शनिवार, 31 मार्च 2012

बेलगाम जन प्रतिनिधि...


छत्तीसगढ़ में विधानसभा हो या नगर निगम, जनप्रतिनिधियों ने अपनी मर्यादा भूला दिया है। लोकतंत्र के मंदिर माने जाने वाले विधानसभा में जब मुख्यमंत्री जैसे पदों पर बैठे लोग संयमित नहीं होंगे तो फिर पार्षद व पंच-सरपंचों से किस तरह की उम्मीद की जा सकती है।
छत्तीसगढ़ के विधानसभा के इस बजट सत्र में जिस तरह से सरकार के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने कांग्रेसाध्यक्ष नंद कुमार पटेल पर टिप्पणी की वह बेहद गैर जिम्मेदाराना ही नहीं शर्मनाक भी है हालांकि कांग्रेसियों के विरोध के बाद उनकी टिप्पणी को विधानसभा से हटा दिया गया और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने क्षमा भी मांग लिया और मामला शांत हो गया लेकिन सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री जैसे पदों पर बैठे लोगों को इस तरह की हरकत करनी चाहिए। और जब सरकार चलाने वाले ही ऐसी भाषा का प्रयोग करेंगे तब विपक्ष से क्या उम्मीद की जानी चाहिए।
राजनीति में प्रतिद्वंदिता अलग बात है लेकिन इसे लेकर गाली-गलौच या दुश्मनी भुनाना गलत है। आने वाले दिनों में इसके परिणाम अच् छे नहीं होने वाले है। ऐसा नहीं है सत्ता पक्ष की इन हरकतों के लिए पहली बार क्षमा या शार्मिन्दगी जैसी बात हो। पहले भी सत्ता पक्ष के सदस्यों की वजह से भाजपा को जवाब देना मुश्किल हुआ है लेकिन इस बार यह सब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से हुआ है जिनसे प्रदेश की जनता को ऐसी अपेक्षा नहीं रही है।
आखिर यह स्थिति क्यों निर्मित हुई? क्या सचमुच रमन राज में अधिकारियों पर कंट्रोल नहीं रह गया है, भ्रष्टाचार का पैसा या सत्ता का दंभ तो इसकी वजह नहीं है। अमूमन डॉ. रमन सिंह शांत व सौम्य माने जाते है उनकी छवि जिस तरह से गढ़ी गई है उसके बाद उनकी जुबान से अपशब्द की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। लेकिन ऐसा हुआ तो यह ठीक नहीं है।
हालांकि कांग्रेस इसे अपनी सफलता मान रही है। कांग्रेसियों में यह चर्चा है कि जिस तरह से डॉ. रमन के मुंह से अपशब्द निकले है वह उनके बुरी तरह घिर जाने का बौखलाहट है। इधर नगर निगम में भी पार्षदों ने जिस तरह की हरकत की है वह निगम के लिए काला दिन साबित हो रहा है। अपनी बातें जोरदार ढंग से रखना अलग बात है लेकिन बात रखने के लिए धमाचौकड़ी व गुण्डई पर उतर जाना ठीक नहीं है। यह परम्परा यहीं खतम होनी चाहिए न केवल विधानसभा अध्यक्ष बल्कि निगम के सभापति को जनप्रतिनिधियों की क्लास लेनी चाहिए। अन्यथा दूसरे राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ भी पूरे देश के सामने शर्मसार होगा।

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

सिर्फ पकड़े गये, सजा नहीं दिला पाये...


प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पिछले दिनों आर्थिक अपराध ब्यूरो और एंटी करप्शन ब्यूरों की कार्रवाई की जो रिर्पोट विधानसभा में दी वह न केवल शर्मनाक है बल्कि सरकार के क्रियाकलापों की कलई खोलती है। मुख्यमंत्री ने जिस अंदाज में आर्थिक अपराध ब्यूरों द्वारा दर्ज 99 वें से 2 मामले ही निपटाने की बात कही इससे तो यही लगता है कि सरकार की रूचि भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने में हैं।
छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है सरकार के मुखिया ही जब आर्थिक अपराध व एंटी करप्शन टीम की कार्रवाई पर खामोश है तो इसका सीधा संदेश है कि सरकार ही नहीं चाहती कि ऐसे लोगों पर कार्रवाई हो जो जनता की सुविधा के लिए या राज्य के विकास पर डाका डालने में लगे हैं। यदि साल भर में प्रकरण निपटाने की गति 1-2 प्रतिशत है तो यहां तैनात लोगों पर कार्रवाई होनी चाहिए कि आखिर वे किसका इंतजार कर रहे हैं।
इस पूरे मामले को दुर्भाग्यजनक पहलू तो ये है कि इन दोनों संस्था ने जिन लोगों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किये है उन्हें सरकार आज भी महत्वपूर्ण पदों पर बिठा रखी है। यह ठीक है कि प्रकरण दर्ज कर लेने मात्र से कोई अपराधी नहीं हो जाता लेकिन जब दोनों ही ब्यूरों सरकार की एजेंसी हैं तब सरकार को अपनी एजेंसी पर भरोसा कर भ्रष्ट लोगों को ऐसे काम में तो न लगाये जहां उनके गफलत करने की संभावना है।
मुुख्यमंत्री के अनुसार सर्वाधिक प्रकरण लोक निर्माण विभाग से संबंधित है। ऐसे में निर्माण कार्य में आरोपियों की पदस्थापना क्यों बंद नहीं होनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ का यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि जो जितना बड़ा भ्रष्ट है उसे उतनी बड़ी जिम्मेदारी दी गई है। स्वयं मुख्यमंत्री के विभाग में ऐसे भ्रष्ट लोगों का जमावड़ा है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जिस तरह से सर्वाधिक राजस्व वाले खनिज, उर्जा जैसे विभाग को अपने पास रखा है वैसे ही इन विभागों में भी बड़े-बड़े मगरमच्छ जमें हुए हैं। विद्युत नियायक आयोग के अध्यक्ष मनोज डे पर लगे आरोप कितने गंभीर है यह किसी से छिपा नहीं है। ओपन एक्सेस घोटाले पर तो कोई कुछ कहना ही नहीं चाहता और खनिज को लेकर तो चौतरफा लूट मची है। उद्योगों को खदान देने व अवैध उत्खनन के बढ़ते मामले ने छत्तीसगढ़ जैसे शांत प्रदेश में माफिया गिरी को जन्म दे दिया है। राजधानी के आसपास गौण खनिजों की खुले आम डकैती हो रही है जबकि उद्योगों को तो अवैध उत्खनन का ठेका देने जैसी स्थिति बन गई है। अनिल लूनिया जैसे लोगों को सिर्फ रायल्टी वसूली की नोटिस दी जाती है और उद्योगों में रिश्तेदारों को नौकरी लगाये जा रहे हैं।
ये सब छत्तीसगढ़ के लिए ठीक नहीं है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जिस तरह से विधानसभा में ब्यूरों के आंकड़े दिये हैं उसके बाद तो ऐसा नहीं लगता कि सरकार की कार्रवाई में कोई रूचि हैं।

गुरुवार, 29 मार्च 2012

vah re nigam


चौतरफा लूटखसोट...


इन दिनों छत्तीसगढ़ में मची चौतरफा लूट खसोट के चलते आम आदमी हैरान, परेशान है कि आखिर इस शांत प्रदेश का भविष्य क्या होगा। एक के बाद एक लूट डकैती व हत्या ने जहां पुलिस से आम लोगों का भरोसा उठा है। वहीं मंत्रियों व अधिकारियों के भ्रष्टाचार के चलते सरकार से भी मोह उठने लगा है।
खेती की जमीनों की बरबादी में लगी इस सरकार ने भले ही गरीबों के लिए कुुछ अच्छी योजनाएं चला रखी हो लेकिन इस राज में कार्रवाई तो पैसा देखकर ही किया जा रहा है। चपरासी लेकर सचिव, सिपाही से लेकर डीजी और पंच से लेकर मुख्यमंत्री के क्रिया कलापों पर जिस तरह से उंगली उठने लगी है वह इससे पहले कभी देखने को नहीं मिला।
ऐसा नहीं है कि लोगों की चर्चा का विषय सिर्फ रमन सरकार की करतूत है केंद्र में भी बैठी मनमोहन सरकार की करतूतों की कहानी भी जुबान चढऩे लगी है। सरकार चलाने के नाम पर लूट और बेलगाम होते नौकरशाह के चलते आम आदमी क्या करें इस बात को लेकर लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है जो न तो लोकतंत्र के लिए ठीक है और न ही सरकार चलाने वालों के लिए ही उचित है।
जिस प्रदेश में यह चर्चा चल निकले कि आखिर ईमानदार क्या करें? यह भयानक रूप कभी भी ले सकता है। राजधानी में ही काम्प्लेक्सों में पार्किंग नहीं है। और पुलिस चालान काटने में व्यस्त है ऐसे में कब तक ऐसे काम्प्लेक्सों के प्रति गुस्सा काबू में रहेगा। खनिज माफिया पड़ोसी राज्य में हत्या कर रहे हैं और यहां भी सरकार से छूट मिली हुई है। आखिर अनिल लूनिया जैसे दबंग लोगों को सरकार बचाते रही तो आम लोग अपने को कब तक ढांढस देते रहेंगे। कचहरी चौक जैसे व्यस्ततम इलाके में राजीव गांधी काम्प्लेक्स पर सिर्फ इसलिए कार्रवाई नहीं हो रही है कि ये लोग पहुंच रखते हैं और जानबुझकर पुलक भट्टाचार्य जैसे अधिकारियों की पदस्थापना कराते हैं ताकि कोई कार्रवाई न हो और जब भी ऐसी बात उठे गरीबों पर कार्रवाई कर ध्यान बंटा दें। वायदा कारोबारी मन्नू नत्थानी का मामला हो या सैकड़ों बच्चों की जिन्दगी से खेलने वाले डाल्फिन के राजेश शर्मा का मामला हो।
आखिर जनता की सब्र की परीक्षा कितने देर ली जा सकती है। पहले ही राजनीतिक दलों ने ेआम लोगों को बांट रखा है। पैसे व पद के मोह में एक बड़ा वर्ग वहीं करता है जो उसकी पार्टी का नेता कहता है। आम आदमी की तकलीफ  से सरकार को कितना लेना देना है यह लोग भी देख रहे हैं। आंदोलन कारी पर लाठिया बरसाई जा रही है या उन्हें जेल में ठूंसा जा रहा है। जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वालों पर डकैती का जुर्म दर्ज होने लगा है। और विधानसभा में ऐसे मुद्दों का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।
चौतरफा मचे इस लूट खसोट इस प्रदेश को कहां ले जायेगी यह तो वक्त की बात है लेकिन आज जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं हो रहा है।

बुधवार, 28 मार्च 2012

ये छत्तीसगढ़ है साहब...


