गुरुवार, 31 मई 2012

आदिवासी वोट बैंक...



छत्तीसगढ़ में इन दिनों राजनैतिक दलों  2013 में होने वाली विधानसभा के लिए तैयारी शुरू कर दी है। छत्तीसगढ़ के 90 विधानसभा में से 35 विधानसभा आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित है और कांग्रेस-भाजपा ही नहीं नवगठित स्वाभिमान मंच की नजर भी इन 35 सीटों पर है। ये सीटें ही छत्तीसगढ़ में सत्ता तय करती है। पिछले दो चुनावों में आदिवासियों ने भाजपा पर भरोसा किया था।
आजादी के 6-7 दशक बाद भी आदिवासियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। इन्हें वोट बैंक ही समझा गया। विकास के नाम पर लालीपॉप थमाया गया और इसका दुष्परिणाम यह है कि आदिवासी ईलाका नक्सलियों का गढ़ बन गया है। पिछले दो चुनावों में आदिवासियों की बदौलत सत्ता हासिल करने वाली डॉ रमन सिंह की सरकार ने भी सात-आठ सालों में कुछ खास नहीं किया। योजनाएं तो बनी लेकिन मूलभूत जरूरतों को नजर अंदाज किया गया। यही वजह है कि आदिवासी क्षेत्रों में लोग ईलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। पीने तक का साफ पानी नहीं मिलने से यहां स्वास्थ्य पर भी बुरा असर हुआ है और शिक्षा के नाम पर केवल ढकोसला किया गया। मौलिक अधिकार से वंचित आदिवासियों के सामने सबसे दिक्कत यह है कि वे किनका भरोसा करें।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की स्थिति तो और भी खराब है। नक्सलियों और पुलिस के बीच उनका जीना दूभर हो गया है। इधर कुआं उधर खाई की स्थिति से वे उबर ही नहीं पा रहे हैं। पांच सौ से अधिक गांव उजड़ गए और राहत शिविर में उन्हें रहना पड़ रहा है।
भाजपा 3 जून से आदिवासी क्षेत्रों में सम्मेलन बुला रही है और इन सम्मेलनों को मुख्यमंत्री रमन सिंह भी संबोधित करेंगे। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए है अपनी मांगो को लेकर आने वाले आदिवासियों की राजधानी में जमकर पिटाई हुई है। ऐसे में भाजपा को डर है कि आदिवासी वोट यदि खिसक गया तो उनकी सरकार बननी मुश्किल हो जायेगी। इसलिए दुबारा सत्ता हासिल करने आदिवासी क्षेत्रों में सम्मेलन बुलाए जा रहे हैं। लेकिन जिस तरह से आदिवासी क्षेत्रों से खबर आ रही है वह भाजपा के लिए ठीक नहीं है। अपनी पिटाई को आदिवासी अब तक भूले नहीं है और उनकी नाराजगी सम्मेलनों में भी दिख सकती है ऐसे में सरकार को इस बात के लिए पहले से तैयार रहना होगा। सिर्फ वोट के लिए राजनीति व सम्मेलन उचित नहीं है।

बुधवार, 30 मई 2012

आग की आंच...


यदि पड़ोसी के घर लगी आग नहीं बुझाओगे तो इसमें खुद के घर भी जल जाने से नहीं रोक सकते। इतनी सी बात न तो प्रदेश के मुखिया को समझ आती है और न ही भारतीय जनता पार्टी के जेहन में बैठ रही है। मैनपाट में भाजपा नेता पर गाड़ी चढ़ाकर हत्या की कोशिश पूरी तरह से खनिज उत्खनन का मामला है। जमीन विवाद भी एक वजह हो सकती है लेकिन अभी ज्यादा दिन नहीं बीते है हमारे पड़ोसी मध्यप्र्रदेश में खनन माफियाओं ने एक अफसर को ट्रेक्टर से कुचल कर मार डाला था। इसके बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार ने कोई सबक नहीं लिया है। पूरे प्रदेश में खनिज का अवैध उत्खनन हो रहा है और इस विभाग के मंत्री स्वयं डॉ रमन सिंह के होने के बाद भी कार्रवाई के नाम पर केवल खाना पूर्ति हो रही है। खनन माफियाओं को खुले आम संरक्षण दिया जा रहा है और उनके हौसले इतने बुलंद है कि वे किसी पर भी हमला करने का दम रखते हैं।
उद्योगों द्वारा किए जा रहे अवैध उत्खनन की तो अपनी कहानी है। लाफार्ज बाल्को अल्ट्राटेक से लेकर नवीन जिंदल औरर हीरा ग्रुप सब पर अवैध उत्खनन के आरोप है लेकिन इनके खिलाफ कभी कठोर कार्रवाई नहीं हुई। बल्कि जेब भरने की रणनीति से इन्हें हमेशा ही संरक्षण दिया गया। हालत यहां तक पहुंच गई थी कि भैसा कंछार में भूपेश बघेल जैसे कांग्रेस नेता के साथ मारपीट तक की नौबत आ गई थी लेकिन जब विभाग प्रदेश के मुुखिया के पास हो तो क्या कौन अवैध उत्खनन करने वालों के खिलाफ आवाज उठा सकता है।
पूरे प्रदेश में चल रहे अवैध उत्खनन से हर साल छत्तीसगढ़ को करोड़ो रूपए का राजस्व का नुकसान हो रहा है और खनिज विभाग के अधिकारियों से मिली भगत कर छत्तीसगढ़ को बरबाद करने की साजिश हो रही है। रायगढ़ के पास टीपाखोल में जिस तरह से वैध -अवैध उत्खनन के नाम पर पर्यटन स्थल व सिंचाई विभाग के डेम को बरबाद किया जा रहा है कभी भी गांव वालों या विरोध करने वालों के साथ बड़ी घटना हो सकती है। यहां अधिकारियों पर हमले इसलिए भी नहीं हो रहे है क्योंकि इस विभाग के मुखिया मुख्यमंत्री होने की वजह से कोई अवैध माफियाओं से पंगा लेने की जरूरत नहीं कर रहा है। ईमानदार अधिकारी भी अपनी नौकरी बचाने इन सब बातों को नजरअंदाज कर रहे है। बदत्तर स्थिति में पहुंच चुके हालात पर यदि काबू नहीं किया गया तो कभी भी गंभीर वारदात हो सकती है।

मंगलवार, 29 मई 2012

अब तो भगवान ही मालिक...

अब तो भगवान ही मालिक...
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक महिला सिपाही ही गैंग रेप का शिकार हो गई। 15 दिन पहले कटोरा तालाब में हुए गोलीकांड के बाद हमने इसी जगह पर लिखा था कि छत्तीसगढ़ जैसे शांत प्रदेश में कानून व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई है। भ्रष्टाचार में लिप्त मुख्यमंत्री से लेकर पूरा सरकारी अमला सिर्फ और सिर्फ अपनी तिजौरी भरने में लगा है और आम आदमी के लिए मूलभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
भय भूख और भ्रष्टाचार के नारे से सत्ता में आई रमन सरकार ने अपनी कथनी के ठीक विपरीत करनी करने में लगे हैं। आम आदमी कानून व्यवस्था से भयभीत है। किसानों की जमीने छीन ली जा रही है और बढ़ती मंहगाई से उनके सामने भूखों मरने की नौबत ला दी है जबकि भ्रष्टाचार की कालिख से प्रदेश के मुखिया तक रंगे हो तो फिर इस प्रदेश का भगवान ही मालिक नहीं होगा तो क्या कहा जाए। हम शुरू से ही यह बात कह रहे हैं कि जिस प्रदेश के गृहमंत्री को एसपी निकम्मा कलेक्टर दलाल और दस-दस हजार में थाना बिकने की बात कहनी पड़ रही हो वहां हालत कितने बदतर है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है लेकिन यहां तो बिल्ली के भाग से छींका टूटा है तो धूल तक निगला जा रहा है। कल तक पुलिस पर हमला केवल नक्सली ही करते रहे हैं तब जंगल में लक्ष्य को लेकर बहस होती रहती है लेकिन अब तो छत्तीसगढ़ में हत्या लूट बलात्कार की घटना यूपी बिहार की याद दिलाने लगी है और जब पुलिस वाले ही सुरक्षित नहीं है तब वे किस तरह से दूसरे की रक्षा करेंगे।
रमन सिंह के कार्यकाल में पुलिस वालों का मनोबल गिरा है जब प्रदेश के मुखिया अपराधियों के साथ मंच पर खड़े हो रहे हैं तब भला अपराधियों के हौसले क्यों नहीं बुलंद होंगे।
कल रात जिस तरह से सूचना पाने के बाद भी महिला सिपाही हादसे की शिकार हुई है उसके लिए कहीं न कहीं सरकार भी दोषी है उसने व्यवस्था ही ऐसी बना रखी हैं कि पुलिस का मनोबल टूटने लगा है। अपराधियों को छुड़ाने थाने तक फोन जाता है और कहना नहीं मानने वाले शशिमोहन सिंह जैसों को प्रताडि़त किया जाता हो उस सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है।

सोमवार, 28 मई 2012

निगम में राजनीति...


वैसे तो पूरे प्रदेश में नगरीय निकायों में राजनीति के चलते बुरा हाल है। नगर निगम राजनीति का अड्डा बन चुका है। सत्ता में बैठे मंत्री से लेकर अधिकारियों की राजनीति के चलते आम आदमी अपनी मूलभूत जरूरत से दूर होता जा रहा है और इसकी परवाह किसी को नहीं है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का तो सर्वाधिक बुरा हाल है। यहां महापौर कांग्रेस की है और प्रदेश भाजपा की सरकार होने के वजह से एक दूसरे पर हावी होने की राजनीति के चलते निगम के अधिकारी व कर्मचारी बेलगाम हो गए हैै। महापौर की नहीं चलली तो मंत्री के पास चले जाते हैं और मंत्री नाराज हुए तो महापौर से संरक्षण मिल जाता है। हालत यह है कि निगमायुक्त तक की नहीं सुनी जा रही है। सालों से एक ही पदों पर बैठे निगम के तनखईया के आगे सब बेबस है और इसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। कमाई वाली जगह पर बैठने की ललक और झंझट वाली जगह से छुटकारे की राजनीति का शिकार आम आदमी हो रहा है। इस भीषण गर्मी में पानी के लिए राजधानी में त्राहि मचा हुआ है। सुबह से रात तक टेंकरो से पानी की आपूर्ति में करोड़ो रूपए की घपलेबाजी हो रही है। सफाई के नाम पर पार्षद तक लूट मचा रहे हैं और बजबजाती नालियों के चलते कई क्षेत्रों में बिमारियों ने दस्तक शुरू कर दिया है।
अवैध निर्माण को संरक्षण देने में भी पार्षद से लेकर निगम अधिकारियों की भूमिका सामने आ रही है और कब्जा करने वाले बेधड़क आम लोगों का रास्ता रोक रहे है। गोलबाजार, सदर, मालवीय रोड, एमजी रोड जैसे व्यस्ततम इलाकों का तो सबसे ज्यादा बुरा हाल है।
इस सरकार में यही हाल पूरे प्रदेश भर में है, नगरीय निकाय राजनीति का अड्डा बन चुका है इसकी प्रमुख वजह राज्य व केन्द्र्र से मिल रहे बेहताशा पैसा है जिससे अपनी जेब गरम करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा रहा है और एक दूसरे पर हावी होने की राजनीति से निगम में कार्यरत अधिकारी इसका फायदा उठाने से गुरेज नहीं करते। राजनांदगांव, अंबिकापुर, रायगढ़ से लेकर जगदलपुर में मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने की बजाय दलगत राजनीति का अखाड़ा बन चुका है।
दूसरी तरफ पानी के टैक्स में बढ़ोत्तरी से आम आदमी परेशान है। व्यवसाय के नाम पर लगातार बढ़ रहे टैक्स वसूली से आम आदमी त्रस्त है और भ्रष्टाचार के चलते सुविधाओं से वंचित होती जनता केवल तमाशा देख रही है ऐसे में राजनीति का अड्डा बन चुके निगम को ठीक नहीं किया गया तो आनेवाले दिनों में इसका गंभीर परिणाम होगा।
 

रविवार, 27 मई 2012

उद्योगों की दादागिरी...


