रविवार, 13 जून 2010

गेंदाराम चन्द्राकर के आगे स्कूली शिक्षा विभाग बेबस



जांच रिपोर्ट के बाद भी गेंदाराम पर कार्रवाई नहीं
मंत्री को महिना पहुंचाने की चर्चा?
क्या कोई कल्पना कर सकता है कि पीएससी में चयन के लिए दस्तावेजों में धोखाधड़ी करने के आरोप सिध्द होने के बाद भी कोई व्यक्ति पर कार्रवाई न हो। लेकिन प्रदेश के दमदार मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के इस विभाग में गेंदाराम चंद्राकर ने यह कारनामा दिखलाया है। तत्कालीन शिक्षा सचिव नंद कुमार और पीएससी के सचिव प्रदीप पंत के द्वारा अलग-अलग की गई जांच के बाद पेश रिपोर्ट में गेंदाराम चंद्राकर को दोषी तो पाया गया लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं हुई। कार्रवाई नहीं होने की वजह उनके राजनैतिक पहुंच के अलावा ऊपर तक पैसा पहुंचाने को बताया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ सरकार में बैठे लोग किस तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और कैसे अपराधियों को बचा रहे हैं यह गेंदाराम चन्द्राकर के मामले में देखा जा सकता है। वैसे तो पीएससी ने जो परीक्षा ली थी उसके चयन प्रक्रिया पर ही सवाल उठाये जाते रहे हैं और गेंदाराम चन्द्राकर का मामला तो सरकार के मुंह पर कालिख है। पीएससी में गेंदाराम चन्द्राकर को सर्वाधिक अंक दिए गए इसकी वजह भी उनके राजनैतिक एप्रोच और परीक्षा नियंत्रक रहे उनके सहपाठी बद्रीप्रसाद कश्यप को बताया जा रहा है।
दरअसल पीएससी की इस गड़बड़ी की जब शिकायत हुई तो सबसे पहले उनके चयन और उनके द्वारा चयन हेतु दिए गए दस्तावेज की जांच पीएससी ने ही की और पीएससी के सचिव प्रदीप पंत ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा है कि गेंदाराम चन्द्राकर द्वारा कूट रचित दस्तावेज प्रस्तुत किया जाना एवं उसके आधार पर चयनित हो जाना परिलक्षित हुआ है और उन्होंने शिक्षा सचिव नंदकुमार को कार्रवाई करने पत्र लिखा। इस पत्र के शिक्षा विभाग में आते ही हड़कम्प मच गया और प्रकरण की जांच कराने के बाद शिक्षा सचिव नंदकुमार ने माना कि गेंदाराम चन्द्राकर ने पीएससी में चयनित होने दस्तावेजों में कूट रचना की है।
बताया जाता है कि जैसे ही गेंदाराम को अपने खिलाफ होने वाली कार्रवाई का पता चला उन्होंने अपनी पहुंच का इस्तेमाल किया। कहा तो यहां तक जाता है कि भाजपा के एक सांसद से लेकर विभागीय मंत्री तक पैसा पहुंचाया गया और फाईल दबा दी गई।
छत्तीसगढ शिक्षा विभाग का यह इकलौता कारनामा नहीं है और न ही गेंदाराम चन्द्राकर का यह इकलौता प्रकरण है। उच्च स्तरीय लेन-देन कर जिस तरह से शिक्षा विभाग में खेल चल रहा है यदि इसकी उच्चस्तरीय जांच कराई जाए तो कई लोग जेल के सलाखों तक पहुंच सकते हैं। बहरहाल गेंदाराम चन्द्राकर के मामले में सचिव स्तर के रिपोर्ट के बाद भी कार्रवाई नहीं होना अनेक संदेहों को जन्म देता है साथ ही सरकार की नियत पर भी सवालिया निशान लगाता है।

संवाद के प्रबंध समिति हैं,भ्रष्ट अफसरों के मोहरे!

