रविवार, 17 मार्च 2019

विरासत संस्कृति और काशी...



अब तक सरकारों पर जल-जंगल जमीन और आदिवासी संस्कृति को समाप्त करने का आरोप लगता रहा है लेकिन बनारस के सौंदर्यीकरण के नाम पर जो कुछ काशी में हुआ उससे हमारी सभ्यता, संस्कृति और विरासत पर खतरे के बादल मंडराने लगे है और यह सब वह सरकार कर रही है जो भारतीय संस्कृति की झलक के रुप में अपनी पहचान बताने की कोशिश करती है।
काशी में जिस तरह से सौंदर्यीकरण का खेल खेला गया वह हैरान और परेशान करने वाला इसलिए भी है कि आज पूरी दुनिया में प्राचीन धरोहरों, संस्कृति और शहरों को बचाने के उपाय किये जा रहे है। अपनी पुरानी पहचान को बनाने के इस जद्दोजहद में पुरातत्व विभाग से लेकर दुनियाभर के लोग लगे हैं तब सिर्फ एक सोमनाथ मंदिर की भव्यता को रेखांकित करने पुराने शङर को ही मिटा देने का काम शर्मनाक है जिस पर संस्कृति की दुहाई देने वालों का मौन इतिहास कभी नहीं भूलेगा और समय आने पर यह सवाल भी पूछा जायेगा कि हमारी प्राचीन पहचान को मिटा देने का अधिकार किसने दिया?
काशी आज से 7 साल पहले जब हम गये थे तब वहां पहुंचे विदेशी सैलानियों से जब हमने पूछा था कि वह काशी क्या बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने आये हैं तब उनका उत्तर सुन हम हैरान थे और तब काशी को नये तरह से जानने की जिज्ञासा हुई थी। उस विदेशी ने कहा था 'काशी हम गंगा और यहां की गलियों में बसे शहर और 33 करोड़ देवी देवताओं को देखने समझने आये हैं।Ó  तब अनायास हमारा ध्यान गया था कि काशी की सिर्फ बाबा विश्वनाथ की नगरी नहीं है यह तो हमारी विरासत है हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। छोटी-छोटी गलियों में विराजमान 33 करोड़ देवी देवताओं के प्रति हर गुजरने वालों की श्रद्धा ने ही इस प्राचीन नगरी को विश्व में अलग पहचान दी है। दुनिया के प्राचीन शहरों में गिना जाने वाला इस शहर को जब बदला जाने लगा तब किसी ने शोर क्यों नहीं किया। वहां रहने वालों ने इस बदलाव पर अपनी जुबान पर क्यों ताला लगाकर खून का आंसू टपकाते रह गये यह भी सवाल इतिहास में पूछा जायेगा।
इस बदलाव की वजह से बाबा विश्वनाथ अब अकेले हो गये हैं और पुराना काशी तस्वीरों और स्मृतियों में शेष रह जाएगा। पुराना चला गया और वर्तमान जो है क्या वह अंतिम विकल्प है। पौराणिक मान्यता और काशी के भीतर होने वाली अंतरग्रही यात्रा का क्या होगा। दीवारों और हर घर में मंदिर के इस शहर में हर कोई सेवाभाव से आते थे। काशी में स्वर्गद्वार यानी मोक्ष द्वार भी बने थे। घाट किनारे से बाबा विश्वनाथ तक गलियों की दीवारों में भी मंदिर थे और गलियों के कारण ही जिस काशी की विश्वव्यापी पहचान थी और विदेशी इन गलियों को देखने ही आते थे जो देश में और कहीं नहीं देखने को मिल सकता है। वहां के लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि शरीर से प्राण निकाल दिया गया है। जहां 33 करोड़ देवी-देवताओं की मूर्तियां ही हटा दी गई यानी 33 करोड़ देवी-देवता ही नहीें रहेंगे तो काशी का क्या मतलब?
सवाल अनेक है लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर इस तरह की प्राचीन शहरों की रक्षा कैसे हो। विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर कब तक सभ्यता का विनाश होता रहेगा। आने वाली पीढ़ी क्या देखेंगी? क्या वह समझ भी पायेगी कि भारतीय प्राचीन शहर कैसे होते थे? और सबसे बड़ा सवाल तो यह भी उठेगा की आखिर संस्कृति की दुहाई देने वाले ही सांस्कृतिक शहर को कैसे नष्ट करने का काम किया।

रविवार, 10 मार्च 2019

क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए?