पिछले दिनों नवरात्रि शुरू होते ही कुशालपुर में भाजपा नेताओं की मौजदूगी में हुए अश्लील नृत्य पर भले ही यह कहकर भाजपा अपना पल्ला झाड़ ले कि ऐसा तो यूपी बिहार में होता ही रहता है लेकिन हम बता दें कि ये छत्तीसगढ़ है? इसे कम से कम यूपी बिहार तो न बनाओं?
छत्तीसगढ़ की संस्कृति से खिलवाड़ के बाद जिस तरह से इस भगवा डांस पर लीपापोती हो रही है वह न केवल दुर्भाग्यजनक है बल्कि छत्तीसगढ़ को शर्मसार करने के लिए काफी है। पहले ही अपनी जीयो और जीने दो की संस्कृति के चलते लुटेरों को अपनी गोद में बिठाने का दंश झेल रहे। छत्तीसगढिय़ों के गाल पर यह तमाचा नहीं तो और क्या है?
हम किसी भी राज्य के उनके अपने नाचे गाने की परंपरा का विरोध  नहीं करते और न ही उन्हें छत्तीसगढ़ी संस्कार व संस्कृति अपनाने के लिए बाध्य ही करते हैं लेकिन फूहड़ता व अश्लीलता का हम विरोध करते है चाहे वह किसी भी संस्कृति का हो।
छत्तीसगढ़ में विस तेजी से अपराध बढ़े हैं। जिस तेजी से जमीनों पर कब्जे की कवायद हुई है इन सबके पीछे कौन है न तो किसी को बताने की जरूरत है और न ही समझाने की। हम नहीं चाहते कि छत्तीसगढ़ में ऐसी गंदी हरकतों के चलते राज ठाकरे व मनसे जैसे लोगों को सर उठाने का मौका मिले। इस शांत प्रदेश में विकास की असीम संभावना है और यहां आने वाले किसी भी राज्य के लोगों के लिए छत्तीसगढ़ पनाहगार ही नहीं बसने के लिए सर्वोत्तम जगह है लेकिन उन्हें यह सोचना होगा कि उनकी किसी भी गलत हरकत से क्षेत्रियता को हवा मिले।
भाजपा के लालबत्ती धारियों ने भले ही यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि यूपी बिहार में यह आम बात है लेकिन मेरा दावा है कि यूपी बिहार में भी इस तरह के नृत्य का समर्थन संस्कारवान लोग नहीं करेंगे। गलत बातों को शब्दों की चासनी चढ़ाकर परोसने की कोशिश बंद होनी ही चाहिए अन्यथा इससे दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे?
इस मामले को यहीं समाप्त करने सरकार व भाजपा को भी कड़ा रुख अख्तियार करना  चाहिए अन्यथा इस कालिख के छींटे से वे भी नहीं बच सकेंगे।

मंगलवार, 27 मार्च 2012

चोर-चोर मौसेरे भाई...


पता नहीं यह कहावत कब बनी और किस संदर्भ में बनी लेकिन 1980 के लोकसभा के चुनाव में यह नारा जन-जन तक पहुंचा था और तभी से राजनीतिक दलों पर यह जुमला फिट बिठाया जाने लगा।
टीम अन्ना के आंदोलन को लेकर भले ही एक बहुत बड़ा तबका उनके साथ है लेकिन जिस तरह से प्रभावी लोकपाल को लेकर राजनैतिक दलों का नजरिया है वह घोर आश्चर्यजनक है। आखिर गरीबी और महंगाई से मुक्ति के लिए भ्रष्टाचार पर अंकुश क्यों नहीं लगाना चाहिए? कड़े से कड़ा कानून क्यों नहीं बनना चाहिए? आखिर संसद में पहुंचने वालों के चाल चेहरा और चरित्र क्यों ठीक नहीं होना चाहिए?
दरअसल भ्रष्टाचार की प्रमुख वजह नहीं तलाश करना ही सारी समस्याओं का जड़ है। अन्ना के प्रभावी लोकपाल के कई मुद्दों से हम सहमत नहीं है लेकिन इस बात पर हमारी सहमति जरूर है कि लोकपाल संसद में ही बने और इस देश में संसद का स्थान सर्वोच्च है।
वास्तव में चाहे राज्य की सरकार हो या केन्द्र की कुछ चीजे कर लेनी चाहिए। संतुलित विकास के लिए मुख्यालयों को राजधानी में रखने की बजाय जिलों में कर देना चाहिए? इसी तरह प्रत्येक सरकारी कर्मचारी वह चाहे किसी भी स्तर का हो उनके लिए संपत्ति की घोषणा नौकरी के पहले ही दिन से अनिवार्य हो और वहीं बात सरपंच से लेकर संसद सदस्यों के लिए भी लागू कर देना चाहिए?
इसी तरह चुनाव लडऩे वालों की जमानत राशि को लेकर भी नियम होने चाहिए। जिस देश में एक बहुत बड़ा तपका गरीबी में या दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद में लगा रहता हो वहां 5 हजार रुपये जमानत राशि रखना उन्हें सीधे-सीधे उनके चुनाव लडऩे के अधिधकार से वंचित करना नहीं तो और क्या है?
सवाल यहीं है कि आखिर इसे लागू कैसे किया जाए। जब जमानत राशि बढ़ाने में राजनीतिक दलों की साजिश हो और भ्रष्टाचार में उनकी सीधे लिप्तता हो तब आम आदमी इसे लागू कराने क्या करें।
इन दिनों अंसतुलित विकास के चलते देश भर में जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं। और यह आंदोलन तो कहीं कहीं हिंसक रूप भी ले चुका है ऐसे में सरकार को चाहिए की वह नये सिरे से इस बारे में सोचे?
एक कहानी चर्चित है कि जब हिटलर के द्वारा लगातार हमले किये जा रहे थे, हर देश यह सोच कर चुप हो जाता था कि ये हमले वहां हो रहे हैं हमें क्या करना है और अंत में जब उस पर हमले हुए तो वह अकेला खड़ा था।...

सोमवार, 26 मार्च 2012

वाह रे राजधानी पुलिस

 कल ही विधानसभा में चित फंड कंपनी का मामला उठा है लेकिन राजधानी पुलिस को तो यह नजर नहीं आ रहा है जबकि इस कंपनी का कहना है हम पैसा देतें हैं

इन सवालों के जवाब?


छत्तीसगढ़ की राजधानी इन दिनों गर्म है। एक तरफ विधानसभा के चलते राजनैतिक लाभ की कवायद हो रही है तो दूसरी तरफ शासकीय कर्मचारी, आंगनबाड़ी से लेकर मितानिनों ने भी मोर्चा खोल दिया है। पहले ही सतनामी समाज के गुस्से पर मरहम लगाने की कोशिश में लगी सरकार के सामने आदिवासी समाज पर हुए लीठाचार्ज का कोई जवाब नहीं है। आईपीएस राहुल शर्मा की खुदकुशी पर सरकार  की भूमिका पर तो सवाल उठ ही रहे हैं। अब वन मंत्री के जंगल कटाई से लेकर भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने में सरकार पर सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस का हल्ला बोल से सरकार सांसत में है।
सत्ता में आने के बाद भाजपा से जिस तरह की उम्मीद की जा रही थी। वह पूरी नहीं होने के बाद भी भाजपा दूसरी बार सत्ता में आई तो मोटे तौर पर इसकी दो वजह थी। बस्तर सहित आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस का सुपड़ा साफ होना और कांग्रेस के नेताओं की आपसी लड़ाई।  लेकिन दोनों ही मुद्दे पर भाजपा दूसरे कार्यकाल को भुना नहीं पा रही है।
वैसे तो हर पार्टियां भ्रष्टाचारियों से लबरेज है। मंत्री से लेकर अधिकारी लूट खसोट में  लगे है। यह हाल छत्तीसगढ़ में भी अलग नहीं है। इस सबके बाद यदि यूपी में मुलायम सिंह की पार्टियों  के लोग सत्ता  पर आ सकते हैं तो छत्तीसगढ़ में भी चुनाव परिणाम पर अचरज नहीं करना चाहिए।
इन दिनों छत्तीसगढ़ में जिस तरह की सरकार चल रही है कायदे से ऐसी सरकारों को बने रहने का कोई हक नहीं है लेकिन लोकतंत्र में संख्या बल ही महत्वपूर्ण है। हमने इसी जगह पर सैकड़ों सवाल उठाये है कि आखिर पीआर नाईक मनोज डे या फिर बाबूलाल अग्रवाल जैसों को क्यों बचाया जा रहा है। वनमंत्री के रिश्तेदारों की जंगल कटाई पर सरकार क्यों चुप है? अवैध प्लाटिंग व अवैध कालोनियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों रुक जाती है और एसपी राहूल शर्मा के मामले में सरकार प्रताडऩा का जुर्म दर्ज क्यों नहीं कर रही है। क्या कचहरी चौक स्थित राजीव गांधी कांप्लेक्स इसलिए नहीं तोड़े जायेंगे क्योंकि यहां मुख्यमंत्री के खास आदमी का दफ्तर है या व्यवसायिक काम्प्लेक्सों में पार्किंग के नाम पर आम आदमी सिर्फ इसलिए परेशान होंगे क्योंकि काम्प्लेक्स बनाने वाले सत्ता में दखल रखते हैं। कितने ही ऐसे सवाल हैं जिसके जवाब आम लोग ढूंढ रहे है। ऐसी ही सवालों का जवाब नेताओं के लिए गाली बनकर निकलता है। हालांकि हम इस तरह की हरकतों  के खिलाफ हैं और किसी भी तरह के ऐसे आंदोलन को समर्थन नहीं कर सकते जो कानून अपने हाथ में ले। लेकिन सरकार को भी सोचना होगा कि वह जन आक्रोश उपजने से पहले जनता के सवालों का जवाब दे।

रविवार, 25 मार्च 2012

मंत्री हैं इन्हें कौन रोक सकता है...!

मंत्री हैं इन्हें कौन रोक सकता है...!
यह तो बाढ़ के ही खेत चरने की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना प्रदेश के कथित साफ सुथरी छवि के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के वनमंत्री विक्रम उसेंडी के परिवार वालों के द्वारा जंगल नहीं काटे जाते। सत्ता के मद में डुबे मंत्रियों के द्वारा जिस तरह से दबंगई दिखाया जा रहा है वह आने वाले दिनों की भयावह तस्वीर खींचने के लिए काफी है।
पहले ही साल बीज मामले में आरोपियों को बचाने पैसा खाने के आरोप लग चुके वन मंत्री विक्रम उसेंडी के परिवार वालों के द्वारा 15 हेक्येटर जंगल सफा चट करने के इस मामले ने नया मोड ले लिया है।
वनमंत्री के विधानसभा क्षेत्र कोयलीबेड़ा से लगे 15 हेक्टेयर से ज्यादा घने जंगल में जिस बेद्र्दी से कुल्हाड़ी चलाई गई है उसके बाद तो उन्हें वनमंत्री के पद पर बने रहने का कोई अधिकार हही नहीं रह जाता। लेकिन यहां सब चलता है। खासकर छत्तीसगढ़ में जो जितना बड़ा चोर उसे उतने ही बड़े पद पर नवाजे जाने की परंपरा के चलते जल जंगल और जमीन का भरपूर दोहन हो रहा है।
पहले ही वेदांता से लेकर कई उद्योगों ने यहां के जंगल को कम नुकसान नहीं पहुंचाया है, अवैध उत्खनन के चलते माफिया राज कायम हो रहा है और सरकार तमाशाबीन है ऐसे में परिवार वालों ने दबंगई दिखा दी तो इसे दूसरे अर्थों में लिया जाना चाहिए।
वन मंत्री के परिजनों की यह दबंगई भी दब जाती यदि कोयलीबेड़ा के ग्रामीण इस मामले में हाथ धोकर या यूं कहें कि नहा धोकर पीछे नहीं पड़े होते।
अब यहां शिकायतों की जांच के नाम पर लीपापोती होने लगी है वैसे भी जब पूरे मामले में वनमंत्री के रिश्तेदार शामिल हो तब वन विभाग के अधिकारियों की इतनी मजाल नहीं है कि वे सच्चाई  से रिपोर्ट तैयार करें।
इस मामले की शिकायत मुख्यमंत्री से भी की गई है लेकिन जब से मनोज डे व बाबूलाल अग्रवाल या पीआर नाईक को ऊंचे पदों पर बिठाने से परहेज नहीं करते तब भला वनमंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई कर पायेंगे।
मंत्रियों की हरकतों से आम लोग हैरान है। पवित्र मंदिर माने जाने वाली विधानसभा में जब उन्हें फटकारना पड़ता हो तब भला इस मामले में कोई क्या कर पायेगा।
पहले ही बस्तर के आदिवासी जल-जंगल और जमीन के मसले से परेशान है। ऐसे में जब वन मंत्री के परिवार वाले ही जंगल की बलि लेने लगे तो आम आदमी के पास सिवाय आंदोलन के क्या रास्ता बचता है।

शनिवार, 24 मार्च 2012

खेल अधिकारियों का ,सहयोग सरकार का

खेल अधिकारियों का ,सहयोग सरकार का

छोटे चोर...चोर, बड़े साहूकार...!


