गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

दबाव के आगे कार्रवाई रूकी

घोटालेबाजों का जमाना महाधिवक्ता है सुराना - 6
पार्टी के प्रति निष्ठा के चलते देवराज सुराना ने महाधिवक्ता पद का सफर कर लिया हो पर विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ रही है। धम कमाने में कानूनी दांव पेंच ने नैतिकता का तो किनारे किया ही परिवार की महिला सदस्य भी कानूनी दांव पेंच में फंस गई। अब जब सरकार को जेब में रखने का दावा हो तो फिर प्रशासन से उम्मीद बेमानी हो जाती है। यही सब कारण है कि आम लोगों का कानून से भरोसा उठने लगा है।
महाधिवक्ता पद तक पहुंचने देवराज सुराना व उनके परिजनों पर दर्जनभर से अधिक मामले ऐसे हैं जो उन्हें सीधा कटघरे पर खड़ा करता है लेकिन शासन-प्रशासन कानूनी पेचदगीयों में इस कदर उलझी है कि कार्रवाई की आस में लोग अपना सिर धुन रहे हैं। जब मंदिर की जमीनों को बेचने-खरीदने में दुनियाभर के नियम कानून है तब सुराना परिवार के नानेश बिल्डर्स द्वारा गोपियापारा स्थित श्री हनुमान मंदिर की भाठागांव स्थित बेशकीमती जमीन का घोटाला कैसे कर लिया गया। इस संपूर्ण मामले में भाजपा सरकार की भूमिका पर भी जांच होनी चाहिए जब जोगी शासनकाल में इस पर बंदिश लगाई गई थी तब आनन-फानन में डॉ. रमन सरकार में इस जमीन की खरीदी बिक्री की अनुमति कैसे दी गई।
इस मामले में फर्जी मुख्तियार नामा से लेकर खरीदी बिक्री में जो घपले हुए उस पर कार्रवाई की बजाए प्रशासनिक स्तर पर लीपापोती की गई। जिस कलेक्टर ने इसकी बिक्री को रोका उसी ने अचानक सरकार बदलते ही रजिस्ट्री की अनुमति कैसे दे दी। इस पूरे मामले का जांच प्रतिवेदन भी समझने योग्य है कि किस तरह से जांच प्रतिवेदन में तहसीलदार और उपपंजीयक के विरुध्द कार्रवाई की बात कही गई लेकिन अचानक सारा मामला भूला दिया गया। इस जमीन की रजिस्ट्री के बाद जब विवाद बढ़ा तो इसे रामसागर पारा के सुशील अग्रवाल और रवि वासवानी को बेचा गया। इन लोगों के नामांतरण की फाईल जब तहसीलदार ने रोकी तो कैसे नानेश बिल्डर्स ने दूसरे के नाम रजिस्ट्री के बाद अपने नाम डायवर्सन करा लिया।
हिन्दूवादी पार्टी का दंभ भरने वाली भाजपा ने श्री हनुमान मंदिर की बेशकीमती जमीन पर खेले गए खेल को कैसे चुपचाप देखते रही। यह सब ऐसा सवाल है जिसका जवाब सरकार को देना ही होगा। बहरहाल इस पूरे मामले की राजधानी ही नहीं न्यायधानी में भी जमकर चर्चा है और आने वाले दिनों में इसका खामियाजा भी भुगतना पड़े तो आश्चर्य नहीं है।

आदिवासी अधिकारियों ने भी रमन के खिलाफ मोर्चा खोला

आयोग से शिकायत, पदोन्नति से वंचित
आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग को लेकर भले ही भाजपा के आदिवासी नेताओं की मुहिम फेल हो गई हो लेकिन अब आदिवासी अफसरों ने अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर सरकार के लिए नई मुसिबत खड़ी कर दी है। करीब आधा दर्जन आदिवासी अधिकारियों ने पदोन्नति में भेदभाव का आरोप लगाया है और इनमें से कुछ ने आयोग में शिकायत तक कर दी है।
भाजपा में आदिवासियों की उपेक्षा को लेकर आदिवासी नेता पहले ही नाराज हैं। नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर से लेकर रामविचार नेताम ने समय-समय पर सरकार के खिलाफ खड़ा होने की कोशिश की है यहां तक कि आरक्षण कम किए जाने को लेकर भी आदिवासी नेता नाराज हैं। ऐसे में आदिवासी होने की वजह से पदोन्नति नहीं देने का आरोप डॉ. रमन सिंह को भारी पड़ सकता है और इस मामले में यदि कांग्रेस खड़ी हुई तो मामला तूल पकड़ सकता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार अपनी उपेक्षा को लेकर डॉ. राजमणि, डॉ. आर.आर. मंडावी और डॉ. आर.एन. नेताम ने आयोग से शिकायत की है कि आदिवासी होने के कारण उन्हें पदोन्नति से वंचित किया जा रहा है। आयोग में की गई शिकायत काफी गंभीर है और इसका परीक्षण चल रहा है। डॉ. राजमणि रायपुर में पदस्थ हैं वहीं डॉ. आर.आर. मंडावी कांकेर में हैं।
सूत्रों ने बताया कि तीन-तीन अधिकारियों के द्वारा आयोग से की गई शिकायत पर फिलहाल सरकार में बेचैनी है और वह यह जानने में लगी है कि कहीं इसके पीछे राजनीति तो नहीं है। बहरहाल आदिवासी अधिकारियों के इस नए आरोप से एक तरफ जहां सरकार बेचैन है वहीं कांग्रेस के इसे मुद्दा बनाने से नई मुसिबत का अंदेशा भी है।