  • क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए? यह सवाल आम जनमानस में चर्चा का विषय है तो इसकी वजह प्रधानमंत्री के लगातार पकड़ाते झूठ ही है। वैसे तो झूठ बोलना पाप है यह बात बचपन में ही सिखाई जाती  है लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री की कई बातें झूठी साबित हो तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सत्ता शीर्ष पर बैठा व्यक्ति भी जब भरोसे के लायक नहीं रह गया है तब भला आम आदमी किसकी बातों पर भरोसा करे।लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पांच साल क्या किया, जनता से किये वादों का क्या हुआ के बीच इन दिनों पूरे देश में सर्वाधिक चर्चा का विषय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समय-समय पर झूठ बोलकर अपनी राजनीति चमकाने की शैली है। राजनीति चमकाने के इस खेल में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या झूठ के बल पर आम जनमानस को असली मुद्दों से भटका दिया जाए और वे सिर्फ इस झूठ के सहारे सरकार चुन ले।

सवाल यह भी है कि क्या नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पद पर बैठकर जनसभा में झूठ बोलना चाहिए? सवाल इसलिए भी उठाये जा रहे हैं कि क्या लगातार बोले जाने वाले झूठ को भूल कहा जा सकता है। और इस पर जनमानस में क्या संदेश जायेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाकपटुता के सभी कायल है उनके आक्रामक रवैये ने अनेक विरोधियों को धराशाही कर दिया है लेकिन इस सबके पीछे उनकी झूठ ने उनकी छवि को भी प्रभावित किया है। प्रधानमंत्री ने जनसभा में कितनी बार झूठ बोला इसका ठीक-ठाक आंकड़ा जारी करना मुश्किल हो सकता है लेकिन कहने वाले तो इसकी गिनती सौ से उपर गिन रहे है। हालांकि झूठ बोलने के मामले में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से बहुत पीछे है क्योंकि अमेरिकी मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रंप के द्वारा झूठ बोलने की गिनती को 6 हजार से पार कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने कब कहां और कितनी बार झूठ बोला इसे लेकर अलग-अलग दावे है। यू-ट्यूब और फेसबुक में किये जा रहे दावों के इतर हमने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की झूठ को खोजने की कोशिश की तो प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने पहली झूठ कब कहा इसकी तारीख नहीं ढूंढ पाये लेकिन यह जरुर पता चला कि उन्होंने जनसभाओं में अनेकों बार झूठ बोला है। एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि संत कबीर, गुरुनानक देव और गुरु गोरखनाथ एक साथ बैठकर चर्चा करते थे जबकि तीनों के जन्म में शतकों का अंतर रहा है।
राजनीति चमकाने उनकी झूठ को लेकर इतने वीडियो वायरल हो रहे है कि इनमें सच को आसानी से छांटा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा में कहा कि महान क्रांतिकारी जब भगत सिंह जेल में बंद थे तब उनसे मिलने कोई कांग्रेसी नहीं गया लेकिन यह भी पूरी तरह से झूठ था क्योंकि तब जवाहरलाल नेहरु उनसे मिलने गए थे और 10 अगस्त की ट्यूबून में इस मुलाकात की पूरी रिपोर्ट छपी भी थी। इसी तरह भगत सिंह की फांसी को लेकर कहा गया कि महात्मा गांधी ने फांसी रुकवाने कोई प्रयास नहीं किया नहीं तो फांसी नहीं होती तब इसका भी खुलासा हो गया कि भगत सिंह की फांसी रुकवाने गांधी जी ने वायसराय को पत्र लिखा था।
इसी तरह एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार में आयोजित जनसभा में कह दिया कि सिकन्दर जब भारत पर आक्रामण किया और राज्यों को जीतते हुए बिहार आया तो यहां के लोगों ने सिकन्दर को परास्त कर दिया। इस झूठ के बाद कुछ लोगों ने इसका वीडियो वायरल कर खूब मजा भी लिया। जबकि सिकन्दर ने कभी गंगा पार ही नहीं किया। लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण मनोरंजन के लिए नहीं होना चाहिए और न ही मजाक बनना चाहिए लेकिन जब झूठ बोला जायेगा तो लोग मजाक उड़ायेंगे।