छत्तीसगढ़ सरकार ने विधानसभा में स्वीकार किया है कि एस्सार सहित के द्वारा 2006 से पानी चोरी कर रही है। इससे पहले उद्योगों द्वारा जबरिया जमीन कब्जे व मनमाने ढंग से बोर कराने की घटना हो चुकी है। और जब से भाजपा सत्ता में आई है। उद्योगों के प्रति मेहरबानी ने आम आदमी का जीना दूस्वार कर दिया है। प्रदूषण से लेकर पानी और जमीनों को कब्जा करने की कवायद को सरकार मदद कर रही है। कहा जाये तो गलत नहीं होगा।
सरकार में बैठे मंत्रियों के अलावा अधिकारियों के द्वारा भी उद्योगों को भरपूर मदद की जा रही है और आम आदमी पानी के गिरते स्तर, प्रदूषण और छिने जा रहे जमीन से नारकीय जीवन जीने मजबूर है। प्रदेश में अधिकारियों द्वारा उद्योगों को मदद करने के एवज में अपनी जेबे भरी जा रही है और धंधे बाज नेताओं को तो आम लोगों से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है।
राजधानी में स्थित आईएएस आईपीएस के लिए बने मौली श्री विहार तो उद्योगपतियों के एय्याशी का अड्डा बन चुका है। कई अधिकारियों ने अपने बंगले उद्योगों को रेस्ट हाउस के लिए किराये पर दे रखा है। और किराया भी इतनी है जिसकी कल्पना बेमानी है।
विधानसभा में एस्सार द्वारा 2006 से पानी चोरी की बात स्वीकार करने वाले मंत्री रामविचारर नेताम कार्रवाई पर चुप रहे गये। जबकि अपनी खेती को बचाने नहर में पानी चोरी करने वाले किसानों को तत्काल पुलिस में दे दिया जाता है। प्राय: अधिकांश उद्योग पानी के लिए हुए समझौते का उल्लंघन कर समझौते से अधिक दोहन कर रहे हैं और मनमाने ढंग से बोर करवा रहे हैं। मनमाने ढंग से बोर करने से औद्योगिक क्षेत्रों से लगे गांवों में जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है और पानी को लेकर एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई है।
कोल ब्लॉक के आबंटन को लेकर घिरी कांग्रेस की सरकार में धंधेबाज नेताओं को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है और यहां तो अधिकारी से लेकर नेता धंधे में लगे हैं तो सरकार अपने को बदनामी से कब तक बचायेगी या 1-2 रुपया चावल या अन्य बांटों योजना से आम आदमी को कब तक बरगलाया जा सकता है।
वेदांता से लेकर एस्सार जैसी बड़ी कंपनियों ने जिस तरह से खुले आम नियम कानून का उल्लंघन किया है उसके बाद तो सरकार को इन्हें बंद करवाने में एक मिनट नहीं लगाना चाहिए लेकिन उद्योग लगाने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा जिस तरह से अधिकारियों व नेताओं के रिश्तेदारों को ओब्लाईज किया जाता है उसके बाद तो उन पर कार्रवाई हो पाना संभव ही नहीं दिखता।
छत्तीसगढ़ में उद्योगों की करतूतों पर सरकार ने विराम नहीं लगाया तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते है। खेती की जमीन से लेकर पानी तक में कब्जे की कयावद के बाद हवा को जिस पैमाने पर प्रदूषित किया जा रहा है यहां के कई क्षेत्रों में जीना दूभर हो सकता है। वक्त रहते सरकार को ठोस कदम उठाना ही होगा वरना आम आदमी अपनी हक के लिए सड़क पर जब भी आयेंगे उन्हें जवाब देना मुश्किल हो जायेगा।

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ये है सरकार का हाल

ये है सरकार का हाल

प्रदर्शन में असामाजिक तत्व


छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर का कहना है कि आदिवासी समाज के प्रदर्शन में असामाजिक तत्व घुस आये थे इसलिए आंदोलन हिंसक हो गया। ऐसा नहीं कि किसी प्रदर्शन या आंदोलन के हिंसक हो जान पर असामाजिक तत्व के शामिल होने की बात कहने वाले के इकलौते सत्ताधारी नेता है। इससे पहले जब भी आंदोलनकारियों पर पुलिस ने लाठियां लहराई है सत्ता पक्ष के लोग इसी जुमले का इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ एक और जुमला प्रचलित है विरोधियों द्वारा भड़काना!
राजनीति में आंदोलनों को कुचलने के बाद चाहे किसी की सरकार हो इस तरह से पुलिस व सरकार को बचाने की कोशिश हमेशा ही होते रही है। और यह सवाल इस जुमले में दब जाता है कि आखिर कोई आंदोलन हिंसा का रूप कब लेता है। ये बात सच है कि प्राय सभी आंदोलन में इस तरह के लोग होते हैं जो अपनी मांग तत्काल मंगवाने के  चक्कर में जोशीला भाषण देते हैं। लेकिन ऐसे लोगों  को असामाजिक तत्व या विरोधियों की साजिश करार देने से काम नहीं चलेगा।
जिस तरह से सरकारें लूट खसोट में लगी है नेता से लेकर अधिकारियों में गलत ढंग से पैसा कमाने की भूख बढ़ी है यह उसी का परिणाम है कि लोगों में गुस्सा गले तक भर गया है। इसका यह कतई मतलब नहीं है कि कोई अपनी मागे पूरी कराने के लिए हिंसा का सहारा लें। हम किसी भी तरह के हिंसा के खिलाफ है और हिंसा के खिलाफ लिखते रहेंगे।
लेकिन जिस तरह से अधिकारी व नेता लगातार आम लोगों का हक छिनकर इस देश को लुटने में लगे हैं तब आम आदमी के पास इसके सिवाय क्या रास्ता है? गफलत करने वालों को सजा न मिलने और लूट के सिलसिले में आम आदमी का जीवन नाटकीय होता चला जाए तब आखिर कोई कितनी बर्दाश्त करेगा।
हम पहले ही यहां लिख चुके हैं कि सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को राजधानी का मोह  त्याग कर संतुलित विकास पर ध्यान देना चाहिए।
एक तरह राजधानी में तमाम सुविधाओं के लिए कार्पोरेट सेक्टर से समझौते किये जाते हैं और दूसरी तरफ आम आदमी को पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में गुजरना पड़ रहा है।
लगातार उपेक्षा और संघर्ष के बीच क्रोध को आखिर कोई कितने दिन दबा कर रख सकता है। सरकारी धनों व संसाधनों के दुरूपयोग पर आखिर कोई कितने दिन अपनी आंखे बंद करेगा। अब तो देश की राजधानी  से चौपाल तक भ्रष्टाचार के किस्से आय हो गये हैं जिन पर भरोसा किया जा रहा है वहीं लूट खसोट में लगे हैं। ऐसे में ईमानदारी से जीवन जीने वाले क्या करें. गरीबों के हक मारकर अपने लिए ऐशो आराम का इंतजाम क्या साजिश और हिंसा नहीं है। खुद गृहमंत्री ने विधानसभा में अपनी सरकार की करतूतों पर बेबाक बोल चुके हैं। मुख्यमंत्री के गृह जिले के कलेक्टर एसपी को वे खुद दलाल व निकम्मे का तमगा दे चुके हैं। शराब माफियाओं से 10 हजार में थाने बिकने की बात तो वे विधानसभा में स्वीकार कर चुके हैं। और अब टूजी के बाद कोयला का मामला क्या आज लोगों को उद्देलित नहीं करेगा तब यदि कुछ घटना हुई तब भी इससे साजिश या असामाजिक तत्वों की हरकत कही जायेगी।

गुरुवार, 22 मार्च 2012

हां सरकारी स्कूल में पढऩे वाले नक्सली बनते हैं


हालांकि श्री श्री रविशंकर जी ने अपनी बातों से पलटी खा रहे हैं और खुद को सरकारी स्कूल का छात्र भी बतला गये। लेकिन आज इस पर बहस इसलिए जरूरी है क्योंकि वे बात जब चर्चा का विषय बन चुका है।
हम भी मानते हैं कि किसी स्कूलों में बढऩे वाले बच्चे कभी नक्सली नहीं बन सकते क्योंकि निजी स्कूल में वहीं पढ़ते हैं जिनके घर खाने-पीने की इतनी सुविधा तो होती ही है कि भूखा मरने की नौबत न आये। लेकिन सरकारी स्कूल में पढऩे वाले बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिन्हें सरकार स्कूलों में दाल-भात न दें तो स्कूल ही न जा सके। हथियार वहीं उठाते हैं जिनका जीवन संघर्षमय होता है और यह निजी स्कूलों के बच्चों में कहां मिलेगा।
इस देश में सरकारी स्कूलों की स्थिति बदहाल है हम इस पर चर्चा फिर कभी कर सकते हैं फिलहाल तो चर्चा श्रीश्री रविशंकर जी के उस विचार पर करना जरूरी है जो निजी स्कूलों के माफियाओं के लिए मददगार हो सकती है। यह तो इंटरनेट के जमाने की वजह से इस पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई और श्रीश्री रविशंकर से लेकर रामदेव बाबा तक यह कहने लगे कि आशय यह नहीं था।
दरअसल हमें देश के बाबाओं पर कभी इस बात का भरोसा ही नहीं रहा कि वे देश सुधारेंगे। वरना उनके पीछे लगने वाली भीड़ जो ज्यादातर ऐसे लोगों की होती है जो गलाकाट कर पैसा कमाने में भरोसा करते हैं, कब के सुधर गये होते।
भले ही धर्म को अफीम बताने वाले की आलोचना होते रही हो लेकिन वास्तविकता इससे परे नहीं। सत्ता और पैसे वालों की गोद में बैठने वाले बाबाओं को इन दिनों राजनीति करने का भूत सवार है। इंदिरा गांधी के जमाने के धीरेंद्र ब्रम्हचारी से लेकर चन्द्रा स्वामी और अब तक के सफर में हमने बड़े से बड़े बाबाओं को देखा लेकिन इनमें से किसी ने हमारे पौराणिक कथाओं में विद्यमान ऋषि मुनि सा नहीं है जो महलों को छोड़ कुटिया का ही अतिथ्य स्वीकार करते थे।
वैसे पैसे वालों के बीच प्रवचन करते बाबाओं में भी पैसे की भूख तो बढ़ी ही है उनकी सोच भी पूंजीवादी हो गई है। उन्हें निजी स्कूलों की न तो बुराई दिखती है और न ही अपराधियों के साथ घुमने में ही परहेज लगता है। रायपुर प्रेस क्लब में ही रामदेव बाबा के साथ बैठे धन्नासेठ की हकीकत पर बाबा के पास कोई जवाब नहीं था।
वैसे भी हमें इन बाबाओं पर समाज सुधारने का भरोसा नहीं है। इसलिए श्रीश्री रविशंकर ने ऐसा नहीं कहने का दावा लाख कर लें लेकिन हम जानते हैं कि अभाव में रहने वाले अभिभावक के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। और जब समाज और सरकार से न्याय नहीं मिलता तो वे अपनी आखरी ताकत पत्थर या बंदूक उठाने में लगाते हैं।
निजी स्कूल तो वहीं खुलते हैं जहां उनकी कमाई हो सके। इसलिए सरकारी स्कूल को बंद करना एक पूरे ऐसे वर्ग के साथ नाइंसाफी होगी जो पहले ही सामाजिक रुप से प्रताडि़त है।

