शनिवार, 27 मार्च 2021

किसान आंदोलन से डरने लगी सत्ता

 

किसानों के आंदोलन को तीन माह हो रहे हैं लेकिन पांच राज्यों के चुनाव में फंसी सत्ता को इससे कोई मतलब नहीं है, न ही आम जनमानस ही इस आंदोलन से उद्देलित है, ऐसे में किसान आंदोलन और भी लंबा चले तो किसी को क्या फर्क पड़ेगा लेकिन एक बात जान ले आंदोलन किसी सत्ता का विरोधी नहीं होता, आंदोलन का मतलब सत्ता की मनमानी से मुक्ति का रास्ता है, आखिर नमक आंदोलन छेड़ कर गांधी जी ने क्या किया था, मुठ्ठी भर नमक बिट्रिश सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी और न ही विदेशी वों की होली जलाने से ही बिट्रिश सत्ता के राजा को ही कोई फर्क पडऩे वाला था लेकिन हिन्दुस्तानियों का दिल जुड़ गया था।

और जब दिल जुड़ता है तो लोग जुड़े है तब मनमानी करने वाली सरकार का सिंहासन डोलने लगता है, वह जनता को एक साथ जुडऩे नहीं देता क्योंकि निरापद सामूहिक कर्म किसी भी आततायी सत्ता को कंधा देता है, उसे तो हिंसा चाहिए ताकि अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सके इसलिए जब आंदोलन अहिंसक हो तो वह उसे हिंसक बनाने षडयंत्र रचता है ताकि भला मनुष्य खामोश बैठ जाए और सत्ता अपनी मनमानी करता रहे। अविश्वास भय और अलग-अलग झुंड चाहिए ताकि हर झुंड को वह अपनी ताकत से दबोच ले।

यही वजह है कि वह किसान आंदोलन ही नहीं इससे पहले हुए शाहिन बाग को लेकर भी भय, अफवाह फैलाते रहा, निजीकरण, बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त लोग एक साथ जमा न हो जाए इसलिए वह राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की चासनी में में डूबे रसगुल्ले परोसता है। क्योंकि सत्ता यह बात जानती है कि खुदीराम, आजाद, भगतसिंह से निपटना आसान है लेकिन गांधी से निपटना अब भी कठिन है क्योंकि गांधी का मतलब अहिंसा, सामूहिकता, समर्पण और भय से मुक्ति है।

किसानों के पास क्या है, दुनिया में किसी भी देश के किसानों से कम आय भारतीय किसानों की है जबकि दुनिया के देशों में कृषि उत्पादन के मामले में वह सबसे आगे की दौड़ में है तब किसान आंदोलन से सरकार क्यों डरे, क्योंकि किसानी से होने वाले नुकसान की वजह से हर साल लाखों युवा किसानी छोड़ दूसरे काम कर रहे हैं।

यही वजह है कि किसान आंदोलन को लेकर न सरकार गंभीर है और न ही आम लोग ही इससे जुड़ पा रहे हैं तब मोदी सत्ता की मनमानी के चलते झुंड में बंटे आंदोलनकारी निजीकरण, महंगाई, बेरोजगारी इकट्ठा क्यों नहीं हो पा रहे हैं।

किसानों ने पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा के खिलाफ वोट डालने की अपील करते हुए आंदोलन का विस्तार तो कर दिया है तब क्या निजीकरण का खिलाफत करने वालों को भी इन राज्यों के चुनाव में अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं करनी चाहिए।

किसानों के भारत बंद को जो लोग असफल बता रहे हैं उन्हें जानना चाहिए कि यदि किसानों का आंदोलन असफल है तो  अहमदाबाद में पत्रकार वार्ता के बीच किसान नेता की गिरफ्तारी पुलिस नहीं करती। सत्ता डरने लगी है यह ईशारा है।