इसी तरह नरेन्द्र मोदी ने एक बार गुजरात की सभा में श्यामाप्रसाद मुखर्जी को गुजरात का सपूत बताते हुए कह दिया कि स्वामी विवेकानंद जी से श्री मुखर्जी चर्चा करते थे और दयानंद सरस्वती से उनकी चर्चा होती थी जबकि हकीकत यह है कि श्री मुखर्जी का जन्म 1901 को हुआ और स्वामी विवेकानंद 1902 को स्वर्ग सिधार गये थे। इतना ही नहीं दयानंद सरस्वती का निधन 1883 में ही हो गया था। अब यह बातचीत और दोस्ती कैसे संभव थी।
इतना कहकर ही नरेन्द्र मोदी नहीं रुकते है वे कहते हैं कि क्रांतिकारी मदनलाल ढिगरा ने श्यामप्रसाद मुखर्जी के कहने पर कर्नल वायली को मारा था जबकि हकीकत यह है कि जब मदनलाल ढीगरा ने कर्नल वायली को मारा था तब श्यामप्रसाद मुखर्जी की उम्र महज 8 साल थी। यही नहीं श्यामप्रसाद मुखर्जी का निधन 1930 में लंदन में होना बताया जबकि श्यामा प्रसाद जी का निधन कश्मीर में हुआ था और उनका जन्म गुजरात नहीं बंगाल में हुआ था। इसी तरह एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि राहुल गांधी कहते हैं कि इस देश में 60 प्रतिशत अशिक्षित है तो आनलाईन बैकिंग की बात कैसे की जा सकती है जबकि राहुल गांधी ने यह बात कही ही नहीं थी। राहुल ने कहा था कि हिन्दुस्तान के एक प्रतिशत लोगों के पास हिन्दुस्तान का साठ प्रतिशत धन पकड़ा दिया है।
इसी तरह अमेरिका में नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि कोणार्क सूर्य मंदिर को दो हजार साल पुराना बताया तो वहां की मीडिया ने उनका खूब मजाक उड़ाया क्योंकि यह मंदिर सात सौ साल पुराना है। नवम्बर 2013 में एक रैली में महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनलाल करमचंद गांधी बता दिया इसे तकनीकी भूल मान भी ले तब भी स्वयं को गुजरात का बेटा कहने वाले के सामान्य ज्ञान पर सवाल तो उठेंगे ही। 
पटना के 2013 के बहुचर्चित रैली में कह दिया कि तक्षशिला बिहार की शान है जबकि तक्षशिला पाकिस्तान में हैं। इसी तरह उन्होंने जुलाई में अहमदाबाद की एक सभा कहा दिया कि आजादी के समय भारत का एक रुपया एक डालर के बराबर था कह दिया जबकि उस समय 1 रुपया एक पाउण्ड के बराबर थी। इसी तरह महाराष्ट्र में 26 मुख्यमंत्री होने की बात कही  जबकि यहां सिर्फ 17 मुख्यमंत्री हुए। इसी तरह जम्मू में मेजर सोमनाथ शर्मा को महावीर चक्र ब्रिगेडियर रजिन्दर सिंह को परमवीर चक्र मिला जबकि यह बिल्कुल उलट था।
नरेन्द्र मोदी का झूठ लगातार जारी है वे लालकिले से भी झूठ बोलने से परहेज नहीं किया। नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि स्वच्छता अभियान से 3 लाख बच्चों की जान बची है कह दिया जबकि आंकड़े कुछ और ही कहते है। लाल किले से ही उन्होंने कह दिया कि भारत के पासपोर्ट की बड़ी इज्जत है और वह नम्बर एक है जबकि वास्वत में इसमें जापान नम्बर एक पर है और भारत का नम्बर 65वां है। इसी तरह लाल किले में ही उन्होंने शहद के निर्यात के मामले में भी भारत का नम्बर एक बता दिया जबकि भारत इस मामले में 11वें नंबर पर है। इसी तरह मुद्रा लोन की तारीफ करते हुए कह दिया कि 13 करोड़ लोगों को बड़ा लोन दिया जबकि एक-डेढ़ प्रतिशत को ही इस तरह का लोन मिला। इसी तरह उनके चाय बेचने से लेकर डिग्री तक को लेकर सवाल कायम है। 
प्रधानमंत्री के झूठ पकड़े जाने का सवाल कितना बड़ा है और इसका चुनाव में क्या असर होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए यह शर्मसार करने वाली जरुर होगी। और यह भी संभव है कि किसी मां-बाप को झूठ बोलना पाप है समझाने के एवज में बच्चे ये न कह दे कि प्रधानमंत्री भी तो झूठ बोलते है।