मंगलवार, 20 मार्च 2012

सरकारी नौटंकी बनता ग्राम सुराज


एक बार फिर रमन सरकार ने 18 अप्रैल से ग्राम सुराज अभियान चलाने की घोषणा कर दी है। सालों से चल रहे इस अभियान अब सिर्फ  एक नौटंकी और पिकनिक मनाने का जरिया बनता जा रहा है जहां चौपाल में बैठकर पूरी सरकार राजनैतिक फायदे की कोशिश में लगे रहती हैं। सरकारी धन का राजनैतिक फायदे के दुरूपयोग का यह एक अनोखा मामला है जिस पर हर साल लाखों-करोड़ों रुपये फूंके जाते हैं। डॉ. रमन सिंह ने शहर सुराज शुरू करने की भी घोषणा की थी लेकिन यह नहीं हो सका क्योंकि पढ़े-लिखे लोगों के बीच किसी भी तरह की राजनैतिक नौटंकी आसान नहीं है।
पिछले सालों के ग्राम सुराज की सफलता का सरकार कितना भी दावा कर ले लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकला है। ग्राम सुराज के नाम पर दो-चार दर्जन गांवों की समस्या सुनना, कुछ घोषणाएं करने के अलावा कभी दो-चार शासकीय कर्मियों पर निलंबन की तलवार लटकाने भर से व्यवस्था बदल चुकी होती तो दशक भर से ज्यादा चल रहे इस अभियान के नतीजे कुछ और ही होते।
ग्राम सुराज, सरकार की फिजूलखर्ची के सिवाय और कुछ नहीं है। ग्रामीणों की समस्या विधायक, मंत्री व कलेक्टर के माध्यम से सरकार तक पहुंच ही जाती है तब सरकार चाहे तो बगैर जाये कार्रवाई कर सकती है। ज्यादातर गांव वालों की मांगे भी पुरानी ही होती है जिसे भी पूरा किया जा सकता है। लेकिन तब करोड़ों रुपये फूंकने का खेल और उसमें कमीशनबाजी से मिलने वाली राशि का क्या होगा।
छत्तीसगढ़ में विधानसभा की 90 सीटों में से 50-51 पर भाजपा के लोग ही बैठे हैं वे क्या अपने क्षेत्रों की समस्याओं से रुबरू नहीं है, क्या वे लोग अपनी भूमिका का निर्वहन ठीक से नहीं कर रहे, तो फिर ग्राम सुराज की आवश्यकता क्यों है। क्या दो-चार दर्जन गांवों की समस्या हल कर देने से सब ठीक हो जायेगा? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब सरकार के पास नहीं है।
दरअसल सरकार की मंशा ही कुछ और है। वरना सरकार को नहीं मालूम है कि किस गांव में पानी, बिजली और ईलाज की समस्या से गांव वाले जुझ रहे हैं या सरकार को पता नहीं है कि कौन से स्कूल का शिक्षक या पटवारी से गांव वाले परेशान है। क्या सरकार नहीं जानती कि किस थानेदार, कलेक्टर और एसपी के संरक्षण में अपराध फल-फूल रहा है। या वह यह नहीं जानती कि उसके कौन-कौन से अधिकारी व कर्मचारी दागी हैं जो जहां जायेंगे अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेंगे।
जब सरकार राजधानी जैसी जगह में बाबूलाल अग्रवाल, मनोज डे जैसे लोगों को गोद में बिठा कर रखी है तब भला वह ग्रामीण क्षेत्रों  में किस तरह से साफ सुधरे व ईमानदारों की पोष्टिंग करती होगी।
ग्राम से ज्यादा जरूरी शासकीय विभाग में सुराज कार्यक्रम  चलाने की जरूरत है ताकि भ्रष्ट लोग महत्वपूर्ण पदों पर न बैठ सके।

अधिकारियों की मनमानी से त्रस्त है पुलिस कर्मी


रायपुर। पुलिस मुख्यालय में पदोन्नति से लेकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं कराने को लेकर जबरदस्त लेनदेन का खेल चल रहा है। अधिकारियों की मनमानी के चलते सिपाही से लेकर निरीक्षक तक प्रताडि़त हैं और इसकी कोई सुनवाई भी नहीं होती। ऐसे में प्रताडऩा  के शिकार पुलिस कर्मियों से बेहतर उम्मीद करना बेमानी है।
आईपीएस राहुल शर्मा ने आत्महत्या के बाद वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा प्रताडि़त किये जाने की खबर को लेकर बिहिनिया संझा ने जब पुलिस मुख्यालय में दस्तक  दी तो वहां का हाल देखकर हम हैरान रह गये। गुटबाजी में बुरी तरह उलझी पुलिस अधिकारियों के पास अपनी कुर्सी बचाने के अलावा कोई काम ही नहीं रह गया है। एक दूसरे को निपटाने में लगे अधिकारियों की मनमानी से सिपाही तक अचरज में पड़ गए हैं और वे ऐसे किस्से हमें बताये जिसका प्रमाण जुटाना संभव नहीं होने की वजह से छाप पाना मुश्किल है। लेकिन यहां नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पोस्टिंग नहीं करवाने  जमकर लेनदेन का खेल चलता है। सर्वाधिक दुखद स्थिति तो वरिष्ठता सूची बनाने की है जिसमें इतनी घपलेबाजी की जाती है कि इसके शिकार पुलिस कर्मियों की मानसिक स्थिति भी बिगड़ सकती है। ऐसा ही एक मामला सहायक उपनिरीक्षक से निरीक्षक बने रमेश कुमार निषाद का है। जानकारी के मुताबिक पुलिस मुख्यालय ने रमेश कुमार निषाद को एसटी कोटे से पदोन्नति देकर उपनिरीक्षक बना दिया। लेकिन नरेश कुमार ने इस पदोन्नति को यह कहकर लेने से मना कर दिया कि वह सामान्य श्रेणी का है इसलिए इसे सुधारा जाए। विभाग ने उसका नाम हटा तो दिया लेकिन किसी और का नाम नहीं जोड़े जाने से आरक्षण नियमों की न केवल अनदेखी हुई बल्कि पदोन्नति की लाईन में खड़े एसटी वर्ग के किसी एक सहायक उपनिरीक्षक का हक मारा गया।
बताया जाता है कि इस पदोन्नति सूची में कई लोगों के साथ ऐसा ही हुआ जिसकी वजह से वे प्रताडि़त हुए। अफसरों के सामने वे ज्यादा इसलिए भी नहीं बोल पाये कि उनका सीआर खराब न हो जाए।
अब रमेश को उसकी ईमानदारी की सजा मिलने लगी। जब उसने अपने को सामान्य बताकर एसटी कोटे के लिस्ट से नाम हटवाया तो नियमानुसार उसका प्रमोशन 2008 में होना था लेकिन 2008 की सूची जब निकली तो उसका नाम इसमें यह कहकर शामिल नहीं किया गया कि उसे 2006 में एसटी कोटे से पदोन्नति दे दी गई है जबकि रमेश ने 2006 में पदोन्नति नहीं ली थी।
बताया जाता है कि रमेश सहित तीन चार और लोगों के साथ यह घटना हुई थी और रमेश ने जब अपनी स्थिति अधिकारियों के सामने रखी तो उसकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। और साल भर चक्कर लगाने के बाद उसे 2009 में पदोन्नति दी गई।
ईमानदारी की इस सजा के चलते उसे 2008 से 2009 यानी पूरे एक साल मानसिक रूप से न केवल प्रताडि़त होना पड़ा बल्कि अपने साथियों से यह भी सूनना पड़ा की कि ले ईमानदारी की सजा भुगत।
अब सवाल यह है कि इस मानसिक प्रताडऩा की बात तो दूर पदोन्नति सूची में गड़बड़ी करने वालों पर कभी कार्रवाई नहीं हुई। वह लड़ाई लड़कर अपना हक पा लिया लेकिन कहा जाता है कि ऐसे कई लोग हैं जो विभागीय प्रताडऩा का शिकार है और गनीमत है कि इनमें से किसी ने राहुल शर्मा जैसा  कदम नहीं उठाया है वरना जब राहुल शर्मा के सुसाईडल नोट के बाद कार्रवाई  नहीं हो रही है तो इनका क्या होता?

सोमवार, 19 मार्च 2012

कब्जे की जमीन को जब लोगों को खाली कराना पड़ा


आजकल एडीशनों के चक्कर में कई खबरें सभी नहीं पड़ पाते हैं। ऐसी ही चारामा की एक खबर है जो सरकार में बैठे भ्रष्ट लोगों के लिए करारा जवाब है। आईपीएस राहुल शर्मा की मौत के बाद हुई इस घटना ने भी सिस्टम पर उतने ही सवाल उठाये हैं जितने राहुल शर्मा की आत्महत्या पर उठे हैं।
चारामा की यह घटना छोटी घटना नहीं है। यहां भाजपा के एक दमदार नेता अशोक ठाकुर ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर करोड़ों रुपये की कीमती जमीन पर कब्जा कर लिया था। लोगों ने जब शिकायत की तो भी प्रशासन की तरफ से कोई खास पहल नहीं हुई यहां तक कि कब्जा खाली कराने गये अनुविभागीय दंडाधिकारी एनके सोनी की यहां पिटाई तक हो चुकी थी और अशोक ठाकुर के खिलाफ मामला भी बना लेकिन मुख्यमंत्री के खास होने की वजह से एनके सोनी को शायद यह फरमान जारी हो गया कि यदि राजीनामा नहीं किया गया तो नौकरी से हाथ धो बैठोगे और श्री सोनी को राजीनामा करना पड़ा।
इसके बाद भी जब कब्जा नहीं हटा तो गोंडवाना समाज के बैनर तले लोगों के न केवल कब्जा हटाया बल्कि वहां बूढ़ादेव का मंदिर स्थापित करने भूमि पूजन भी कर दिया गया। सरकार के लिए राहत की बात यह हो सकती है कि कब्जा खाली कराने गये लोगों ने कोई जनहानि नहीं की अथवा मामला बिगड़ सकता था।
अनुविभागीय दंडाधिकारी जेएल सोनी ने किन परिस्थितियों में राजीनामा किया यह तो वहीं बता सकते हैं लेकिन जिस तरह से आम लोगों ने अशोक ठाकुर द्वारा जबरिया काबिज जमीन को खालीी करवाये हैं वह छत्तीसगढ़ के लिए गंभीर बात है जो आने वाले दिनों में तकलीफ देय हो सकता है।
राजधानी रायपुर ही नहीं समूचे छत्तीसगढ़ में यही स्थिति है और हर जगह लोग इसी तरह का आंदोलन कर बैठे तो हालात संभालना मुश्किल हो जायेगा। बालको मामले में सरकार की किरकिरी हो चुकी है और ऐसे कई उद्योग है जिन्होंने जबरिया जमीनों को कब्जा कर रखा है इसे समय रहते सरकार ने कब्जा मुक्त नहीं करवाया तो इसी तरह की दिक्कते हो सकती है। और फिर जरूरी नहीं है कि चारामा की तरह बाकी जगह शांतिपूर्ण कब्जा हट जाये।
चारामा की घटना से सरकार को सबक लेने की जरूरत है। आखिर कब्जाधारियों की राजनैतिक पहुंच से परेशान लोग कब तक चुप रहेंगे। फेस बुक में इस खबर की प्रतिक्रिया भी सरकार के लिए अच्छी नहीं है। ऐसे में अतिक्रमण व अवैध निर्माण को लेकर लोग सड़क पर उतरे या सीधी कार्रवाई करे इससे पहले सरकार को शीघ्र ही बड़ा निर्णय लेना होगा।

