जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आपदा में अवसर की बात कही थी तब भी वे लोग ताली बजा रहे थे, जो हिन्दू कुंठा से ग्रस्त थे, उन्हें तो मोदी की हर बात अच्गछी लगती है चाहे वह कितना भी अधार्मिक हो या अनैतिक हो। ये वे लोग है जो ईवीएम के विरोध को भाजपा का विरोध मानते हैं और भाजपा के विरोध को देश का।
खैर बात यहां महामारी में आपदा में अवसर की बात पर ही चर्चा होनी चाहिए क्योंकि ये बात प्रधानमंत्री ने कहा थी और उसका परिणाम कालाबाजारी से लेकर निजी अस्पतालो में दिखाई देने लगा है। बहुत पहले शायद स्कूल के दिनों में कहीं सुना था कि आपदा में अवसर नहीं सेवा ही धर्म होना चाहिए और कोई भी लोकतांत्रिक और सेवाभावी जनसेवक महामारी में आपदा में अवसर की बात नहीं कर सकता लेकिन तब मेरे इस बात को लेकर भक्तों ने मुझसे लड़ाई भी कर ली थी और कुछ तो आज भी बात नहीं करते।
तब यह भी कहा गया कि महामारी जैसे आपदा में अवसर की प्रतिज्ञा गिद्ध, सियार और लकड़बग्घे करते हैं, उनके लिए महामारी से प्रभावित लाशें शानदार दावतें होती है और ये उनके लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। जिस देश में एक व्यक्ति के सुख और दुख में पूरा गांव का गांव, या मोहल्ला का मोहल्ला शामिल होता है वहां महामारी के आपदा में उत्सव की बात कोई सोच भी कैसे सकता है लेकिन अंधेर नगरी, अंधेर राजा की कहानी भी याद न हो तो फिर पढऩे-लिखने का मतलब ही क्या है?
आपदा में अवसर की तलाश ज्यादातर वे लोग करते हैं जिनके खून में व्यापार है। और यह बात जब कोई स्वयं स्वीकार कर ले तो याद कीजिए 1965 और 1971 का वह युद्ध जब कुछ व्यापारी कालाबाजारी कर आपदा में अवसर का लाभ ले रहे थे। लेकिन तब सत्ता ने सेवा को धर्म बताकर कितने ही व्यापारियों के हृदय परिवर्तन किये थे लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री ही आपदा में अवसर जैसे शब्दों का प्रयोग करेगा तो उसका परिणाम क्या होगा?
लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही कालाबाजारी और अब निजी अस्पतालों की लूट से आम जनमानस में भय व्याप्त है। भयमुक्त शासन का कहीं पता नहीं है। लेकिन हमारा आज भी मानना है कि आपदा में अवसर की तलाश करने की बजाय आपदा में सेवा धर्म किया जाए!