सोमवार, 24 मार्च 2014

भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से परहेज?


लोकसभा चुनाव को लेकर राजनैतिक दलों की सत्ता की भूख थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। जिसे देखो वहीं सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधन कर रहा है या फिर अनैतिक कार्य कर रहा है। सारे सिद्धांतो को तिलाजंलि देकर जिस तरह से चुनाव जीतने की कोशिश हो रही है वह न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि दुखद भी हैं।
पिछले दस सालों से सत्ता में बैठी कांग्रेस को निशाना बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाने की बजाय जिस तरह से नरेन्द्र मोदी को सामने रखकर चुनावी वैतरणी वार करना चाहती हैं वह भाजपा के राजनैतिक सुचिता पर तो सवाल खड़ा करते ही है कथनी और करनी के अंतर को भी स्पष्ट कर देने वाला है।
सत्ता के लिए कुछ भी करेगा मेरी मर्जी के आगे आम जनमानस हैरान है। अपराध से लेकर भ्रष्टाचार करने वालों को टिकिट देने वाले दलों से सत्ता प्राप्ति के बाद यह उम्मीद बेमानी है कि वे ऐसे लोगों के दबाव में आये बगैर जनहित में कार्य कर पायेंगे।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंंत्र के राजनेताओं की सत्ता भूख के आगे जनता की बेबसी स्पष्ट है कि वह आखिर किस दल पर भरोसा करे। जो लोग कांग्रेस से उम्मीद छोड़ चुके है उनके सामने भाजपा को लेकर भी वहीं सवाल है। आखिर दोनों दल किस मामले में अलग है। कुर्सी की दौड़ में जिस बम उधर हम की अफरा तरफी स्पष्ट है और भ्रष्टाचार जैसा भयावह मुद््दा जाति धर्म के आगे दम तोड़ता दिख रहा है।
यूपीए के खिलाफ चुनाव पूर्व माहौल को भुनाने की बजाय भाजपा ने जिस तरह से दूसरे दलों से आने वालों को टिकिट दी है और मोदी के भरोसे चुनावी वैतरणी पार करने की कवायद की है उससे लोगों का भरोसा भाजपा से भी डिगा है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
सिर्फ मोदी के भरोसे दलबदल करने वाले या आपराधिक छवि वालों को टिकिट देकर जीत का सपना कहीं एक बार फिर भाजपा को सत्ता से दूर ही रखे तो भाजपाईयों को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
इस मामले में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी या ममता बेनर्जी और बिजू जनता दल ही कुछ अलग राजनैतिक संदेश तो दे रहे हैं लेकिन यह कहना कठिन है कि इनकी स्वीकार्यता कितनी है।
यही वजह हैं कि पिछले दो दशक यानी 1984 के बाद से किसी भी दल ने 272 का जादुई आकंड़ा नहीं छु सका है। दलबदल करने वालों की हार और अपराधिक छवि वालों को टिकिट देने का दुस्परिणाम को नजर अंदाज करने की भूल ने ही जनता को मजबूर किया है कि वह किसी एक दल पर भरोसा न करे।
भले ही ऐसे नेता चुनाव जीत रहे हो पर सच तो यह है कि इस तरह के लोगों को टिकिट देने का दुष्परिणाम आखिल भारतीय स्तर पर पड़ता है जिसे नजरअंदाज किया जाता रहा है।
बकौल अरविन्द केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस ने मिल बैठकर सत्ता हासिल कर रहे  हैं। ये राजनैतिक दलाली है जिसके खिलाफ हर व्यक्ति को आगे आना चाहिए तभी लोकतंत्र स्थापित होगा। क्या यह स्पष्ट नहीं दिखता इससे परे कांग्रेस और भाजपा की राजनीति है? यह सवाल केजरीवाल ने भले उठाये हो पर मोदी बनाम राहुल की लड़ाई से असल मुद्दो गौण करने की कोशिश इस सवाल पर उत्तर है।