शनिवार, 14 मार्च 2020

साख का सवाल...


दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह ठीक नहीं हुआ यह बात सभी कहते हैं लेकिन अगर परन्तु के साथ दिल्ली हिंसा को परिभाषित करने की जो कोशिश हो रही है वैसी कोशिश इससे पहले कब हुई। यह सोचने की बात है। सोशल मीडिया के इस दौर में कहीं कुछ नहीं छुपता यह जितना बड़ा सच है उससे भी बड़ा सच यह भी है कि अफवाहों और झूठ को परोसने का जो होड़ मचा है उसमें सच कहीं खो सा गया है।
देश में धर्म के नाम पर जो लकीरें खींची गई है वह लकीर इतनी मोटी होने लगी है कि देश का भविष्य क्या होगा कहना कठिन जान पड़ता है। बढ़ते अंधकार के बीच आखिर तरक्की के रासेत क्या होंगे इसकी चिंता तो न सरकार को है और न ही विपक्षी दलों को ही इसकी चिंता है। तमाम राजनैतिक दलों की एक ही चिंता है कि उन्हें सत्ता का लाभ और निजी लाभ किस तरह से मिले। देश की सार्वजनिक कंपनियों और संवैधानिक संस्थाओं की साख जाती है तो जाती रहे वे विधायक या सांसद बनकर अपनी आय किसी तरह बढ़ा लें। बस यही चिंता है।
यही वजह है कि एक-एक कर राज्यों से सत्ता जाने के बाद भी न तो प्रधानमंत्री का रवैया बदला है और न ही भाजपा-संघ की रीति नीति में ही कोई बदलाव आया है। और आम जनमानस के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा है क्योंकि जो भी राजनैतिक दल के लोग चुनकर आते है वे अपने नीजि फायदे में लग जाते हैं।
भाजपा एक-एक कर खोते राज्य के बाद भी यह मानने को तैयार नहीं है कि उनकी साख पर बट्टा लगा है तब सत्ता बदलने से भी क्या होगा? शाहीन बाग की तपिश के बाद दिल्ली में भाजपा नहीं आई, लोगों ने भाजपा को नकार भी दिया लेकिन इससे क्या होगा? न संवैधानिक संस्थाओं की साख बच रही है और न ही सार्वजनिक संस्थाओं का साख ही बन रहा। ऐसे में सत्ता की धर्म के खिलाफ खिंची जा रही मोटी लकीरों के पीछे का अंधकार और घना नहीं होगा। दिल्ली में क्या हुआ, पुलिस तमाशाबीन रही, कड़ी कार्रवाई की चेतावनी  देने वाले जज मुरलीधरन का तबादला कर दिया गया और तमाम राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे और सोशल मीडिया ने लाशों का धर्म बताने में लग गये। जब संवैधानिक संस्थाओं के ही साख पर बट्टा लग चुका हो तब आप किसा दरवाजा खटखटाएंगे? और दरवाजा खटखटाने से फायदा भी क्या रह गया है।
सीएए के खिलाफ उठे विरोध के स्वर को दबाने की कोशिश में हम दंगा करा देते हैं और सोचते हैं कि सत्ता के खिलाफ उठने वाले सभी आवाज को देशद्रोही घोषित कर देंगे। यह एक नया दौर है आप बेरोजगारी का मुद्दा उठा लें या शिक्षा की बदहाल स्थिति पर आवाज बुलंद करें, आपको एक ही जवाब मिलेगा, क्या इससे पहले दूसरी सरकारों में यह नहीं था। आप कोई भी सवाल उठा लें जवाब इसी तरह से आयेगा और फिर आपको देशद्रोही भी घोषित कर दिया जायेगा?
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इस सवाल को हल किए बगैर आप वर्तमान में घना होते अंधेरों से निकलने का रास्ता नहीं खोज सकते। दरअसल इस दौर में राजनैतिक दलों और नेताओं की पद लोलुपता ने उनकी साख पर बट्टा लगाया है। सत्ता की मनमानी के खिलाफ जब खड़ा होने वालों की कोई साख ही न बची हो तब भला आप इस घने अंधेरे में उजाले के रास्ते कैसे ढूंढ सकते हैं। तमाम विरोधी दलों में चाहे वह राहुल गांधी हो, लालू प्रसाद यादव हो, अखिलेश यादव से लेकर आप कोई भी नाम गिन ले इनकी साख कहां रह गई है, तब आम जनता किसके विश्वास पर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरे। 
क्षत्रपों यानी क्षेत्रिय दलों की अपनी स्वार्थ है और कांग्रेस तो आजादी के आंदोलन की गाथा तले ऐसे दब गई है कि वह उससे उबर नहीं पा रही है। सत्ता की मनमानी के खिलाफ उसे नये तरीके से जनता में विश्वास जमाना होगा। अन्यथा इस घनघोर अंधेरे को भुगतने के लिए तैयार हो जाईये क्योंकि जो लोग विधायक या सांसद चुने जा रहे हैं उनके लिए अपनी कमाई ही महत्वपूर्ण है।