रविवार, 31 जनवरी 2021

आंसू नहीं समन्दर है...


 

लाल किले के षडय़ंत्र के बाद स्थानीय लोगों के विरोध की साजिश का अब पूरी तरह से पर्दाफाश हो चुका है इसके साथ ही किसानों को राकेश टिकैत के नाम का नेता भी मिल गया है।

किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए नेता का होना जरूरी है और अब यह तो होने लगा है कि किसानों का आंदोलन भी अब सफल हो जायेगा। पूरी दुनिया में आंदोलन का अपना इतिहास है और इस इतिहास का अध्ययन करने पर पता चलता है कि आंदोलन को दबाने के लिए सत्ता ने क्या कुछ कुचक्र नहीं चला लेकिन नेता के दृढ़ निश्चय इरादों ने आंदोलन की शर्ते पूरी की हो या न की हो उसने सत्ता की चूलें हिलाकर जरूर रख दी है। 

इस देश में आजादी के बाद हुए जेपी आंदोलन हो या अन्ना हजारे का आंदोलन। सत्ता की बेचैनी किसी से छिपी नहीं है और इन आंदोलनों के परिणाम भी सबके सामने है।

किसान आंदोलन जिस तरह से संयुक्त मोर्चा के साथ दिल्ली के बार्डर पर डटे थे, उसे देखते हुए किसी एक नेतृत्व की कमी लगातार खल रही थी, और इसका परिणाम ही था कि सरकार आंदोलन से निपटने में अपने को सक्षम समझ कर गोल-गोल रानी का खेल रही थी।

लेकिन 26 जनवरी को लाल किला और बार्डर में स्थानीय लोगों को लेकर किया गया षडय़ंत्र ने राकेश टिकैत की आंखों में जो आंसू लाये वह समन्दर बन गया। समन्दर ऐसा कि आंदोलन की आलोचना करने वाले सन्न रह गये और सरकार बेचैन हो उठी। क्योंकि कोई यह नहीं जानता था कि किसानों की अपनी अस्मिता है और जब बात अस्मिता पर आये तो न भूख बड़ी होती है और न ही मौत।

ऐसे में जब राकेश टिकैत ने अपनी आंखों से निकलते आंसू को समन्दर बनते देखे तो उसका वह रूतबा फिर कायम हो गया जो 42 बार जेल जाने के कारणों को नजरअंदाज किया जा रहा था। कल तक जो लोग आंदोलन को केवल पंजाब या हरियाणा के साथ जोड़कर देख रहे थे वे भी अब मानने लगे हैं कि सत्ताा का अहंकार टूट कर रहेगा और तीनों कानून को वापस लेना ही होगा।

राकेश टिकैत का नेतृत्व अब महेन्द्र सिंह टिकैत की याद ताजा करने लगा है और किसान इस नेतृत्व के भरोसे जीत की आशा तो कर ही सकते हैं।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

मोदी सरकार कटघरे में ?


 

26 जनवरी को लाल किले में जो कुछ हंगामा हुआ उसे लेकर भले ही दिल्ली पुलिस ने किसानों को नोटिस थमाना शुरु कर दिया है, कुछ की गिरफ्तारी होने लगी है लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में मोदी सरकार पूरी तरह से कटघरे में है। क्योंकि दिल्ली के लाल किले की सुरक्षा व्यवस्था सामान्य दिनों में इतनी मजबूत होती है कि कोई परिन्दा भी बगैर ईजाजत के नहीं घुस सकता तब किसान कैसे घुस गये। क्या यह सरकार की नाकामी है या किसान आंदोलन को तोडऩे षडय़ंत्र है? सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि 26 जनवरी को टेक्टर परेड निकालने की अनुमति किसके इशारे पर दी गई।

यह सवाल इसलिए भी उठाये जा रहे हैं क्योंकि व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है। यहां तक कि 26 जनवरी और 15 अगस्त को लाल किले की अतिरिक्त सुरक्षा की जाती है। दिल्ली पुलिस के अस्सी हजार जवानों के अलावा दिल्ली की सुरक्षा में सीआरपीएफ सहित दूसरी कंपनियां मौजूद होती है इसके बावजूद यह घटना होना क्या किसी षडय़ंत्र की ओर ईशारा नहीं करता?

सत्ता की अपनी ताकत होती है और आज तक कोई भी आंदोलन सत्ता में नहीं जीत सकी है। मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री ने भी रामदेव बाबा के आंदोलन का क्या हश्र किया था यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में सवाल यह है कि किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन से क्या सत्ता घबरा गई थी।

जी हां, बिल्कुल घबरा गई थी इसलिए वह डेढ़ साल तक कानून को टालने की बात भी कहते रही। और जिस तरह से हर सत्ता आंदोलन को तोडऩे झूठ-छल प्रपंच का सहारा लेती है इस आंदोलन को तोडऩे की भी                 कोशिश हुई।

ऐसे में सवाल यह नहीं है कि आंदोलन करने वाले किसानों का क्या होगा? और सवाल यह भी नहीं है कि तीनों  कानून से किसे फायदा होगा। सवाल तो यहीं है कि आखिर सुरक्षा में चूक की जिम्मेदारी किसकी है। सवाल तो यह भी है कि आखिर किसानों के सामने खड़ी हुई इस नई चुनौती से वे कैसे निपटेंगे?

हालांकि विपक्ष ने संसद में राष्ट्रपति के भाषण का बहिष्कार करने की घोषणा कर आंदोलन को बल देने की कोशिश की है लेकिन चुनावी राजनीति में लगातार पराजय की निराशा ने उनसे लडऩे का जुनून समाप्त कर दिया है। ऐसे में अब सिर्फ किसानों को निर्णय लेना है कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। क्योंकि जब सत्ता अपने पर आ जाती है तो वह यह नहीं देखती कि लोग क्या कहेंगे वह तो सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के उपक्रम में लग जाती है।

गुरुवार, 28 जनवरी 2021

सत्ता का चरित्र...


 

सत्ता का अपना चरित्र है, वह असहमति के स्वर को दबाने हमेशा ही झूठ-छल कपट और षडय़ंत्र का सहारा लेते रही है। ऐसे में 26 जनवरी को किसान आंदोलन के दौरान जो कुछ हुआ, वह किसी साजिश का हिस्सा नहीं रहा होगा कहना कठिन है।

भले ही हम 1947 में आजाद हो गये और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू कर दी गई लेकिन सच तो यही है कि लोकतंत्र केवल चुनाव ही बन कर रह गया है, चुनाव को ही हमने लोकतंत्र मान लिया है। जबकि  लोकतंत्र का असली मकसद आम जनमानस की सत्ता के हर फैसले में भागीदारी है लेकिन किसी भी सत्ता ने इसे स्वीकार नहीं किया।

यही वजह है कि राजनैतिक दल जब तक सत्ता में नहीं पहुंच जाते उनकी भाषा अलग होती है और सत्ता आते ही उनकी भाषा बदल जाती है। वर्तमान सत्ता को ही ले लिजीए कृषि सुधार को लेकर जब कांग्रेस कानून ला रही थी तब संसद से लेकर सड़क तक भाजपा ने किस तरह का विरोध किया था। ऐसे कितने ही मुद्दे है जब भाजपा विपक्ष में रहते हुए असहमत रही और सत्ता आते ही भूल गई। जीएसटी से लेकर लोकपाल, में भाजपा के रवैये में बदलाव स्पष्ट था। यही हाल कांग्रेस का भी है।

ऐसे में जब कोई सत्ता में हो तो आंदोलन को कुचलने की उसकी अपनी रणनीति है। 60 दिनों से जो किसान आंदोलन शांतिपूर्वक चल रहा था वह 26 जनवरी को अचानक हिंसक कैसे हो गया। यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि आंदोलन के दौरान दिल्ली में न निजी वाहन पर हमले हुए और न ही आम लोगों पर ही हमला हुआ।

केवल लाल किले और सरकारी तंत्र को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया और इस घटनाक्रम से आंदोलन से जुड़े देशभर के लोगों में सन्नाटा है वे आंदोलन को लंबा तो खींचना चाहते हैं लेकिन 26 जनवरी को हुए उपद्रव से निराश हैं।

यही वजह है कि किसानों ने एक फरवरी को सांसद मार्च को स्थगित कर दिया। आंदोलन अचानक वही पहुंच गया जहां से यह शुरु हुआ था।

वैसे भी इस देश में आजादी के बाद इतना बड़ा आंदोलन गिनती के हुए हैं और हर आंदोलन को सत्ता ने कुचलने के सारे उपक्रम किये हैं।

सत्ता ताकतवर होती है और उससे जीतना न पहले आसान था और न अब। क्योंकि सत्ता लोकतंत्र नहीं होती है वह राजशाही का दर्शन होता है। लोग तो तंत्र में उलझे हुए हैं ऐसे में आगे क्या?

बुधवार, 27 जनवरी 2021

क्या सचमुच मोदी सत्ता की आंखें बंद है...