राफेल की सीक्रेट फाइलें चोरी होने का अर्थ...
यह तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ करता है वरना राफेल घोटाले की जिन फाईलों को सरकार सीक्रेट बताती रही वह यूं इस तरह चोरी नहीं हो जाती। रक्षा मंत्रालय से फाईलों का वह भी राफेल का यूं चोरी चला जाना सरकार की नियत पर तो ऊंगली उठाता ही है। सरकार की मंशा भी स्पष्ट करने के लिए काफी है।
राफेल घोटाले के दस्तावेजों को देश हित में बताते नहीं थकने वाली सरकार इस दिशा में कितना गंभीर है कि महिने भर बाद भी न तो थाने में रिपोर्ट ही लिखी गई न ही चोर का ही पता चला। इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज का चोरी होने का खुलासा सरकार सीधे सुप्रीम कोर्ट में तब करती है जब सुप्रीम कोर्ट के तेवर तल्ख होते हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि राफेल घोटाले को घर बैठे नकारने वाले भाजपा कार्यकर्ता भी इस बारे में सोशल मीडिया में खामोश रहकर अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। राफेल ख्ररीदी में घोटाला हुआ है या नहीं यह प्रश्न का खुलासा अब इसलिए भी जरुरी हो गया है क्योंकि इस मामले में जिस तरह से एक के बाद एक सरकार का झूठ सामने आ रहा है वह शर्मनाक है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका खारिज कराने जिस तरह से कैग की रिपोर्ट पेश करने का झूठ बोला गया और बाद में इसे टंकन त्रुटि बताया गया तभी से ही सरकार की नियत पर सवाल उठने लगा था। हालाकि सरकार की नियत पर सवाल तो उसी दिन से उठने लगा था जब डिफाल्टर हो चुकी अंबानी की नई नवेली कंपनी को पार्टनर बना दिया गया था। लेकिन प्रधानमंत्री इसे विपक्ष का झूठ बताते रहे। और अब जब रक्षा मंत्रालय जैसी जगह से सीक्रेट फाईलों का चोरी होना सरकार के कामकाज पर तो सवाल उठा ही रहे हैं नियत पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है।

मोदी है तो मुमकिन है का नया जुमला..

