सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

शक्ति स्वरूपा जगदम्बा...


प्रतिवर्ष दुर्गोत्सव मनाया जाता है। गांव, शहर, मोहल्ले और यहां तक कि घर-घर में माँ के हर रूप की पूजा होती है। चौक चौराहों पर माता की प्रतिमा स्थापित किए जाते हैं। मंदिरों में ज्योति कलश व जंवारा स्थापित ही नहीं होते बल्कि माता की सेवा में ढोलक के थाप पर गीत गूंजते हैं। मेहमूद या फैज़ल के संगीत की थाप पर डांडिया की गूंज आकाश में दूर-दूर तक सुनाई पड़ती हैं। याद किया जाता है माँ के स्वरूप को, याद किया जाता है माँ की महिमा और भारतीय संस्कृति तथा उत्सव की वजह को।
भारतीय जीवन में नारी सा पूज्यनीय कोई और नहीं है। यही वजह है कि कई प्रांतों में माता-पिता आज भी अपनी पुत्री का चरण स्पर्श करते हैं और विवाह पश्चात उनके घर का अन्न-जल ग्रहण नहीं करते। नारी पूज्यनीय है, देवी है और उनकी शक्ति का सर्वत्र गुणगान करते नहीं थकते। नारी सावित्री बनकर अपने पति का जीवन लाने यमराज से लड़ जाती है। राधा बनकर पूरी सृष्टि में प्रेम का संचार करती है, मीरा बनकर वह सब कुछ त्याग करने तैयार रहती है तो रानी लक्ष्मी बाई बनकर देश को आजादी दिलाने तत्पर हो जाती है, वह कृष्ण की मां बनकर यशोदा मैय्या हो जाती है तो राम की मां बनकर कौशल्या माता बन जाती है, नारी में मां का स्वरूप अवर्णित है। मां के दूध से सिर्फ जीवन नहीं मिलता वह लहु में घुलकर हमारे भीतर शक्ति का संचार करती है। शक्ति हमारे भीतर है, धर्म हमारे भीतर है। धर्म हमें राह दिखाता है और शक्ति इस राह की कठिनाई को दूर करती है।  शक्ति हमारा विश्वास है। विश्वास का प्रतीक गणेश जी है इसलिए हम हर साल गणेशोत्सव भी मनाते हैं। वे विध्नहर्ता हैं, हमारा विश्वास है। यही विश्वास लिये हम अपने पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के बाद माता की शक्ति को ग्रहण करते हैं। विश्वास के बाद शक्ति ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। शक्ति का दुरुपयोग न हो, मां यही तो सिखाती है।
शक्ति के अनेक रूप है इसलिए वह महामाया है, वह शक्तिशाली होते हुए भी शीतल है इसलिए छत्तीसगढ़ में गांव-गांव में शीतला माता विराजती हैं। पूरे नौ दिन माता की सेवा में गीत गाये जाते हैं, वह जननी है इसलिए जंवारा बोया जाता है। उत्सव हमारे प्राण वायु है, उत्सव हमें एक होने की प्रेरणा देता है। उत्सव हमें समझाता है जीव मात्र एक है, इसलिए माता का वाहन सिंह है। हम फल पुष्प चढ़ाते हैं, उपवास रखते हैं, सिर्फ फलाहार करते हैं। यह उत्सव हमें सबक देता है कि ईश्वर और प्रकृति के सामने सब एक हैं। मनुष्य को बचाना है तो प्रकृति को बचाना जरूरी है। इसलिए देवी-देवताओं ने अपने वाहनों, पूजा अर्चना में प्रकृति को जोड़कर रखा।
आज़ादी के बाद हमें संभलना था। इन उत्सवों के माध्यम से हमें सबको जोड़कर चलना था। मंदिर में हीरे-मोती चढ़ाने वाले भी पहुंचते हैं और खाली हाथ दर्शन करने वाले भी आते हैं। देवी-देवताओं ने कभी भेद नहीं किया। परन्तु भेद करना हमने शुरू किया। हमारे स्वार्थ ने मानव-मानव में अंतर किया। यह अंतर मिटना चाहिए। छत्तीसगढ़ की नारी बलशाली है। वह खेतों में भी उतनी ही सिद्धत से काम करती है जितना वह जंवारा विसर्जन के लिए समर्पित होती है। यहां बेटियों में भेद नहीं है, यहां कोख में बेटियां नहीं उजाड़ी जाती। इसलिए छत्तीसगढ़ महतारी है। महतारी यानी मां, मां यानी जननी। जननी भेद नहीं करती बल्कि वह कमजोर बच्चों पर ज्यादा ध्यान देती है।
मां की माया अपरंपार है। इसलिए वह महामाया है। नई पीढ़ी यह सब नहीं जानती। इसमें इनका दोष नहीं है। हमने ही इन्हें नहीं बताया। विदेशीपन की दौड़ शुरु कर दी। इस आधे अधुरे दौड़ में न वह विदेशी ही बन सका न ही अपनी संस्कृति और संस्कार से ही परिचित हो सका। वह विज्ञान की जाल में उलझ गया। उसे वही ठीक लगा जो       विज्ञान कहता है। परन्तु विज्ञान वही कहता है जो वह जानता है। विज्ञान आस्था को नहीं जानता। कण-कण में भगवान को वह अभी भी ठीक से नहीं जान सका। इसलिए नई पीढ़ी दुर्गोत्सव तो मना रहा है परन्तु विदेशी तौर तरीकों से। ऐसे में न संस्कार बचेगा न संस्कृति। सब गड़बड़ हो जायेगा।
आधा अधूरा रिश्ता या समझ हमेशा ही तकलीफ देता है। आज वहीं हो रहा है। जरूरत है तो काम ले लो वरना प्रवेश पर ही पाबंदी लगा दो। ईश्वर पाबंदी से परे है यह सब जानते हैं परन्तु जाति धर्म की खाई चौड़ी हो गई है। हम जगत जननी जगदम्बा का उत्सव तो मना रहे हैं परन्तु जननी की सहनशीलता से कुछ नहीं सीख रहे हैं।
उत्सव हमारी संस्कृति है। मनुष्य को मनुष्य से जोडऩे का माध्यम है। उन्हेंं समझने का साधन है। उत्सव से राष्ट्रीय स्वरूप विकसित होता है। देवी-देवताओं का प्रकृति से लगाव हमें नई सीख देती है। ताकि हम संस्कार के नए बगीचे तैयार कर सकें। परन्तु क्या ऐसा हो रहा है? हम उत्सव मना तो रहे हैं, अपने तौर-तरीकों से। जगत जननी जगदम्बा के आगे संगीत की थाप पर डांडिया खेला जा रहा है। ढोलक की थाप पर सेवा गीत गाये जा रहे हैं, पर श्रद्धा और विश्वास कम होता जा रहा है। शक्ति का दुरुपयोग हो रहा है, पर माँ सब चुपचाप देख रही है। महिषामर्दन होगा... जरूर होगा...।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