रमण सरकार का दमन अभियान



रमण  सरकार का दमन अभियान शुरू होगया है आज आदिवासियों की राजधानी में निर्ममता से पिटाई हुई

रविवार, 18 मार्च 2012

शनिवार, 17 मार्च 2012


बजट और बहस...
सच कहूँ तो पिछले कई सालों से मेरी रूचि बजट पर कभी नहीं रही इसकी वजह मुझे भी नहीं मालूम? या यूं कहूँ कि मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि सच कौन और झूठ कौन कह रहा है। सत्ता पक्ष बजट की तारीफ करते नहीं थकता और विपक्षी दल आलोचना चाहे सरकार किसी की भी रही हो।
इस साल भी केन्द्रीय और राज्य बजट को लेकर ऐसी ही प्रतिक्रिया है। हर साल महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षणों में प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है। सर्वेक्षण का क्या तरीका है जो हर साल प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी दिखाता है यह भी मेरे लिए यक्ष प्रश्न जैसा है।
सभी का कहना है कि यह दौर कठिन दौर है। लेकिन मैं जिस समाज में रहता हूँ वहां तो सालों से इसी दौर को देख रहा हूँ कुछ यह लोग गलत तरीके से पैसा कमा रहे हैं और जो लोग गलत रास्ता अख्तियार नहीं करते वे अपनी पूरी जिन्दगी संघर्ष करते गुजार रहे हैं।
बजट से आम आदमी को क्या फायदा और क्या नुकसान हो रहा है यह भी मैं नहीं समझ पाया? इस शहर ने तो देखा है कि कैसे अवैध कब्जों व अतिक्रमण ने शहर की व्यवस्था को चरमरा कर रख दिया है। सरकार किस तरह खेती की जमीन को लगातार उद्योगों या स्वयं के उपयोग के लिए नष्ट कर रही है। तालाब पाटकर कैसे काम्प्लेक्स खड़े किये जा रहे हैं और क्रांकिट के जंगल में तब्दिल होते लोगों के दिल भी क्रांकिट सा होता जा रहा है। क्या किसी सरकार के बजट में ऐसा प्रावधान हुआ है कि इससे मुक्ति मिलेगी?
इसका यह कतई मतलब नहीं है कि कानून में इसका प्रावधान नहीं है लेकिन जिस प्रदेश की आधी आबादी से ज्यादा लोग अपने व परिवार के दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हो कहां प्रति व्यक्ति आय 42 हजार से उपर कैसे हो सकता है। लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण ने यह कहा है तो होगा।
आम लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक व्यवस्था देने में सरकार की भूमिका क्या है? बजट में सिर्फ आवक-जावक की चिंता की जाती रही है और इन आंकड़ों के जाल में कौन सच कह रहा है। कौन झूठ? यह तो राजनीति करने वाले ही बता सकते हैं लेकिन बजट की राजनीति से परे हटकर भी बजट पर बहस होनी चाहिए।
हर बजट के पहले जमाखोरी और मुुनाफाखोरी के किस्से आम है लेकिन किसी भी सरकार ने इस दौरान अभियान चलाकर मुनाफाखोरी-जमाखोरी को रोकने की कोशिश नहीं की। बजट में तो कभी कोई  चीज सस्ती होते दिखाई नहीं दी लेकिन बाजार में कभी कोई चीज का दाम कम नहीं हुआ। कभी लचीला तो कभी किसानों का तो कभी चुनावी बजट न जाने क्या-क्या नाम दिये गये। सरकार की बजट विपक्षियों के आलोचना की शिकार होते रही है। ऐसे में आम लोग किस पर यकीन करें यह यक्ष प्रश्न है?
-कौशल तिवारी

किरण बिल्डिंग का बंद लिफाफा खुला घपला ही घपला, पर कार्रवाई नहीं


किरण बिल्डिंग का बंद लिफाफा खुला घपला ही घपला, पर कार्रवाई नहीं
किरण बिल्डिंग कांड की जांच रिपोर्ट में न केवल नियमों की अनदेखी की गई  है बल्कि निर्माण में भी जरबदस्त अनियमितता उजागर हुई है जांच समिति ने कार्रवाई की सिफारिश करते हुए कोटक बुक स्टाल व मोहन चाय वाले को भी दुकान आबंटित करने की सिफारिश की है लेकिन जांच रिपोर्ट सौंपे जाने के पांच माह बाद भी निगम द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।
उल्लेखनीय है कि सड़क चौड़ीकरण योजना में किरण बिल्डिंग को पीछे की जमीन लीज पर दी गई। पहले यह जमीन रेलवे के पास थी। इस मामले को लेकर नगर निगम की सामान्य सभा में जबरदस्त हंगामा हुआ और अंतत: इस पूरे मामले की जांच के लिए समिति बनाई गई। जांच समिति जग्गू ठाकुर की अध्यक्षता में बनाई गई जिसमें प्रमोद दुबे, सूर्यकांत राठौर, सुनील बांद्रे, दीनानाथ शर्मा और जसबीर सिंह ढिल्लन के अलावा संदीप बागड़े नगर निवेशक एस एल पटेल सहायक अभियंता और राजेश राठौर सहायक अभियंता को रखा गया है।
समिति को निगम द्वारा किरण बिल्डिंग से संबंधित सभी कागजात सौंपे गए। चूंकि किरण बिल्डिंग मामले में भारी अनियमितता की चर्चा पहले हो चुकी थी इसलिए इस मामले को ठंडे बस्ते में डालने का खेल भी हुआ।
बताया जाता है कि समिति को जांंच रिपोर्ट तैयार करने में ज्यादा समय नहीं लगा और जब जांच समिति ने निगम में अपनी रिपोर्ट 26-9-11 को रखी तो यह कहकर रिपोर्ट सार्वजनिक करने से मना कर दिया गया कि इसे आगामी बैठक में सार्वजनिक किया जायेगा तब तक इसे बंद लिफाफे में रखने का निर्णय लिया गया।
सूत्रों का कहना है कि किरण बिल्डिंग कांड के पीछे कई बड़े लोगों का हाथ है इसलिए भी जांच रिपोर्ट बड़े लिफाफे में रख दिया गया। कहा जाता है कि बंद लिफाफे में रिपोर्ट रखने के पीछे न केवल अपराधियों को बचाने की कोशिश की बल्कि मामले को ठंडा बस्ता में डालने का प्रयास भी था।
सूत्रों का कहना है कि नगर निगम के जिम्मेदार अधिकारी और बड़े लोग इस मामले को दबाने में कामयाब भी हो गए थे लेकिन तभी हमर संगवारी संस्था के इन्दरजीत छाबड़ा, राकेश चौबे व सर्वजीत सेन ने सूचना के अधिकार के तहत रिपोर्ट की कापी मांग ली। बताया जाता है कि बंद लिफाफा को निगम के अधिकारियों ने खोलकर देख लिया था और पूरे मामले को दबाने की जरबदस्त ढंग से कोशिश हो रही है। हमारे बेहद करीबी सूत्रों के मुुताबिक पुरे प्रकरण में जबरदस्त घपले बाजी हुई है और रिपोर्ट मिलने के 5 माह बाद भी कार्रवाई नहीं करने को लेकर लेनदेन की जबरदस्त चर्चा है। कहा जाता है कि इस मामले में नगर निवेशक संदीप बागड़े की भूमिका संदेहास्पद है। चूंकि नगर निवेशक के पद पर संदीप बागड़े है अत: कार्रवाई उन्हें ही करना है लेकिन उनकी चूप्पी को लेकर संदेह स्वाभाविक है।
बताया जाता है कि कन्हैया लाल से लेकर दिलीप नैनानी सहित यहां स्थित अन्य ने भी न केवल नक्शे के विपरित निर्माण कराया है बल्कि अतिरिक्त कब्जा भी किया है। संदीप बागड़े पर संदेह की उंगली उठने लगी है और चर्चा यह है कि निगम के अधिकारियों से लेकर जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों को भी इस मामले में चुप्पी के लिए खूब नोट बांटे गए हैं।

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

घटिया बायो गैस चूल्हा बांटने का औचित्य...


छत्तीसगढ़ सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी थमने का नाम ही नहीं ले जा रहा है। हालात यह है कि हर काम में अधिकारियों की जेब भरो नीति से रमन सिंह की छवि को आघात लग रहा है और मंत्री कमीशन खाकर ऐसे अधिकारियों का बचाव कर रहे हैं।
डॉ. रमन सिंह आम लोगों के हित की योजना बनाने कहते हैं और अधिकारी ऐसी योजना बनाते हैं जिससे उनकी जेब गरम हो। प्रदेश में आदिवासियों को बांटे जा रहे बायो गैस चूल्हा का भी यही हाल है। एनजीओ के माध्यम से बंटवाये गए इस चूल्हे से प्रदेश का करोड़ों रूपया अधिकारियों और एनजीओ के जेब में चला गया और आदिवासी इस खराब चूल्हे को लेकर सरकार को कोस रहे है।
प्रदेश सरकार की इस महत्वपूर्ण योजना के तहत 44 हजार 702 आदिवासी परिवारों को एनजीओ के माध्यम से बायो गैस चूल्हा बांटा गया और जब इसके खराब निकलने की शिकायत पर जांच हुई तो यह सही पाया गया। लेकिन कार्रवाई के नाम पर सिर्फ कोरबा और कोण्डागांव में एनजीओ का भुगतान रोक दिया गया। जबकि बाकी जगह पर जांच के नाम पर मामले को लटका दिया गया।
करोड़ों रूपये की इस महत्वाकांक्षी योजना को लेकर जिस तरह से बंदरबांट हुई है वह अंयंत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगा। इस मामले का सबसे रोचक पक्ष तो यह है कि कि बायो गैस चूल्हा बांटने का काम उन्हीं एनजीओ को सौंपा गया जिनमें अधिकारियों व नेताओं के रिश्तेदार हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्य जनक है कि आदिवासियों के नाम पर चल रही इस पूरी योजना को फ्लॉप करने वाले अधिकारी अभी तक कुर्सी पर जमें हुए हैं।
विकास की ओर बढ़ रहे छत्तीसगढ़ में जिस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है उसे रोक पाने में सरकार पूरी तरह विफल हो गई है। अधिकारियों की मनमानी चरम पर है। ईमानदारों को प्रताडि़त कर आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। उद्योगों को करोड़ों रूपये की छूट देकर आम आदमी के बिजली में बढ़ोत्तरी की जा रही है। मनोज डे से लेकर बाबूलाल अग्रवाल जैसे अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए हैं और जांच के नाम पर बड़े से बड़ा मामला लटकाया जा रहा है। एंटी करप्शन ब्यूरों की कार्रवाई बताती है कि अनुपातहीन संपत्ति वाले अधिकारियों की संख्या कहां तक जा सकती है लेकिन ऐसे छापों के औचित्य पर सरकार में बैठे लोग सवालिया निशान लगाने में आमदा है और कोर्ट में चालान पेश करने की अनुुमति ही नहीं दी जाती। हालात यह है कि कई मीडिया कर्मी दलाल के रूप में चर्चित होने लगे हैं।
बायो गैस चूल्हा वितरण में जिस पैमाने पर गड़बड़ी हुई है उसके लिए कड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो यह सिलसिला अंतहीन हो जायेगा...।
-कौशल तिवारी