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अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता तक पहुंची मोदी सरकार ने बालाकोट एयर स्ट्राईक के बाद मोदी है तो मुमकिन है के नये नारे के सहारे 2019 में होने वाली सत्ता की लड़ाई को जीत लेना चाहती है। युद्ध उन्माद से पैदा हुए इस नये नारे की गूंज पार्टी दफ्तर से लेकर सोशल मीडिया में हथियार के रुप में इस्तेमाल किया जाने लगा है और केन्द्र सरकार के हर विभाग ने प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी के फोटो के साथ नामुमकिन अब मुमकिन है का नारा भी अपने विज्ञापनों में चिपकाने लगा है।
सूचना तंत्र की घोर लापरवाही और सरकार की असफलता के बीच मोदी राज में एक के बाद एक हुए बड़े आतंकवादी हमले के पहले ही अच्छे दिन आयेंगे का नारा जब जुमला में तब्दिल होकर किसान, बेरोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा हावी होने लगा था। मोदी सरकार की हार साफ दिखलाई देने लगा था तब पुलवामा के बाद बालाकोट में हुए एयर स्ट्राईक ने एक बार फिर नरेन्द्र मोदी को संजीवनी देने की कोशिश की।
हिन्दू मुस्लिम मंदिर मस्जिद और भारत पाक का मुद्दा हमेशा से ही राजनेताओं के लिए सत्ता की सीढ़ी रहा है। ऐसे में जब-जब किसान और बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा होने लगता है सत्ता के लिए परेशानी बढऩे लगती है और तब सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे हथियारों का इस्तेमाल होता है जिसमें उसके अपने फायदे हो।
2014 में अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसान और बेरोजगारी के मुद्दे थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की नियुक्ति के अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे बड़ी चुनौती थी। आतंकवाद और भ्रष्टाचार के अलावा राम मंदिर से लेकर धारा 370 को हटाने का मामला भी मोदी सरकार के लिए चुनौती भरा था। इनमें से सरकार ने किस दिशा में बेहतर काम किया यह सरकार भी नहीं बता पायेगी। लोगों की सरकार से उम्मीद टूटने लगी और विपक्ष मुद्दों को लेकर सरकार पर तीखे हमले शुरु किये तो सरकार इससे बच निकलने का रास्ता ढूंढने लगी। उपर से नोटबंदी और जीएसटी की मार से व्यापार तो प्रभावित हुआ ही लाखों नौकरी भी चली गई।
कहां तो तय था चिरागा हर शहर के लिए
ज मयस्सर नहीं एक घर के लिए

हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को नौकरी देकर अच्छे दिन लाने का वादा था लेकिन नौकरी छिनी जाने लगी। कम होती नौकरी में युवाओं ने स्वयं को ठगा महसूस करना शुरु कर दिया और लोग कहने लगे कि इससे अच्छा तो वही दिन थे। अच्छे दिन लाने का वादा जुमला साबित हो गया। तीन बड़े राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल बताने के बाद भी भाजपा सत्ता से बेदखल कर दी गई। संवैधानिक संस्थाओं के औचित्य का सवाल बड़ा होने लगा और सबसे बड़ी बात तो आतंकवाद के मसले जस के तस खड़े दिखाई दिये। मोदी राज में आतंकवादियों के बड़े हमलों की वजह से सीमा और कश्मीर से आती शहीदों की लाश से लोगों का गुस्सा बढऩे लगा। सरकार के खुफिया तंत्र की असफलता ने मोदी सरकार की परीक्षा ही नहीं ली बल्कि लोगों ने फेल करना भी शुरु कर दिया।
उरी हमले के बाद किये गये सर्जिकल स्ट्राइक की चमक को भुनाने में लगी भाजपा के लिए पुलवामा की घटना सत्ता छिनते नजर आई तब एक बार फिर राष्ट्रभक्ति और देशद्रोही का प्रमाण पत्र बांटने का सिलसिला शुरु हो गया। बालाकोट में किये हवाई हमले को भुनाने युद्ध उन्माद तक ले जाया जाने लगा। इस मामले में कई टीवी चैनलों ने तो बालाकोट में तीन साढ़े तीन सौ आतंकवादियों के मारे जाने की खबर बगैर पुष्टि किये चला दी। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो हमले वाले दिन दोपहर को ही चार सौ आतंकवादियों को मारने का दावा कर दिया और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने तो ढाई सौ मार गिराने का दावा किया गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में बालाकोट की कार्रवाई का न केवल जिक्र करते रहे बल्कि घर में घुसकर मारने की घोषणा करते रहे।
युद्ध उन्माद के बीच किसान, बेरोजगार स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी बुनियादी मुद्दों से जुड़ी खबरें गायब होने लगी। हिन्दू मुस्लिम और भारत पाक के इस उन्माद में भाजपा को अपनी बात दिखलाई देने लगी और यहीं से एक नया नारा निकला मोदी है तो मुमकिन है।
लेकिन अब सवाल यह है कि क्या मोदी है तो मुमकिन है का यह नारा अच्छे दिन आयेंगे की तरह आम जनमानस के विश्वास पर खरा उतरेंगी। इस नारे की विश्वसनियता बनाये रखने क्या देश की जनता में जारी युद्ध उन्माद को चुनाव तक बनाये रखा जा सकता है और युद्ध उन्माद बना रहे इसके लिए भाजपा क्या करेगी। यह उसके लिए बड़ी चुनौती है। 
क्योंकि जब यह उन्माद उतरेगा तब फिर जो सवाल उठेंगे वह मोदी सरकार की राह में बाधा डालेंगे। नोटबंदी और जीएसटी की मार से परेशान व्यापारी, नौकरी के अभाव में बेरोजगार युवा, किसान, शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल फिर खड़ा होगा तब लोग पूछेंगे कि मोदी के रहते जब सब मुमकिन है तो अच्छे दिन क्यों नहीं आयें?

