सोमवार, 22 मार्च 2021

पिछले दरवाजे से आरक्षण पर प्रहार !

 

केन्द्र सरकार जिस तरह से निजीकरण को लेकर कदम बढ़ा रही है, उससे न केवल देश का लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रहार हो रहा है बल्कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर भी हमला है। यह सीधे-सीधे आरक्षित वर्ग पर हमला है और आरक्षण पर प्रहार है।

निजीकरण का मतलब मोटे तौर पर भले ही आर्थिक स्थिति को बताया जा रहा है लेकिन यह संघ की उस विचारधारा का एक रुप है जो आरक्षण की खिलाफत करता है। हैरानी तो इस बात की है कि निजीकरण को लेकर पार्टी के भीतर बैठे आरक्षित वर्ग के लोग भी खामोश है जबकि निजीकरण से सर्वाधिक नुकसान इन्ही आरक्षित वर्ग के लोगों को है।

इस देश में संविधान लागू करते हुए आरक्षण का प्रावधान इसलिए किया गया था ताकि अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों को समानता का अधिकार मिल सके, इन वर्गों के गरीब लोग, सुदूर गांव और जंगल में रहने वाले वंचित लोग शहरों में रहने वाले लोगों से शिक्षा, नौकरी और राजनीति में बराबरी का दर्जा प्राप्त कर सके।

लेकिन आरक्षण की खामियां गिनाकर इसका विरोध करने वालों की कमी नहीं है। यह सच है कि आरक्षण के नियमों में कुछ खामियां है लेकिन इन खामियों की वजह से सभी को इसके लाभ से वंचित करना न तो उचित है और न ही देश की एकता के लिए सही है।

राष्ट्रीय सेवक संघ की नीति रही है वह आरक्षण की खामियां गिनाते रही है और इसकी समीक्षा करने की बात कहते रही है, आरक्षण विरोधी चेहरे मौन है यह भी किसी से छिपा नहीं है लेकिन जिस तरह से अब आरक्षण पर प्रहार होने लगे है वह संविधान की मूल भावना पर प्रहार है।

हम यह नहीं कहते कि संविधान पर उंगली उठाने वाले या तिरंगा को अशुभ बताने वालों में देशभक्ति की कमी है लेकिन एक बात तो तय है कि यदि निजीकरण हुआ तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान अजा जजा वर्ग के लोगों को ही होगा। कुछ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की कमजोरी पर प्रहार कर पूरे संस्थानों को बदनाम करने की नीति की वजह से ही निजीकरण को लेकर आम लोग खामोश है लेकिन सच तो यह है कि निजीकरण से असमानता का अंतर और बढ़ जायेगा। निजीकरण को लेकर जिस तरह से बैंक कर्मी आंदोलित है, बीमा कर्मी आंदोलित है यह सिर्फ उन संस्थानों तक ही सिमट कर रह गया है जबकि निजीकरण से जिन्हें सर्वाधिक नुकसान होना है उस अजा जजा वर्ग के नेता इसके गंभीर परिणाम से कैसे अनजान रह सकते हैं।

किसान आंदोलन भी इसी निजीकरण के खिलाफ है। तीनों कृषि कानून से निजीकरण का ही मार्ग प्रशस्त हो रहा है तब भला टुकड़ों में हो रहे आंदोलन का मतलब क्या है।

हैरानी तो इस बात की है कि आरक्षण के खिलाफ पिछले दरवाजे से हो रहे इस प्रहार पर कांग्रेस सहित तमाम राजनैतिक दल भी खामोश है ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था और मूल्यों का क्या मतलब है यह समझा जा सकता है।