 


किसानों ने दिल्ली के लाल किले में पहुंचकर अपना झंडा लहरा दिया और पूरी दुनिया देखती रह गई। जो नहीं होना था वह हो गया, जिसे रोका जाना था उसे नहीं रोका गया। इसे चूक कहने की बजाय मोदी सरकार की वह नाकामी है जो पिछले 72 साल में कभी नहीं हुआ और यह इसलिए हो गया क्योंकि मोदी सत्ता को न देश की समझ है और न ही देश के लोगों के सरोकार से ही संबंध है।

किसी भी आंदोलनकारियों का लाल किले तक पहुंचकर झंडा फहराने का दुस्साहस इससे पहले उन सरकारों में भी नहीं हुआ जिसे सबसे कमजोर सरकार आंका जाता है फिर जिसे अब तक का सबसे ताकतवर सत्ता बताने वाले किस मुंह से 56 इंच की बात करेंगे। क्या इनका 56 इंच सिर्फ मुस्लिमों के लिए है।

सवाल बहुत से है लेकिन उन सवालों का कोई मतब ही नहीं है जिनके जवाब ही न मिले और सत्ता अपने हठ में जनसरोकार से आंखे मूंद ले। हम ऐसे किसी भी आंदोलन का समर्थन नहीं करते जो संविधान सम्मत न हो लेकिन क्या मोदी सत्ता इतनी लाचार हो गई है कि वह किसानों से लाल किले की महत्ता की रक्षा नहीं कर पाई या फिर तीनों कृषि कानून सचमूच कार्पोरेट के हित के कानून है और अब जब समूचा किसान इसके खिलाफ है तो मोदी सत्ता अपने अडिय़ल रुख के आगे कुछ और देखना समझना नहीं चाहती।

किसान आंदोलन के दौरान डेढ़ सौ से अधिक किसानों की मौत के बाद भी यदि किसी सत्ता में शर्म नहीं बची हो तो फिर किसानों का गुस्सा कोई कैसे रोक पायेगा। इस देश में सत्ता ने जब जन सरोकार से आंखे बंद कर रखी हो और झूठ-अफवाह और नफरत के हथियार से सत्ता हासिल करनेआपदा हो तो फिर जनता क्या करें।

संविधान से बड़ा कोई नहीं है न प्रधानमंत्री न कोई और। फिर संविधान पर कोई सत्ता न चले और अपने हिसाब से सत्ता की रईसी को बरकरार रखे तो किसे शर्म आनी चाहिए।

26 जनवरी को जनपथ के इस परेड को लेकर कुछ हुआ उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि एक फरवरी को जब किसान संसद की ओर कूद करेंगे तो मोदी सत्ता कुछ कर पायेगी?

सोमवार, 25 जनवरी 2021

राजपथ बनाम जनपथ



भारत के इतिहास में इस वर्ष का 26 जनवरी इस मायने में ऐतिहासिक होगा, क्योंकि 72 साल के इतिहास में पहली बार देश की राजधानी में दो-दो परेड होंगे। एक सरकार का राजपथ में, दूसरा किसानों का जनपथ में।

हालांकि जो लोग वर्तमान सत्ता की राजनीति को जानते समझते है, उनके लिए यह अचरज की बात नहीं है क्योंकि जिनकी राजनैतिक पृष्ट भूमि  ही नफरत और विभाजन की रही हो उसके राज में 26 जनवरी को दो परेड हैरान नहीं करती।

दरअसल जिद् और शायद अहंकार में डूबी सत्ता के सामने कृषि कानून को वापस लेना इज्जत का सवाल बन गया है और जब मामला खुद की इज्जत से जोड़ दिया जाये तो फिर यह बात कहां मायने रखता है कि इसका नुकसान कितना और किसे हो रहा है। देश, समाज धर्म सब कुछ उस कथित इज्जत की बलि चढ़ जाती है?

जिन लोगों को यह लगता है कि 26 जनवरी 1950 सिर्फ  एक तारीख है तो उन्हें यह जानना चाहिए कि यह सिर्फ तारीख नहीं है और इस दिन सिर्फ संविधान ही नहीं रचा गया था, बल्कि 26 जनवरी की तारीख चुनने की ऐतिहासिक वजह रही है। 26 जनवरी की तारीख इसलिए चुनी गई थी क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने 26 जनवरी 1930 को सम्पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की थी।

और इसके बाद हर प्रत्येक 26 जनवरी को या उसके पूर्व संध्या को देश के नाम जिन जिन राष्ट्रपतियों ने संबोधन किया वे सभी अपने संबोधन में किसानों का जिक्र जरूर किया। ऐसे में इस 26 जनवरी को किसानों का परेड अपने आप में एक ऐतिहासिक क्षण होगा। क्योंकि यह परेड राजपथ पर नहीं जनपथ पर होगा जो शायद गण को तंत्र के कैद से मुक्त कर सके।

राजपथ पर निकलने वाली झांकियों में भारत के हर राज्यों का दर्शन होगा लेकिन जनपथ पर निकलने वाली झांकियों में तंत्र में जकड़े किसान जवान मजदूरों और मध्यम श्रेणियों की तकलीफ का दर्शन होगा। हालांकि सत्ता को इनसे कोई सरोकार नहीं है लेकिन असली परेड कौन सा है यह जनता तय करेंगी।

विभाजन-नफरत के इस दौर में सत्ता की यह करतूत हमेशा याद रहेगी, गणतंत्र अमर रहे का नारा गुंजेगा लेकिन यह आवाज जनपथ पर ही बुलंदी छुएगा।

रविवार, 24 जनवरी 2021

शाबास! ममता...!


 

झूठ-अफवाह और नफरत की इस राजनैतिक दौर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में जो कुछ कहा वह भारतीय राजनीति में सबक लेने वाला है। भले ही बेशर्म होते नेताओं को इसस कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन वर्तमान राजनीति का यह विद्रुप चेहरा आम जनमानस को देखना ही होगा वरना लोकतंत्र का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।

नेताजी सुभाष जी की जयंती पर केन्द्र सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पहुंची पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी को जैसे ही संबोधन के लिए बुलाया गया। दर्शक दीर्घा में से नारेबाजी शुरु हो गई। यह किसी के लिए सहज नहीं था, आयोजकों ने हाथ के इशारे से नारेबाजी को शांत तो करा दिया लेकिन तब तक ममता बेनर्जी बिफर चुकी थी। फिर क्या था ममता ने प्रधानमंत्री की ओर देखते हुए माईक संभाला और कहा बुलाकर बेइज्जती करना ठीक नहीं है और अपनी नाराजगी जाहिर कर कार्यक्रम से चली गई।

यह साधारण घटना नहीं है, यह झूठ-अफवाह और नफरत की राजनीति से उपजा वह पौधा है जो अपनी जहरीली हवा से लोकतंत्र पर आघात कर रहा है और ऐसी घटना की पुनर्रावृत्ति नहीं रोकी गई तो इसका जहर लोकतंत्र को लील लेगा।

लेकिन, अफसोस की बात तो यही है कि सत्ता के इस खेल में लोकतंत्र की सुध किसी को नहीं है। ममता बेनर्जी के साथ जो कुछ हुआ और ममता ने जो कुछ कहा वह सब भुलाने की कोशिश होगी।

हैरानी की बात तो यही है कि कल तक राजनैतिक सुचिता की वकालत करने वाले ही वर्तमान राजनीति में गंदगी भरने का काम कर रहे हैं।

यहां यह बताना जरूरी है कि ममता बेनर्जी को लेकर रियूमर स्पीड सोसायटी ने जिस तरह का खेल खेला है वह किसी से छिपा नहीं है। इस संगठन से जुड़े लोगों ने ममता बेनर्जी को मुस्लिम बताने ममता बानो जैसे नामकरण भी किये है। केन्द्र सरकार के मंत्री पश्चिम बंगाल को पाकिस्तान तक कहा है। यही नहीं ममता के खिलाफ वॉट्सअप युविर्सिटी और आईटी सेल ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है वह शर्मनाक तो है ही इस संगठन के संस्कार पर भी सवाल उठे हैं।

सिर्फ सत्ता के लिए नफरत की राजनीति ने इस देश का जो नुकसान किया है वह भले ही इस संगठन को समझ में नहीं आता लेकिन सच तो यही है कि देश की बदहाल होती आर्थिक स्थिति के लिए भी यही नफरत की राजनीति जिम्मेदार है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

बेशर्म राजनीति...


 

किसानों के मुद्दे को लेकर राजनीति इतनी बेशर्म हो गई है कि अब वे लोग भी किसानों के हित में सड़को पर उतरने लगे हैं जिनके चेहरे सत्ता के दौरान किसान विरोधी दिखते थे या जिन लोगों ने अपने व्यवसाय के आड़ में किसानों का शोषण किया है और समर्थन मूल्य से कम कीमत पर किसानों की फसल खरीदकर अपना व्यवसाय चमकाया है।

इन दिनों देशभर में दो ही मुद्दे छाये हुए है एक किसान दूसरा बंगाल। दोनों ही मुद्दों में झूठ-अफवाह और नफरत की राजनीति करने वालों ने बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी है। बंगाल के मुद्दे पर हम फिर कभी विस्तार देंगे। अभी तो किसान के मुद्दे पर हो रही बेशर्मी की ही बात करनी चाहिए। क्योंकि छत्तीसगढ़ में इन दिनों इसी मुद्दे को लेकर भाजपा सड़क पर है। लेकिन भाजपा के सड़क पर उतरने की असली वजह कुछ और ही है।

क्योंकि किसानों के हित में सड़क पर उतरने की लड़ाई तो उस दिन शुरु हो जाना था जब सत्तासीन लन सिंह के बोनस पर मोदी सत्ता ने ग्रहण लगा दिया था। लेकिन तब कोई सड़क पर नहीं आया।

सच तो यही है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा की हार की प्रमुख वजह किसानों को तीन सौ रुपया बोनस देने के वादे पर अमल नहीं करना था। यह बात सत्ता में बैठे लोग ही नहीं पार्टी के आम कार्यकर्ता भी कहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन सौ रुपये बोनस पर रोक नहीं लगाई होती तो भाजपा की छत्तीसगढ़ में इतनी बुरी गत नहीं बनती कि वह केवल 15 सीटों पर ही सिमट जाती।

लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बात-बात पर दिल्ली जाने की धमकी देने वाले लोग मोदी सत्ता के इस फैसले पर बोलने को तैयार नहीं थे।

ऐसे में सवाल यह नहीं है कि भाजपा को किसानों के हित में लड़ाई नहीं लडऩी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा उन्हीं मुद्दों पर किसानों हित की बात करेगी जिससे उनका राजनैतिक हित सधता है।

धरना देने वालों में ऐसे लोग भी है जो शुद्ध रुप से किसानी प्रोडक्ट का व्यवसाय करते हैं और ऐसे चेहरे भी है जो किसानों से घपलेबाजी करने के आरोपी हैं। तब यह आंदोलन क्या सिर्फ नौटंकी नहीं रह जायेगा?