सोमवार, 4 मार्च 2019

अडानी को परसा कोल ब्लॉक देने राजस्थान का सहारा लिया मोदी सरकार ने


सत्ता बदली पर अडानी की सत्ता बरकरार
विशेष प्रतिनिधि
केन्द्र में बैठी नरेन्द्र मोदी   सरकार पर अडानी प्रेम का जो आरोप लगता है वह कितना सही है यह जानने के लिए सरगुजा के परसा कोल ब्लॉक के आंबटन प्रक्रिया को जानना समझना होगा। परसा कोल ब्लॉक आबंटित करने जिस तरह से राजस्थान बिजली बोर्ड को माध्यम बनाया गया उससे यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर अपने निजी हित के लिए जल जंगल जमीन की बर्बादी कब तक की जाती रहेगी।
छत्तीसगढ़ में जल जंगल जमीन का मसला नया नहीं है। विकास के नाम पर संसाधनों की लूट और बरबादी का आलम यह है कि अपने ही जमीन से बेदखल होते आदिवासियों की पीड़ा कौन सुने? पिछले 15 सालों में जनसुनवाई की आड़ में सरकारी गुण्डागर्दी चरम पर रही और औद्योगिक आतंकवाद ने सवाल उठाने वालों की गर्दन दबोचने की कोशिश की। अडानी प्रेम ने तो परसा कोल ब्लॉक में आदिवासियों की ही नहीं जल जंगल जमीन पर्यावरण सब की बरबादी का नया इतिहास लिख दिया।
केन्द्र में बैठी नरेन्द्र मोदी के कार्पोरेट प्रेम को लेकर विरोधियों ने जो सवाल खड़ा किये है उसका प्रमाण परसा कोल ब्लॉक सबके सामने है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर भूपेश बघेल के द्वारा अडानी पर सीधे हमला किया जाता है तो इसकी वजह परसा कोल ब्लॉक के आबंटन की प्रक्रिया और इससे बरबाद होता पूरा क्षेत्र है।
सवाल तो यह भी उठ रहा है कि अब जब सत्ता बदल गई है तब भी अडानी की सत्ता बरकरार क्यों है? हालांकि केन्द्र की नीति के चलते छत्तीसगढ़ सरकार के पास परसा कोल ब्लॉक के आबंटन को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वह आदिवासियों के साथ खड़ी होकर जल जंगल जमीन की बरबादी को रोकने कड़ा कदम उठा सकती है।
हमने इसी जगह पर पहले ही परसा कोल ब्लाक के आबंटन के तरीके को लेकर सवाल उठाते हुए राज्य सरकार के अधिकारों के हनन का सवाल उठाया है।
दरअसल मोदी सरकार ने जिस तरह से कोल ब्लॉक के आबंटन के नियमों में बदलाव किया है उसके बाद राज्य के लिए ज्यादा कुछ करने को नहीं रह गया है। नये नियम के चलते ही छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग की आपत्ति के बाद भी अडानी को कोल ब्लॉक दे दिया गया। हालांकि तब राज्य में भाजपा की रमन सरकार थी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा के विपरित जब किसी भाजपा नेता में जाने का साहस नहीं रह गया हो तब राज्य की हित ही बेमानी हो जाती है।