छत्तीसगढ़ में जिस पैमाने पर रमन सरकार ने उद्योग के लिए रास्ते खोले हैं। उद्योगपति अब अपनी जेब में सरकार को रखने लगे है। खुलेआम कब्जे और पेड़ो की कटाई के साथ भयंकर प्रदूषण फैला रहे उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई करने की सरकार में हिम्मत भी खत्म हो गई है। श्रम कानून का खुलेआम उल्लंघन से लेकर ऐसे कितने मामले हैं जो सरकार का मुंह चिढ़ा रहे हैं लेकिन सरकार तो मानों उनके गोद में बैठी है। रायगढ़ में कल जिंदल समूह के एक उद्योग में जिस तरह से भारी दबाव में कलेक्टर को जांच के लिए भेजना पड़ा और वहां जो कुछ जांच टीम ने किया वह सरकार की असलियत की कलई खोलने के लिए काफी है। जिंदल समूह के रायगढ़ स्थित इस उद्योग को लेकर जब शिकायते बढ़ गई तो भारी दबाव में जिला प्रशासन ने वहां छापे की कार्रवाई तो की लेकिन छापे का नेतृत्व करने वाले जिला प्रशासन के अधिकारी सहायक कलेक्टर गोयल और एसडीएम चौरसिया वहां जाकर जिंदल के एक बड़े अधिकारी के एसी चेम्बर पर बैठ गए। यहीं नहीं न तो शिकायत कर्ताओं को ही साथ रखा और न ही पत्रकारों को ही वहां घुमने दिया गया। जिंदल समूह पर जमीन कब्जे से लेकर प्रदूषण फैलाने तक के अलावा भी ढेरो शिकायते हैं। जिंदल समूह के इस पतरापाली स्थित फैक्ट्री में भारी अनियमितता की भी शिकायत है लेकिन उद्योग समूह ने सब मैनेज कर लिया। अब रिपोर्ट क्या होगा आसानी से समझा जा सकता है।
रायपुर में भी उद्योगपतियों की दादागिरी किसी से छिपी नहीं है। रमन सिंह जगह-जगह उद्योगों की तालाब साफ करने व सौंदर्यीकरण के लिए कहते घूम रहे हैं लेकिन उद्योगपति उनकी बात ही नहीं सुन रहे है। राजधानी के दर्जनभर तालाबों की सफाई करने की बात उद्योगपतियों ने की थी लेकिन कलेक्टर के दबाव के बाद भी कुछ नहीं किया गया और इसके चलते तालाबों की हालत खराब हो गई है।
उद्योगपतियों की दादागिरी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि करोड़ों रूपए के बिजली का बिल बाकी रहने के बाद भी इनसे वसूली नहीं हो पा रही हैं। अवैध निर्माण से लेकर अवैध कब्जों की शिकायतों पर कार्रवाई की बजाय चंदा लेने में भरोसा ज्यादा है।
           

शनिवार, 26 मई 2012

भाजपाई सद्बुद्धि !


छत्तीसगढ़ में सत्ता में काबिज भाजपाईयों ने पेट्रोल के दाम में बढ़ोतरी को लेकर जिस तरह से कांग्रेस भवन में प्रदर्शन करने का निर्णय लिया यह आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ को किस दिशा में ले जायेगा यह कहना कठिन है लकिन वह किसी भी हाल में उचित नहीं कहा जा सकता।
ये सच है कि पेट्रोल की बेतहाशा किमत बढऩे से आम आदमी का जीना दूभर हो जायेगा। पहले ही बढ़ी हुई महंगाई ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है। लोगों में इसे लेकर बेहद आक्रोश है और वे सड़कों तक उतर कर अपना रोष जाहिर भी कर रहे है लेकिन इस सबके बाद भी किसी पार्टी कार्यलय में प्रदर्शन कितना उचित है। आज भाजपाईयों ने पेट्रोल की कीमतों को लेकर कांग्रेस भवन में प्रदर्शन करने की कोशिश की है। राज्य मे भाजपा की सरकार है और उसके किसी निर्णय पर कहीं कांग्रेसी भी कोशिश करने लगे तो फिर क्या होगा?
पश्चिम बंगाल में एक पार्टी के लोग दूसरे पार्टी पर जानलेवा हमला करने से भी गुरेज नहीं करते? और छत्तीसगढ़ में आज भी पार्टी की विचारधारा से परे कांग्रेसी और भाजपाई आपस में मेल-जोल रखते है और ऐसी स्थिति मे पेट्रोल की आग को लेकर राजनैतिक प्रतिद्वंदिता को एक दूसरे से सीधे मुकाबले तक ले जाना कतई उचित नहीं है।
छत्तीसगढ़ मे भाजपा की सरकार है और ऐसी स्थिति मे भाजपाईयों को और भी संयमित होने की जरूरत है। फिर भाजपाई ये क्यूं भूल जाते है कि प्रदेश में उनकी सरकार ने कोयले की कालिख से लेकर न जाने कितने मुद्दे  कांग्रेसियों के  हाथों सौंपा है। इसी पेट्रोल में राज्य सरकार 25 फीसदी वेट ले रही है जबकि दूसरे राज्यों ने अपने लोगों को राहत पहुंचाने वेट में कमी की है और इसी मुद्दे को लेकर कल कहीं कांग्रेसी सीएमहाऊस की बजाय भाजपा कार्यलय को निशाना बनाये तब यहां के सौहाद्र का क्या होगा।
यह परम्परा ठीक नहीं है। और इसे विराम देते हुए भाजपा नेतृत्व को अपने कार्यकर्ताओं के  ऐसे उत्साह पर कार्रवाई करनी चाहिए। अन्यथा छत्तीसगढ़ के इस शांत राजनैतिक फिजा में दूसरे प्रांतों के  कीड़े न पनप सके।
               

शुक्रवार, 25 मई 2012

मोदी और रमन...


मुम्बई में चल रहे भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की नितिन गडकरी ने तारीफ की,छत्तीसगढ़ भाजपा के लिहाज से यह महत्वपूर्ण है। कोयले की कालिख सहित कई तरह के भ्रष्टाचार में फंसी सरकार की जब आम लोगों में साख गिर रही है तब राष्ट्रीय कार्यकारिणी में तारीफ एक तरह से रमन विरोधियों को पटकनी देने से कम नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार के काम काज को लेकर भाजपा के रमेश बैस,श्रीमती करूणा शुक्ला, नंदकुमार साय सहित कई लोग नाराज है। कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन रिहाई मामले में सरकार की भूमिका की यहां थू-थू हो रही है वहांं पीठ थपथपाई जा रही है। राजनीति के इस गुढ़ रहस्य को तो आम लोग भी नहीं समझ पा रहे है कि आखिर जिस मामले में सरकार की किरकिरी हो रही है। जिस मुख्यमंत्री के राज में अफसरशाही हावी बताये जा रहे है प्रशासनिक ढीलापन की बात कही जा रहा है। उसी मुख्यमंत्री को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  कुशल प्रशासक बता रहे है।
दरअसल कोयले की कालिख में नीतिन गड़करी का नाम भी जुड़ा है और जब भाजपा में आंतरिक गुटबाजी चरम पर है। मोदी येदिरप्पा,अरूण जेटली, सुषमा स्वराज जैसे लोग आंख दिखा रहे हो तब डॉ.रमन सिंह ही बच जाते है जो नितिन गड़करी के साथ है शायद यह वजह भी मायने रखती है। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने अपनी जिद पूरी करवा  कर ही बैैठक में पहुुंचे। संजय जोशी से उनकी टकराहट और नितिन गड़करी का संजय जोशी को समर्थन का यह पेचिदा मामला मोदी के जिद के आगे  नेस्तनाबूत हो गया और नितिन गडकरी की जबरदस्त हार के रूप में इसे देखा जा रहा है। राजनैतिक विश्लेषक नरेन्द्र मोदी की इस जीत पर हैरान है। और अब तो भाजपा में यह राष्ट्रीय अध्यक्ष के हैसियत भी नापी जा रही है।
कहा जाता है कि यदि राष्ट्रीय अध्यक्ष ही कमजोर हो तो कोई भी आंख दिखा सकता है फिर नरेन्द्र मोदी तो वैसे भी भाजपा मेें बड़े नेता बनकर उभर चुके है। उनकी लोकप्रियता के आगे नितिन गडकरी कहीं नहीं टिकते है। और येदिरप्पा से पहले ही परेशान नितिन के लिए मोदी से लडऩा आसान भी नहीं था। यही वजह है कि सिडी कांड के लिए चर्चित संजय जोशी को इस्तीफा देना पड़ा। यही वजह है कि मोदी की पीठ नहीं थपथपाने के बाद भी वह हीरो बनकर उभर गये!
               

गुरुवार, 24 मई 2012

आग में घी...


यह आग में घी डालने का काम नहीं है तो क्या है। पहले ही मंहगाई से आहत जनता को जिस तरह से यूपीए सरकार ने अपने तीसरे वर्षगांठ पर पेट्रोल के दरों में बढ़ोत्तरी की है वह आम लोगों में गुस्सा बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं है।
इस मुल्य वृद्धि का चौतरफा विरोध पर जिस तरह से वित्त मंत्री प्रणय मुखर्जी का पेट्रोल की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है वाला ब्यान आया वह बेहद गैर जिम्मेदाराना है। यह बात सच है कि तेल कंपनियां ही पेट्रोल की कीमते तय करती है लेकिन सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है कहना सरासर बेईमानी है। यदि ऐसा नहीं तो अब जनता के गुस्से को वह कैसे रोकेगी। केन्द्र सरकार पहले ही घोटाले की वजह से संकट में है। सत्ता में बैठे रहने की मजबूरी को गठबंधन की मजबूरी बताकर अपने पाप को कम करनेे में लगी यूपीए सरकार आखिर कब तक जनता को बेवकूफ बनाते रहेगी।
हर जरूरी चीजों की कीमत लगातार बढ़ रही है आम आदमी का जीना कठिन होता जा रहा है। नीचे से उपर तक फैले भ्रष्टाचार से नौकरशाह और जनप्रतिनिधि गुलछर्रे उड़ा रहे है और आम आदमी बदतर जीवन की ओर चला जा रहा है। आखिर सरकारे होती किसलिए है। नियंत्रण में नहीं है तो नियंत्रण के लिए कानून क्यों नहीं बनना चाहिए। आखिर जनता को उसके मौलिक अधिकार से वंचित रखने की कोशिशें क्यों होनी चाहिए।
राजनैतिक तिकड़म के चलते जब सरकार बगैर बहुमत के  होते हुए चल सकती है तब पेट्रोल की कीमतों पर वृद्धि रोकने राजनैतिक तिकड़म का सहारा क्यों नहीं लिया जा रहा है। यह ठीक है कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के चलते कई चीजों में सब्सिडी की वजह से सरकार को घाटा उठाना पड़ रहा है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि खुद भ्रष्टाचार करके सात पीढ़ीयों की व्यवस्था कर लो और आम  आदमी को मंहगाई से मार डालो। पेट्रोल की कीमतों में हुई यह वृृद्धि आम लोगों का गुस्सा बढ़ाने वाला है। भले ही ममता नहीं मुलायम जयललीता नहीं मायावती से समर्थन पाकर यूपीए अपना सरकार बचा ले लेकिन वह लोगों के गुस्से से कैसी बचेगी।
                                  

बुधवार, 23 मई 2012

निजी शिक्षण संस्थानों पर उठते सवाल...