बेशर्मी होती राजनीति को लेकर आम जनमानस में जो छवि बनते जा रही है इससे नेताओं का कोई सरोकार नहीं रह गया है और वे हर हाल में अपनी राजनीति चमकाना चाहते है ताकि उनके अपने खुद की रईसी बना रहे।

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...


 

यह तो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की कहावत को चरितार्थ करता है वरना छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी किसानों के मामले को लेकर भूपेश सरकार के खिलाफ आंदोलन करने की बजाय मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलन करती।

दरअसल दिल्ली सहित पूरे देश में तीन कानून के खिलाफ चल रहे आंदोलन ने न केवल मोदी सत्ता के चेहरे से नकाब उतार दिया है बल्कि भाजपा को अपनी जमीन खिसकते नजर आ रही है। यही वजह है कि एक तरफ मोदी सत्ता कृषि कानून को डेढ़ साल टालने को तैयार हो गई है तो छत्तीसगढ़ में अपना वजूद बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

यह बात कोई कैसे इंकार कर सकता है कि छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ तो किसानों की बदहाल स्थिति को देखते हुए जोगी सरकार (कांग्रेस) ने यहां के किसानों का एक-एक दाना खरीदना शुरु कर दिया लेकिन जैसे ही 2003 में भाजपा सत्ता में आई उसने प्रति एकड़ 15-20 क्विंटल धान ही खरीदा। तीन सौ रुपए बोनस देने की घोषणा भी मोदी सरकार बनते ही ध्वस्त हो गया और ऐसे कई निर्णय लिये जिससे किसानों की तकलीफ बढ़ा दी।

ऐसे में जब 25 सौ रुपये क्विंटल धान खरीदने के वादे के बीच जब भूपेश सरकार सत्ता में आई तो इसमें मोदी सरकार द्वारा कई तरह की अड़ेगेबाजी की गई। एफसीआई के द्वारा उठाव से लेकर बारदाने के मामले में भी मोदी सत्ता की अड़ंगेबाजी सबके सामने है। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार ने जिस तरह से धान खरीदी वह अपने आप में एक उदाहरण है। यही नहीं कृषि और गांव विकास को लेकर नरवा-गरवा-घुरवा-बारी और गोबर खरीदी जैसे योजना ने जब वाहवाही लुटी तो विपक्ष सन्नाटे में आ गया।

अभी जब तीन कानून को लेकर भाजपा के सामने दिक्कत खड़ी हुई तो स्थानीय भाजपाईयों के सामने अपने अस्तित्व बचाये रखने की चुनौती खड़ी हो गई। ऐसे में 22 जनवरी को भाजपाई आंदोलन खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को ही चरितार्थ करता है।

अंत में- सत्ता की रईसी बरकरार रखने का मोदी सत्ता का खेल चालू है सेल के शेयर बेचने की योजना के साथ अब मोदी सरकार टीएलसी की अपनी सम्पूर्ण 26 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचकर 84 सौ करोड़ कमाने की योजना है। पहले टीएलसी का नाम विदेश संचार निगम लिमिटेड नाम था। इस तरह से कंपनी बेचकर सत्ता की रईसी बरकरार रखने की कोशिश जारी है।

बुधवार, 20 जनवरी 2021

तुमने देखी है सत्ता...


 

हमारा धर्म कहता है अपनी तरफ उठने वाले एक धोबी की उंगली पर न्याय देने भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता को वन भेज दिया जबकि तब माता सीता गर्भवती थी। राम का पूरा जीवन न्याय के लिए समर्पित रहा, संस्कृति की रक्षा के लिए ही उन्होंने वनवा को स्वीकार किया जबकि अयोध्या की जनता उनके साथ खड़ी थी।

रावण का दंभ और अत्याचार के खिलाफ वे महलों की सुविधा त्याग कर वनवासी जीवन अपनाये क्योंकि वे जानते थे कि महलों की सुविधा उनके मार्ग में बाधा बन सकते थे।

इतिहास ने करवट लिया और इस देश में गांधी पैदा हुए। अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ उन्होंने राम के किन-किन बातों का अनुसरण किया यह शोध का विषय हो सकता है लेकिन यह सर्व सत्य है कि उन्होंने भी अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ एक आम आदमी की वेशभूषा लंगोट में देश को आजाद करने न केवल निकल पड़े बल्कि आजादी भी दिलाई।

आजादी के इस महायज्ञ में उनके साथ अनेक महापुरुष तो थे ही आम आदमी भी गांधी की विचारधारा, जीवन शैली, सादगी को अपनाकर स्वयं को गौरान्वित महसूस करने लगे।

ऐसे में लोकतंत्र के दुर्गुणों की संभावना पर भी उनका विचार आज भी प्रासंगिक नजर आता है। सत्ता का दंभ और पार्लियामेंट (संसद) के भीतर की कहानी पर भी उनका विचार सबके सामने है।

ब्रिटिश संसद में सांसदों के व्यवहार को लेकर उनके विचार पर भले ही तब की अंग्रेजी सत्ता ने घोर आपत्ति की थी लेकिन वर्तमान समय में भारतीय सांसदों का व्यवहार क्या  आपत्तिजनक नहीं है?

यह बात इसलिए आज समझने की जरूरत है क्योंकि मोदी सत्ता ने साफ कह दिया है कि वे तीनों कृषि कानून को वापस नहीं लेंगे जबकि किसानों ने पहले ही कह दिया है कि वे कानून वापसी के बगैर घर नहीं लौटने वाले हैं।

ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है तब क्या होगा? हम पहले भी कह चुके है कि सत्ता की अपनी रईसी है और वह कोई भी असहमति को बर्दाश्त नहीं करता है, और उस असहमति को तो कतई बर्दाश्त नहीं करता जिससे उसकी रईसी को दिक्कत हो।

यही वजह है कि पिछले 6 सालों में पेट्रोल-डीजल पर दस गुणा से ज्यादा टैक्स लगाये गये, नौकरी के आवेदन पर बेरोजगारों से हजारों करोड़ रुपये वसूले गये, सार्वजनिक उपक्रमों को बेचा गया, सरकारी संस्थाओं को निजी हाथों पर गिरवी रखा गया या उनके हिस्से बेचे गए।

और आज जब कर्ज लेने में मुश्किलें आ रही है तो विदेशी दबाव में जीवन सौपने ये तीनों कानून लाया गया है? ऐसे में भगवान राम के बताये मार्ग का ही कोई मतलब दिखाई देता है और न ही गांधी के अपनाये जीवन आधार ही सबक बन पा रहा है। 

लोकतंत्र और राम के नाम पर लूट इस देश ने पहले भी तो देखा है और इस लूट से मुक्ति का मार्ग भी खुलने की उम्मीद में किसान बैठे हैं?

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

राष्ट्रवाद का ढोंग...


 

रिपब्लिक टीवी चैनल ग्रुप के मालिक और प्रखर राष्ट्रवादी संपादक अर्नब गोस्वामी भले ही मुश्किल में बच जाये लेकिन जिस तरह का खुलासा उसके वाट्सअप चैट को लेकर सामने आया है उससे मोदी सत्ता की कारगुजारियों को एक बार फिर उजागर कर दिया है। टीआरपी बढ़ाने से शुरु हुआ यह खेल देश की सुरक्षा से लेकर मंत्रियों के कारनामें तक पहुंच चुका है।

मुंबई पुलिस ने टीआरपी घोटाले की जांच शुरु की तो यह किसी ने नहीं सोचा था कि इस राष्ट्रवादी संपादक का वह 'सच भी उजागरÓ होगा जो देश के लिए गंभीर अपराध माना जाता है लेकिन सत्ता के इस खेल में जब विरोध करने वाला ही देशद्रोही हो तो फिर इसका मतलब क्या है कि सत्ता से जुड़कर आप कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं।

यही वजह है कि इस देश में सत्ता हासिल करने के लिए झूठ, अफवाह और नफरत की दीवारें खड़ी की गई। जरूरत दो जून की रोटी की थी लेकिन नफरत को चाशनी में डूबो कर परोसा गया।

सवाल अर्नब का नहीं है, सवाल है अर्नब के पीछे सत्ता हासिल करने की मानसिकता है। आजादी की लड़ाई के दौरान के इतिहास को खंगाला जाये तो यही सब मिलेगा, आजादी ने महानायकों गांधी, सुभाष, पटेल, नेहरु, राजेन्द्र प्रसाद से लेकर कई नाम सामने आयेंगे जिन्हें कट्टरपंथियों ने बदनाम करने झूठ और अफवाह का सहारा लिया था, लेकिन इनकी नैतिकता के आगे यह सब नहीं चला।

लेकिन अब चल रहा है क्योंकि जब राष्ट्रवाद कोढ़ की शक्ल ले ले तो उनकी संवेदनाएं शून्य हो जाती है उन्हें न ठंड में ठिठुरते आंदोलनरत किसानों की पीड़ा नजर आती है और न ही अरुणाचल में चीन के द्वारा बनाये घर ही नजर आते हैं। उन्हें नजर आते है केवल सत्ता की रईसी को बरकरार रखने के साधन।

यही वजह है कि बदहाल होती आर्थिक स्थिति बेरोजगारों की पीड़ा अब कोई मायने नहीं रखता। उनके अपने अच्छे दिन तो आ ही गये है?

