रविवार, 11 अप्रैल 2021

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण...


कोविड-19 अब 21 साबित होने लगा है, हर तरफ हाहाकार है, छोटे शहरों की हालत ज्यादा खराब है, अस्पतालों में बेड की कमी, और लापरवाही ने कितने ही घरों की रोशनी छिन ली, और यह आगे कब तक चलेगा कहना मुश्किल है।

कई शहरों में ताला लगने लगा है जिसे लॉकडाउन कहा जा रहा है, शासन-प्रशासन की बेबसी साफ दिखाई देने लगा है, दो गज की दूरी, मास्क जरूरी ही इस संक्रमण से बचने का एक मात्र उपाय है। लेकिन नेताओं को राजनीति करने से फुर्सत नहीं है वे इस आपदा को भी अवसर में बदलकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं।

सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई की तर्ज पर सत्ता और विपक्ष अपने में मस्त हैं, हालांकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बेबाकी से स्वीकार किया कि छत्तीसगढ़ में कोरोना बढऩे की कई वजहों में से एक वजह रोड सेफ्टी क्रिकेट टूर्नामेंट भी हो सकता है लेकिन असली वजह विदर्भ से होली त्यौहार के लिए आवाजाही है। आज के इस दौर में यह स्वीकारोक्ति भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हाउडी ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता बनाने की चाह में निर्णय की देरी की बात को आज तक केन्द्र की सत्ता मानने को तैयार नहीं है।

यह सभी जानते हैं कि राहुल गांधई सहित विपक्ष के कई नेता जनवरी-फरवरी से ही मोदी सत्ता को इसकी भयावकता पर चिंता जता रहे थे लेकिन निर्णय में देरी की वजह से न केवल कोरोना से मौतों के आकड़े बढ़े बल्कि 186 मौते गरीब मजदूरों की सड़कों पर हो गई। मध्यम वर्गों की हालत सबसे ज्यादा खराब हुई। बढ़ते संक्रमण ने देश की आर्थिक स्थिति को बदहाल कर दिया। ऐसे में याद कीजिए सत्ता ने अपनी गलती छुपाने किस तरह से नफरत फैलाकर अपने को पाक बताया था। तब्लिकी जमात और मौलाना साद तो कईयों को आज भी याद होगा लेकिन शायद वे नहीं जानते होंगे कि इस मामले में न्यायालय ने फैसले क्या दिये, सभी पर लगे आरोप निराधार पाये गए। विदेशी नागरिक अपने देश में लौट गए और मौलाना साद के रुप में जो नफरत फैलाई गई वह उन लोगों के दिलों में घर बना लिया जो अच्छे खासे पढ़े लिखे, डिग्रीधारी हैं।

ज्ञान पर नफरत का यह ध्वजारोहण नया नहीं है, हां तरीका नया है क्योंकि एक ही तरीका अपनाया गया तो लोग बेवकूफ नहीं बनेंगे। इसलिए हर बार पूरे सच में से आधे में अपना झूठ और नफरत की चाशनी लपेटी जाती है और इसे परोसा जाता है कि यही पूरी सचा लगे।

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण नया नहीं है, धर्म और राष्ट्रवाद के चश्में ने अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे नौजवानों को अपनी चपेट में लिया है। ताजा उदाहरण  बंगाल का है, जिसमें ममता बैनर्जी सिर्फ इसलिए बानों बना दी गई क्योंकि वे अल्पसंख्यकों की पीड़ा के साथ खड़ी नजर आती है। सच तो यह है कि उन्होंने जिस सादगी के साथ मुख्यमंत्री को जिया है वैसा देखने को ही नहीं मिलेगा। विधायक-सांसद से लेकर मुख्यमंत्री तक के सफर में वह आज भी अपनी लिखी किताब की रायल्टी और पेटिंग बेचकर ही पैसा रखती है। न विधायक-सांसद का पेंशन न वेतन।

बकौल ज्योति बसु, 'ममता ही असली कामरेड है लेकिन गलत पार्टी में हैÓ। को नजरअंदाज कर भी दें तो जब आज अपने को सजने संवारने में गरीब से गरीब घर की लड़कियां भी हजारों रुपए खर्च करती है खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने को गरीब घर का बताते हुए लाखों रुपए चश्में, घड़ी व पहनावे फैशन पर करते हो तब ममता की सादगी से मुकाबला उसे बानों बनाकर ही किया जा सकता है। तब इस नफरती ध्वाजारोहण में शामिल कितने पढ़े लिखे हैं जो ममता को बानों कहने का विरोध करते हैं? क्या यह उन पढे-लिखे लोगों के क्षणिक स्वार्थ से यह ध्वजारोहण उचित है। मंडल कमीशन के बाद से जिस तरह से पढ़े-लिखे लोगों पर धर्म का कंबल डाला गया है, उसका दुष्परिणाम यह है कि अब मध्यम वर्ग बेबस है असहाय है और कुछ लोग शर्मसार तो हैं लेकिन खामोश कहना ठीक नहीं, भीतर ही भीतर घुस रहे हैं।

(जारी...)