इस बार फिर बारहवी के रिजल्ट में सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूल फिसड्डी साबित हुए है। पिछले साल भी कमोबेश यही स्थिति रही  है लेकिन यह बात सरकार को दिखाई नहीं देती  और निजी स्कूल माफियाओं से होने वाली अवैध कमाई के चलते सरकारी स्कूलों को बर्बाद करने का षडयंत्र चल रहा है।
दरअसल शिक्षा माफियाओं ने तामझाम कर एक ऐसी लकीर खींच दी है कि मध्यवर्ग तक इससे प्रभावित है और आज जब एक रिक्शावाला या मजदूर तपके के लोग भी अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा देना चाहते है। तब भला सरकार अपनी संस्थानों में अंग्रेजी शिक्षा क्यों शुरू नहीं करना चाहती यह घोर आश्चर्यजनक है।
शिक्षा माफिया का दबाव सरकार पर है और अब यह साफ दिख रहा है। जब हर साल सरकारी स्कूलों का परिणाम निजी स्कूलों से बेहतर हो तब सरकार का यह रवैया साफ बताता है कि सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों को केवल अपनी जेब गरम करने से मतलब है।
छत्तीसगढ़ में शिक्षा माफियाओं ने चारों तरफ अपना पैर पसार लिया है और सरकार उनके इशारे पर भले ही नहीं नाच रहे हो लेकिन सरकारी अधिकारियों का एक बड़ा समूह निजी स्कूलों को बढ़ावा देने सरकारी स्कूलों में गड़बडिय़ां कर रहे है। लेकिन इससे सरकार की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती और सरकारी स्कूलोंं के लिए कहीं न कहीं सरकार की नीति व जनप्रतिनिधि भी दोषी है। केवल अंग्रेजी शिक्षा की वजह से ही निजी स्कूलों का भाव बढ़ा है और सरकार यदि अपनी संस्थानों में अंग्रेजी शिक्षा प्रारंभ कर दे तो आधे से ज्यादा निजी शिक्षण संस्थान बंद हो जायेंगे? जहां आम आदमी टाई,ड्रेस,बेल्ट,जूता,मोजा,कॉपी-किताब के नाम पर लूटा जा रहा है। लकिन सरकार को जानबुझकर इस तरफ से आंख बंद किये हुए है। निजी शिक्षण संस्थानों की लूट बढ़ते ही जा रही है जबकि इस पैमाने पर  वहां पढ़ाई नहीं होती यह बात हर आदमी जानता है कि निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई उतनी अच्छी नहीं होती। शिक्षकों को शोषण होता है और यहा के 90 फीसदी बच्चे कोचिंग व ट्यूशन पर निर्भर होते है। जबकि सरकारी स्कूलों के 10 फीसदी बच्चे ट्यूशन व कोचिंग का सहारा लेते है और इसके बाद भी रिजल्ट निजी स्कूलों से बेहतर आता है। ऐसे में सरकार को नये सिरे से शिक्षा नीति बनानी होगी।
               

मंगलवार, 22 मई 2012

घोर निराशाजनक सरकार.


यू पी ए. के तीन साल पूरे हो गये पहले तो हमने सोचा था कि इस पर कुछ नहीं लिखेंगे। आखिर तीन साल में सरकार ने ऐसा कुछ किया ही नहीं कि कुछ लिखा जाए। गठबंधन में बैठी ममता बेनर्जी ने वामदलों को हराने की खुशी में आपे से बहार है और देश के प्रधानमंत्री तो कुछ बोल ही नहीं सकते। वित्त मंत्री ने जब यह कह दिया कि अगले दो सालों तक गठबंधन की मजबूरी में बंधे रहेंगे तो फिर इस सरकार पर क्या लिखा जाए।
घोटाले-भ्रष्टाचार पर कोई कितना भी लिखे और फिर यह सब यूपीए में ही नहीं सभी राज्य की सरकारें कमोबेश घोटाले में फंसी हुई है। छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक कि सरकार कोयले की कालिख में पूति है। सत्ता पाने का मतलब  अपने आने वाले सात पीढिय़ों की व्यवस्था करना रह गया हो। सरकारी नौकरी का मतलब बंधी-बंधाई तनख्वाह से आगे की कमाई का हो तब अन्ना-बाबा का तानाशाही रवैया कितना अनुचित कहा जायेगा?
यूपीए सरकार की गिरती साख के बीच मनमोहन सिंह ने जरूर रिकार्ड बनाया है नेहरू गांधी के बाद लम्बे समय तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रहने का। यह रिकार्ड आगे भी चलता रहेगा। आखिर सत्ता शीर्ष पर अब राजनैतिक पार्टियां दो ही तरह के लोगों को पसंद करती है या तो वे कुछ न करे या फिर जरूरत से ज्यादा करें।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे निराशाजनक बात यह है कि सत्ता में बैठने लोगों को केवल 40-42 फीसदी लोग ही पसंद करते है शेष 58-60 फासदी लोग तो विरोध मेें मत देते है लेकिन विधायक सांसदों की संख्याबल के कारण सत्ता मेे बैठ जाते है।
पूरा देश भ्रष्टाचार की चपेट मे है। रमन सिंह से लेकर मनमोहन सिंंह पर भ्रष्टाचार की कालिख पूति हुई है लेकिन बहुमत साथ है तो फिर अन्ना-बाबा जैसे लोग चिखतेे रहें क्या फर्क पड़ता है? इन तीन सालों में यूपीए का तीस हाल हो चुका ह। गठबंधन की मजबूरी की बात कहकर हर मामले को टाल दिया जाता है। दरअसल यह गठबंधन नहीं सत्ता में बने रहने की मजबूरी है लेकिन सच बोलने से परहेज करने के लिए नई परिभाषा गढ़ दी जाती है। वरना देश हित से ज्यादा सभी को सिर्फ पार्टी हित सर्वोपरि हैै।
                          

सोमवार, 21 मई 2012

सरकार की सोच...


प्रदेश के राजा ने कह दिया कि वे नक्सलियों से कहीं भी बातचीत के लिए तैयार है लेकिन अभी बातचीत का महौल नहीं है। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा  कि बगैर बातचीत के शांति संभव नहीं है।
इस बयान की आखिरी लाईन ही महत्वपूर्ण है और सरकार भी का बगैर बातचीत के शांति की बात उसकी कमजोरी को दर्शाता है या सरकार के नक्सलियों के प्रति पल-पल बदलते सोच को बताया है यह कहना कठिन है। एक तरफ सरकार शांति वार्ता की बात करती है  तो दूसरी ओर सेना की बात से गुरेज नहीं करती। मुखिया कुछ और कहते है। गृहमंत्री और पुलिस वाले भी अलग-अलग बात करते है ऐसे में नक्सली समस्या का हल कैसे होगा ।
नक्सली लगातार आम लोगों को मार रहे है, खुलेआम लाशें बिछाई जा रही है और आदिवासी गांव-घर छोड़ शिविरों में रहने मजबूर है और सरकार की सोच में बार-बार तब्दिल हो रही है। हर एक घटना के बाद सरकार की बदलती सोच ये साबित करती है कि इस समस्या के इलाज का न तो वे तरीका जानते है और न ही इसके  ईलाज के कोई ठोस योजना ही बनाते है!
छत्तीसगढ़ में करीब 17 जिलों में नक्सलियों की प्रभाव है और वे यहा मार-काट कर पैसे कमाने का काम कर रहे है या तो पुलिस वाले मारे जा रहे है या आम आदमी। सरकार अपने 7-8 साल के शासन में जर्दनों बार रणनीति बदली है। कभी वह सलवा जुडूम चलाती है तो कभी वह सेना की बात करती है। कभी वह शांति वार्ता की बात करती है तो कभी राष्ट्रीय समस्या के रूप में पेश करती है। कोई स्थाई सोच नहीं रख पाने का दूष्परिणाम आम आदमी को भूगतना पड़ रहा है।
कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन के मामले वह कुछ करती है तो ग्रामीणों के अपहरण पर कुछ और करती है। आतंक के साये में जीतें लोगों की दुविधा यह है कि वह कहां जाए। कब तक उपनों की मौत पर आंसू बहाये और सरकार से उम्मीद भी अब टूटने लगी है । कलेक्टर एलेक्स अपहरण कांड में सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है सरकार के पास झुठ का खजाना है और वह इसे इस्तेमाल कर अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहती है। अब तो एक ही सवाल है कि यदि कलेक्टर की रिहाई हो सकती है तो शांति के लिए नक्सलियों से बातचीत क्यों नहीं हो सकती? नक्सलियों और सरकार के बीच क्या कुछ चल रहा है? क्यों नक्सली लूट-खसोट बंद नहीं कर रहे है? नक्सली क्या चाहते है जिसे सरकार पूरा नहीं कर रही है। बार-बार सरकार ब्यान क्यों बदल रही है।
                  

रविवार, 20 मई 2012

पारा का चढऩा...


राजधानी ही नहीं पूरे छत्तीसगढ़ में सबका पारा चढ़ा हुआ है। सूर्य के रौद्र रूप से लोग जहां परेशान है और क्रांकिट के जंगल में तब्दिल होते योजनाओं को कोस रहे है तो राहुल गांधी के  दौरे के बाद कांग्रेसियों का पारा चढ़ा हुआ है। मैक्लाड तो स्टेज पर ही चढ़ गई और इस्तीफा तक दे डाला तो जोगी,पटेल,महंत और चौबे का पारा भी खुब चढ़ गया है और राहुल गांधी के खिलाफ भले ही कुछ न बोल पा रहे हो लेकिन मन ही मन कोस जरूर रहे होंगे कि आखिर उन्हें बुलाने की योजना क्यों बनाई।
पारा तो भाजपा ही नहीं पूरे सरकार का चढ़ा हुआ है। राहुल की वजह से कम सौदान सिंह और नक्सलियों की वजह से ज्यादा हो सकता है। लगातार नक्सली हमले और भ्रष्टाचार के आरोप ने उनका पारा चढ़ा दिया है। भ्रष्टाचार के नाम पर तो वह तिलमिलाने लगी है ऐसे में राहुल के आने पर सुशासन का विज्ञापन से अपनी बौखलाहट सामने ला बैठे।
सौदान सिंह अलग अनुशासन का डंडा पकड़े  हुए है। संघ के रीति नीति के विपरित चल रही सरकार पर संघ की खामोशी की वजह सौदान सिंह ही है। आखिर संघ  कैसे कहे  कि उनके लोग इतने भ्रष्ट कैसे हो गये । बचपने से साखा लगाने की शिक्षा में आखिर क्या कमी रह गई है। पारा तो संघ का भी चढ़ा हुआ है लेकिन मोदी और येदिरप्पा को संभालने में लगे कि छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेश पर ध्यान लगाये।
आदिवासियों का पारा भी चढ़ा है। वे राजधानी में हुए अपनी मार-कुटाई को नहीं भूल पा रहे है और उन्हें कांग्रेस पर भी बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। हरिजन तो पहले ही अपना पारा चढ़ाये हुए है। उनके चढ़े पारे की नजर से ही सरकार के मुखिया गिरोधपुरी नहीं जा सके थे।
नक्सलियों का पारा तो गर्मी के साथ लगातार चढ़ रहा है। अपहरण और हत्या की वारदातों को लगातार अंजाम दे रहे है। उन्हें मालूम है कि सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती 10 हजार करोड़ का सलाना धंधा है उसकी रक्षा करने के  लिए लगातार पारा चढ़ा रहे है।
इन सबके बीच पारा चढऩे की चिंता में मंत्रियों का पारा चढ़ा हुआ है। डेढ़ साल बाद चुनाव होने है और उसकी तैयारी और खर्चे को सोचकर उनका पारा चढऩा स्वाभाविक है।
पारा यदि नहीं चढ़ रहा है तो वह आम छत्तीसगढिय़ा ही है जिनका पारा नहीं चढ़ पा रहा है। खुद की जमीन से हकाले जाने के बाद नौकरी में भी जगह नहीं देने के षडय़ंत्र के बाद भी उनका पारा नहीं चढ़ रहा है।                                          
                                      

शनिवार, 19 मई 2012

कुत्ते की दूम...


छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी आये अपनों से मिले और चले गये। तीन दिनों के जद्दोजहद के बाद कांग्रेस किस तरह से सत्ता हासिल करेगी यह तो वहीं जाने लेकिन इन तीन दिनों का आखिरी अध्याय कांग्रेस के बड़े नेताओं के लिए किसी दु:स्वप्न से कम नहीं रहा। गुटबाजी और महत्वकांक्षी मेंं डूबे बड़े नेताओं ने एक दूसरे को निपटाने में कोई कमी नहीं की। अध्यक्ष अपनी चाल चल रहे थे तो नेता प्रतिपक्ष अपनी चाल,विद्याचरण शुक्ला की अपनी पीड़ा तो मोतीलाल वोरा का अपना मजा। और पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की पीड़ा से किसी को कोई लेना-देना नहीं रहा। पहले दो दिन अपने को आपस में बांधने की कोशिश तीसरे दिन जिस तरह से सामने आई वह कांग्र्रेस के लिए अच्छे संकेत कतई नहीं कहा जा सकता। मैक्लाड की इस्तीफे की कहानी छोड़ भी दे तो जिस तरह से गुटबाजी दिखाई दी है उस पर राहूल गांधी भी क्या कर पायेंगे यह तो वही जाने। लेकिन यह तय है कि अजीत जोगी,विद्याचरण शुक्ला,नंदकुमार पटेल और रविन्द्र चौबे में सामनजस्य बिठाने में प्रभारी महासचिव बीके हरिप्रसाद कमजोर साबित हो चुके है और उन्होंने अपनी कमजोरी को ढांकने जिस तरह से राहुल गांधी को मीडिया से दूर रखा यह निहायत गैर राजनीतिक फैसला रहा। भले ही इस फैसले पर प्रदेशाध्यक्ष और नेताप्रतिपक्ष की सहमती रही हो लेकिन राहुुल गांधी को वास्तविक्ता से दूर रखना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा साबित होगा।
बकौल राहुल,गुटबाजी छोड़ दो,कांग्रेस अपनी करतूतों से हारती है और पैसे वालों के सामने मेहनत टिकती है, जैसी बातें किसी नौटंकी से कम नहीं है। हालांकि गुटबाजी का प्रशिक्षण कार्यक्रम के पहले दिन से ही दिखने लगा था जब हरिप्रसाद व नंदकुमार पटेल अपनी चला रहे थे और अजीत जोगी अपनी चाल चल रहे थे। वीसी,नेताम,कर्मा और न जाने कितने लोग तब मन ही मन सोच रहे होंगे कि आने दो चुनाव बताते है। लगभग यही सोच अजीत जोगी की भी रही हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये सच है कि नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस की सक्रियता बढ़ी है लेकिन वे उस घेरे को नहीं तोड़ पा रहे है जो कांग्रेस की हार की वजह मानी जाती है। पैसों का खेल अब भी भारी दिख रहा है और चंदा दबाने वालों को बांटने की जिम्मेदारी देने से क्या हश्र हो रहा है यह सबके सामने है। कार्यकर्ताओं ने राहुल के सामने जिस तरह से पदाधिकारियों को लेकर आक्रोश दिखाया है वह आगे भी मायने रखेगी। कुल मिलाकर राहुल गांधी के दौरे ने कांग्रेस की आपस खींचतान को उजागर किया ही है भाजपा को खुश होने का मौका भी दे दिया है।
                            

शुक्रवार, 18 मई 2012

अब कौन सुरक्षित...


नक्सलियों ने हमला तेज कर दिया है। अब वे मंत्रियों के घर तक पहुंचने लगे है और अब इस प्रदेश में सुरक्षित कौन है कहना कठिन है। ज्यादा दिन नहीं बीते है जब डॉ. रमन सिंह ने नक्सली प्रभावित जिले में ग्राम सुराज चलाते वाहवाही लुटी थी। तब पूरी भाजपा व उसकी सरकार ने यह प्रचारित किया था कि नक्सलियों की मांद में सरकार घुस गई है। छत्तीसगढ़ पुलिस के तमाम उच्च अधिकारियों को भी यह बात कहे ज्यादा दिन नहीं बीता है कि हम अबुझमाड़ के 15 फीसदी जगह से नक्सलियों को खदेड़ चुके है।
इन दो दावों से जनता आश्वस्त भी नहीं हो पाई थी कि कलेक्टर का अपहरण हो गया। तब सरकार के पास कहने के लिए शब्द थे कि कलेक्टर खुद मरने गया था। लेकिन अब जब कोण्डागांव में प्रदेश की मंत्री लता उसेंडी के घर हमला हुआ तब सरकार क्या यह कह पायेगी कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र में रहोगे तो हमला तो होगा या फिर इसकी गंभीरता को समझेगी।
अब तक नक्सली केवल जंगलों पर औकात दिखाते रहे हैं तब सरकार के पास सफाई का पूरा मौका होता था लेकिन अब तो यह सरकार की नाकामी की इंतीहा हो गई है। नक्सली, मंत्रियों के घरों तक में हमला कर रहे है। लता उसेंडी के घर तक पहुच जाना ही सरकार के लिए  बड़ी चुनौती है और अब भी सरकार ने अपने आसपास के नकारा व मीठलबरा अधिकारियों को नहीं हटाया तो आगे इससे भी बड़ी वारदात हो सकती है। सरकार को राजधानी में मौजूद सीनियर अधिकारियों को तत्काल नक्सली क्षेत्र में पदस्थ करना चाहिए। सिर्फ पुलिस कप्तान बदलने से मामला नहीं सुलझने वाला है सीनियर आईएएस को भी नक्सली क्षेत्र में पदस्थ करनेे की जरूरत है।
इन सबके अलाव डॉ. रमन सिंह को अपने चंडाल चौकड़ी के लोगों का भी परिक्षण करना चाहिए क्योंकि अब तक वे इन्हीं चंडाल चौकड़ी की राय लेते रहे है और इससे सरकार के हाथ सिर्फ बदनामी ही हाथ लगने वाली है यह साबित हो चुका है।
हम यहां नक्सलियों की ताकत की बात नहीं कर रहे है और न ही सरकार की नाकामी गिना रहे है। लेकिन जिस तरह से सरकार चल रही है उसे कतई ठीक नहीं कहा जा सकता है। डॉ.रमन सिंह व उनके मंत्रियों को यह सोचना ही होगा कि यही हाल रहा तो बंदूक की गोली का शिकार और कौन-कौन हो सकते हैं।
                              

गुरुवार, 17 मई 2012

चुनाव की छटपटाहट


अभी छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव में पूरे डेढ़ साल है लेकिन राजनैतिक दलों की छटपटाहट साफ दिखनेे लगा है। कांगे्रस जहां सत्ता छिनने में लगी है तो भाजपा में सत्ता बचाने की छटपटाहट साफ दिख रहा है। पिछले 7-8 सालों में छत्तीसगढ़ में बैठी भाजपा के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार का प्रदर्शन को लेकर भाजपाई खुद परेशान है। कोयले की कालिख में पूति सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप आम लोगों के जुबान पर है ऐसे में आदिवासियों की पिटाई और हरिजन अत्याचार के साथ किसानों से वादा खिलाफी ने रमन सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ा दी है।
भाजपा के  सामने एक दिक्कत गुटबाजी और असंतोष भी है। प्रदेश के दिग्गज भाजपाई चाहे रमेश बैस हो या जूदेव या फिर नंदकुमार साय हो या फिर करुणा शुक्ला सरकार के काम काज के तरीकों से बेहद नाराज है। यह अलग बात है कि भाजपा में अनुशासन का डंडा भी जबरदस्त है इसलिए विवाद मूर्त रूप नहीं ले पा रहा है। लेकिन भीतर ही भीतर सुलग रहे असंतोष ने कहीं विधानसभा में अपना असर दिखाया तो सत्ता बचा पाना मुश्किल हो जायेगा।
भ्रष्टाचार के अलावा कानून व्यवस्था को लेकर भी रमन सरकार कटघरे में है। खासकर कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन अपहरण कांड को लेकर तो डॉ.रमन सिंह पर नक्सलियों से समझौते के जो आरोप लगे है वह रमन सिंह की छवि को लेकर भाजपा में चिंता स्वाभाविक है।
दूसरी तरफ तमाम गुटबाजी के बाद भी नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में नये सिरे से उत्साह तो जगा है लेकिन बड़े नेताओं की गुटबाजी किस हद तक जायेगी यह कहना कठिन है। हालांकि दस साल के वनवास से चिंतित कांग्रेसी चुनाव में गुटबाजी भुलाकर सत्ता वापसी का दावा तो कर रहे है लेकिन यह कितना कारगर होगा कहना कठिन है।
दोनों ही पार्टी इस बात को जानते है कि छत्तीसगढ़ में सरकार पर वहीं बैठेगा जो बस्तर-सरगुजा फतह करेगी। ऐसे में बस्तर को लेकर दोनों ही पार्टियों की छटपटाहट स्वाभाविक है। बस्तर कांग्रेस में जहां गुटबाजी के चलते कांग्रेस की हालत खराब रही है तो आदिवासियों की पिटाई और नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव से भाजपा भी बुरी तरह घिर गई है ऐसे में मैदानी इलाकों में भाजपा अधिकारिक जोर देना तो चाहती है लेकिन किसानों की नाराजगी और हरिजनों की नाराजगी को दूर करना ही होगा।
                     

बुधवार, 16 मई 2012

कहां है छत्तीसगढिय़ा...


जिस तरह से छत्तीसगढ़ में रमन राज का काम काज चल रहा है उसके बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि छत्तीसगढ़ राज क्या इसी दिन के लिए बनाया गया था। जहां तक हमारी जानकारी में छत्तीसगढ़ की मांग की वजह छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा प्रमुख रही है लेकिन राज बनने के  बाद भी शोषण जारी है तो फिर आम छत्तीसगढिय़ा कर क्या रहे है। रोज खबरें आ रही है कि किस तरह से छत्तीसगढिय़ों को प्रताडि़त किया जा रहा है। ताजा विवाद नौकरी का है जहां पूरी सरकार साजिशपूर्वक छत्तीसगढिय़ों को नौकरी से वंचित करने में आमदा है।   पीएससी से लेकर छोटे-बड़े सभी नौकरी में छत्तीसगढिय़ों को साजिशपूर्वक भगाया जा रहा है और दूसरे प्रांत के लोगों को प्राथमिकता दी जा रही है। नियमों की अनदेखी कर सरकार में बैठे प्रमुख लोग और अफसर साजिश रचकर छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा कर रहे है और छत्तीसगढिय़ा जनप्रतिनिधि खामोश है।
सिर्फ नौकरी ही नहीं हर क्षेत्र में छत्तीसगढिय़ों की घोर उपेक्षा की जा रही है और छत्तीसगढियों का राज मांगने वाले नेता दो चार सौ के चक्कर में पड़े है। हालत यह है कि बस्तर से लेकर सरगुजा तक छत्तीसगढिय़ों की जमीनें छीनी जा रही है। यहां तक की नई राजधानी के निर्माण के नाम पर भी केवल छत्तीसगढिय़ों की जमाने छिनी गई और बाहरी लोगों की जमीने बचाने साजिश रची गई।
छत्तीसगढ़ राज निर्माण की प्रमुख वजह को सरकार ने जिस तरह से साजिशपूर्वक दरकिनार किया वह शर्मनाक है। लेकिन इस बारे में अपने को छत्तीसगढिय़ा नेता कहलाने वाले भी खामोश है।
क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि आखिर छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा कब तक की जाती रहेगी। क्या कांग्रेस-भाजपा से जुड़े छत्तीसगढिय़ां नेताओं का इस माटी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है और आम छत्तीसगढिय़ा अपने शोषण के खिलाफ कब खड़े होंगे। ये ऐसे सवाल है जो छत्तीसगढ़ की दशा और दिशा को रेखांकित करते है। छत्तीसगढिय़ों के खिलाफ साजिशपूर्वक जिस तरह से नौकरी से लेकर घर द्वार, खेत खार छिनने की कोशिश हो रही है । और यह कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है।
सारे नियमों को दरकिनार कर लूट-खसोट में लगी सरकार ने जिस पैमाने पर जल-जंगल और जमीन को नुकशान पहुंचाया है वह अंयंत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगा। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार का खेल चल रहा है और आम छत्तीसगढिय़ा के बजाय बाहरी को प्राथमिकता से छत्तीसगढ़ अपराधगढ़ बनता जा रहा है
               

मंगलवार, 15 मई 2012

राजधानी है भाई...


