शनिवार, 28 मार्च 2020

कितने घरों में चूल्हा नहीं जला ! बता पाओगे सरकार ...






उस दिन अचानक लक्ष्मण मेरे पास आया और कहने लगा गांव जाऊंगा, गाड़ी-मोटर बंद है? कैसे करूं।
मैंने पूछा लिया- क्या करेगा वहां जाकर यहीं रह। सरकार कुछ न कुछ व्यवस्था कर देगी।
नहीं महराज! इंहा अड़बड़ तकलीफ हे फेर जीना मरना जेन होही अपन घर दुवार में होवय तो बने हे। ऐसा कहकर लक्ष्मण ने कहा कोई रास्ता है तो बताईये।
मैंने भी इधर उधर फोन लगाया जब जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो मैंने भी कह दिया पता करता हूं धैर्य रख। तब तक तेरे खाने पीने का इंतजाम कर दूंगा। वह चला गया।
रात्रि भोजनपरांत मैं टहलने निकला तो संजय शुक्ला जो मेरे बचपन का मित्र था उसके साथ टहलते-टहलते अचानक लॉक डाउन की स्थिति पर चर्चा होने लगी। अभी मैंने सिर्फ इतना ही कहा था कि रोज कमाने खाने वालों के लिए सरकार ने कुछ उपाय किये बिना लॉक डाउन कर दिया।
तो संजय बोल पड़ा हा वो लक्ष्मण है न। वह पूछ रहा था कि तिल्दा के पास उसका गांव है पैदल कितने घंटे में पहुंच जायेगा मैंने भी कह दिया, सुबह से निकलोगे तो शाम तक पहुंच ही जायोगे।
मैं चौका! आखिर लक्ष्मण और उसका परिवार 50-60 किलोमीटर पैदल कैसे जायेगा। बच्चे छोटे हैं। मन खिन्न हो गया। लक्ष्मण को मैं तीन साल पहले पहली बार तब देखा जब वह मीडिया सिटी में मेरे मकान के लिए ठेकेदार ने चौकीदार बना कर रखा था। तब से मकान बनते तक वह सपरिवार पास ही रहा। उसके बेटे को मैंने ही निजी स्कूल में भर्ती करवाकर फीस कम करवाया था। तब से वह भी मुझे ही नहीं मीडिया सिटी के सभी पत्रकारों की ईज्जत करता था। छोटा मोटा निजी काम कर देता था। जो दो रख लेता था।
पैदल जाने की उसकी सोच ने मुझे भीतर तक हिला दिया। सुबह-सुबह उसके पास पहुंचा तो उसके जाने की तैयारी पूरी हो गई थी। स्वाभिमानी भी था वह। इसलिए मदद नहीं ले रहा था। मनाने की सारी कोशिशें विफल होते देख, मैंने फिर कुछ लोगों से गांव छोडऩे की बात की। अंतत: वह इस बात के लिए तैयार हो गया कि बच्चों को मोटर सायकल में मैं छोड़ दूं दोनों पति-पत्नी पैदल चले जायेंगे।
इस वाक्ये को बताने का मेरा मकसद यही है कि देश में 10 करोड़ से अधिक लोग खाने-कमाने एक राज्य से दूसरे राज्यों में जाते हैं और अचानक लॉक डाउन से उनकी तकलीफ को कौन समझे?
विदेशों में गये लोगों के लिए सरकार ने हवाई जहाज की सुविधा फिर घर तक पहुंचाने की सुविधा कर दी लेकिन इन गरीबों तक सुविधा तब पहुंची, जब देर हो चुकी थी। कितने ही परिवार मासूम बच्चों के साथ दर्जनों मिल चल चुके थे। न उनके पैर के छालों की चिंता थी न उनके भूख प्यास की। लॉक डाउन यानी लॉक डाउन।
यह सच इसलिए भी कह रहा हूं कि कुछ राजनैतिक पार्टी के लोगों ने सरकार की भूमिका पर सवाल उठाने पर मेरी आलोचना करते हुए कहा है कि यह वक्त आलोचना का नहीं चुपचाप घर बैठने का है लेकिन कोई इस त्रासदी में घर में तो बैठ सकता है लेकिन चुप कैसे रह सकता है।
सवाल तो उठाने ही होंगे वरना सरकार कब अपने से व्यवस्था करती है। यदि अपने से व्यवस्था की होती तो हजारों लोगों को भूखे प्यासे यूं ही पैदल नहीं चलना पड़ा। जो राजनैतिक पार्टी के लोग अपनी सरकार के पक्ष में खड़े हैं उन्हें मैं खड़ा होने से नहीं रोकूंगा लेकिन क्या वे इस बात के लिए आवाज उठाने तैयार है कि जो इस घातक चीनी वायरस के ईलाज में जूझ रहे डॉक्टर नर्स को जरूरी मास्क, सेनेटाइजर व अन्य जरूरी मेडिकल सामग्री भी सरकार उपलब्ध नहीं करा पा रही है। चौक-चौराहे से गली-मोहल्लों तक ड्यूटी बजा रहे पुलिस व सफाई कर्मी को आवश्यक चीजें उपलब्ध कराने में सरकार क्यों असफल है।
सरकार को जानने का मैं कोई दावा नहीं करता लेकिन इतना तो जानता हूं कि सरकार तभी जागती है जब लोग सवाल उठाते हैं। लक्ष्मण जैसों की बात को आप भूल भी जाईये तो कोई राजनैतिक दल के सदस्य ये बता सकते हैं कि बड़े व्यापारियों ने इस विषम परिस्थिति में खाद्यानों की कीमत क्यां बढ़ा दी और सरकार लगाम क्यों नहीं लगा पा रही है।
चलों कोई दलदल में फंसे लोग ही सरकार से यह जान ले कि तमाम सूचना तंत्र होने के बाद भी किसी सरकार ने यह पता किया की लॉक डाउन के बाद कितने घरों में चूल्हा नहीं जल रहा और कितने ऐसे लोग हैं जो होटल में खाते थे जिन्हें डबलरोटी या मिक्चर से पेट भरना पड़ा।
जब सरकार के पास यही जानकारी नहीं होगी तो सवाल उठेंगे ही। और सवाल उठते रहेंगे।