सोमवार, 18 जनवरी 2021

जमीन सौंपने की तैयारी...


 

क्या भारत की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चली है कि विदेशी कर्ज लेने उसे वह सब करना पड़ रहा है जिससे भारत की कृषि जमीन पूंजीपतियों के हाथों में चला जाये। यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि ठिठुरती ठंड में परिवार के साथ बैठे किसानों की मांग और सत्ता की जिद पिछले 52 दिनों से सड़कों पर है।

इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए कई बातों को जानना जरूरी है क्योंकि पिछले 6 सालों में मोदी सत्ता ने बारह लाख करोड़ रुपये का न केवल विदेशी कर्ज लिया है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के 23 पीयूसी को भी बेचा है। यही नहीं रेल मार्ग से लेकर हवाई अड्डों और बीएसएनएल से लेकर डिफेंस की जमीनों को भी बेचने की तैयारी कर रही है।

ऐसे में जब तीन कानून को लेकर देशभर के किसान दिल्ली बार्डर में जमा हो गये हैं तो सरकार की जिद मामले को गंभीर बना रही है। सुप्रीम कोर्ट के समर्पण के स्वर के बीच आंदोलन को तोडऩे की सरकारी कवायद ने यह सोचने मजबूर कर दिया है कि क्या ये तीनों कानून विदेशी दबाव में बनाये गये है?

इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह जानना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था को आक्सीजन देने का काम केवल कृषि कर रहा है दूसरी बात यह है कि पूरी दुनिया में पूंजीपतियों का निशाना जमीन है। क्या कोई यह बात जानता है कि बिल गेट्स बनने के लिए क्या जरूरी है तो हम आज अपने पाठकों को बता दें कि बिल गेट्स के पास केवल अमेरिका में ढाई लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि है। इसी तरह दुनियाभर में जितने भी पूंजीपतियों की टाप की फेहरिश्त है सभी के पास लाखों हेक्टेयर कृषि जमीन है और सुधारवाद के इस दौर में पूंजीपतियों ने साफ कर दिया है कि वे अफ्रीका, साउथ एशिया में भी कृषि उत्पादन और उससे जुड़े उद्योगों में ही ज्यादा पूंजी निवेश करेंगे और साउथ एशिया में भारत भी आता है।

इसके अलावा यह भी सच है कि सत्ता की रईसी के लिए पूंजी जरूरी है और जो पूंजी लगायेगा वह कानून भी अपने ढंग से बनवायेगा। ऐसे में क्या ये नहीं माना जाना चाहिए कि ये तीनों कानून जब पूंजीपतियों के हित में है तब सत्ता अपनी रईसी बरकरार रखने किसानों की मांग मान सकती है!

रविवार, 17 जनवरी 2021

अब सेल की बारी...


 

भारत नौ रत्न में से एक स्टील अर्थारिटी ऑफ इंडिया यानी सेल का दस फीसदी हिस्सा बेची जा रही है। लेकिन सब तरफ खामोशी है। कोई कुछ नहीं बोल रहा है तो यह मोदी सत्ता की ताकत का नतीजा है।

ऐसा नहीं है कि मोदी सत्ता की निजीकरण के चपेट में सेल ही आया है। मोदी सरकार बनने के बाद अब तक देश की 23 सार्वजनिक कंपनियों को बेचा जा चुका है, रेल मार्ग से लेकर हवाई अड्डे सहित कितने ही सार्वजनिक उपक्रम और शासकीय कंपनियों के शेयर निजी हाथों में बेचा जा चुका है, लेकिन इसके बावजूद भी यदि भाजपा लगातार चुनाव जीतते जा रही है तो इसका क्या मतलब है।

देश में बेरोजगारी दर चरम पर है, किसान से लेकर जवान सड़कों पर है और देश की आर्थिक स्थिति लगातार खराब हो रही है ऐसे में सरकार यदि सार्वजनिक कंपनियों को लगातार बेचकर धन की व्यवस्था कर रही है तो भी गलत नहीं है। मोदी सत्ता ने अब तक बारह लाख करोड़ से अधिक का कर्ज ले लिया है जो किसी भी प्रधानमंत्री काल में लिये गये विदेशी कर्ज से सर्वाधिक है तब भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है तो इसका मतलब क्या है?

सवाल करने वाला विपक्ष यदि मुद्दों की बजाय केवल चुनावी राजनीति करे तो सत्ता की मनमानी बढ़ेगी ही। ऐसे में देश की बेहाल होती आर्थिक स्थिति को लेकर कई तरह के सवाल खड़ा होने लगा है।

पिछले 6 सालों में इस देश के हालत को लेकर इसलिए भी कोई सवाल नहीं हुए क्योंकि लोकतंत्र में चुनावी जीत को महत्वपूर्ण बना दिया गया है और चुनाव जीतने का अर्थ तमाम नाकामियों और अपराध को नजरअंदाज कर देना हो गया है। यही वजह है कि पहले कार्यकाल की नाकामी का कोई मतलब नहीं रह गया है। संसद के भीतर कही गई बातों का भी मतलब नहीं रह गया है और न ही संवैधानिक संस्थाओं का ही कोई अर्थ है।

विश्वास का संकट गहराता जा रहा है और ेक बड़ा वर्ग नाराज होने के बावजूद भी सत्ता की मनमानी इसलिए बरकरार है क्योंकि नाराज रहने वाले बिखरे हुए हैं। ऐसे में सेल क्या सभी शासकीय संस्थाओं की बारी आते रहेगी!

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

प्रदूषण की मार...


 

एक तरफ छत्तीसगढ़ की राजधानी को खूबसूरत बनाने की कोशिश हो रही है तो दूसरी तरफ हवा में घुलते जहर ने आम लोगों की तकलीफे बढ़ा दी है। ठंड में यह तकलीफ और भी बढ़ जाती है, इसके पीछे जिस तरह का खेल पर्यावरण विभाग के अफसर कर रहे है वह रायपुर को प्रदूषित शहर बनाने की न केवल कोशिश है बल्कि सरकार के लिए एक गंभीर चुनौती है।

रायपुर से लगे औद्योगिक ईकाईयों में जिस तरह से नियम कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही है वह हैरान कर देने वाली है, कुछ पैसे बचाने के नाम पर हो रहे इस खेल के पीछे न केवल पर्यावरण विभाग के अफसर शामिल है बल्कि राजनेताओं का भी वरदहस्त हासिल है। हालांकि यह सब प्रदेश के सभी क्षेत्रों में हो रहा है लेकिन राजधानी से जो उद्योगों में यह सारी सीमाएं लांघने लगी है।

न केवल वायु प्रदूषण बल्कि जल प्रदूषण भी बेतहाशा हो रहा है। विकास के इस अंधानुकरण दौर में आम आदमी का जीना मुहाल है। छत्तों में जमते काले धुंए के कण ने कई तरह की गंभईर बीमारियों को न्यौता दिया है ऐसे में क्लीन सिटी-ग्रीन सिटी के सपनों का क्या होगा।

हैरान करने वाली बात तो यह है कि इस प्रदूषण और उनसे हो रही तकलीफों की शिकायत के बाद न तो कार्रवाई की जाती है और न ही संज्ञान में ही लिया जाता है।

औद्योगिक प्रदूषण के चलते राजधानी में दमा एलर्जी और दूसरी बीमारियों के मरीजों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और इस खेल में पक्ष-विपक्ष की एका भी चौंकाती है कि क्या राजनेताओं की रईसी के आगे आम आदमी के जीवन का कोई मूल्य नहीं है।

भाजपा जब सत्ता में थी तो उसके विधायक भी कई बार सवाल उठाते रहे हैं और आज जब कांग्रेस सत्ता में है तो कांग्रेसी विधायक सवाल उठा रहे है लेकिन इन सवालों का जवाब पर्यावरण विभाग में बैठे अफसरों की चुप्पी के आगे शून्य हो जाता है।

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

मोदी सत्ता की कहानी...


 

किसान आंदोलन को लेकर देश भर में जिस तरह का माहौल बनता जा रहा है उससे भले ही मोदी सत्ता ने आंखे मूंद ली हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने विश्वास का संकट तो खड़ा कर ही दिया है। ऐसे में किसान आंदोलन क्या मोड़ लेगा यह कहना मुश्किल है।

किसानों ने जिस तरह से कड़ा रूख अख्तियार किया है उससे सत्ता की सभी कोशिश विफल होने लगी है। आंदोलन में मौजूद एक किसान का वीडियो जिस तरह से वायरल हो रहा है वह सत्ता की बेचैनी बढ़ा सकती है।

इस वीडियो में एक किसान एक होशियार छात्र की कहानी सुनाते हुए कहता है कि यह सत्ता चुनाव जीतने के लिए हर मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम और राष्ट्रवाद से जोड़ देता है। किसान एक छात्र की प्रतिभा की कहानी भी सुनाता है और बताता है कि कैसे एक छात्र ने गाय का निबंद याद कर लिया और अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

छात्र के गाय के निबंध से खुश शिक्षक ने बाकी छात्रों को उलाइना दी तो बाकी छात्रों ने कहा कि इस छात्र को गाय के निबंध के अलावा दूसरा कोई निबंध नहीं आता तो शिक्षक ने उस छात्र से रेल यात्रा पर निबंध लिखने कहा-

छात्र ने रेल यात्रा पर निबंध लिखा - एक बार वह रेल यात्रा पर निकला, मौसम सुंदर था, थोड़ी देर में रेल एक गांव से गुजरा, तो गांव के बाहर गाय घास चर रही थी। गाय हमारा पालतू पशु है उसके चार पैर होते है...... फिर उसने गाय का निबंध लिख मारा।

शिक्षक हैरान उसने फिर उससे कहा कृष्ण भगवान पर निबंध लिखो.....

