बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

पुलिस बुलवाकर पिटवाने का मतलब

अखबार को संसार बताने वाले राजधानी के एक प्रतिष्ठित कहे जाने वाले इस अखबार में बीते सप्ताह जो कुछ हुआ वह शर्मनाक है। शॉपिंग माल बनाने के चक्कर में किराये के भवन में संचालित इस अखबार के प्रबंधकों की मनमानी की कहानी वैसे तो नई नहीं है। अपने अखबार में कार्यरत पत्रकारों को दो कौड़ी का कहने वाले प्रबंधकों की दादागिरी के कई उदाहरण है।
बीते सप्ताह इस अखबार के दफ्तर में विज्ञापन विभाग से मोबाइल चोरी चला गया। संदेह पर यहां कार्यरत नए नवेले चपरासी को न केवल पुलिस में दिया गया बल्कि उसे पीटने का भी फरमान सुना दिया। पुलिस तो वैसे भी पीटने में माहिर है और जब इतने बड़े समूह का वरदहस्त हो जाए तो फिर क्या कहना। पुलिस इस चपरासी को थाने ले गई और पूछताछ के बहाने उसकी तबियत से धुनाई की।
इस घटना से यहां कार्यरत पत्रकार आक्रोशित जरूर हैं लेकिन नौकरी के मोह की वजह से वे खामोश है। यहां कार्यरत एक पत्रकार का कहना था कि यह तो अखबार का दुरुपयोग है और पुलिस की बेशर्मी का नमूना है।
यह घटना अखबार की दादागिरी का एक नमूना है और अखबार में मैनेजमेंट के बढ़ते दखल की कहानी है और जब पुलिसिया अत्याचार में अखबार ही सहभागी बने तो फिर पुलिस का अत्याचार कौन रोक सकेगा।
राजधानी के अखबार के दफ्तर तक पुलिस का आना और चपरासी की पिटाई को लेकर चर्चा तो है लेकिन अखबार के इस रवैये को लेकर भी तीखी प्रतिक्रिया है अखबार के व्यवसायिकता को लेकर कई तरह की चर्चाओं के बीच अपने ही कर्मचारियों को पुलिस से पिटवाने का यह नया खेल अखबार की प्रतिष्ठा को कहां ले जाएगा कोई नहीं जानता।
और अंत में....
राजधानी बनने के बाद पत्रकारों का वेतन तो बढ़ा है साथ ही काम भी बढ़ गया है। यह अलग बात है कि पहले की तरह पत्रकारिता नहीं हो पा रही है तो इसकी वजह सरकारी विज्ञापन की रफ्तार है जिसका मोह कोई छोड़ना नहीं चाहता।