शनिवार, 21 मार्च 2020

विभीषण होने के मायने


इतिहासत का एक ऐसा पात्र जिसने ईश्वर भक्ति में स्वयं को प्रमाणित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इसमें कतई संदेह भी नहीं है कि वे सबसे बड़े रामभक्त थे लेकिन उसे न तो समाज ने स्वीकारा न ही किसी और ने? जी हां हम यहां बात कर रहे हैं विभिषण का!
इतिहास गवाह है कि उनसे बड़ा रामभक्त कोई नहीं हुआ जिसने अपने कुल की परवाह नहीं की लेकिन यह भी सच्चाई है कि कोई भी मानव समाज न तो विभिषण बनना चाहता है और न ही कोई भी अपने पुत्र का नाम ही विभिषण रखना चाहता है ऐसे में ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य को उसके मुंह के सामने ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का विभिषण कहना? क्या बतलाता है आसानी से समझा जा सकता है। कांग्रेस में उपेक्षा और अपमान की जिस पीड़ा का ज्योतिरादित्य ने जिक्र करते हुए भाजपा प्रवेश की वजह बताई वह सम्मान उन्हें मुंह पर ही विभिषण के रुप में मिलने पर कैसा महसूस हुआ होगा यह तो वही जाने लेकिन राजनीति के विश्लेषक भी इस संबोधन से हैरान है।
हालांकि राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यहां कोई स्थाई दोस्त और दुश्मन नहीं होता। सब कुछ परिस्थितिजन्य होता है। लेकिन एक बात तो तय है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने मध्यप्रदेशथ में कांग्रेस को जो फटका दिया है उसकी पीड़ा से मुक्ति आसान नहीं है। हम इसी जगह पर कितनी बार लिख चुके हैं कि देश के राजनैतिक दलों ने जिस तरह से लूट मचाई है वह किसी संगठित गिरोह से कम नहीं है। असल मुद्दों से ध्यान भटकाकर जिस तरह से इन दिनों नफरत की दीवार खड़ा किया जा रहा है उससे कौन बच पा रहा है। यही वजह है कि सिंधिया के भाजपा प्रवेश से कांग्रेसियों ने भी असाधारण रुप से विषवमन करना शुरु कर दिया, कोई उनकी गद्दारी के इतिहास बताने लगा तो कोई खून और डीएनए तक पहुंच गया। इस तरह का विषवमन से क्या हासिल होगा। जिस पार्टी को गांधी के सिद्धांत पर चलने वाली पार्टी बताकर सत्ता के मजे लिया जाता रहा वह सिर्फ एक सिंधिया के छोड़कर जाने से शब्दों की हिंसा के रुप में फूट पड़ा। यह कांग्रेस के उन नेताओं के लिए भी चिंतन का विषय होना चाहिए जो गांधी के अहिंसक आंदोलन से देश को आजादी दिलाने तक की सफर का गुणगान करते हैं।
सिंधिया का भाजपा में क्या होगा यह भविष्य के गर्भ में हैं यदि सिंधिया को गांधी परिवार के आगे अपनी महत्वाकांक्षा पूरी होते नहीं दिख रही थी तो भाजपा में भी उनकी राह आसान नहीं है। भाजपा की बागडोर सिर्फ संघ के हाथों में नहीं है बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में मोदी-शाह की जोड़ी ने संघ के मिथक को तोड़ दिया है। संघ भले ही हाशिये में नहीं गया हो लेकिन उसकी मौजूदगी पूरी तरह से गायब है। सत्ता की ताकत के आगे जब देश की संवैधानिक संस्थाओं की साख को लेकर सवाल उठने लगे हैं तब भला संघ की साख की चिंता किसे होगी और वह कहां बच सकेगी।
यकीन मानिए आज सांसद-विधायक होना ही बड़ी बात नहीं है बल्कि सत्ता की धूरी होना बड़ी बात है यही वजह है कि आज किस पार्टी में विचारधारा बच पाई है। संघ के जिस स्वयंसेवकों की सादगी की चर्चा गाहे-बगाहे की जाती रही है उनके सत्ता से नजदीकियों के बाद उनकी सादगी का कहां कोई अर्थ रह गया है। संघ के प्रचारकों के खान-पान और सादगी की कहानियां सिर्फ सत्ता पाते तक ही सिमट गया है नहीं तो नरेन्द्र मोदी स्वयं संघ के प्रचारक रहे हैं, प्रधानमंत्री बनने से पहले उनकी सादगी के कितने ही किस्से सुनाए गए लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या हुआ। नौ लाख की सूट का जिक्र न भी करें तो चश्में-घड़ी जूते की सच्चाई कौन नहीं जानता।
इस देश ने शाी जी जैसे प्रधानमंत्री भी देखे हैं और मोरारजी देसाई जैसे प्रधानमंत्री भी। जवाहरलाल नेहरु तो शुरु से ही रहीसी में रहे लेकिन इस सच को कोई कैसे नकार सकता है कि राम मनोहर लोहिया के व्यंग्य के बाद वे भी अपने को सादगी के साथ ढालने लगे थे।
ऐसे में जब पूरी सत्ता ही पैसों की ताकत के आगे नतमस्तक होने लगी हो तब भला सिंधिया का भाजपा में जाने का क्या मायने है और फिर जब कांग्रेस की ताकत बढ़ेगी तब सिंधिया नहीं आयेंगे इसकी भी क्या गारंटी  है? शायद इसी सत्ता की ताकत की वजह से जब शिवराज सिंह ने ज्योतिरादित्य को मुंह में विभिषण कहा तो कांग्रेसी उपेक्षा और अपमान की पीड़ा से आहत सिंधिया विभिषण के मायने ढंढते हुए स्वयं को संघ का सबसे बड़ा भक्त मान रहे होंगे?