रविवार, 21 मार्च 2021

अनिर्णय का बोझ

 

कांग्रेस नेतृत्व इन दिनों अनिर्णय के बोझ से बिखरता जा रहा है। नाराज नेताओं को संभाल नहीं पाने की वजह से कांग्रेस का संकट गहराता जा रहा है, ऐसे में राहुल-प्रियंका की मेहनत का सिर्फ इतना ही मतलब है कि वे खुद को स्थापित करना चाहते है।

वैसे कांग्रेस तो राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से ही लगातार कमजोर होते चली गई लेकिन सोनिया के नेतृत्व में बनी मनमोहन सरकार ने आम कांग्रेसियों की उम्मीद कायम रखी लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद जिस तरह से कांग्रेस में बिखराव शुरु हुआ उससे नेतृत्व की क्षमता पर भले ही सवाल न उठे लेकिन नेतृत्व की निर्णय क्षमता पर तो सवाल उठने ही लगे हैं।

ऐसे में उन लोगों की चिंता बढ़ गई है जो कांग्रेस को लोकतंत्र के प्रहरी के रुप में देखते हैं! लेकिन सवाल वही है कि कांग्रेस से छिटकते लोगों को कैसे संभाला जाए? क्या कांग्रेस में नए तरह का परिवर्तन है या वह प्रसव वेदना से दो चार हो रही है ताकि नए पौध का आगाज हो!

हालांकि कांग्रेस के लिए इस तरह का संकट नया नहीं है। इंदिरा गांधई के नेतृत्व को भी ऐसी ही चुनौती मिली थी लेकिन तब इंदिरा के पास सत्ता की ताकत थी लेकिन आज?

लगातार हारते चुनाव से भले ही कई लोग हताशा में चले गए है लेकिन कांग्रेस में अभी भी ऐसे लोग हैं जो कांग्रेस में जान फूंकने की ताकत रखते है, हर गांव में कांग्रेस को चाहने वाले हैं, इस सबके बावजूद इस सच्चाई से कतई इंकार नहीं है कि चुनावी राजनीति में जीत ही महत्वपूर्ण है और लगातार पराजय ने कांग्रेस के भीतर उथल-पुथल मचा दी है। हालांकि कुछ लोग इसके पीछे की वजह कांग्रेस के उन नेताओं पर दोष मढ़ते हुए बताते हैं कि कई नेता सिर्फ सत्ता और रुतबे के जाल में इतना फंस चुके है कि उन्हें स्वयं के हित के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता और ऐसे ही लोग नये लोगों के लिए एक इंच जमीन छोडऩे को तैयार नहीं है ऐसे में गुटबाजी और अंर्तकलहर को संभाल पाना तब और मुश्किल हो जाता है जब आप लगातार चुनावी राजनीति में पराजित हो रहे हो।

राजस्थान में सचिन पायलट मान गये तो सब ठीक हो गया वरना  उसका भी हश्र मध्यप्रदेश की तरह तय था। ऐसे में ज्योतिरादित्य सिंधिया की स्थिति को लेकर भले ही कांग्रेसी खुश हो ले लेकिन इससे गई सत्ता तो वापस होने वाली नहीं है।

तब सवाल यही उठता है कि कांग्रेस नेतृत्व आखिर किस तरह से संगठन चलाना चाहती है। क्या सिर्फ राहुल और प्रियंका के भाग दौड़ से ही कांग्रेस की वापसी हो सकेगी या नेतृत्व इस बात का इंतजार कर रही है कि मोदी सत्ता की गलतियों से जनता उन्हें सत्तासीन कर देगी?

कांग्रेस की स्थिति इसी से समझा जा सकता है कि पिछले चार साल में 170 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी? ऐसे में नेतृत्व की कमजोरी पर सवाल तो उठेंगे ही?