छात्र ने पुन: अपनी प्रतिभा दिखलाई- भगवान कृष्ण का जन्म अष्टमी को जेल में हुआ वे नंदबाबा के घर में रहने लगे वहां वे गाय चराने जाते थे गाय पालतू पशु है उसके चार पैर होते है....।

शिक्षक हैरान लेकिन निबंध गलत भी नहीं कहा जा सकता था।

किसान का कहना था तो ऐसी ही है इस सत्ता की प्रतिभा। मुद्दे कुछ भी हो वह देशद्रोह, हिन्दू-मुस्लिम में हर मामले को ले ही आता है। अब किसानों को खालिस्तानी नक्सली कह रहे है तो फिर उनके साथ बैठक क्यों कर रहे हैं? यह वीडियो जिस तरह से वायरल होने लगा है उससे सत्ता को लेकर कई तरह के सवाल खड़ा होने लगा है ऐसे में कानून वापस नहीं लेने को किये जा रहे छल-प्रंपच से भी किसानों में आक्रोश है।

बुधवार, 13 जनवरी 2021

विश्वास का संकट...


 

सुप्रीम कोर्ट में किसान आंदोलन को लेकर जो फैसला दिया है उसे लेकर आने वाली प्रतिक्रिया ने एक बार फिर विश्वास का संकट खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीनो ंकानून के अमल पर रोक लगाते हुए कमेटी गठित कर दी है। और यही से सवाल उठा है कि इस फैसले से क्या सरकार को राहत नहीं मिली है।

हमने कल ही कह दिया था कि यह समर्पण का स्वर है, समर्पण की ध्वनि साफ सुनाई पड़ रही है क्योंकि किसानों ने जब साफ कह दिया है कि तीनों कानून को वापस लिये बगैर वे घर नहीं लौटने वाले है। और कृषि जब राज्य का अधिकार है तब इस तरह का कानून बनाना किस तरह से उचित है!

ये सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन को लेकर सरकार के खिलाफ तीखे प्रहार किये हैं लेकिन यह भी सच है कि कमेटी में जिन सदस्यों को लिया गया है उनमें से चार सदस्य तो किसान कानून के समर्थक है।

ऐसे में आंदोनकारी किसानों के गुस्से को जायज ही कहा जाना चाहिए कि आखिर जो लोग पहले से ही इन तीनों कानून के समर्थन में है वे किस तरह से न्याय करेंगे। और जब कमेटी ही पक्षधर हो तो फिर न्याय कैसे निष्पक्ष होगा।

पिछले वर्षों में जिस तरह से विरोध के स्वर को देशद्रोह की संज्ञा दी जाने लगी है वह हैरान कर देने वाला है कि आखिर हम किस तरह का देश बना रहे हैं।

सवाल यह नहीं है कि अटार्नी जनरल ने आंदोलन को खालिस्तानी मदद बताया है? और न ही सवाल यह है कि आंदोलन को लेकर किसान क्या सोचते है। सवाल तो यही है कि क्या सत्ता के खिलाफ होने वाले हर बड़े आंदोलन को देशद्रोही करार देने का प्रचलन चल पड़ा है और क्या यह गंभीर बात नहीं है।

फिलहाल किसानों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जता दी है और ऐसे में भले ही सरकार के लिए यह फैसला राहत भरा है लेकिन इससे विश्वास का संकट तो खड़ा हो ही गया है।

ऐसे में यह शेर याद आना चाहिए-

मेरा मुनसिब ही मेरा कातिल है

क्या मेरे हक में फैसला देगा।

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

मी लार्ड... ये समर्पण ध्वनि है...!


 

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकालने की वकालत की वह हैरान कर देने वाला है। और कई तरह के सवाल भी खड़ा करने वाला है। आखिर सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकालने की वकालत करने की बजाय आंदोलन को लेकर कोई बड़ा फैसला करने से क्यों हिचक रही है। सवाल यह नहीं है कि सरकार के रवैये को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी जब नाराज है तो वह सीधे कानून को गलत क्यों नहीं कह देती और न ही सवाल आंदोलन में शामिल बूढ़े-बच्चों या महिलाओं का है।

सवालतो यही है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट को किस बात का इंतजार है। क्या संविधान में मिले आम आदमी के अधिकारों की रक्षा नहीं की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से महिलाओं और बच्चों की बात कही है, उससे सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट यह कैसे भूल सकती है कि किसानी के कार्य में घर का एक-एक सदस्यों का भागीदारी होती है, हल जोतने से लेकर कटाई में और खेत में खाना पहुंचाने की स्थिति में परिवार के बच्चे महिलाएं शरीक होती है।

सवाल यह नहीं है कि सरकार आंदोलन को खत्म करने के तरीके ढंूढ रही है जबकि सुप्रीम कोर्ट को इस सवाल को ध्यान में रखना चाहिए कि आखिर जो विपक्ष संसद में संशोधन की मांग कर रही थी उसे अनसुना कर चोर दरवाजे से कानून बनाने की कोशिश क्यों हुई फिर संसद में संशोधन से इंकार करने वाली सरकार आंदोलन के बाद संशोधन के लिए क्यों तैयार हो गई है।

यानी इस देश में बहुमत का दम्भ भरने वाली सरकार को आंदोलन से ही झुकाया जा सकता है।

ऐसे कितने ही सवाल है जो सुप्रीम कोर्ट को ही कटघरे में खड़ा कर रही है? आखिर सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं कह रही है कि कानून गलत है उसे लागू करने का तरीका गलत है। सवाल कई है, और यही हाल रहा तो सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनियता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगेगा।

यह समर्पण ध्वनि है

साफ दिख रहा है 

किसानों का दर्द

लेकिन सत्ता को इससे

क्या लेना देना

वर्तमान भूत और

भविष्य को कुचलने

की कोशिश का

एहसास उन्हें भी है

जो न्याय की वकालत करते है

लेकिन राजा के पीछे

खड़ी चतुरंगी सेना

को सत्ता से मोह है

और न्याय ठिठक सा गया है।

राजा के मन की बात

न समझ में आये

तब भी ताली बजानी पड़ती है

क्योंकि यह समर्पण ध्वनि है

दौर है, समर्पण ध्वनि है।

सोमवार, 11 जनवरी 2021

धर्म-राष्ट्रवाद और रंगभेद



आस्ट्रेलिया में क्रिकेट खेल रहे भारतीय खिलाडिय़ों को जिस रह से रंगभेदी टिप्पणी से दो चार होना पड़ा और उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया आई है यह सब सभ्य होने का दावा करने वाले समाज के लिए चिंता का विषय है। यूरोप अमेरिका सहित कई देशों में नस्ल को लेकर आज भी विवाद उतने ही गहरे है जितने एशियाई देशों में धर्म और जाति को लेकर विवाद है।

दरअसल कट्टरपंथियों की अपनी जमात है जिन्हें मानवता से ज्यादा खुद की चिंता होती है। और अपने को श्रेष्ठ कहलाने के फेर में ये लोग झूठ-अफवाह का सहारा लेकर नफरत के न केवल बीज बोते है बल्कि कुर्तकों के खाद पानी से उन्हें संचित करते रहते हैं।

पढ़े लिखे और सबसे सभ्य कहलाने का दावा करने वाले देशों में जिस रह से रंगभेद और धर्म को लेकर आये दिन तमाशा खड़ा कर प्रताडि़त करने का उपक्रम किया जाता है वह हैरान कर देने वाला है।

भारतीय खिलाडिय़ों के साथ यह व्यवहार पहली बार नहीं हुआ है पहले भी इस तरह की टिप्पणी से भारतीय खिलाड़ी अमानित होते रहे हैं और यह सबका अंत होते नहीं दिख रहा है।

यही हाल धार्मिक और जातिय श्रेष्ठता का हाल है। झूठ और अफवाह की चासनी में जिस तरह से नफरत परोसे जाते हैं वह मानवता को शर्मसार तो करता ही है, यह सोचने को भी मजबूर करता है कि सभ्यता की परिभाषा क्या होनी चाहिए।

भारत में राजनैतिक स्वार्थ के लिए आजादी के बाद से ही राष्ट्रवाद धर्म और जाति को श्रेष्ठ साबित करने के प्रयास में नफरत के जो बीज बोए गये उससे देश को न केवल आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा बल्कि एकता अखंडता को भी नष्ट करने की कोशिश हुई।

हाल ही में हुए दो आंदोलनों का जिक्र करना जरूरी है कि किस तरह से वर्तमान सत्ता और उससे जुड़े लोगों ने आंदोलन से जुड़े लोगों की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाये। याद किजीए जब नागरिक बिल को लेकर शहर-दर-शहर शाहीन बाग बनने लगे तो इस आंदोलन में शामिल होने वालों को गद्दार, देशद्रोही और न जाने किस-किस तरह से गालियां दी गई। कोरोना के कारण आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन कट्टरपंथियों ने जिस तरह से शाहीन बाग के आंदोलनकारियों को गालियां दी वह हमारी राक्षसी प्रवृत्ति को ही उजागर करता है।

यही हाल किसान आंदोलन को लेकर हुआ। कट्टरपंथियों की जमात ने आंदोलनरत किसानों को गद्दार साबित करने जिस तरह से झूठ-प्रपंच का सहारा लिया वह शर्मसार कर देने वाला था। अपनी बात को सही साबित करने मुसलमानों के चेहरे बनाये गये, आईटीसेल ने किसान आंदोलन के दौरान नमाज पढ़ते मुसलमानों का वीडियो बनाकर यह बताने की कोशिश की कि कैसे मुसलमान किसान आंदोलन में शामिल है जबकि इस देश में मुसलमान भी बड़ी संख्या में किसान है।

हम यहां सत्ता के अहंकार को लेकर कुछ नहीं कहेंगे लेकिन सच यही है कट्टरपंथियों की जमात ने न केवल अपना नुकसान किया है बल्कि समाज और देश को भी शर्मसार करते रहे हैं।

दरअसल यह एक तरह का अपराध है जो मानवता का ही नहीं देश का दुश्मन है।

रविवार, 10 जनवरी 2021

इंतजार 26 जनवरी का...