अब जाकर सही मायने में अपना रायपुर राजधानी बना है वरना रायपुर को जानता कौन है। नक्सली आतंक की घटना बस्तर में होता थी और लोग बेवजह रायपुर का नाम लेते है। नेशनल वालों को मालूम नहीं है कि रायपुर से बस्तर इतनी दूर है और वहां चल रहे नक्सली मार-काट का यहां कोई लेना देना नहीं है लेकिन वे तो पेले पड़े है।
रायपुर अब जाकर राजधानी का शक्ल अख्तियार कर रहा है। अब दूसरी राजधानी के तरह यहां भी गोलियां चलने लगी है। बलात्कार,लूट,डकैती,चोरी बढ़ गई है और अब हमे भी नेशनल खबर में आने से कोई नहीं रोक सकता।
नेशनल खबर में रायपुर को लाने के लिए राजधानी वासियों को सरकार और पुुलिस विभाग को धन्यवाद करना चाहिए लेकिन लोग बेवकूफ है बेवजह सरकार को कोस रहे है। कानून व्यवस्था को बदतर कहना सरकार को गाली देना है जबकि इसमें पुलिस का क्या दोष है। उनका सारा वक्त तो नेताओं और अधिकारियों की खुशामद में गुजर जाता है इस सबके बीच समय बचा तो यातायात सुधारने में लग जाता है। यातायात सुधारे जयेंगे तो वसूली भी जरूरी है आखिर सरकार इतनी तनख्वाह नहीं देती कि घर-परिवार चलाया जा सके।
आजकल बेवजह कोसने का चलन बढ़ गया है। हर आदमी अपना फ्रस्टेशन सरकार पर निकालता है और पुलिस तो मानों गाली खाने के लिए ही बना है। अपना फ्रस्टेशन निकालने में लोग भूल जाते है कि पुलिस के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि नक्सलियों की हथियार तस्करी की खबर उसे लग जाये। और फिर भंडाफोड़ तो पुलिस ने ही किया चाहे वो हैदराबाद के ही क्यों न हो। लेकिन लोग यहां भी मीन मेख निकालने में लगे रहते है।
राजधानी वालों को समझना चाहिए कि यहां पुलिस का काम केवल जूआं सट्टा पकडऩा बस नहीं है या आपराधियों को पकडऩे बस का  काम नहीं है। राजधानी में जरूरी काम तो वीआईपी ड्यूटी का सफल संचालन है। और राजधानी की पुलिस का परफारमेन्स का जवाब नहीं है। दूसरी जगह मंत्री चप्पल खा रहे है हमारे यहां पुलिस के रहते किसी की मजाल नहीं है। रहा सवाल गोली,हत्या,लूट, डकैती का तो सबका एक साथ भंडाफोड़ कर देंगे कोई पकड़ में तो आये। राजधानी के साथ यह बुराई  आती ही है परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब राजधानी मांगते समय नहीं सोचा तब अब क्यों जबरिया पुलिस को गाली दे रहे है।

सोमवार, 14 मई 2012

ये कैसा समझौता...


डॉ.रमन सिंह ने कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई में नक्सलियों से समझौते की जो कहानी सुनाई थी वह अब भी तार-तार हो गई है। झूठ सबके सामने है? और नक्सलियों की मार-काट जारी है। सरकार समझौैते के नाम पर माला जप रही है और आम आदमी सोचने मजबूर है कि समझौते क्या हुआ है। क्या सचमुच मेनन की रिहाई में के एवज में रूपयों का लेन देन हुआ है और मिशन 2013 के फतह का खेल हुआ है?
समझौता वार्ता के दौरान नक्सली हिंसा को यह कहकर टालने की कोशिश हुई कि सूचना नहीं पहुंंच पाने की वजह सेे सब हो रहा है लेकिन अब क्या हुआ? सरकार ने क्या समझौता कर लिया है कि कलेक्टर बस को छोड़ दो चाहे जिसे जैसा मारना चाहो छूट है। हम नहीं पकड़ेंगे? और पकड़ेंगे भी तो उन्हें छोड़ देंगे?
वास्तव में डॉ.रमन सिंह नक्सली मामले में पूरी तरह फेल हो चुके है। उनकी सत्ता में बैठने के बाद नक्सलियों ने न केवल अपने क्षेत्र का विस्तार किया है  बल्कि हिंसक वारदातों में भी बढ़ोतरी की है। सलवा जुडूम के बीमारी ने गांव के गांव उजाड़ दिये और डॉ.रमन सिंह व पूरी भाजपा अपनी कमजोरी छिपाने केन्द्र से गुहार लगाकर शब्दो को लच्छेदार चासनी में लपेट रही है।
कलेक्टर के अपहरण का ड्रामा अब खत्म हो चूका है। डॉ. रमन सिंह के सरकार का नया ड्रामा चल रहा है आबकारी एक्ट में बंद गुडिय़ारी के युवक को नक्सली समझौैैते के तहत छोडऩे ड्रामा भी खत्म हो गया है लेकिन नक्सली कोई ड्रामा नहीं कर रहे है वे लगातार मारकाट मचा रहे है। सरकार की नीति से पुलिस का मनोबल कम हुआ है।
ऐसी स्थिति में केन्द्र की खामोशी भी आश्चर्यजनक है। सिर्फ करोड़ो रुपये देकर ऐसा सरकार के  भरोसे जवानो और आम लोगों को छोड़ दिया है जो नक्सलियों को छोडऩे एवज में समझौते  कर रहे है। जान माल की हिफाजत करने में पूरी तरह से असक्षम सरकार के बारे में भी केन्द्र ही नहीं अब तो आम लोगों को भी सोचना होगा कि आखिर सरकार क्यों चूक रही है। इतने लोगो की मौत बाद भी सरकार केवल भाषणों में नक्सलियों से लडऩे का दावा कर रही है। आखिर नक्सली क्यों छोड़े जाने चाहिए? क्या जवानों की कुर्बानी व्यर्थ है या सरकार के कहने पर सलवा जुडूम चलाने वाले बेवकूफ थे। क्या सरकार पर भरोसा करना गलत है? यह सवाल अब चर्चाओं में है और इसका जवाब डॉ.रमन सिंह को देना ही होगा।
                   

रविवार, 13 मई 2012

सरकार और उद्योगपति...


छत्ततीसगढ़ में उद्योगपतियों की दादागिरी पर सरकार की खामोशी का क्या अर्थ है यह तो वही जाने लेकिन आम लोगों में जिस तरह से चर्चा है उसका लब्बोलुआब तो यहीं है कि जब आप गलत होंगे तो आप किसी को गलत करने से नहीं रोक सकते है न ही अच्छे कार्य के लिए दबाव भी बना  सकते है।
यहीं वजह है कि पैसों के दम पर उद्योगपति मनमानी कर रहे है और सरकार में बैठे अफसर-मंत्री उनके सामने दूम हिलाते नजर आ रहे है। छत्तीसगढ़ में उद्योगों के लिए रमन सरकार ने जिस तरह से जमीने व दूसरी सुविधाएं दी इसके एवज में उद्योगों ने इस प्रदेश को क्या दिया। इस पर यहां बाद में चर्चा करेंगे लेकिन राजधानी के  दर्जन भर तालाबों की सफार्ई व सौंदर्यीकरण से उद्योगों ने जिस तरह से मुंह मोड़ा है वह गाल में तमाचा मारने से कम नहीं है ।
राजधानी के तालाबों के सौंदर्यीकरण के इस योजना को उद्योगपतियों ने पलीता लगा दिया और आज तालाब के पास रहने वाले लोग परेशान है। उनकी निस्तारी की सुविधा भी सरकार नहीं कर पा रही है तालाबों की गंदगी बजबजाने लगी है और सरकार व नगर निगम यह सोचकर हाथ पर हाथ धरे बैठी है कि यह सब उद्योगपति करेंगे।
उद्योगपति के यह रूख के पीछे की कहानी क्या है यह तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि उसने सरकार से मिली सुविधा का नगद भुगतान कर दिया है इसलिए वे सरकार मेंं बैठे लोगों को आंख दिखाते है और अवैधानिक व आपराधिक कृत्य में लिप्त है।
छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन राज के आने के बाद उद्योगपतियों की दादागिरी व आपराधिक कृत्य किसी से छिपा नहीें है। अवैध निर्माण,अवैध उत्खनन,पेड़ों की कटाई,जमीन पर कब्जा और दादागिरी चरम पर है लेकिन सरकार को यह सब नहीं दिख रहा है। सरकार को यह सब क्यों नजर नहीं आ रहा है यह तो बाद की बात है। इतनी मनमानी के बाद सरकार जिस तरह से उद्योगों के लिए अपने बनाये कानून को नजरअंदाज या अवहेलना कर रही है यह साबित करता है कि पैसों की ताकत सरकार से बड़ी हो गई है। उद्योगों को जमीन देने जनसुनवाई के नौटंकी से लेकर बिजली बिल की वसूली और टेक्सों में माफी तक दी जाती है लेकिन इतनी सुविधा पाने के बाद भी राजधानी के तालाबों की सफाई जैसे काम में वह पीछे हट जाती है और सरकार के लोग गिड़गिड़ाते रहे तो ऐसी सरकार के होने या न होने का फायदा क्या है।
                               

शनिवार, 12 मई 2012

स्लाटर हाउस की मजबूरी


राज्य बनने के बाद नि:संदेह शहरी क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधा बढ़ी है लेकिन रमन सरकार की अव्यवस्थित नीति के चलते आम आदमी स्लाटर हाउस में जाने के लिए मजबूर है। सरकार की चिकित्सा सुविधा अव्यवस्था का शिकार है और इसे दूर करने में रमन सरकार पूरी तरह फेल हो चुकी है।
राजधानी में कहने को तो मेकाहारा के साथ जिला अस्पताल व निगम द्वारा संचालित कई अस्पताल है लेकिन यहां अव्यवस्था का यह आलम है कि लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करने मजबूर है। लाखो करोड़ों के उकरण लगाये गए है लेकिन डॉक्टरों  की रूचि सिर्फ समय काटने की है या फिर आने वाले मरीजों को कैसे निजी चिकित्सालय में भेजे इसी में रहता है। स्टाफ की कमी तो अपनी जगह है लेकिन निजी चिकित्सालयों से मिलने वाली मोटी कमीशन के चलते यहंा इतनी लापारवाही की जाती है कि मरता क्या न करता के तर्ज पर लोग स्लाटर हाउस की ओर रुख करते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ रायपुर में ही हो रहा है पूरे प्रदेश भर के जिला चिकित्सालयों व मेकाहारा व मेकाज मे भी यही हाल है। ऐसा नहीं है कि सरकार में बैठे लोगों को इसकी जानकारी नहीं है लेकिन निजी डाक्टरों से ईलाज कराने वाले अधिकारी व नेताओं को आम लोगों की फिक्र ही नहीं है। निजी अस्पपतालों में मची लूट से आम आदमी त्रस्त है लेकिन व्यवस्था सुधारने में सरकार का ध्यान ही नहीं है।
राजधानी में निजी चिकित्सालयों में मची लूट-खसोट का यह आलम है कि रोज कितने ही परिवार जीते जी मर जाने की स्थिति मे आ रहे है। कर्ज लेकर इलाज कराने के बाद भी डाक्टरों का रवैया जरा भी संवेदनशील नहीं है। रायपुर में डाक्टरी पेशा को जिस तरह से व्यवसायिक रुप देकर लूट की होड़ मची है वह अंयंत्र देखने को नहीं मिलेगा। दवाई,जांच में भी कमीशन खोरी चरम पर है। कई एमआर तो इन डाक्टरों की करतूत का चौक-चौराहों पर जिस तरह से चर्चा करते है वह डाक्टरी पेशा के लिए कलंक से कम नहीं है। दवाई कंपनियों से दवाई लिखने के एवज में न केवल मनमाना कमीशन खोरी की जा रही है बल्कि सेम्पल की दवाई तक बेचने से गुरेज नहीं करते है।
सरकार के मुखिया डाक्टर होने के बाद भी जिस  तरह से सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था से मुह मोड़ रहे है वह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। ऐसे में आम आदमी स्लाटर हाउस की ओर रुख करने मजबूर है।
                              

शुक्रवार, 11 मई 2012

टोल प्लाजा की जिद...