बागड़े की बहादूरी मंत्री की लाचारी


यह तो जिसकी लाठी उसी भैस की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना नगर निवेशक संदीप बागड़े तीन-तीन विभागों की जिम्मेदारी नहीं संभाल रहे होते। उपर से तुर्रा यह है कि कभी फंसने की नौबत दिखी तो मामले से पल्ला झाडऩे उन्हें बखूबी आता है। भले ही ऐसे मामलों में विभाग को कितना भी नुकसान हो जाए। आश्चर्य का विषय तो यह है कि इस मामले में विभागीय मंत्री भी उसका कुछ नहीं करते हैं।
नगर निगम, टाउन एण्ड कंट्री और रायपुर विकास प्राधिकरण में अपना करतब दिखाने वाले संदीप बागड़े पर सरकार इतनी मेहरबान क्यूं है यह तो वहीं जाने लेकिन उनके कार्यकाल में हुए घपले की फेहरिश्त लोगों के जुबान चढ़कर बोलने लगी है।
ताजा मामला रजबंधा मैदान के ब्लॉक नंबर 9 के प्लांट नंबर 1 का है। वाणिज्यिक उपयोग के लिए दे दिया गया और जब इस मामले को लेकर हमर लंगवारी संस्था के इंदरजीत छाबड़ा, राकेश चौबे व संजय सोलंकी ने सूचना का अधिकार के तहत जानकारी मांगी तो अधिकारियों के होश गुम हो गये। चूंकि वाणिज्यिक उपयोग के पत्र मिलते ही यहां काम्प्लेक्स बनना शुरू हो गया है और वह पूरी तरह तैयार होने को है ऐसे में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में जब फंसने की नौबत आई तो नगर निवेशक संदीप बागड़े ने 8 फरवरी 2012 को जारी पत्र में कह दिया कि वाणिज्यिक उपयोग त्रुटिवश टंकित हो गया।
सूत्रों ने बताया कि इस जब पट्टा किसी और उपयोग के लिए दिया गया है तब इसका उपयोग किस आधार पर बदला गया। इसे लेकर लम्बे सौदेबाजी की चर्चा है। कहा जाता है इस मामले में स्वयं को बचाने के इंतजार में लगे संदीप बागड़े के इस करतूत पर कई सवाल खड़े होने लगे है कि यदि टंकन में त्रुटि हुई तो इसे पूरी बिल्डिंग खड़े होते तक क्यों नहीं सुधारा गया।  आज जब पूरा शहर इस भव्य बनते बिल्डिंग को देख रहे हैं। तब निगम ने अफसरों ने जांच क्यों नहीं की और जब सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई तब ही टंकन त्रुटि का पता कैसे चला।
सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि अब जब त्रुटि की जानकारी मिल गई है तब इसके वाणिज्यिक उपयोग पर रोक कैसे लगाया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि संदीप बागले के कार्यों को लेकर पहली बार उंगली उठी है बताया जाता है कि जब राजेश मूणत मंत्री थे तब उन्होंने पार्किंग को लेकर शहर के कई दुकानों व काम्प्लेक्सों को सील किया था तब चर्चा यह भी थी कि उन्होंने उनके सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ा था उल्टे बाद में राजेश मूणत को विभाग से जाना पड़ा लेकिन संदीप बागड़े का कुछ नहीं हुआ।
सूत्रों का तो यहां तक दावा है कि जिन काम्प्लेक्सों व दुकानों में सील लगा था वहां लेनदेन दूर सील खोल दी गई थी जिनमें से विनित स्टेट व क्रिस्टल आर्केट के मामले में तो लंबी लेनदेन की खबर है।
बताया जाता है कि मजबूत पकड़ रखने व पैसों के बोलबाला के चलते ही संदीप बागड़े न केवल नगर निगम में निवेशक के पद पर बने हुए है बल्कि उनके पास राविप्रा व टाउन एंड कंट्री प्लानिंग का भी प्रभार है।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

उद्योगों को बिजली की छूट आम आदमी की जेब से लूट



छत्तीसग सरकार ने एक तरफ आम उपभोक्ताओं से बिजली बिल की वसूली में केवल कड़ा रुख अख्तियार की है बल्कि विरोध के बावजूद बिजली दर में वृिद्ध करने आमदा हैं वहीं दूसरी तरफ 38 उद्योगों के बकाया 22 करोड़ रुपए का बिल माफ कर दिया। जिन उद्योगों के बिजली बिल माफ किये गये हैं उनमें से कई उद्योगों में भाजपा नेताओं के रिश्तेदार डायरेक्टर भी हैं।
छत्तीसगढ़ में चल रहे राम नाम की लूट थमने का नाम ही नहीं ले रहा है यही वजह है कि इस सरकार की कोई उद्योगपति की सरकार कह रहा है तो कोई व्यापारियों की सरकार कह रहा है। आम लोगों को सस्ते दर पर अनाज देकर जनता की हितैषी बनने वाली राज्य सरकार ने प्रदेश के 38 उद्योगों का 22 करोड़ से अधिक का बिजली बिल माफ कर दिया है।
उर्जा विभाग और राज्य विद्युत नियामक आयोग के आदेश पर उद्योगों को दी गई छूट को लेकर भ्रष्टाचार की बात जन चर्चा का विषय है। जिस विभाग के मुखिया मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह स्वयं हो वहां नियामक आयोग के विवादित अध्यक्ष  को बिठाये जाने से पहले ही मुख्यमंत्री की साफ छवि को धक्का लगा है।
बताया जाता है कि नियामक आयोग के अध्यक्ष मनोज डे पर ट्रांसफार्मर और मीटर खरीदी में भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया है और अब चर्चा यह है कि मनोज डे के अध्यक्ष बनने के बाद ही उद्योगों को 22 करोड़ रुपये की छूट से एक क्या विवाद खड़ा हो गया है।
एक तरफ बिजली विभाग हजार करोड़ के आसपास के घाटे में चल रहा है और दूसरी तरफ घरेलु बिजली दर में वृद्धि की बात हो रही है तब 38 उद्योगों के 22 करोड़ के बिजली बिल को माफ करना अनेक संदेहों को जन्म देता है.
हमारे भरोसे मंद सूत्रों ने बताया कि जिन 38 उद्योगों का बिजली बिल माफ किया गया है उनमें से कई उद्योगों में भाजपा नेताओं के रिश्तेदारों की भागीदारी है और यही वजह है कि घाटे में चलने के बावजूद बिजली बिल माफ किया गया है। चर्चा इस बात की भी है कि इन उद्योगों के बिल माफ करन ेके एवज में जमकर सौदेबाजी की गई और पैसा नहीं देने वाले 3 उद्योगों को तकनीकी आधार पर छूट नहीं दिया गया।
जिन उद्योगों को छूट दी गई हैं उनमें से हीरा फेरो, लहरी पावर, शारदा एनर्जी, अमरनाथ पावर, भवानी मोल्डर्स एव्ही स्टील किनकी है यह पूरा शहर जनता है। उद्योगों को दी गई इस छूट से आम लोगों में भारी नाराजगी है।
बताया जाता है कि विद्युत विभाग में बैठे कई अधिकारी मुख्यमंत्री को बदनाम करने न केवल जमकर  भ्रष्टाचार कर रहे हैं बल्कि उटपटांग काम भी कर रहे हैं।
जोगी शासन काल में फायदे में चलने वाला बिजली विभाग और तीन साल पहले तक इन्कम टैक्स पटाने वाला विभाग अचानक कैसे घाटे में चला गया यह आम लोगों के समझ के बाहर की बात है।
बहरहाल घरेलु बिजली के दर में वृद्धि करने की कवायद करने वाला विभाग यदि उद्योगों का बिजली बिल माफ कर रहा है तो इसका दुष्परिणाम भी सरकार को भुगतना पड़ सकता है।

असंतुलित विकास बन रहा विनाश...


छत्तीसगढ़ में संतुलित विकास कैसे हो इसे लेकर न तो सरकार के पास ही कोई योजना है और न ही प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस हही कुछ कर रही है। जिसका दुष्परिणाम जन आक्रोश के रूप में निकलता तो है लेकिन सरकार की ताकत इसे दबा देती है। लेकिन असंतुलित विकास की बेदी पर कब तक आम लोग अपने को रोक पायेंगे?
छत्तीसगढ़ में इन दिनों नक्सली समस्या के अलावा माफिया राज भी कायम होने लगा है। भ्रष्टाचार चरम पर है और अफसर राज के चलते ओपन एम्सेस से लेकर रोगदा बांध घोटालों में सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। हालत यह हो गई है जो जिनता बड़ा भ्रष्टाचारी है उसे उतने ही बड़े पद से नवाजा गया है। सरकार का काम बड़े लोगों को बचाने व छोटों को सताने का होने लगा है यहीं वजह है कि आर्थिक अपराध ब्यूरों व लोकायुक्त जैसी सस्थाएं सफेद हाथी साबित होने लगा है। सूचना के अधिकार कानून की जितनी धज्जियां यहां उड़ाई जा रही है वैसा कहीं देखने को नहीं मिलेगा।
इन सबके पीछे असंतुलित विकास प्रमुख है। आजादी के 6 दशक बाद भी यदि आम लोगों को लोकतंत्र के मायने नहीं समझाया गया तो  अपराधियों का राज स्वाभाविक है।
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण को हुए दशक भर से उपर हो गया है सरकार कभी भी संतुलित विकास की योजना बना सकती है हाल ही में सरकार ने करीब दर्जन भर जिले बनाकर इसकी शुरुआत जरूर की है लेकिन असली जरूरत पर कभी ध्यान नहीं दिया गया।  छत्तीसगढ़ में संतुलित विकास के लिए सबसे पहले तो सभी विभागों के मुख्यालय को राजधानी में रखने की बजाय विभिन्न जिलों में उसकी ज्यादा उपयोगिता के साथ बनाया जाना चाहिए।
इसी तरह सभी बड़े निजी शिक्षण संस्थाओं को राजधानी में ही कालेज-स्कूल खोलने की अनुमति देने की बजाय अलग अलग जिले में अनुमति दी जानी चाहिए। यहीं स्थिति निजी बड़े अस्पताल खोलने जाने को लेकर सरकार की नीति होगी चाहिए।
यही नहीं राजधानी में बढ़ती आबादी को अन्य जिले में काम के अवसर बढ़ाकर रोका जा सकता है।
इसके अलावा भी संतुलित विकास के लिए सरकार को विशेषज्ञों की सलाह लेकर 10-20 साल का प्रोजेक्ट बनाकर काम करना चाहिए।

बुधवार, 14 मार्च 2012

आर्शीवाद भवन ही नहीं रंगमंदिर को भी छूट...