 

किसान आंदोलन को लेकर सरकार के साथ अगली बैठक की तारीख भले ही 15 जनवरी बताई जा रही हो लेकिन सच तो यही है कि अब देश को उस 26 जनवरी का इंतजार करना चाहिए जिस दिन किसान राजपथ पर होंगे।

जिस तरह से 8 जनवरी की बैठक का नतीजा कुछ नहीं निकला और किसानों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने से इंकार कर दिया उससे एक बात तो साफ है कि किसान कृषि बिल को वापस लिये बिना मानने वाले नहीं है और न ही उन्हें न्यायालय पर भी वर्तमान दौर में भरोसा रह गया है या यह कहे कि न्यायालयीन व्यवस्था पर भी इस सरकार के रहते बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है।

दरअसल झूठ और सिर्फ झूठ बोलकर सत्ता हासिल करने और नफरत की राजनीति के बीच जब देश का प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का ध्यान सरकार चलाने की बजाय पार्टी को जीताने में ज्यादा रूचि लेने लगे तो संवैधानिक संस्थाओं को राजनैतिक होने से कैसे रोका जा सकता है और न ही सत्ता को मनमर्जी करने से ही कोई रोक सकता है।

बीते 6 सालों में मोदी सत्ता ने देश की हालत को जिस तरह से बनाया है उसके बाद विरोध का मतलब तब और कुछ नहीं रह जाता जब वह चुनाव दर चुनाव जीत ही रहा है। ऐसे में 70 के दशक को याद करना होगा जब आंदोलनों ने तब के विरोध को दबाने आपातकाल का सहारा लेते हुए विरोधियों को जेलों में ढूंस दिया था। और तब विरोधियों ने चुनावी राजनीति का हिस्सा बन सत्ता को चुनौती दी थी। इसी तरह से आंदोलन की वजह को जब सत्ता ने गलत करार दिया था तब आम आदमी पार्टी का उदय हुआ था।

इसका मतलब क्या वर्तमान में भी इसी तरह के हालात बनने लगे हैं। आप भले ही इससे सहमत न हो लेकिन सच तो यही है कि जिस तरह से किसान आंदोलन को लेकर सरकार ने अडिय़ल रूख अख्तियार किया है उसके बाद जय किसान- टैक्टर निशान के हालात बनते जा रहे हैं।

जिन लोगों को अब भी लगता है कि किसान आंदोलन गलत है वे जान ले कि पिछले 6 साल में सत्ता ने देश का वह हाल कर दिया है कि उसके लिए कृषि बिल को वापस लेने का मतलब आर्थिक बदहाली की ओर एक कदम और बढ़ाना रह गया है। कृषि बिल वापस होता है तो सत्ता की रईसी पर असर पड़ेगा और नहीं लेती है तो किसान मर जायेंगे।

आखिर इस हालात के लिए जिम्मेदार कौन है। ऐसे में यदि जिन लोगों को लगता है कि 15 जनवरी को सब कुछ ठीक हो जायेगा उन्हें 15 नहीं 26 जनवरी का इंतजार करना चाहिए क्योंकि किसानों ने यदि यह सब तय कर लिया है और सत्ता अड़ी हुई है तो जो कुछ 26 जनवरी को होगा वह इस देश के इतिहास में दर्ज होने वाला है।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

कट्टरपंथियों की जमात...


 

अमेरिका में ट्रम्प समर्थकों ने जिस तरह से हिंसक वारदात की है, उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। भारतीय परिपेक्ष्य में भी इसे सोचने समझने की जरूरत है क्योंकि भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ट्रम्प की सत्ता के समर्थक रहे हैं और आज भी उन्हें भारत का मित्र साबित करने में लगे रहते हैं।

दरअसल कट्टरपंथियों की सत्ता का पूरी दुनिया में यही हाल है। जहां लड़ाई श्रेष्ठता की हो वहां यह सब होना लाजिमी है। दूसरी विचारधारा को खत्म करने की मंशा ही सच से मुंह फेरना है।

हाल के वर्षों में जिस तरह से नफरत की राजनीति की शुरुआत हुई है उससे भारतीय जनमास को झिकझोर कर रख दिया है। सामाजिक ताना बाना पर भी इसका दुष्प्रभाव देखा जा रहा है। सत्ता के लिए नफरत की राजनीति कट्टरपंथियों का हथियार हैं और वे नफरत फैलाने के लिए जिस तरह से झूठ भ्रम और अफवाह फैलाते हैं उससे समाज में हिंसा बढ़ती है।

अमेरिका में जो कुछ हुआ वह अचानक नहीं हुआ क्योंकि लोकतंत्र में कट्टरता की उम्र लंबी नहीं होती। यह बात भारत के भी उन कट्टरपंथियों को समझ लेना चाहिए जो सत्ता के लिए झूठ अफवाह और भ्रम का सहारा लेने से पीछे नहीं हटते। इससे न केवल सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है बल्कि इसका असर आर्थिक स्थिति पर भी पड़ रहा है।

मैं  आज भी हैरान हो जाता हूं कि जो धर्म या समाज अपने को श्रेष्ठ साबित करने में कट्टर हैं उन धर्म और समाज की खुद की स्थिति शर्मनाक है। अनेक जातियों और फिरकों में बंटे लोग जब स्वयं की एका की बात करते हैं लेकिन मौका आने पर अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ बताने हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

ये लोग अपनी श्रेष्ठता साबित करने जिस तरह से दूसरे पक्ष के इतिहास को उधेड़ते हैं वे लोग भूल जाते हैं कि उनके अपने इतिहास में भी उससे दुष्ट लोगों की कमी नहीं है लेकिन सत्ता के लिए वे इस हद तक नीचे गिर जाते हैं कि उन्हें देश से कोई सरोकार नहीं होता।

ऐसे ही एक कट्टरपंथी ने एक दिन अचानक कह दिया कि वे मांसाहारी को हिन्दू नहीं मानते जबकि सच तो यह है कि उसके परिवार के लोगों में से कई मांसाहारी है। इसी तरह एक ब्राम्हण ने कह दिया कि मांस खाने वाले ब्राम्हण नहीं है लेकिन भारत में ऐसे कई प्रांतों के ब्राम्हण है जो मांस का भक्षण करते है।

कट्टरपंथियों की वजह से ही हिंसा बढ़ी है। खाप पंचायत से लेकर ऐसे कई उदाहरण और दंगे हैं जो कट्टरपंथियों की घृणा की पराकाष्ठा है।

इसलिए भारत को भी अमेरिका में हुई घटना को लेकर चिंतित होना चाहिए।

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

आह भरकर बद्दुआ...


 

कंपकपाती ठंड, सर्द हवा, रुक रुक कर होती बारिश में किसानों के हौसले को कौन सलाम करना नहीं चाहेगा! ये वही किसान है जिनके बेटे देश की रक्षा में सीमा में खड़े हैं तो तमाम आपदाओं में देश की अर्थव्यवस्था को संभाले हुए हैं। ये वही किसान है जो अमेरिका की दादागिरी के खिलाफ हरित क्रांति कर  देश को अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाते है तो सत्ता की रईसी को बरकरार रखने वाले कानून का भी मौन समर्थन करते है। आधुनिक तकनीकी को अपनाने कर्ज ले कर सरकार का गोदाम भरते हैं लेकिन इन्हें क्या हासिल हुआ?