टोल प्लाजा के निर्माण को लेकर सरकार के बेवजह जिद से महौल खराब होने लगा है। यह सच है कि टोल प्लाजा निगम सीमा के बाहर होना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट का भी इस बारे में गाईड लाईन स्पष्ट है इसके बाद भी सरकार टोल प्लाजा  को निगम सीमा में क्यों स्थापित करने में अड़ी हुर्ई है यह समझ से परे है।
टोल प्लाजा का निगम सीमा में निर्माण का न केवल वहां के लोग बल्कि आम जनता भी विरोध कर रही है। पिछले 6 माह से इसका विरोध चल रहा है लेकिन सरकार के जिद के चलते यह आन्दोलन का रुप लेने लगा है। कल सुंदर नगर के पास निर्माणाधीन स्थल पर जो हुआ उसके बाद तो तय है कि यहां टोल प्लाजा को लेकर लोग नाराज है और सरकार का इसी तरह का अडिय़ल रुप रहा तो बेवजह आन्दोलन होगा और आम आदमी को परेशानी होगी।
यह सर्वविदित है कि जिस जगह सुंदरनगर और चंगोराभाठा के बीच टोल प्लाजा का निर्माण करने की स्वीकृति दी गई है वह न केवल नियमों के विपरित है बल्कि इससे इस राह से गुजरने वालों को परेशानी होगी। सच यह भी है कि टोल प्लाजा की वजह से वातावरण भी खराब होगा जो ठीक नहीं है।
जिस जगह कर टोल प्लाजा बनाने की अनुमति दी जा रही है वह 6 वार्डो के  लाख भर लोगों के लिए मुसिबत का सबब होगा और इसके चलते आय दिन झगड़ा-झंझट से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में सरकार की जिद आश्चर्यजनक है।
हम यहां इस पर चर्चा करना नहीं चाहते कि टोल प्लाजा के निर्माण का यह निर्णय ठेकेदार को फायदा  पहुंचाने के लिए किया गया है या ठेकेदार के पैसों की वजह से यह निर्णय आया है। हम यहां केवल नियमों की बात कर रहे है और यहां टोल प्लाजा के निर्माण से होने वाली परेशानियों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे है।
कुम्हारी के पहले स्थित टोल प्लाजा को लेकर क्या कुछ नहीं हुआ है। कलेक्टर को अपमानित किया गया तो सांसद सरोज पाण्डे के लोगों को तोडफ़ोड़ का सहारा लेना पड़ा ऐसे में निगम सीमा के अंदर जब टोल प्लाजा होगा तो इस तरह की घटनाओं को रोक पाना मुश्किल होगा जो आय दिन पुलिस के लिए सिरदर्द साबित होगा और कानून व्यवस्था पर भी असर पड़ेगा।
इतना ही नहीं इसके विरोध मेें जब आन्दोलन होंगे तो यह बेवजह परेशानी वाला होगा। सिर्फ एक जिद वह भी नियमों के विपरित को लेकर प्रभावित वार्डों के लाख भर लोगों को आन्दोलन के लिए उकसाना ठीक नहीं है। वैसे भी सरकार का काम आम लोगों के हितों को देखना है और जब आम लोग ही इसके खिलाफ हो तब भला नियमो से परे जाकर टोल प्लाजा का निर्माण गलत है।
                

गुरुवार, 10 मई 2012

स्लाटर हाउस बनते अस्पताल...


राजधानी के एस्कार्ट हार्र्ट सेंटर में एक बार फिर पैसों के लिए शव को बंधक बनाया गया। यह खबर जितना विचलित करने वाला है उतना ही शर्मनाक भी है। व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते अस्पतालों में ही नहीं डाक्टरों की सोच मे भी तब्दिली आई है और कर्ज लेकर अस्पताल में सुविधाओं का विस्तार ने संवेेदनाओं को किनारे कर दिया।
कहने को तो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक से एक बड़े अस्पताल है लेकिन इनमें सरकार का कहीं नियत्रंण नहीं होने की वजह से यह स्लाटर हाउस में तब्दिल होने लगा है। डाक्टरों को सिर्फ पैसा दिखाई दे रहा है और सेवा के इस पेशे ने पूरी तरह व्यवसायिक रुप ले लिया है।
हालत यह हैै कि अपनी कमाई के चक्कर में सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी मरीजों को स्लाटर हाउस में भेज रहे है और इस सब खेल को जानते हुए भी प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग खामोश है।
हम यहां पहले ही कह चुके है कि निजी अस्पतालों को लेकर कड़े कानून बनाने की जरूरत है यह सच हैै कि सभी डाक्टर संवेदनहीन नहीं होते और न ही कोई मरीजों को जानबुझकर मारता है लेकिन यहां सवाल मरीजों को बचाने तक सीमित नहीं है इनकी वजह से मरीज के परिजनों का जीते जी मर जाने का है।
ईलाज के नाम पर लूट-खसोट की जो परम्परा राजधानी व छत्तीसगढ़ में चल रही वह ठीक नहीं है मरीज के अस्पताल पहुंचते ही लूट-खसोट की जो रणनीति बनाई गई है उस पर सरकारी नियत्रंण की जरूरत है। जांच के नाम से लूट की शुरुआत एडमिट करने के बाद और उपचार के  बाद भी जारी रहता है। कमीशनखोरी इस तरह हावी है कि वेश्याओं के दलाल भी शरमा जाए। लेबोरेटरी में कमीशन, खुन में कमीशन ,दवाईयों में कमीशन की वजह से ईलाज का 75 फीसदी खर्च तो कमीशन खोरी में ही चला जाता है ऐसे में एक आम आदमी के लिए यह स्लाटर हाउस से कम कैसे हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि राजधानी के सभी डाक्टर या पैथालॉजी लैब वाले लूट-खसोट में लगे है यहां वन्दना ग्रुप के गंगा डायग्नोस्टिक सेंटर जैसी संस्थाएं  भी है जो 75 फीसदी छूट के साथ जांच रिपोर्ट दे रहे है वह भी उच्च स्तरीय मशीन के साथ काम कर रहे है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कमीशनखोरी में लगे डाक्टरों को तो अपने बताये लैब की रिपोर्ट ही चाहिए। दवाईया भी खुद का मेडिकल स्टोर्स से ही होना चाहिए।
कमाई के फेर में मरीज के परिजनों की जान लेने पर आमदा इन नर्सिंग होम या बड़े अस्पतालों के खिलाफ सरकार को कड़ी कार्रवाई करनी ही चाहिए ताकि सेवा के इस क्षेत्र की पवित्रता बनी रहे।
                                                

बुधवार, 9 मई 2012

उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...


यह तो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना अपने करतूत पर परदा डालने की कोशिश में लगे पीएससी यानि लोक सेवा आयोग के पदाधिकारी मीडिया पर दोषारोपण नहीं करते। संघ से सूची जारी करने का प्रयास ये कर रहे है, मुरली मनोहर जोशी से रिश्तेदारी ये निभा रहे है, उत्तरप्रदेश के सवाल ये कर रहे है गलत मॉडल उत्तर ये जारी कर रहे है और मीडिया पर आरोप लगा रहे है कि ये लोग नकारात्मक खबर छाप रहे है जिससे पीएससी की छवि धूमिल हो रही है।
पीएससी अपने किये पर परदा डालने जिस तरह से मीडिया पर दोषारोपण कर रही है वह कहीं उचित नहीं है।
छत्तीसगढ़ में आयोजित पीएससी की परीक्षा एक बार फिर विवाद में है। विवाद की वजह यहां बैठे लोग है जो शायद कसम खा चुके है कि वे अपनी मनमानी करेंगे? पीएससी के अध्यक्ष डॉ. जोशी  तो पहले से ही विवाद में है और मामला यहां तक जा पहुंचा है कि पीएससी की सूची इस बार संघ तय करेगी। कल के प्रश्नपत्र के  बाद तो यह तय ही हो चुका है कि छत्तीसगढ़ की लोगों की उपेक्षा राज बनने के बाद भी जारी है। शासन-प्रशासन में बैठे लोग नहीं चाहते है कि यहां के युवाओं को नौकरी मिले और यहां के युवाओं की षडयंत्रपूर्वक उपेक्षा की जा रही है।
हमें ये नहीं लगता कि इन गलतियों को सुधारा जाना चाहिए जिस तरह की गलतियां हुई है इसके बाद तो परीक्षा रद्द कर दोषियों कर कड़़ी करवाई की जरूरत है।
इस सरकार में तो अधिकारियों की करतूत किसी से भी छिपा नहीं है । चोरी और सीना जोरी के तर्ज पर आंख दिखाने से कभी गुरेज नहीं किया।  ऐसे कई मामले है जब भ्रष्टाचार के आरोपियों को सरकार ने संरक्षण देकर अपनी गोद में बिठाया है।
पीएससी के मामले में हमारा मानना है कि छत्तीसगढ़ के युवाओं के साथ जिस तरह से षडयंत्र हुआ है इसकी न केवल उच्चस्तरीय जांच की जरूरत है बल्कि जिम्मेदारी तय कर कड़ी सजा देने की भी जरूरत है। आखिर छत्तीसगढ़ के युवाओं को अपने ही प्रदेश में साजिशपूर्वक नकारा गया तो वे कहां जायेंगे।
राज हमारा, फिर नौकरी दूसरों के लिए तय हो यह उचित नहीं है। हमने कल इसी जगह पर साफ कहा था कि छत्तीसगढ़ के युवाओं के उपेक्षा ऐसे ही होती रही तो राज-ठाकरे जैसे लोगों को सर उठाने का मौका मिलेगा जो सरकार के     लिए भी ठीक नहीं है। इसलिए अब भी समय है सरकार को पूरी परीक्षा रद्द कर नये सिरे से परीक्षा आयोजित करवाना चाहिए ।
                             

मंगलवार, 8 मई 2012

फिर रद्द क्यों नहीं...


अब तो यह तय हो चुका है कि पीएससी की परीक्षा में छत्तीसगढिय़ों को किनारे करने की साजिश हुई है और इस खेल में सत्ता में बैठे धुरंधरो से लेकर संघ के लोग भी शामिल है। ऐसी परीक्षाएं रद्द हो जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में सालों बाद हुए पीएससी की परीक्षा को लेकर रोज नये खुलासे हो रहे है और सरकार में बैठे लोग केवल तमाशा देख रहे है यह डॉ. रमन सिंह का कौन सा सुराज है,किस तरह की राजनीति है या किस तरह से सत्ता का संचालन है यह तो वही जाने लेकिन यह स्थिति ठीक नहीं है। और इस मामले में तत्काल निर्णय लिए जाने की जरुरत है।
हम पहले ही यहां लिख चुके है कि छत्तीसगढ़  राज की मांग का आधार सिर्फ भौगोलिक बंटवारा या राज्य का विकास ही नहीं था। छत्तीसगढिय़ों की घोर उपेक्षा के चलते राज की मांग उठी थी। बिजली हमारी लेकिन कटौति का सामना हमें करना पड़ता था। नौकरी में शेष मध्यप्रेदश को प्राथमिकता दी जाती थी और आम छत्तीसगढिय़ों के उपेक्षा के कारण ही राज की मांग हुई। लेकन राज बनने के बाद भी यहां बैठी सरकार छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा करते रही तो इसे कब तक बर्दास्त किया जा सकता है।
हम फिर कह रहे हैं कि हम राज ठाकरे जैसे आंदोलनों के समर्थक नहीं है और न ही हिंसा में ही हमारा विश्वास है इसलिए हम चाहते है कि चुनी हुई सरकारे इस बात का ध्यान रखे की उनसे ऐसी कोई गलती न हो जिससे राज ठाकरे के समर्थन करने वालों को मौका मिले।
यह ठीक है कि भारतीय जनता पार्टी को लोगों ने सत्ता में बिठाया है और उन्हें अपने हिसाब से सरकार चलाने का अधिकार भी है लेकिन इस अधिकार का गलत इस्तेमाल कर इस शंात प्रदेश में आग लगाने का काम न करे। लगातार उपेक्षा से इस तरह से लोगों को सर उठाने का मौका मिलेगा जो छत्तीसगढ़ के लिए ठीक नहीं है। सरकार को तो उसी दिन पीएससी अध्यक्ष से सवाल जवाब करना था जब वे संघ के दफ्तर में पहुंच गए थे लेकिन विधानसभा में यह कहकर पल्ले झाड़ लिया गया कि कोई कहीं भी आ जा सकता है और लोगों की दुविधा बनी रही। इस तरह के जवाब के कारण ही उन लोगों का साहस बढ़ा, और आज स्थिति सबके सामने है कि किस तरह के अपने खास लोगों को परीक्षा में पास कराने के लिए एक प्रदेश विशेष के ऐसे सवाल पुछे गये जिनका वहीं के लोगों का वास्ता है।
कोयले की कालिख में पूति सरकार एलेक्स मेनन को लेकर अभी कटघरे में है ऐसे में पीएससी परीक्षा को लेकर उठे विवाद का शीघ्र निपटारा नहीं हुआ तो स्थिति बिगड़ सकती है।
               

सोमवार, 7 मई 2012

क्या इसलिए राज बना...