खास लोगों को नियमित करने की कोशिश
जनसंपर्क की सहयोगी माने जाने वाली संवाद में लूट खसोट चरम पर है और इसके संचालन के लिए बनी प्रबंध समिति के सदस्य सिर्फ अफसरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं यही वजह है कि इस बैठक में अफसरों को भुगतान की स्वीकृति दी जाती है और अब तो गलत ढंग से संविदा नियुक्ति वालों को अफसरों के इशारे पर नियमित करने की योजना बनाई जा रही है।
संवाद में चल रहे खेल पर शासन का ध्यान क्यों नहीं है इसे लेकर कई तरह की चर्चा है। बताया जाता है कि अब भ्रष्ट अफसरों ने संविदा के पदों से उनके कमीशनखोरी और हेराफेरी में साथ देने वालों की एक टीम बना ली है। पिछले दिनों 40 करोड़ रुपयों की आडिट आपत्तियां की गई। इन आपत्तियों के बाद से टीम भावना बढ़ती देखी जा रही है। जिस आडिट रिपोर्ट में आपत्तियां का उल्लेख हैं, उसे दबाने के कुकर्म में सभी एकजुट दिख रहे हैं। भ्रष्ट अफसरों द्वारा अपने ऐसे संविदा साथियों को संवाद में कथित प्रबंध समिति की आड़ में नियमित करने की कोशिश की जा रही है। प्रबंध समिति के अध्यक्ष मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह है इसलिए कुछ लिखकर पास करा लो आपत्ति कोई कर नहीं सकता।
संवाद के संचालन के लिए एक प्रबंध समिति बनी है। प्रबंध समिति के माध्यम से लिए गए फैसले को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इसके सदस्यों ने कभी संस्था के हित में कुछ सोचा भी होगा। कोई भी कह सकता है कि समिति के सदस्यों को संवाद के फैसलों में उनके अधिकारों और दायित्वों की सीमा तक का पता नहीं होगा। यही कारण है कि सदस्य संवाद पर शासन करने वाले जनसंपर्क अफसरों के लिए मोहरों के समान है। दरअसल प्रबंध समिति के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है। प्रबंध समिति के सदस्य अफसर गांधीजी के तीन बंदरों की तरह हैं जो पिछले दस सालों में कुछ भी न देख पाए, न सुन पाए और न ही कुछ बोल ही पाए। किसी भी सदस्य ने कभी किसी मामले में पूछताछ करना भी जरूरी नहीं समझा तो आपत्ति करने की हिम्मत दिखाना तो बहुत दूर की बात है। मुख्यमंत्री का विभाग होने से कोई भी पूछताछ के बारे में सोच भी कैसे सकता है। ऐसी समिति के नाम पर किए गए फैसलो को क्यों मान्य किया जाना चाहिए जिनके सदस्यों को किसी बात पर सहमत और असहमत होने का अधिकार न हो तो। जनसंपर्क और संवाद के प्रभारी अधिकारियों ने बहुत अच्छी तरह से गांधीजी के इन बंदरों को इस्तेमाल किया है यही कारण है कि राय के बाहर के लोग यहां बिना सर्टिफिकेट के नौकरी कर रहे हैं। संवाद के संविदा के सबसे बड़े पद पर एक पश्चिम बंगाल का आदमी बैठा है जिसके पास संबंधित पद की अनिवार्य शैक्षिणक योग्यता नहीं है। उसने ऐसी पढ़ाई की है कि कहीं भी उसके प्रमाण पत्रों के आधार पर रोजगार पंजीयन नहीं हो सका। बर्थ डेट सर्टिफाई करने के लिए उसे 10 कक्षा का प्रवेश पत्र आवेदन के साथ संलग्न करना पड़ा है। अनुभव प्रमाण पत्र भी फर्जी है, जिस संस्था को खुद बने 3 साल हुए थे उसने अपने यहां काम करने का 5 साल का अनुभव प्रमाण पत्र दिया।