सवाल यह नहीं है कि किसान आंदोलन को लेकर सरकार या उनसे जुड़े लोग बेबस क्यों है? बल्कि सवाल यह है कि आखिर किसानों ने जब कह दिया है कि तीनों कानून को वापस लिये बगैर वे घर नहीं लौटेंगे तब सरकार बैठक के नाम पर किसे बरगला रही है। और विज्ञान भवन की राजसी ठाठ का प्रदर्शन क्यों कर रही है।

विज्ञान भवन में जिस तरह से हर बैठक में लाखों रुपये खर्च किये जा रहे हैं वह किसका पैसा है? फाईव स्टार होटल से आने वाला खाना किसके लिये आ रहा है जबकि किसान तो अपना लंगर का खाना ही खा रहा है।

हमने पहले ही कहा है कि सत्ता अपनी रईसी बरकरार रखने के उपक्रम में किसान को बख्श दे और सरकार सच में किसानों का हित चाहती है तो समर्थन मूल्य के नीचे की खरीदी को गैर कानूनी बना दे। यदि किसान अपनी उपज समर्थन मूल्य पर बेचने लगे तो किसानों की हालत सुधर जायेगी। लेकिन सत्ता जानती है कि जिस दिन ऐसा हुआ तो उनकी रईसी खत्म हो जायेगी। उन्हें मिलने वाले वेतन भत्तों पर सवाल उठेगा और कार्पोरेट घराना तब सत्ता को नहीं पूछेगी।

हैरानी की बात तो यह है कि उत्पादन का नया इतिहास बनाने वाले किसान गरीब के गरीब है और कृषि उपकरण या इससे संबंधित खाद बीज या दूसरे प्रोडक्ट बनाने वाले रईस से महा रईस होते जा हैं। टैक्स से लेकर सब्सिडी का जो खेल सरकार खेल रही है उससे किसानों की बजाय पूंजीपतियों को ही फायदा होता है।

ऐसे में 8 जनवरी को होने वाली बैठक भी बेनतीजा रहे तो हैरानी नहीं होगी। क्योंकि सत्ता की अपनी चाल है तब दुष्यंत कुमार की गजल की चंद पंक्तियां याद आ जाती है-


भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ।


गिगिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बद्दुआ।


दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ।

बुधवार, 6 जनवरी 2021

दृढ़ निश्चय


 

रोज सुबह अब

सूर्योदय के पहले

नींद खुल जाती है

और कंपकपाती ठंड

में मुंह धोने

पानी को हाथ से

छूता हूं

तो याद आते हैं

अपने हक के लिये

दिल्ली बार्डर में

जुटे किसान

सर्द हवा और

बारिश में भीगते

गीले बिस्तर में

सोते किसान।

मैं जानता हूं कि

सरकार इतनी आसानी

से नहीं झूकने वाली

और मैं यह भी जानता हूं

कि अपने हक की

लड़ाई लडऩी पड़ती है

घर छोडऩा पड़ता है

इंतजार करते बच्चों

का मन मारना पड़ता है

गांव की सुंगध को

छोड़ शहर में

भटकना पड़ता है।

फिर यदि सत्ता

का अभिमान चरम पर हो

तो स्वाभिमान बचाने

की लड़ाई और भी

लम्बी होती है

आखिर गुरु गोविन्द

सिंह ने यूं ही नहीं

कहा था

कोई किसी को कुछ न देहै

जो ले है निजबल से लेहै।

पानी के छिंटे ने

जगा दिया और

मैं फिर चल पड़ता हूं

सुबह की सर्द हवा में

टहलने

आखिर दृढ़ निश्चक के

आगे ठंड भी हार

जाता है

सत्ता की क्या बिसात।

(किसान आंदोलन को समर्पित)

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

बात कैसे बनेगी साहेब !

 



किसानों के साथ 8वें दौर की बैठक फिर बेनतीजा रहा। और फिर 9वें दौर की बैठक 8 जनवरी को होगी। किसान जब तीनों कानून को वापस लेने की मांग पूरी हुए बिना आंदोलन को समाप्त नहीं करने वाले हैं तब सरकार का अडियल रूख हैरान कर देने वाला है।

वैसे तो इस तीनों कानून को लेकर सरकार की नियत तब ही स्पष्ट हो गई थी जब सिे संसद में पास करने का जो तरीका अपनाया गया था, बगैर बहस और बगैर वोटिंग के यहां कानून कैसे पास हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। भले ही कुछ लोग इसे चोर दरवाजा कहने पर आपत्ति उठाये लेकिन सच तो यही है कि इस कानून को लेकर सरकार की नीयत पहले ही दिन से खराब थी।

और खराब हो भी तो क्या फर्क पड़़ता है क्योंकि ये तीनों कानून सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है।

इसलिए आज जब विज्ञान भवन में सरकार के नुमाईदों और किसानों के बीच चर्चा के दौरान जब लंच का समय हुआ तो किसान अपने लंगर में मस्त थे और सत्ता के नुमाईदें फाईव स्टार होटल अशोका का खाना खा रहे थे। यकीन मानिये इस आठ दौर की बैठकों में सरकार का जितना खर्च हुआ है वह टिहरी बार्डर में धनारत या आंदोलनरत किसानों के एक दिन के भोजन से ज्यादा रुपये खर्च हुआ है। और ये पैसा किसका है। हमारा-तुम्हारा टैक्स का पैसा है।

स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना विज्ञान भवन का अपना इतिहास है लेकिन इससे सरकार को कोई सरोकार नहीं है वह तो आंदोलनरत किसान को थका देने की सोच के साथ बैठक पर बैठक यानी तारीख पर तारीख की घोषणा करते जा रही है लेकिन ुसे न किसानों के हितों की चिंता है न आंदोलनरत मरते-बिलखते किसानों की ही चिंता है। यदि उसकी चिंता में किसान होते तो कानून पास कराने का तरीका गलत नहीं होता और समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी होती।

जिन्हें ये तीनों कानून गलत लगते हैं उन्हें हम एक और जानकारी दें दे कि दुनिया के चावल उत्पादन करने वाले 103 देशों में भारत ऐसा देश है जो सबसे ज्यादा चावल एक्सपोर्ट करता है और यहां के उद्योगपति हो या सरकार सबसे ज्यादा पैसा कमाते हैं और आप हैरान होंगे कि जापान से लेकर कोरिया सहित ऐसे कितने ही देश हैं जहां प्रति किलो चावल तीन सौ रुपये प्रति किलो से ज्यादा कीमत पर बिकते हैं। यहां तक कि कनाडा में भी दो सौ रुपये किलो से अधिक कीमत है। और ऐसे में एमएसपी को कानून की गारंटी मिल जाएगी तो चावल एक्सपोर्ट करने वालों की कमाई कम हो जायेगी।

एक बात और हर बात में पाक को लेकर राजनीति करने वाले यह भी जान ले कि पाकिस्तान के किसानों की आर्थिक स्थिति भारत के किसानों की आर्थिक स्थिति से बेहतर है। इसलिए जो लोग कृषि रिफार्म के नाम से लाये गये इन तीनों कानून की वकालत कर रहे है वे जान ले कि जब तक एमएसपी को कानूनी गारंटी में नहीं लाया जायेगा तब तक किसानों की आय नहीं सुधरने वाली।

और हां, 8 जनवरी को भी बात बन जायेगी यह कभी नहीं सोचना? क्योंकि नियत में बरकक्त है और नियत में ही खोट हो तो सफलता मुश्किल है। बनेगी साहेब!

किसानों के साथ 8वें दौर की बैठक फिर बेनतीजा रहा। और फिर 9वें दौर की बैठक 8 जनवरी को होगी। किसान जब तीनों कानून को वापस लेने की मांग पूरी हुए बिना आंदोलन को समाप्त नहीं करने वाले हैं तब सरकार का अडियल रूख हैरान कर देने वाला है।

वैसे तो इस तीनों कानून को लेकर सरकार की नियत तब ही स्पष्ट हो गई थी जब सिे संसद में पास करने का जो तरीका अपनाया गया था, बगैर बहस और बगैर वोटिंग के यहां कानून कैसे पास हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। भले ही कुछ लोग इसे चोर दरवाजा कहने पर आपत्ति उठाये लेकिन सच तो यही है कि इस कानून को लेकर सरकार की नीयत पहले ही दिन से खराब थी।

और खराब हो भी तो क्या फर्क पड़़ता है क्योंकि ये तीनों कानून सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है।

इसलिए आज जब विज्ञान भवन में सरकार के नुमाईदों और किसानों के बीच चर्चा के दौरान जब लंच का समय हुआ तो किसान अपने लंगर में मस्त थे और सत्ता के नुमाईदें फाईव स्टार होटल अशोका का खाना खा रहे थे। यकीन मानिये इस आठ दौर की बैठकों में सरकार का जितना खर्च हुआ है वह टिहरी बार्डर में धनारत या आंदोलनरत किसानों के एक दिन के भोजन से ज्यादा रुपये खर्च हुआ है। और ये पैसा किसका है। हमारा-तुम्हारा टैक्स का पैसा है।

स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना विज्ञान भवन का अपना इतिहास है लेकिन इससे सरकार को कोई सरोकार नहीं है वह तो आंदोलनरत किसान को थका देने की सोच के साथ बैठक पर बैठक यानी तारीख पर तारीख की घोषणा करते जा रही है लेकिन ुसे न किसानों के हितों की चिंता है न आंदोलनरत मरते-बिलखते किसानों की ही चिंता है। यदि उसकी चिंता में किसान होते तो कानून पास कराने का तरीका गलत नहीं होता और समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी होती।

जिन्हें ये तीनों कानून गलत लगते हैं उन्हें हम एक और जानकारी दें दे कि दुनिया के चावल उत्पादन करने वाले 103 देशों में भारत ऐसा देश है जो सबसे ज्यादा चावल एक्सपोर्ट करता है और यहां के उद्योगपति हो या सरकार सबसे ज्यादा पैसा कमाते हैं और आप हैरान होंगे कि जापान से लेकर कोरिया सहित ऐसे कितने ही देश हैं जहां प्रति किलो चावल तीन सौ रुपये प्रति किलो से ज्यादा कीमत पर बिकते हैं। यहां तक कि कनाडा में भी दो सौ रुपये किलो से अधिक कीमत है। और ऐसे में एमएसपी को कानून की गारंटी मिल जाएगी तो चावल एक्सपोर्ट करने वालों की कमाई कम हो जायेगी।

एक बात और हर बात में पाक को लेकर राजनीति करने वाले यह भी जान ले कि पाकिस्तान के किसानों की आर्थिक स्थिति भारत के किसानों की आर्थिक स्थिति से बेहतर है। इसलिए जो लोग कृषि रिफार्म के नाम से लाये गये इन तीनों कानून की वकालत कर रहे है वे जान ले कि जब तक एमएसपी को कानूनी गारंटी में नहीं लाया जायेगा तब तक किसानों की आय नहीं सुधरने वाली।

और हां, 8 जनवरी को भी बात बन जायेगी यह कभी नहीं सोचना? क्योंकि नियत में बरकक्त है और नियत में ही खोट हो तो सफलता मुश्किल है।

सोमवार, 4 जनवरी 2021

मरते किसान का दम !