छत्तीसगढ़ राज्य की मांग की मूल वजह ही यहां के लोगों की उपेक्षा रही है लेकिन लगता है कि सरकार ने यह तय कर रखा है कि वह यहां के लोगों की उपेक्षा करेगी। शिक्षाकर्मियों की भर्ती से लेकर अब पीएससी परीक्षा से यह तय हो गया है कि छत्तीसगढ़ राज तो बन गया है लेकिन यहां के लोगों की उपेक्षा जारी है।
वैसे तो पीएससी की परीक्षा तब विवाद में आ गई थी जब इसके अध्यक्ष डॉ. जोशी ने संघ कार्यालय में दस्तक दी थी तब यह कहा जाने लगा था कि इस बार पीएससी में उत्तीर्ण की सुची संघ कार्यालय से होगी और प्रश्नपत्र में जिस तरह के उत्तरप्रदेश के सवाल शामिल हुए है उसके बाद तो यह तय हो चुका है कि छत्तीसगढ़ की उपेक्षा जारी है।
सिर्फ नौकरी ही नहीं और भी उदाहरण है जहां छत्तीसगढिय़ों के साथ अन्यायपूर्ण निर्णय लिये जा रहे हैं। उद्योगों के नाम पर किसानों की जमीने छीनी जा रही है। सलवा जुडूम के नाम पर आदिवासियों के गांव उजाड़े गये। और राजनीति से लेकर प्रशासनिक जिम्मेदारियों में भी चुन-चुन कर छत्तीसगढिय़ों को किनारे किया गया।
सरकार बनाने किये गये वादे आज तक पूरे नहीं हुए और सिंचाई,बिजली,पानी ,स्वास्थ्य सुविधाओं को जानबुुझकर रोका गया। नौकरी में तो जिस तरह से उपेक्षा हुई है वह अंयंत्र कही देखने को नहीं मिलेगा।
मुख्यमंत्री निवास को लेकर मंत्रालय  तक छत्तीसगढिय़ों की घोर उपेक्षा के चलते आम छत्तीसगढि़य़ा ठगा महसूस कर रहा है। अपने ही राज में दोयम दर्जे की स्थिति बन गई है ।
हमने इसी जगह पर पहले भी कहा था कि सरकार में बैठे लोगों का यह षडयंत्र चल रहा तो आने वाले दिनों में यह शांत प्रदेश अपनी पहचान खो देगा। विकास के नाम पर लुट-खसोट अब बर्दास्त से बाहर होने लगी है। कानून सिर्फ गरीबों के लिए रह गया है। आम छत्तीसगढिय़ा दो जून के रोटी जद्दोजहद में लगा है ऐसे में सरकार यह जान ले कि यह स्थिति ठीक नहीं है। और इसका आने वाले दिनों में गंभीर दुष्परिणाम भुगतना पड़ सकता है।
इन सब बातों से हमारे कतई मतलब नहीं है कि दूसरे प्रदेश के लोगों को यहां काम करने का अधिकार नहीं है और न ही हम बालठाकरे या राजठाकरे जैसे स्थिति से इत्तफाक रखते हैं। हम सिर्फ यह चाहते है कि सरकार की प्राथमिकता यहां के लोगों के लिए होनी चाहिए ताकि विघन संतोषियों को सर उठाने का मौका न मिले।
                

रविवार, 6 मई 2012

फांसी पर चढ़ा दो...


अन्ना हजारे ने कह दिया कि यदि अभिषेक सिंघवी सीडी कांड में दोषी पाये जाते है तो उन्हें फांसी पर चढ़ा देना चाहिए। रामदेव बाबा के सांसदों को जाहिल कहने के बाद अन्ना हजारे के इस बयान से पता नहीं कितने लोग सहमत होंगे लेकिन लोकतंत्र में ऐसी भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अन्ना का यह बयान सिर्फ अपनी वाहवाही के लिए है तो हमें कुछ नहीं कहना है लेकिन एक गांधीवादी के रुप में अपने छवि बनाने वाले अन्ना की इस सोच को हम आतंकवाद या कट्टर वाद या तालिबान की तरह मानते है जिन्हें अपने दुश्मनों को मारने में कोई संकोच नहीं होता।
कट्टर वाद ही लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है और यह तानाशाही है। इस तरह की सोच से समाज और देश को नुकसान होगा। यह सही है कि अन्ना की जनलोकपाल बिल को लेकर कांग्रेस का प्रबल विरोध है और इसकी वजह से अन्ना हजारे नाराज भी है लेकिन नाराजगी को फांसी के हद तक ले जाना किसी भी हाल में सही नहीं हैै।
अन्ना हजारे ये भूल रहे हैं कि उनकी छवि ईमानदार, गांधीवादी छवि है जहां हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। और अन्ना के  जनलोकपाल बिल का सिर्फ कांग्रेस ही नहीं भाजपा सहित तमाम पार्टीयां भी विरोध कर रही है ऐसे में मनु सिंघवी को फांसी पर लटका देने की सार्वजनिक बयानबाजी से कांग्रेस विरोधी जरुर खुश हो सकते है लेकिन इस तरह की भाषा का लोकतंत्र मे कहीं स्थान नहीं है। आज जब पूरी दुनिया फांसी चढ़ाये जाने को लेकर खिलाफत में लगी है और इस तरह की सजा पर बंदिश की मांग उठ रही है तब अन्ना हजारे की सोच कितना सही है इस पर  बहस तक नहीं होना चाहिए। यह सच है कि भ्रष्टाचार की वजह से आज एक बड़ा वर्ग अपने मूल अधिकार से वंचित हुआ है। अमीर-गरीब के बीच खाई बढ़ी है और मंहगाई से जीना आम आदमी का मुहाल हो गया है,बावजूद फांसी पर लटकाने की बात बेहद ही गैर जिम्मेदाराना है।
हमने पहले ही कहा है कि गाली देने या सड़क पर चिल्लाने से भीड़ जुट जाती है लेकिन यह भीड़ केवल तमाशाबीन होती है। बड़े लोगों के लिए यह चेतावनी है कि वे  अपनी भाषा को संयमित रखे, क्योंकि उनके बहुत से लोग प्रशंसक होते है यदि उनके प्रशंसक भी  उन्हीं के भाषा को बोलते हुए एक कदम आगे बढ़कर काम करे तो फिर कानून व्यवस्था की स्थिति क्या होगी? इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर अन्ना-बाबा कौन सा देश का हित का काम करना चाहते है और जो लोग इसकी पीठ पर सवार होकर राजनैतिक रोटी सेेंक रहे है वे भूल रहे है कि इससे उनका भी नुकसान हो सकता है।
                                  

शनिवार, 5 मई 2012

बदलती सोच...


एक समय था जब मोहल्ले में किसी की अर्थी उठती थी तो उस मोहल्ले के विवाह समारोह में भी इसका असर होता था। लेकिन अब समय बदल गया है तभी तो कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई पर आतिशबाजी हुई और मिठाईयां बांटी गई। लेकिन उन शहीद हुए दो गार्डों की याद किसी ने नहीं की जिनकी तेरहवीं भी पूरी नहीं हो पाई थी।
 मरने वाले तो मर गये उनके लिए अपनी खुशियां क्यों छोड़े की तर्ज पर जिस तरह से खुशियां मनाई गई वह कितना उचित है यह विवाद का विषय है। लेकिन भारतीय परंपरा की दुहाई देने वाले भी जब इस तरह की खुशियां में शामिल हो जाये तब यह मान लेना चाहिए कि यहां अब भी बड़े छोटे का भेद कायम है? कलेक्टर बड़े लोग होते है,वे जिले के राजा होते है और सिपाही, उनकी क्या हैसियत होती है? उनके लिए कोई अपना आंसु बहाकर अपना समय क्यों खराब करे। जो जिन्दा है उन्हीं से तो काम पड़ता है। खुशियां मनाने वालों को इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसकी सुहाग उजड़ गई और किसने अपना बेटा खो दिया।
मुझे राजकपुर की श्री 420 फिल्म का वह सीन आज भी याद है। जब बम्बई पहुंचने पर राजकपुर केले के छिलके पर पैर आ जाने पर गिर जाता है तब एक डायलॉग सामने आता है यह बाम्बे है यहां गिरने वालों को कोई उठाता नहीं है लोग हंसते है।
एलेक्स पाल मेनन की रिहाई निश्चित रुप से सुकून देने वाली खबर है लेकिन उनका क्या जिन्हें नक्सलियों ने मार डाला। एलेक्स पाल एक अच्छे कलेक्टर होंगे लेकिन क्या बाकि कलेक्टर बेकार है। क्या बाकी कलेक्टरों को गरीबों से कोई मतलब नहीं है या क्या आईएएस व आईपीएस केवल अमीरों के हितों के लिए काम करते है फिर यह अलग से तमगा क्यों?  क्या आईएएस-आईपीएस की नियुक्ति सरकार के जनकल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनानो नहीं होती फिर एलेक्स इनसे अलग कैसे हो गये। समय ने देखा है कि कैसे गरीबों का मसीहा बनकर इसी प्रदेश में कितने आईएएस-आईपीएस ने करोड़ो रुपये कमायें है। और यह भी देखा है कि हम लोगों ने अपने पाप धोने अस्पताल से लेकर दूसरे धर्मार्थ कामों मे अपना योगदान दिया है। इसमें उन लोगों की गलती मै नहीं देखता जिन्होंंने कलेक्टर की रिहाई पर आतिशबाजी की। दरअसल अब दुनिया बदल रही हैै। रिश्ते टूट रहे है। तत्कालिन लाभ प्राथमिकता हो चुकी है तब उन शहीद हुए दो गार्डों की तेरहवी से ज्यादा कलेक्टटर की रिहाई मायने रखती है।

                                       

शुक्रवार, 4 मई 2012

फिर सुराज का क्या मतलब...