जीवंत दस्तावेज



'मैं और मेरा प्रेस क्लब राजधानी रायपुर के पत्रकारों का जीवंत दस्तावेज है, इतिहास की गवाही है। पूरे देश में प्राय: हर शहर में प्रेस क्लब है। परन्तु प्रेस क्लब पर लिखी यह पहली पुस्तक है। जिसमें कौशल तिवारी ने प्रेस क्लब से अपने संबंधों को रेखांकित तो किया ही है। पत्रकारिता के मूल्यों व आदर्शों के उच्चमाप दण्ड पर प्रकाश डालने की कोशिश की है।
रायपुर प्रेस क्लब की अपनी गरिमा है। यहां की सदस्यता आज भी गौरव की बात है। विषम और विकराल होते समय में जब बाजारवाद से कोई नहीं बच सका है। पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर सर्वत्र चिंता है ऐसे में यह पुस्तक नई पीढ़ी के लिए धरोहर की तरह है। पुस्तक की जीवंतता और तथ्यों का लाभ नई पीढिय़ों को मिलेगा यह निश्चित है।
अगली सदी पत्रकारिता की संवेदनशीलता और मापदंड की होगी या बाजारवाद की काली छाया, जहां संवेदना का मतलब सिर्फ पैसा होग? यह सोचने में क्या नुकसान है। कोई भी एक चीज हावी होगा तो दूसरा कमजोर होगा। यह न हो इसलिए रुक कर विचार कर लिया जाए। इतिहास की पलें हमें राह दिखाती है। और इतिहास का पुर्वालोकण हमें सही दिशा दिखाता है।
प्रस्तुत पुस्तक का यह प्रथम संस्करण है, तथापि सूचना के अभाव में कुछ छूट गया है और आने वाले संस्करण में इसका परिमार्जन किया जा सकता है। वरिष्ठ पत्रकारों के जीवन वृत्त और प्रेस क्लब की ऐतिहासिक तवय पुस्तक में संकलित हुआ है जो निश्चित ही सुखद है।

डॉ. सुधीर शर्मा
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भिलाई (दुर्ग)

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015