. ऐसा नहीं है कि निगम के लोगों ने पैसा खाकर सिर्फ आर्शीवाद भवन के लोगों के पैसा खाकर सिर्फ आर्शीवाद भवन को ही संपत्तिकर में छूट दिया है। राजधानी में ऐसे दर्जनों भवन है जहां से लाखों में वसूली किया जाना है। इनमें भातखंडे ललित कला द्वारा संचालित रंग मंदिर है जहां भी रंग मंदिर स्थित आडोटोरियम को न केवल किराये से दिया जाता है बल्कि व्यवसायिक उपयोग भी हो रहा है।
छत्तीसगढ़ में चल रहे इस तरह की लूट से भले ही आम आदमी अनभिज्ञ हो लेकिन अधिकारी से लेकर सरकार में बैठे लोगों को न केवल इसी जानकारी है बल्कि वे ऐसे मामलों में अपनी जेब भी गरम कर रहे हैं। यहीं वजह है कि पंखा चोर, नाका चोर, पंचर बनाने वाले और सटोरिया नेतागिरी कर रातों-रात करोड़पति बन रहे है और आम आदमी को दो वक्त के खाने का इंतजाम भारी पड़ रहा है।
कान्यकुब्ज शिक्षण संस्थान ने जिस तरह से छात्रावास का नक्शा पास करवाकर आर्शीवाद भवन का व्यवसायिक उपयोग कर रहा है और निगम के अधिकारी व प्रतिनिधि पैसा खाकर इन्हें संपत्ति कर में छूट दे रहे हैं ऐसा ही मामला भातखंडे शिक्षक संस्थान का है। रंग मंदिर में लगने वाला स्कूल सन् 2007 से अंयंत्र संचालित किया जा रहा है लेकिन अभी भी निगम इन्हें संपत्तिकर में छूट दे रहा है।
हमारेभरोसेमंद सूत्रों की माने तो संपत्तिकर के छूट के एवज में दोनों संस्थानों से हर साल हजारों रूपये अधिकारियों व पार्षदों की जेब में जा रहा है।
एक तरफ नगर निगम छोटे बकायादारों से दादागिरी के साथ उगाही करता है दूसरी तरफ व्यवसायिकक उपयोग करने वालों को केवल संस्था बना लेने से संपत्तिकर  में छूट दे रहा है। ऐसे में जहां-जहां रसूखदार बकायादारों से वसूली नहीं हो रही है वहां के नागरिक इनसे वसूली नहीं होने की शर्त पर संपत्तिकर नहीं पटाने की घोषणा कर दे तब निगम का क्या हाल होगा यह समझ से परे है।
इस संबंध में नागरिक मंच के इंदरजीत सिंह छाबड़ा, राकेश चौबे, संजय सोलंकी और डॉ. राकेश गुप्ता ने कहा कि बड़े बकायादारों की सूची सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई है। आखिर सरकार कब तक रसूखदारों को बचाते रहेगी और केवल गरीबों से वसूली की जाती रहेगी। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में मोर्हरिर से लेकर वार्ड पार्षद के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
इधर इस मामले को लेकर आम लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रिया है। समीत शर्मा ने कहा कि नगर निगम के खाओ-पियो नीति के चलते ही अतिक्रमण व अवैध कब्जा बढ़ा है। ऐसे अर्कमण्य अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। इधर तुलसी पटेल ने प्रेस को विज्ञप्ति भेजकर कहा है कि वे शीघ्र ही आम लोगों में जागरूकता लायेंगे और निगम को रसूखदारों से वसूली के लिए मजबूर कर देंगे।
बहरहाल बिहिनिया संझा के इस अभियान से आम लोग उत्साहित है। ऐसे में ऐसे लोगों के नाम सार्वजनिक करना जरूरी है ताकि आम लोगों को यह पता चले कि उनके जनप्रतिनिधि व निगम के अधिकारी क्या गुल खिला रहे हैं।


सीबीआई जांच और सरकार...


छत्तीसगढ़ में जिस तरह से माफिया राज चलने लगा है उसके बाद तो पुलिस की भूमिका को लेकर अयनिगत सवाल आम लोगों के जेहन में उमड़ रहे हैं। ऐसे कितने मामले हैं जिनकी सीबीआई से जांच जरूरी है लेकिन जब सरकार और उनमें बैठे लोग ही अपराध करने में आमदा हो तो वह सीबीआई जांच कराने कैसे तैयार हो सकती है।
ये वहीं सरकार में बैठे लोग है जिन्होंने राम अवतार जग्गी हत्याकांड में सीबीआई जांच की मांग की थी और तब सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार ने इसे खारिज कर दिया था सत्ता में आते ही भाजपा सरकार ने मामला सीबीआई को सौंपा और रिजल्ट सामने है। अब कांग्रेसी सीबीआई की मांग कर रहे हैं लेकिन सत्ता में बैठी भाजपा इससे हिचक रही है। जिन मामलों की सीबीआई जांच होनी ही चाहिए उनमें आईपीएस राहुल शर्मा की मौत का मामला भी शामिल हो गया है। सरकार ने दबाव में सीबीआई जांच के लिए तैयार हो गई है।
राहुल शर्मा ने अपने सुसाइडल नोट में स्पष्ट किया है कि वे वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव ममें यह कदम उठा रहे हैं। सब मृतक ने ही यह कह दिया है तब भला कोई पुलिसिया इसकी जांच कैसे ईमानदारी से कर पाता। चूंकि राहुल ने किसी का नाम नहीं लिखा है इसलिए इस बात की संभावना भी है कि जिससे जांच कराया जाता क्या वहीं प्रातडि़त करने वाला है?
छत्तीसगढ़ में ऐसे कई मामले हैं जिसमें सीधे-सीधे सत्ता से जुड़े लोग और वरिष्ठ अधिकारी शामिल है। डाल्फिन स्कूल के संचालक राजेश शर्मा के संबंध  किस मंत्री से नहीं थे। वायदा कारोबार के झगड़े में लिप्त मन्नू नत्थानी का संबंध किससे है? क्या इन मामले की सीबीआई जांच जरूरी नहीं है वह भी तब जब पुलिस इन्हें खोज पाने में असफल हो गई है।
ओपन एम्सेस घोटाला हो या रोगदा बांध को बेचने जाने का मामला क्या सीबीआई को नहीं सौंपा जाना चाहिए। आईपीएस राहुल शर्मा की मौत ने सिस्टम पर तो सवाल उठाया ही है साथ ही सरकार कैसे चल रही है इस पर सवाल खड़ा किया है।
भले ही राहुल शर्मा ने वरिष्ठ अधिकारियों के दबाव की बात कही हो लेकिन क्या यह यहीं हो सकता कि इस वरिष्ठ अधिकारी ने सरकार चलाने वाले मंंत्रियों के दबाव में राहुल शर्मा को प्रताडि़त किया हो?
ऐसे कितने ही सवाल है जो सरकार की तरफ उंगली उठा रही है और इसका खुलासा तभी होगा जब मामले की सीबीआई जांच होगी।
फेसबुक से लेकर कई सोशल वेबसाईट राहुल शर्मा की मौत की खबर  और सीबीआई जांच की मांग से भरा हुआ है। कब तक जग्गी हत्याकांड में सीबीआई की मांग करने वाले भाजपाई मुंह चुरा रहे हैं ये वहीं लोग है जो अन्ना व बाबा की सच और तप का बखान करते नहीं थकते लेकिन इस मामले में चुप हैं?

मंगलवार, 13 मार्च 2012

लूट सको तो लूट लो जब तक मर्जी छूट दो!

नगर निगम रायपुर के अधिकारी-कर्मचारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों के द्वारा हर साल नगर निगम के टैक्स में छूट की आड़ में निगम को करोड़ों रुपये का चूना तो लगा ही रहे हैं स्वयं की जेब भी भर रहे हैं। सरकारें बदली लेकिन किसी ने कार्रवाई की हिम्मत नहीं की। ताजा मामला आर्शीवाद भवन का है जिसका कामर्शियल उपयोग की खबर पूरे छत्तीसगढ़ को है लेकिन निगम के अधिकारियों को यह नहीं दिखता और टैक्स बचाने अपनी जेब गरम किया जा रहा है।
आम आदमी से टैक्स वसूलने निगम के अधिकारी कुर्सी तक करने से पीछे नहीं हटते लेकिन शहर के रसूखदारों से वसूली की बात तो दूर उन्हें टैक्स में छूट देकर अवैध वसूली में मशगुल निगम कर्मी व अधिकारियों की मिली भगत से हर साल निगम को करोड़ों रुपये के राजस्व की हानि उठानी पड़ रही है।
पूरे छत्तीसगढ़ में शादी ब्याह व पार्टी के लिए किराये से देने के लिए मशहूर बैरनबाजार स्थित आर्शीवाद भवन निगम कर्मियों की लूट का उदाहरण है। आर्शीर्वाद भवन का नक्शा 3-6-86 को छात्रावास के लिए पास किया गया इसके बाद 19-7-94 को पुन: केवल छात्रावास के लिए नक्शा पास किया गया। लेकिन यहां न केवल दुकानें बना दी गई बल्कि डॉ. भट्टर को भी किराये से दे दिया गया। इतना ही नहीं शादी ब्याह से लेकर दूसरे समारोह के लिए किराये से दिया जाने लगा लेकिन इसे धारा 136 (ई) के तहहत संपत्ति कर में छूट दे दी गई। यह सब कैसे हुआ किसी को नहीं मालूम।
सूत्रों ने बताया कि संपत्तिकर बजाने में लगे कान्य कुब्ज सभा शिक्षा मंडल के द्वारा खेले गए इस खेल के एवज में मोर्हरिर से लेकर अधिकारियों को पैसा बांटा गया। वरना क्या वजह है कि जो बात पूरे प्रदेश को मालूम है वह रायपुर नगर निगम में बैठे जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को मालूम नहीं है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि नगर निगम आर्शीवाद भवन को नोटिस जरूर दिया है लेकिन संपत्तिकर में ही कई घपलेबाजी की बजाय पार्किंग के लिए दी गई। जब पार्किंग समस्या सामने आई तब भी निगम का संपत्तिकर के प्रति लापरवाह गंभीर अपराध है।
सूत्रों के मुताबिक शहर में ऐसे रसूखदारों की संख्या कम नहीं है जो संपत्तिकर में किसी न किसी बहाने छूट लेकर अपनी संपत्ति का कार्मशियल उपयोग कर रहे है। रामसागरपारा में खंडेलवाल हो या भारखंडे का मामला हो।
कहा जाता है कि मोर्हरिर के माध्यम से हर साल लाखों करोड़ों वसूलकर निगम को चूना लगाया जा रहा है। तेज तर्रार मंत्री भी ऐसे मामले में अपने को पीछे कर लेते हैं अब देखना यह है कि शहर के रसूखदार क्या करते हैं।
इधर बिहिनिया संझा ने नगर निगम के राजस्व में की जा रही खपलेबाजी को उजागर करने का निर्णय लिया है और ऐसे रखूसदारों का नाम उजागर करेगा जो छल प्रंपच कर संपत्तिकर से निगम को चूना लगा रहे हैं।

सोमवार, 12 मार्च 2012

छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढिय़ा का यह कैसा विरोध...