अभी राजा का ग्राम सुराज खतम हुए सप्ताह भी नहीं बीता है कि छत्तीसगढ़ के  कोने-कोने से लोगों को दरबार में आना पड़ गया। जनदर्शन के इस भीड़ को सरकार की लोकप्रियता के पैमाने में तौलने वालों के बारे में हमें कुछ नहीं कहना है लेकिन इस भीड़ ने ग्राम सुराज के उस दावे का पोल खोल दिया है जिसमें सरकार अपने द्वार का दावा किया जाता था।
सरकार लाख सफाई दे कि बजट सत्र और ग्राम सुराज की वजह से जनदर्शन डेढ़ माह तक नहीं हो पाया था इसलिए जनदर्शन में भीड़ रही लेकिन ग्राम सुराज मे तो पूरी सरकार गांव-गांव में लोगों तक पहुंची थी फिर तीन दिनों में ही प्रदेश भर के लोगों को राजा के दरबार आना क्यों पड़ा। क्या इसका मतलब नहीं है कि ग्राम सुराज से आम लोगों का विश्वास उठ गया है और वे ग्राम सुराज अभियान में अपनी समस्या बताने के बजाय सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर चलकर राज दरबार तक पहुंचना चाहते  है।
दूसरी बात यह है कि 7-8 साल के शासन के बाद भी लोगों को अपनी समस्या के लिए दरबार तक आना पड़े तब यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर जिलों व तहसीलों में बैठे अफसर क्या कर रहे है क्या वे, लोगों का काम नहीं कर रहे हैं इसलिए लोगों को राजधानी का चक्कर लगाना पड़ रहा है या राजा की बात उनके मातहत नहीं मानते और अपने प्रशासन में उनकी पकड़ नहीं है।
कल भी जनदर्शन में आने वाले लोगों ने जिस तरह से समस्याएं रखी है उसके बाद तो यह तय है कि प्रदेश में कुछ भी ठीक नहीं है। खदानों में उत्खनन हो रहा है और जनता को बिजली-पानी जैसी समस्याओं से जुझना पड़ रहा है। नौकरशाह इतने लापरवाह हो गये है कि उन्हें इस बात का भी डर नहीं है कि जब उनकी शिकायत राजा से होगी तो क्या होगा? गरियाबंद से बस्तर और बिलासपुर से सरगुजा तक के लोग जनदर्शन में इसलिए आ रहा है कि उनकी समस्या सालों से यथावत है।
वैसे भी हम ग्राम सुराज को किसी नौटंकी से कम नहीं समझते है और इस पर जो किये जा रहे है करोड़ों रुपये के खर्च को हम फालतू मानते रहे है और यह सब जनदर्शन में लगी भीड़ से पुख्ता हो रहा है कि ग्राम सुराज नौटंकी और अफसरों का पिकनिक जैसा रहा है और जब मुख्यमंत्री स्वयं एन्जॉय करने की बात कह चुके है तब इस ग्राम सुराज की नौटंकी बंद कर देनी चाहिए।
                                 

गुरुवार, 3 मई 2012

अलोकतांत्रिक रवैया...


यह सच है कि लोकतंत्र में लाख बुराई हो लेकिन इससे अच्छी व्यवस्था भी कोई दूसरी नहीं है यह बात मैं यहंा इसलिए याद दिला रहा हूं कि लगातार बढ़ते अन्याय और भ्रष्टाचार से आम आदमी त्रस्त होकर अपना आपा खो रहे हैं और आग में घी डालने का काम अन्ना-बाबा और उनकी पूरी टीम कर रही है।
यह सच है कि हमारी संसदीय प्रणालियों के चलते कुछ गलत लोग संविधान की सभा तक पहुंच जाते है इसका कतई मतलब नहीं है कि हम सभी पार्टियों और चुने हुए सभी जनप्रतिनिधियों को गरियाते घुमें। जो मन में आया बक दें। वास्तविकता पर ध्यान देने की जरुरत है हमें सांसदों या पार्टियों को गरियाने की बजाय यह देखना होगा कि ऐसे लोगों को संसद या विधायक बनने ही न दें। आखिर इन्हें हम ही जीताकर तो भेज रहे हैं।
इस देश में लोकतंत्र का सर्वाधिक फायदा यही है कि हम अपनी बातें रख सकते हैं। शायद लोकतंत्र व्यवस्था के कारण ही अन्ना-बाबा इतना बोल पा रहे हैं अन्यथा दुसरी व्यवस्था में तो ऐसे बोलने वाले को तो जेल में डाल दिया जाता है।
गाली देकर भीड़ जुटाना आसान है, इस देश में तमाशाबीन की कमी नहीं है किसी भी चौक चौराहो पर खड़े होकर गालियां बकना शुरु कर दो दस  लोग सुनने खड़े हो जायेंगे। सभी लोग यह बात जानते है कि लोकपाल विधेयक से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा लेकिन हम भी महसूस करते हैंं कि एक सशक्त लोकपाल की जरूरत इस देश को है। जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा के नेता गले तक भ्रष्टाचार से लबरेज है उसके बाद मजबूत लोकपाल बिल तभी आ सकता है जब हम गांधीवादी तरीके से आन्दोलन चलायें। लेकिन अन्ना-बाबा को अपनी भाषा सयमित करनी होगी गाली सुनने भीड़ तो इकट्ठी हो सकती है लेकिन इस तरह के गाली गलौज को हर कोई बर्दाश्त नहीं करता है। इसलिए जल्दबाजी में आपा खोने की बजाय या एक पार्टी को निशाना बनाने के बजाय सतत लंबे आन्दोलन की जरुरत है।
एक बात सभी जान ले कि जो लोग आज अन्ना-बाबा की पीठ में बैठकर राजनैतिक रोटी सेंकने में आमदा है वो भी इस आग में झुलस जायेंगे। क्योंकि इस के देश कानून की पहले   प्राथमिकता हर हाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखना है।
जो लोग अन्ना-बाबा के  पीठ पर सवार होकर सत्ता का सफर करना चाहते हैं उनकी करतुतें भी कम नहीं है। छत्तीसगढ़ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहंा विकास के नाम पर केवल लूट मची है। आज भी छत्तीसगढ़ के बहुत बड़ी आबादी शिक्षा-स्वास्थ्य  और पानी जैसी मूलभूत जरुरतों से वंचित है। उद्योगपतियों व बड़े लोगों के लिए कानून के पैमाने बदल जाते है। खदानों जमीनों की बंदरबांट हो रही है और आम आदमी नारकीय जीवन जीने मजबूर है।
राजनैतिक पार्टियों को यह सोचना होगा कि उनकी करतूतों से आम आदमी का सब्र टुटता जा रहा है इसलिए वे व्यवस्था को सुधार संतुलित विकास में ध्यान दे। और लोकतंत्र की मर्यादा भंग करने वालों को सख्त सजा दे।
                                           

बुधवार, 2 मई 2012

बात... दूर तक जायेगी


  कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई की खबर जितनी राहत भरी है उससे भी कहीं ज्यादा राहत की बात है सरकारी और नक्सली वार्ताकारों के बीच का अनुबंध। रिहाई होते ही सरकार अपना काम शुरु कर देगी लेकिन इस अनुबंध में दोनों की पक्ष शांति पर दस्तखत नहीं कर पाये। यही इस समझौते का दुखद पहलू है।
नक्सली अब भी मार-काट मचाये हुए है और अब भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र दहशत में है। सिर्फ कलेक्टर की रिहाई ही सरकार की जिम्मेदारी नहीं है सरकार इस बात के लिए नक्सलियों को क्यों नहीं तैयार कर पाई कि जब हम आपकी शर्ते मान रहे तब तो मार-काट बंद कर दो?
वैसे तो सवाल इस बात का है कि बगैर बंदियों की रिहाई के नक्सलियों ने कलेक्टर को छोडऩे कैसे राजी हुए। लेकिन हम अभी इस पर चर्चा करना नहीं चाहते क्योंकि ये मौका बातचीत के रास्ते खुलने का है और कोई भी नहीं चाहेगा कि ऐसे मौके पर कुछ ऐसे बातें हो जो आगे के बातचीत का रास्ता बंद कर दे।
नक्सली व सरकार के इस ऐतीहासिक अनुबंध में शांतिर की बाते जोड़ी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका तो इसकी वजह भी जरूर होगी? अनुबंध के मायने तभी है जब कलेक्टर की रिहाई के बाद सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे न हटे। नक्सलियों के असली मांग क्या है? इन सवालों का खुलासा नहीं हो पा रहा है कि आखिर वे लोकतंत्र पर भरोसा सरकार के किस कदम के बाद करेंगे? या मार-काट और पैसे वसूली का खेल चलता रहेगा। बस्तर जलता रहेगा और विकास की सोच रखने वाले दहशतजदा होंगे। बाबा रामदेव ने कल भिलाई में काला धन को लेकर चला रहे अपने आन्दोलन में नक्सलियों को साथ आने का आव्हन किया है। खबर सिर्फ  इतनी नहीं है उन्होंने खनिज संपदा को लुटेरों से बचाने की अपील भी की है? आखिर ये लुटेरे कौन है? उद्योगपति और सरकार की संाठ-गंाठ ने ही नक्सलवाद को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़ में यह सांठ-गांठ कुछ ज्यादा ही है यहां कानून भी सिर्फ गरीबों के लिए है वरना नक्सलियों को पैसा पहुंचाने में शमिल एस्सार के खिलाफ कार्रवाई जरूर होती। जमीन अधिग्रहण में सरकार और पूरा-पूरा प्रशासन जिन्दल व नीको के साथ खड़ा दिखता है। आदिवासियों को इस राज में सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा है जिनकी जमीने हड़पी जा रही है और जल, जंगल, जमीन के अधिकार की मांग को अनसुनी कर दी जाती है। विकास के नाम पर केवल भवन व सड़के बनाई जाती है और सुविधा के नाम पर मुफ्त खोरी सिखाई जाती है ।
सरकार के पास यह अच्छा मौका है वह नक्ललियों के साथ दूरगामी चर्चा     करे वरना सिर्फ कलेक्टर की रिहाई का ड्रामा या 2013 की तैयारी का भांडा देर-सबेर फूट ही जायेगा।
                                              

मंगलवार, 1 मई 2012

पीडीएस का सच...


प्रदेश में पीडीएस सिस्टम पूरी तरह से राशन माफियाओं के हाथों में चला गया है।  कालाबाजारी के चलते आम लोगों को राशन नहीं मिल रहा है और सरकार अपने सिस्टम को सराहते नहीं थकती।
पाटन के झीट और खुड़मुड़ी मेंं खाद्य विभाग के दावे के बाद इस बात के खुुलासा हुआ है कि किस तरह से राशन माफिया आम लोगों के हक का अनाज बेच खा रहा है। महिला सोसायटी के नाम से चल रहे राशन दुकान कोई और चला रहा था। पूरे प्रदेश में कमोबेश यही स्थिति है।
पीडीएस को लेकर सरकार कितना भी दावा करले लेकिन आम लोगों के अनाज की कालाबाजारी हो रही है। पूरे प्रदेश में सरकार ने महिला स्व समिति समूह को बड़े पैमाने पर राशन दूकानों का आबंटन किया है लेकिन अधिकांश जगह दूकानें कोई और चला रहा है। और गरीबों के चावलों का खुलेआम कालाबाजारी की जा रही है। फर्जी कार्ड बड़े पैमाने पर बनाये गये हैं। और राशन माफियाओं के दादागिरी से गंाव वाले त्रस्त है। रामसागर पारा में एक राशन माफिया तो सौ से उपर दूकान चलाता है लेकिन इसके खिलाफ कभी कार्रवाई नहीं होती। यही स्थिति प्रदेश भर मेंं है।
कल झीट में छापामारी के दौरान भिलाई के नीरज मेघवानी का नाम सामने आये। महिला स्व सहायता समूह को आबंटित इस दूकान का संचालन नीरज द्वारा किया जाता रहा है। कहा जाता है कि नीरज और भी कई जगह के दूकान का संचालन करता है।
रायपुर की राजधानी में भी यही स्थिति है। खुलेआम कालाबाजारी हो रही है। बूढ़ापारा के एक आटाचक्की तो राशन के चावल पीसने के लिए पूरे मोहल्ले में चर्चित है।
इस पूरे मामले में सोसायटी, राशन माफिया, ट्रांसपोटर्स की मिली भगत स्पष्ट रुप से दिख रही है लेकिन खाद्य अमले को तो केवल कमीशन से मतलब है इसलिए कहा जाता है कि छापा वहीं डाला जाता है जब कमीशन बढ़ानी हो।
खाद्य अमले और राशन माफियाओं के संाठ-गांठ में चल रहे इस खेल में पार्षदों, सरपंचो के अलावा बड़े अधिकारियों की मिली भगत है और जिस हिसाब से यहंा राशन माफिया सक्रिय है आने वाले दिनों में इसके गंभीर परिणाम होंगे।
हम यह नहीं कहते कि सरकार के सिस्टम में खोंट है लेकिन जिस तरह की बात सामने आ रही है और सीएजी ने जिस तरह से टिप्पणी की है उसके बाद तो सरकार को सबक लेना चाहिए।