सूत्रों की माने तो अडानी को परसा कोल ब्लॉक आबंटित करने जिस तरह से खेल खेला गया वह सत्ता और कार्पोरेट जगत के सांठगांठ का अनूठा उदाहरण है। केन्द्र पहले नीति बनाती  है कि कोल ब्लॉक के आबंटन में राज्य की राय कोई मायने नहीं रखेगा और सीधे आरोप से बचने के लिए नियम में यह भी जोड़ दिया जाता है कि कार्पोरेट घराने को कोल ब्लाक पाने का अधिकार तभी होगा जब वह किसी सरकारी या सार्वजनिक कंपनी से भागीदारी करनी होगी।
सूत्रों का कहना है कि अडानी को परसा कोल ब्लाक इसी नये नियम के तहत दिये गये और इसके लिए भाजपा शासित दो राज्यों को चुना गया। इस खेल के तहत सबसे पहले अडानी की कंपनी ने राजस्थान बिजली बोर्ड से समझौता करती है समझौते के तहत राजस्थान बिजली बोर्ड 76 फीसदी शेयर अडानी को देने राजी हो जाता है और सिर्फ 24 फीसदी में राजस्थान बिजली बोर्ड तैयार हो जाती है तो इसकी वजह राजस्थान में बैठी भाजपा सरकार को माना जाता है। 
सूत्रों की माने तो मोदी सरकार ने अडानी के लिए राजस्थान की वसुधरा रकार पर दबाव भी बनाया था और जैसे ही राजस्थान बिजली बोर्ड से अडानी की कंपनी का समझौता होता है। परसा कोल ब्लॉक को तमाम आपत्तियों और परिस्थितियों को नजर अंदाज कर अडानी की कंपनी को आबंटित कर दिया जाता है।
सूत्रों की माने तो इस आबंटन के बाद रमन सरकार पर अडानी को सहयोग करने का दबाव भी डाला गया। यही वजह है कि 21 सौ हेक्टेयर में परसा कोल ब्लाक के अंतर्गत आने वाले करीब दर्जनभर गांव के आदिवासियों की जमीन फर्जी जनसुनवाई और झूठे वादों के आधार पर कंपनी के पास चली जाती है। बताया जाता है कि जनसुनवाई के दौरान सामाजिक कार्यकर्ताओं को शांति भंग करने के आरोप में हिरासत में ले लिया जाता है तो जमीन नहीं देने पर अड़े आदिवासियों को भय दिखाया गया।
सूत्रों की माने तो कोल ब्लाक आबंटन से पहले यह क्षेत्र हाथी कारीडोर के लिए सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था, यही नहीं महत्वपूर्ण वन क्षेत्र के अलावा जीव जन्तुओं के लिए भी यह क्षेत्र सुरक्षित रहा है लेकिन खनन के लिए रोज होने वाले धमाकों ने इस क्षेत्र की सुख शांति छीन ली है और अब देखना है कि जब दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार सत्ता में है तब राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का रुख क्या होता है।

