गुरुवार, 4 मार्च 2021

गलतियों का पुलिंदा...

 

राहुल गांधी जब कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल एक गलती थई तो इसके मायने साफ है कि राहुल में गलत को गलत कहने का साहस है वे जानते है कि यह देश झूठ और नफरत से तरक्की नहीं कर सकता और न ही जनता को ज्यादा दिनों तक मूर्ख ही बनाया जा सकता। सत्ता में बने रहने के लिए कोई झूठ, अफवाह और भ्रम का सहारा तो ले सकता है लेकिन इससे देश का भला नहीं होने वाला।

लेकिन सवाल अब भी गलती स्वीकार करने की है तो गुजरात की गलती को गिनना शुरु कर दीजिए जिसे वे कभी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही नोटबंदी, जीएसटी का गलत इम्पीयरेंशन को ही गलत मानेंगे वे तो बिना बुलाये अमेरिका जाने और पाकिस्तान जाकर बिरयानी खाने को भी गलत नहीं मानेंगे और तो और बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी को ही गलत कहा जायेगा। विरोध के स्वर को देशद्रोही और जेएनयू के सच को भी वे गलत नहीं मानेंगे, आज इनकी गलती गिनते जाईये, आप इनके झूठ भी गिन सकते है जो ये कभी स्वीकार करने की साहस नहीं कर पायेंगे?

तब सवाल यही उठता है कि लोकतंत्र में क्या चुनाव जीतने ही महत्वपूर्ण हो चला है, जनसरोकार का कोई मतलब ही नहीं  रह गया, सुविधानुसार एनआरसी का खेल खेलो और जन सरोकार से टेक्स तब तक वसूलते रहो जब तक वह दम न तोड़ दे।

संवैधानिक संस्थानों के बजट को लेकर भी सवाल उठने लगे है तो सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के बजट में पिछले 6 सालों में लगभग दो गुणा बढ़ोत्तरी क्या दर्शाती है। क्या संस्थागत ढांचों को अपने अनुरूप करने की मंशा क्या नहीं दिखती, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ट जज गोगोई की राज्यसभा में नियुक्ति क्या गलत होने की चुगली नहीं करती?

ऐसे कितने ही सवाल है जो गलत फैसलों की ओर साफ इशारा करती है। किसानों को आतंकवादी और किसान आंदोलन को देशद्रोही बता देना क्या गलत नहीं है?

लेकिन इन गलतियों को स्वीकार करने का साहस किसमें है। ऐसे में राहुल गांधी के इमरजेंसी को लेकर वर्तमान में तुलना करने वाला बयान कई मायने में महत्वपूर्ण है।

आखिर इमरजेंसी क्यों लगी? इलाहाबाद के जस्टिस सिंहा ने दो बातों का जिक्र कर फैसला सुनाया था। जनप्रतिनिधि कानून 123/7 के तहत दो आरोप लगाये गये। पहला आरोप था जिसमें रायबरेली सभा के लिए सरकारी विभाग बिजली खीची गई उसके लिए सरकारी विभाग ने मदद की दूसरा आरोप था पीएमओ से जुड़े अधिकारी कपूर का सरकारी प्रचार में सहयोग कर रहे थे।

ऐसे में क्या यह वर्तमान में नहीं हो रहा है? लेकिन अब इन मामलों में न कोर्ट को कोई मतलब है न चुनाव आयोग का। ऐसे में यदि राहुल जब इमरजेंसी और वर्तमान दौर का जिक्र करते हैं तो साफ है कि सत्ता ने लोकतंत्र की खाल का जूता बनाकर पहन लिया है और संवैधानिक संस्था बजट के भार में दब गये है तब सवाल यही है कि गलती कैसे स्वीकार की जा सकती है क्योंकि नैतिकता से बड़ा चुनाव जीतना है।