत है कि यदि हाथी कुंए में गिर जाता है तो उसे मेढ़क भी लात मारते हैं। कमोवेश भाजपा में यही स्थिति बन गई है। कमजोर नेतृत्व ने महत्वकांक्षियों को सिर उठाने का जो मौका दिया है वह न तो थमने का नाम ले रहा है और न ही उसे कोई रोक ही पा रहा है। इस वजह से भाजपा की न केवल थू-थू होने लगी है कार्यकर्ताओं में भी निराशा घर करने लगी है।
केन्द्र की सरकार जिस तरह से भ्रष्टाचार और मंहगाई के मुद्दे पर घिरी है उसकेे बाद इसे भुनाने का भाजपा के पास अच्छा मौका था लेकिन वह अपने ही जाल में उलझ कर रह गई है। घीरे हुए अध्यक्ष के नकारापन ने जहां महत्वकांशी नेताओं को सिर उठाने का मौका दिया है वह सत्ता के दम पर पैसा कमाने वालों ने लोकतंत्र की खाल से जूते बनाने का खेल शुरू कर दिया है।
जिस असहाय स्थिति से आज भाजपा गुजर रही है वैसा तो दो सीट में सिमटने के दौरान भी नहीं हुआ। पैसों की ताकत से नेतृत्व को गरियाने का जो खेल भाजपा में शुरु हुआ है वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। यदिरप्पा, वसुंधरा के बाद नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से नेतृत्व को अपने जूतों तले रौंदा है वह आने वाले दिनों में दूसरे नेताओं के लिए सबक बन जाये तो आश्चर्य नहीं है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में डॉ.रमन सिंह भी अपनी चला रहा है। कार्यकर्ता नाराज है। भ्रष्टाचार के आंकठ में डूबी सरकार के खिलाफ बोलने वालों को आंख दिखाने का खेल बंद नहीं किया गया तो सत्ता और पैसे की ताकत पाटी पर भारी पड़ सकती है।
छत्तीसगढ़ में तो डॉ. रमन सिंह पर ही कोयले की कालिख लगी है और हाल ही में उसके करीबी प्रदीप गांधी, कमलेश्वर अग्रवाल से लेकर न जाने कितने लोगों के कारनामों की चर्चा आम लोगों की जुबान पर चढऩे लगा है ऐसे में नेतृत्व की एक अनदेखी पाटी पर भारी पड़ सकती है।