मंगलवार, 2 मार्च 2021

आयशा और स्त्री...


नदी जानती है स्त्री का दर्द, वह सभी का दर्द जानती है, इसलिए वह बाहें फैलाकर चलती है और आयशा भी शायद यह जानती थी, इसलिए उसने अपनी अंतिम यात्रा के लिए साबरमती को चूना। इससे पहले उसने अपने पिता से भी बात की। वह शायद अपने पिता पर भी बहुत भरोसा करती थी। बेटी का पिता से प्यार कौन नहीं जानता लेकिन पितृ सत्ता वाले समाज में वे भी असहाय रहे होंगे?

घटना हिला देने वाली है, लेकिन यह सिर्फ क्षणिक भावुकता तक ही सीमित रह जाता है। फिर शांत और और पितृ सत्ता की दबंगई में किसी आयशा का इंतजार होगा? पत्रकारिता के दौर में मेरे सामने कई घटनाएं हुई, हर घटना के बाद आक्रोश के बाद शांति फिर पुनरावृत्ति, भारतीय समाज की प्रवृत्ति हो चली है।

इस घटना में जितना आयशा का पति दोषी है शायद उससे ज्यादा वह समाज भी दोषी है जिसने औरत को पंगु बना दिया है। देखने में यह सिर्फ दहेज नजर आता है लेकिन इसकी जड़ ी दमन है जिस पर कोई नहीं बोलना चाहता? कोई प्रहार नहीं करता क्योंकि पितृ सत्ता के आगे कुछ बोलना धर्म परम्परा का मुखालफत करना है।

दहेज प्रताडऩा को लेकर मैने जितनी भी रिपोर्टिंग की तो पाया कि महिलाओं का शादी के बाद कोई अपना घर नहीं है और पति के छोड़ देने का खतरा उसके मत्थे हर मां-बाप भाई बहन यह कहकर मढ़ देते है कि बेटी डोली में ससुराल जाती है और उसकी अर्थी...!

खैर यह सवाल समाज के सभी तपको को उठना चाहिए कि आखिर ियां जी कैसे लेती है! वाकई में इनकी तो नदी में कूद जाने की परिस्थितियां हर पल मौजूद है।

हालांकि ियों को लेकर बदलाव आये है लेकिन आज भी मां-बाप, भाई-बहन शादी करके बेटी को ऐसे रवाना करता है कि जा अब तेरा इस घर से कोई नाता नहीं है तू सिर्फ मेहमान होगी। हक तो सारा बेटों का है, गरीब से गरीब आदमी भी अपना झोपड़ा बेटा को ही देता है, कई तो एक चवन्नी भी देना नहीं चाहते। यहां तक की अमीर आदमी बेटी को करोड़ों की सम्पत्ति में से कुछ देना नहीं चाहता।

मुस्लिम समाज में तो और भी अजीब परम्परा है वहां तो तलाक के सारे अधिकार ही मर्दो के पास है और औरत का अधिकार सिर्फ वह मेहर है जिसे चार लोग बैठकर तय करते है, इस दौर में भी मेहर पचास हजार रुपये तक ही तय होते है। इतनी महंगाई में मेहर इतना कम है कि दूसरे दिन ही उतनी राशि हाथ में रखकर रवाना कर दे।

कैसी विडम्बना है कि पिता विरासत में हिस्सा देना नहीं चाहता और पति मेहर देकर कभी भी खिसका दे। अब सोचिये कि कोई इस परिस्थिति में कैसे जीये?

उसे अकेले रहने की स्वतंत्रता नहीं है पिता हिस्सा देना नहीं चाहता। पिता कहता है ससुराल में ही रह पति कहता है मेहर पकड़ भाग जा? कहां जाए। यहां कोई धर्म का फर्क नहीं है औरतें हर जगह इसी तरह से प्रताडि़त और पीडि़त है। ये हो सकता है कि हिन्दू औरतों के मुकाबले मुसलमान औरते ज्यादा प्रताडि़त होगी या इससे उलट होगा। हालांकि इस्लाम के नियम में मुस्लिम औरतों के लिए यह सुविधा है कि वे ससुराल में पति के मां-बाप की सेवा करने बाध्य नहीं है लेकिन?

दरअसल इन सारी समस्याओं की जड़ सिर्फ पैसा है। ऐसे में यदि दहेज में चार बर्तन देने की बजाय यदि सम्पत्ति का मालिक बना दिया जाय तो मामला कुछ और होगा! शादी जीवन-मरण का समझौता तभी होगा जब दोनों पक्षों के पास पैसा होगा या गरीब लड़कियां अपने पैरों में खड़ होने की ताकत रखेंगी। यदि औरतों के पास पैसा होगा और किसी ने उसे छोड़ा तो जिस औरत की जेब में पैसा होगा उससे कौन शादी नहीं करेगा?

ऐसे में आयशा का नदी की गोद में समा जाना जारी रहेगा और हम हर विलाप के बाद फिर एक आयशा को देखते रह जायेंगे!