रविवार, 3 मार्च 2019

अमेरिका, चीन का फिर सरपंच बनने की कोशिश


विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और भारत की बालाकोटा में एयर स्ट्राईक के बाद दोनों देशों के बीच जिस तरह से युद्ध के हालात बने थे वह पायलट अभिनंदन की वापसी के बाद सुधरे हैं लेकिन आतंकवाद बीमारी समाप्त हो गये हैं यह सोचना ही गलत होगा। दोनों देश में युद्ध न हो इसकी कोशिश में दोनों ही देश के लोग लगे है लेकिन दोनों देशों के तनाव का फायदा उठाकर अमेरिका-चीन सहित कई देश सरपंच बनने की कोशिश में लगा है। भारत ने रणनीतिक जीत हासिल कर ली है लेकिन आतंकवाद पर जीत दर्ज करना बाकी है।
पुलवामा में आतंकवादी कार्रवाई में जिस तरह से हमारे चालीस जवान और अफसर शहीद हुए थे उसके बाद देश में आतंकवादियों के खिलाफ आक्रोश के स्वर फुटने लगे थे। सरकार के खिलाफ ही नहीं पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा फुटने लगा था। मोदी सरकार पर बदला लेने का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। फिर सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में जिस तरह की कार्रवाई की उसके बाद दोनों देशों के बीच युद्ध का माहौल बनने लगा था। हालांकि बालाकोट की घटना के कुछ ही घंटों बाद पाकिस्तान ने भारतीय सीमा में घुसने की कोशिश की लेकिन हमारी सेना ने इसे नाकामयाब कर दिया। इस आपाधापी में हमारा एक पायलट पाकिस्तान के कब्जे में चला गया और फिर तनाव और बढ़ गया।
भारत और पाक के बीच युद्ध के हालात बनने लगे थे और भारत हर हाल में पाक के खिलाफ पूरे विश्व को एक करने की कोशिश को सफल बनाता जा रहा था। पायलट अभिनंदन की वापसी की घोषणा पाकिस्तान को करनी पड़ी।
दोनों देशों के बीच इस हालात का फायदा उठाकर अमेरिका-चीन सऊदी अरब सहित कई देश सरपंची हासिल करने में लग गये जबकि भारत का स्पष्ट मत है कि दोनों देश की लड़ाई में किसी की भी मध्यस्थता स्वीकार नहीं की जायेगी।
पाकिस्तान के द्वारा पायलट अभिनंदन की वापसी की घोषणा को भारत की रणनीतिक जीत के रुप में देखा जाना चाहिए लेकिन इस जीत की खुशी में हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि इससे आतंकवाद की बीमारी खत्म नहीं हुई है और जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं करती तब तक पाकिस्तान पर पूरी तरह विश्वास कर लेना हमारी भूल होगी।
अंधी राष्ट्रीयता न कहे क्योंकि राष्ट्रीयता हमेशा अंधी होती है। भले ही रुस के इतिहासकार ने यह बात किसी और संदर्भ में कही हो लेकिन यह भारत-पाक के बीच तनाव के समय साफ तौर पर देखी जा सकती है। तनाव के इस माहौल में जिस तरह से कुछ दक्षिणपंथी और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने विषवमन किया उससे आम लोगों के लिए खतरनाक माना जाना चाहिए। जिस तरह से न्यूज चैनलों ने मार डालो, काट डालो की भाषा का इस्तेमाल किया वह हैरान करने वाला ही नहीं शर्मनाक भी रहा। ये इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे जिसे आतंक की भाषा कहना गलत नहीं होगा।
इस मामले में राजनीति साधने की कोशिश हुई। यहां तक की राममंदिर तक के मुद्दे गौण हो गये, राफेल, बेरोजगार, किसानों के मुद्दे की बात तो छोडिय़े, संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा वाले मुद्दे पर भी कोई बोलने को तैयार नहीं था। यह सही है कि 1971 के बाद पाकिस्तान के खिलाफ हुई इस सबसे बड़ी कार्रवाई ने भारतीय जनता पार्टी के लिए संजीवनी का काम किया है और अब तक सत्ता जाने का डर लिये बैठी भाजपा को अब सत्ता में वापसी का भरोसा मिला  है लेकिन अभी चुनाव में समय है देखना है कि भाजपा को इसका कितना फायदा मिलता है।
कर्नाटक भाजपा के नेता यदिरप्पा ने जिस तरह से एयर स्ट्राईक के बाद कर्नाटक में 28 सीटों में से 22 सीट जीतने का दावा किया है। उसके बाद राहत इंदौरी का यह शेर पुन: याद आता है कि 
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या
पता तो करो कहीं चुनाव है क्या