आरएसएस हो जब विरोध में, तो सरकार कैसे हो सपोर्ट में
छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी भाषा के विरोध में जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सहयोगी संस्था सरस्वती शिक्षा संस्थान ने कार्य करना शुरू किया है उसके बाद तो भाजपा सरकार से इसके लिए कुछ करने का सवाल ही नहीं होगा? यहीं वजह है कि अभी तक स्कूलों में न तो छत्तीसगढ़ी पढ़ाई जा रही है और न ही इसके लिए सराकर ही कुछ कर रही है। आश्चर्य का विषय तो यह है इन लोगों ने छत्तीसगढ़ की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी की बजाय हिन्दी बताया जबकि हिन्दी राष्ट्र भाषा है और छत्तीसगढ़ी मातृभाषा है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा की जा रही है वह न केवल शर्मनाक है बल्कि सत्ता व विपक्ष की राजनीति करने वालों को शर्मसार करने वाली बात है।
छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा देने का ढकोसला करने वाली सरकार छत्तीसगढ़ी को सिर्फ इसलिए स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर रही है क्योंकि ऐसा छत्तीसगढ़ में रहने वाले बाहरी लोग नहीं चाहते। यहीं वजह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंद्ध विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान द्वारा आपत्ति करते हुए गौरव जागरण अभियान चलाकर छत्तीसगढ़ी को दबाने का प्रयास किया जा रहा है। ये लोग छत्तीसगढ़ी के कितने विरोधी है इसका ताजा उदाहरण मातृभाषा गौरव जागरण अभियान का वह पर्चा है जिसमें छत्तीसगढ़ की मातृभाषा हिन्दी को बताया गया है जबकि इसी मातृभाषा गौरव अभियान के द्वारा महाराष्ट्र में मराठी, बंगाल में बंगाली को मातृभाषा बताया जाता है। दूसरा उदाहरण सरस्वती शिक्षा संस्थान के संस्थापक शारदा प्रसाद शर्मा का 5 दिसंबर 11 को जारी वह परिपत्र है जिसमें सरस्वती शिशु मंदिर में छत्तीसगढ़ी में पढ़ाने की बात कही गई लेकिन अब तक पढ़ाई ही शुरू नहीं की गई जिसे आरएस के दबाव में रद्द करने की बात कही जा रही है।
बताया जाता है कि आरएसएस के दबाव के चलते ही छत्तीसगढ़ सरकार ने भी प्रायमरी स्कूल में छत्तीसगढ़ी पढ़ाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। इधर छत्तीसगढी को लेकर जनजागरण चला रहे नंद किशोरर शुक्ला ने कहा कि छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी व छत्तीसगढिय़ों की घोर  उपेक्षा हो रही है। छत्तीसगढ़ में बाहरी लोगों की ताकत बढ़ाई जा रही है और छत्तीसगढिय़ों का शोषण किया जा रहा है। उन्होंने अब तक प्रायमरी स्कूलों में छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम नहीं शुरू किये जाने के पीछे बाहरी लोगों का दबाव बताया और छत्तीसगढ़ी नेताओं की भत्र्सना भी की।
उन्होंने कहा कि वे गवरव यात्रा निकाल रहे हैं ताकि लोग सीधे सरकार पर दबाव बनाये। उनका कहना था कि जब तक छत्तीसगढ़ी को आगे नहीं बढ़ाया जायेगा छत्तीसगढिय़ों की उपेक्षा जारी रहेगा।
इधर नौकरी में भी छत्तीसगढिय़ों की बजाय बाहरी लोगों की भर्ती को लेकर भी सरकार कटघरे में है  इन सब मामले में सबसे दुखद व आश्चर्यजनक बात यह है कि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी खामोश है।
बहरहाल यह तो तय हो गया है कि आरएसएस ने छत्तीसगढ़ी को लेकर जैसा रुख अपनाया है उसके बाद यह सरकार छत्तीसगढ़ी को प्रायमरी स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई कार्य करेगी ऐसा नहीं लगता?

शनिवार, 10 मार्च 2012

मिलावट खोरों पर नरमी...


छत्तीसगढ़ में  मिलावट खोरों ने जिस तेजी से पैर फैलाया है सरकार की उनके प्रति उतनी ही नरमी है। किसी भी आतंकवादी गतिविधियों से इसे हम खतरनाक मानते हैं। आतंकवाद व नक्सली की तर्ज पर मिलावट खोर भी आम लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्हें धीरे-धीरे गंभीर बीमारी देकर मौत की ओर ढकेल रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में सरकार ने इन्हें खुली छूट दे रखी है।
शहर के लोगों को आज भी याद है कि मिलावट खोर मिठाई वालों को बचाने कैसे सरकार ने एक पुलिस अधिकारी को प्रताडि़त किया। यह अधिकारी इतना प्रताडि़त हुआ कि उसे अवकाश पर जाना पड़ा और आज भी उसकी अवकाश से वापसी नहीं हुई है। ऐसे में यदि सरकार पर व्यापारियों की सरकार होने का तमगा लगे इसे अतिशंयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में मिलावट खोरी चरम पर है। त्यौहारों के दिनों में तो मिठाईयों के दुकानों में जिस तरह से मिलावटी सामानों की बिक्री होती है वह आश्चर्यजनक है और इसे रोकने बैठे मातहतों का काम तो सिर्फ उगाही रह गया है।
शहर के चर्चित मिठाई दुकानों में मिलावटी खोवा की मिठाईयों को लेकर बवाल मच चुका है और कभी कार्रवाई का दबाव बढ़ा भी तो उनसे केवल जुर्माना ही वसूला जाता है। आम लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने वालों से सिर्फ जुर्माना वसूलना ऐसे लोगों को बढ़ावा देता है जो पैसै कमाने आम लोगों की जिन्दगी छिनने पर आमदा है।
खाद्य सामग्री में मिलावट खोरी को लेकर इतने कड़े कानून बनना चाहिए कि इसके लिए उसे पछताना पड़े। सिर्फ जुर्माना ही इसका उपाय नहीं है लेकिन सरकार कड़े कानून से हिचक रही है। खाद्य विभाग के लोग भी केवल तभी कार्रवाई करते हैं जब शिकायतें बढ़ जाती है।
धनिया में भूसा, चावल में कंकड़ जैसे मामले तो राजधानी में आये दिन सामने आ रहे हैं। लेकिन होटल और रेस्टोरेंट में जिस तरह से मिलावट खोरी की जा रही है वह असहनीय है। सामान को सुरक्षित रखने के लिए जिस पैमाने पर रासानियक कीट नाशकों का इस्तेमाल हो रहा है वह आम लोगों को गंभीर बीमारियों की ओर ढकेल रहा है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह केवल वोट व पैसों की राजनीति बंद कर कड़े कानून के तहत मिलावट खोरों को जेल में डालें।

गुरुवार, 1 मार्च 2012

पूर्व सीएस का वीआरएस और सात करोड़ का इंजीनियर..



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 छत्तीसगढ़ में ये दोनों ही खबरें आप की सूर्खियां बनी। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर इन दोनों खबरों का आपस में कोई लेना देना नहीं है लेकिन इन दोनों ही खबरों के पीछे एक समानता है वह है भ्रष्टाचार और सरकार में बैठे लोगों का चाल चेेहरा और चरित्र।
पहली खबर राज्य के पूर्व मुख्य सचिव जॉय ओम्मेन के वीआर एस लेने  का मामला है। पहली नजर में तो यह सिर्फ सरकार की नाराजगी दिखलाई दे रही है। जाय ओम्मेन के अवकाश पर अचानक चले जाने को लेकर यह कयास लगाया ही जा रहा था कि रमन सरकार से उनकी पटरी नहीं बैठ रही है और सुनील कुमार जैसे ईमानदार अफसर कि मुख्य सचिव पद पर नियुक्ति होते ही जाय ओम्मेन के वीआरएस लेने की खबर आई।
वास्तव में जाय ओम्मेन से सरकार की पटरी तभी नहीं बैठ रही थी जब रमन सरकार रोगदा बांध बेचे जोने के मामले में पूरी तरह फंसते नजर आई । रोगदा बांध को रातो रात जिस तरह से एस के उद्योग को बेचा गया उससे रमन सरकार की मुसिबत बढ़ गई थी वहीं ओम्मेन के लिए भी जवाब देना मुश्किल हो रहा था। अभी इस मामले की जांच विधानसभा की कमेटी कर रही है और इसके परिणाम आने बाकी है।
अभी यह मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि जाय ओम्मेन कि मुश्किलें भाजपा नेता बनवारी लाल अग्रवाल ने यह कह कर बढ़ा दी कि जाय ओम्मेन एक वर्ग विशेष को बढ़ावा देने को काम कर रहे हैं। यह मामला तूल पकड़ता इससे पहले उनका अवकाश में चले जाने को लेकर यह कयास स्वाभाविक था कि सरकार के लिए जाय ओम्मेन का पद पर बने रहना मुसिबतों को न्यौता दे सकता है।
 राज्य के मुख्यसचिव जैसे पद पर बैठे व्यक्ति पर यह दो आरोप सरकार को नागवार गुजरे और जिसका परिणाम सबके सामने है। लेकिन खबरें जिस तरह से आ रही है वह भी कम दुखदायी नहीं है। सुनील कुमार जैसे ईमानदार व स्वच्छ छवि को सामने लाकर अपना चाल चेहरा व चरित्र सुधारने का दावा करने वाली सरकार एक तरफ उन्हें पद पर बने रहने का आग्रह भी करती है और दूसरी तरफ उनके वीआरएस को स्वीकृति देती है। रोगदा बांध जैसे  गंभीर मामले के आरोपों से घिरे जाय ओम्मेन जैसे अफसरों को इतनी आसानी से वीआरएस देना उन्हें बचाने जैसा अपराध है और इसके फैसले तक वीआरएस की स्वीकृति भ्रष्ट अफसरों के लिए नए द्वारा खोलेगी। आरडीए के तत्कालीन सीईओं दाण्डेकर ने भी वीआरएस  लिया था देवेन्द्र नगर माल का ठेका देते ही, लेकिन तब चर्चा केवल लोगों के बीच ही रहा।
दूसरा मामला तो सीधाा-सीधा भ्रष्टाचार से जुड़ा है। एसीबी के रोम ने बलौदाबाजार के सिंचाई अभियंता के घर छापा मारकर सात करोड़ से अधिक की अनुपातहीन संपत्ति का पता लगाया। इससे पहले भी एसीबी ऐसी कार्रवाई करते रही है लेकिन उन अफसरों का क्या हुआ यह किसी  से दिया नहीं है बल्कि अधिकारी व मंत्री उनसे पैसा खाकर महत्वपूर्ण पदों पर बिठा रहे हैं। कोर्ट में चालान प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं।
 सरकार की यह नीति से आप लोगों को क्या फर्क पड़ता है इससे सरकार को कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन अब जनता को सोचना है कि वे ऐसे भ्रष्ट अफसरों को अपने यहां बर्दास्त करेंगें या नहीं।