 

लगता है आन्दोलनरत किसानों के साहस की परीक्षा ईश्वर भी लेने लगा है तभी तो सर्द ठंड के बीच बारिश का हमला हुआ है। बार्डर पर तीन और किसान मर गये और यह मौत का सिलसिला शतक तक पहुंच जाये तो उन लोगों को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है जो सत्ता की मस्ती में डूबे हुए हैं, जो नफरत की राजनीति में सराबोर जहर उगल रहे हैं जिनके लिए सियासत सिर्फ पेशा हो और हर पेशा सिर्फ अपना मुनाफा देखती है और यही मुनाफा ही उनकी इमानदारी है।

कहना मुश्किल है कि सरकार तीनों कानून को वापस ले लेगी क्योंकि कृषि की अर्थव्यवस्था पर पिछले कई सालों से सत्ता की नजर लगी हुई है। जब सारे उद्योग धंधे गर्त में जाते जा रहे हैं, बड़े-बड़े उद्योगपति दिवालिया हो रहे हैं, बैंक दिवालिया हो रहा है, रिजर्व बैंक का रिजर्व फंड भी नहीं बच रहा है, सत्ता को अपनी रईसी बरकरार रखने सार्वजनिक उपक्रमों को बेचना पड़ रहा है, रेल-हवाई जहाज से लेकर वेलफेयर के सारे साधनों को निजी क्षेत्रों को सौंपे जा रहे हैं तो फिर सरकार इस देश की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था कृषि को कैसे छोड़ सकती है।

देश के हर क्षेत्रों की बिगड़ती स्थिति के बाद भी इस देश की अर्थव्यवस्था को केवल कृषि क्षेत्र ही संभाल कर रखी है और यह बात सत्ता से ज्यादा उद्योगपतियों को मालूम है इसलिए कान्टेक्ट फार्मिंग की अवधारणा से ही किसानों की जमीन हड़पी जा सकती है ऐसे में सरकार क्यों भला तीनों कानून को वापस लेगी।

लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुर्गण यही है कि सत्ता में जो भी दल बैठता है उसकी रूचि अपनी पार्टी को मजबूत करना प्रथम ध्येयय होता है इसलिए यदि किसान चंदा नहीं देते तो जमीन उन्हें सौंपी जायेगी जो चंदा देते हैं।

जिन लोगों को किसानों को आयकर की छूट को लेकर गलतफहमी है वे अपनी गलत फहमी दूर कर लें क्योंकि आयकर में छूट की सीमा 5 लाख रुपये तक की है और कितने किसान हैं जो पांच लाख से ऊपर सालाना कमाई करते हैं इसलिए वे जान ले कि किसानी में आयकर की छूट का फायदा भी वही उद्योगपति और व्यापारी उठाते हैं और यह छूट का कानून भी उन्हीं के लिए बना है।

हमने इसी जगह पर पहले ही लिखा है कि ये तीनों कानून किसानों से ज्यादा उद्योगपतियों, पूंजीपतियों के लिए बना है क्योंकि भंडारण करने की स्थिति में किसान होते तो वे अपनी उपज बेचने समर्थन मूल्य के मोहताज नहीं होते। भंडारण केवल व्यापारी करेगा। इसलिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन केवल जमाखोरी और कालाबाजारी करने वालों के लिए बनाया गया है और जिन लोगों को लगता है कि किसान गलत रुप से आंदोलन कर रहे हैं तो वे समझ ले हर संकट में इस देश को सिर्फ और सिर्फ किसानों ने बचाया है।

रविवार, 3 जनवरी 2021

सौगन्ध मुझे इस मिट्टी की मैं देश नहीं बिकने दूंगा!

सौगन्ध मुझे इस मिट्टी की मैं देश नहीं बिकने दूंगा!

याद है यह किसने कहा था! जी हां सभी को याद है। नरेन्द्र मोदी ने 25 मार्च 2014 को जब यह बात कही थी तो भाजपा सहित उसके सारे आनुवांशिक संगठन के लोग झूम उठे थे। लेकिन आज जैसे ही यह लाईन देश नहीं बिकने दूंगा जेहन में आता है तो जेहन में यह भी आता है कि कैसे पिछले 6 बरसों में इस देश की 23 सार्वजनिक कंपनियां एक-एक करके बिकते चली गई और यह संयोग ही है कि इन बिकने वाली कंपनियों के नाम भारत, हिन्दुस्तान, भारतीय या इंडिया नाम से जानी पहचानी जाती थी, भारतीय कोल, कोल इंडिया, भारतीय संचार निगम, भारतीय पेट्रोलियम, एयर इंडिया किस तरह से बेचने की स्थिति में आई है और इसे खरीद कौन रहा है। बिकने के इस दौर में भारतीय रेल भी कतार में है जिनके 151 रेल और 109 मार्ग बिक चुका है। 

अब कुछ लोग कह सकते हैं कि निजीकरण का मतलब बेच देना क्यों कह रहे हो लेकिन भारत की आजादी के बाद से यह तय हुआ था कि सरकार की जिम्मेदारी इस देश के नागरिकों के प्रति है ऐसे में एक-एक कर सबका निजीकरण करने का मतलब सहज ही लगाया जा सकता है। सरकार का मतलब क्या है यदि सब कुछ निजी हाथों में सौंप दिया जाए।

हमने पहले भी कहा था कि हम निजीकरण के विरोधी नहीं है लेकिन सवाल अब भी वही है कि आखिर हम सरकार इसलिए चुनते है कि हमारी मूलभूत जरूरतों की पूर्ति कम कीमत पर हो! आसानी से हो। लेकिन बीते 6 बरसों में जिस तरह से सत्ता ने आम लोगों के हितों की अनदेखी करते हुए मनमाने फैसले लिये हैं उससे देश का ताना-बाना छिन्न भिन्न होने लगा है। और कई बार तो ऐसा लगने लगा है कि इस देश का लोकतंत्र निजी हाथों में चला गया है।

आर्थिक हालात तो बदत्तर हुए है भूखमरी में भी हम दुनिया में सबसे उपर आ गये हैं। बेरोजगारी दर बदतर स्थिति में है और जीडीपी का हाल किसी से छिपा नहीं है। राज्य सरकारों को उनके जीएसटी का हिस्सा समय पर नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में देश के सामने जो संकट खड़ा होने लगा है वह इस देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है। चिंता का विषय तो किसान आंदोलन भी बनता जा रहा है, जिस तरह से किसान आंदोलन खिंचता चला जा रहा है और देशभर के दूसरे राज्यों से किसान जिस तरह से आंदोलन में शरीक होते जा रहे है वह आम जन के लिए बेचैन कर देने वाला है।

सर्द रात में परिवार सहित आंदोलित किसान कहीं कहीं आक्रोशित भी हो रहे हैं और यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन को मोदी सत्ता की जिद और भड़काने का काम कर रही है ऐसे में भले ही सत्ता इसे गलत बता रही हो, आंदोलन के खिलाफ भ्रामक प्रचार कर रही हो लेकिन मोदी सत्ता के निजीकरण का लोभ वह कैसे छुपा पायेगी। जिसके हित के लिए कानून बनाने की बात कही जा रही हो वही इसके खिलाफ हो तो कानून सही कैसे हो सकता है।

बहरहाल सत्ता की निजीकरण के लोभ और एक-एक कर बिकते सरकारी उपक्रम ने 'ये देश नहीं बिकने दूंगाÓ वाली बात को एक बार फिर जेहन में लगा दिया। जेहन में तो यह भी है कि बिजनेस मेरे खून में है।

 

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

नववर्ष का रंग!


वर्तमान में तय किये

जा रहे हैं जो रंग

बचपन में समझे अर्थों

से भिन्न है क्यों रंग

चाहता रहा फिजा में

बिखर जाये हर रंग

लेकिन बवाल के डर से

सिमट रहे हैं रंग

समय बदल रहा

रंगों की परिभाषा

और हम बेबस देख

रहे हैं आशा-निराशा

कोई कहता है ये नववर्ष

हमारा नहीं है

कोई कहता है ये रंग

तुम्हारा नहीं है

रंगों के इस दिगभ्रमित

जंाल में

रंगों को ही धूमिल

कर दिया है

और सतरंगी इन्द्रधनुष

की सत्यता पर

कोई नहीं बोलता

सबको चिंता है अपने

रंग को चटख करने की

गाढ़ा होता रंग

गहरा काला होता जा

रहा है

पर सत्ता के

लिए जरूरी है

रंगों का गहरा और काला

होना

खुद के रंग को चटखाने

की कोशिश में

बदरंग होते रंगों की

ओर किसका ध्यान है

जीवन में रंग आते

जाते रहेंगे

पर रंगों का जीवन

में ठहरना उचित नहीं।

किसी एक रंग का गुलाम

होना खुद को मारना है।

हर रंग को जो पकडऩे

की कोशिश करता है

वही जीवन ही नहीं

समाज में रंग भरता है

जो रंग भटकाने

निकल पड़े है

वह नफरत की दीवार

खड़ी करता है

और फिर आदमी

हो जाता है गुलाम

इसलिए मुझे सभी रंग

पसंद है

क्योंकि मैंने देश की

आजादी से जोड़

रखा है रंगों को।