बुधवार, 31 मार्च 2021

सवाल झूठ का नहीं...

 

जब आप जानते हो कि वह बात-बात पर झूठ बोलता है? फिर भी उसका झूठ बहस का मुद्दा बने इसका मतलब क्या है? इसका मतलब समझने से पहले एक राजा की कहानी को याद रखना जरूरी है जो सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह का प्रपंच करता था कि जनता उसकी मनमानी की बजाय उसके दान-धर्म और कलाकारी पर ही ध्यान केन्द्रित करे। वह जानबूझकर ऐसे सवाल बड़ा करता था कि लोग उस सवाल को हल करने में लग जाए ताकि खूब ईनाम मिले।

यह एक तरह का सत्ता में बने रहने और मनमानी को जारी रखने का तरीका था। जनता को ऐसे सपनों में सलाह दो कि वह जागती आंखों में वही देखे जो सत्ता चाहती है, जो लोग जानते हैं कि यह सपना है उन्हें बागी करार देकर जेल में डाल दो और उनके खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा दो।

सत्ता की अपनी विचित्र शैली है, और लोकतंत्र में यह शैली तब तक कारगर होते रही है, जब तक स्वयं इस शैली के शिकार न हो जाये। तब तक बहुत देर हो चुका होता है। दरअसल प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परेशानी है, और स्वयं की गलतियों पर दूसरे पर दोष मढऩा मानवीय प्रवृत्ति है, और सत्ता इसी बात का फायदा उठाती है। ये सच है कि इस देश में आरक्षण की वजह से कुछ सामान्य वर्ग के लोगों को दिक्कत हुई है लेकिन इस दिक्कत को बड़ा बनाना और स्वयं को आरक्षण के खिलाफ बताकर जो सपना दिखाया जाता है उसे जानने की जरूरत है। सभी जानते है उसे जानने की जरूरत है। सभी जानते हैं कि आरक्षण समाप्त करना मुश्किल भरा काम है लेकिन आरक्षण का विरोध कर वोट बटोरे जा रहे हैं।

एसेे कितने ही उदाहरण है जो केवल राजनैतिक सब्ज बाग है, हिन्दू राष्ट्र की कल्पना हो या फिर मुस्लिमों या दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत की लकीरे खींचने की बात हो यह सिर्फ वोट हासिल करने का तरीका है। आजकल तो आय दुगनी करने और लाखों लोगों को रोजगार देने का नया जुमला शुुरु हो गया है और हैरानी की बात तो यह है कि इस प्रपंच में पढ़े-लिखे युवा भी फंसते चले जा रहे हैं।

बात असल मुद्दे से भटकाने से हुई है, बात शुरु हुई थी बात-बात में झूठ बोलने से। इसलिए यह बताना जरूरी है कि आम लोगों की सुरक्षाशिक्षा, रोजगार परिवहन के साधन और अस्पताल ही जरूरी मुद्दे हैं लेकिन इस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता। बहस की जाती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंग्लादेश की आजादी को लेकर झूठ क्यों बोल रहे हैं।

जबकि बहस होनी है कि पिछले सात सालों में अच्छे दिन क्यों नहीं आये, रुपयों के मुकाबले डालर का क्या हाल है, दो करोड़ रोजगार के वादों का क्या, पेट्रोल डीजल घरेलू गैस की बढ़ती कीमत और निजीकरण के लिए लगातार बिकते सार्वजनिक उपक्रम पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए। किसानों के आंदोलन को लेकर सरकार की बेरुखी पर सत्याग्रह क्यों नहीं किया जाना चाहिए और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर इन सात सालों में ऐसी क्या परिस्थितियां निर्मित हुई कि पांच लाख से अधिक लोगों ने भारत की नागरिकता त्याग दी। जिस दिन भी यह सवाल खड़ा करते लोग अपने-अपने हिस्से को लेकर खड़ा हो जायेगा देश मजबूत हो जायेगा।

रविवार, 28 मार्च 2021

झूठ बोलने की बीमारी...

 

झूठ बोलने की बीमारी को माई थोमेनिया भी कह सकते हैं, यह उन व्यक्तियों में अधिक होती है जो स्वयं के धर्म-जाति को श्रेष्ठ बताते नहीं थकते, हालांकि माईथोमेनिया एक ऐसी स्थिति है जिसमें झूठ बोलने या अतिश्योक्ति की असमान्य प्रवृत्ति होती है। यह एक तरह का मानसिक विकार है और जिसमें यह विकार आ जाता है वह यह कभी नहीं सोच पाता कि उसकी इस हरकत से वह स्वयं हंसी का पात्र हो सकता है या उसकी झूठ की वजह से देश समाज को शर्मिन्दा उठानी पड़ सकती है।

हालांकि झूठ बोलने वालों को पसंद करने वालों की तादात बढ़ी है और वे इस पर तर्क भी देते नहीं थकते कि झूठ बोलने से किसी का नुकसान न हो रहा हो या किसी की जान बच रही है तो झूठ बोलने में क्या हर्ज है। अपने झूठ से किसी दूसरे को चकित या भ्रमित करना उनके लिए किसी विश्व विजेता से कम नहीं है। लेकिन मनोचिकित्सकों का क्या, वे तो इसे मानसिक बीमारी ही कहते हैं।

मनोचिकित्सकों के अनुसार यह सब माहौल की वजह से होता है, आप जिस माहौल में अपना जीवन खफा देते हैं जहां झूठ, अफवाह और नफरत के अलावा स्वयं ही सर्वश्रेष्ठ है। इसका पता लगाने की जरूरत नहीं पड़ती वह स्वयं अपनी बीमार या विकार का प्रदर्शन कर देता है। और वह व्यर्थ की बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है।

मनोचिकित्सक तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह से झूठ बोलने वाला व्यक्ति कभी वफादार नहीं होता। और स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और इस चक्कर में यदि इस बीमारी का शिकार व्यक्ति यदि उच्च पदों पर बैठा हो तो अपने पद का दुरुपयोग कर समाज-देश का नुकसान कर सकता है।

हालांकि ऐसा व्यक्ति अपनी वाकपटुता के चलते इसी तरह की बीमारी से ग्रस्त लोगों को न केवल अपना प्रशंसक बना लेता है बल्कि एक दो ऐसे काम कर लेता है जो अविश्वसनिय नजर आता है लेकिन कुल मिलाकर इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति से बड़े नुकसान की आशंका बनी रहती है।

हालांकि मनोचिकित्सकों ने झूठ बोलने की बीमारी को पकड़ लेने का दावा करते हैं और अब तो नार्को टेस्ट भी होता है लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग इसलिए पकड़ में नहीं आते क्योंकि झूठ बोलने के लिए कोई खास संस्था से वे ट्रेनिंग लिये होते हैं।

झूठ बोलने की ट्रेनिंग देने वाली जाति या धर्म को ही महान बताकर युवाओं और बच्चों को आकर्षित तो करते ही है साथ ही सच की दीवार में झूठ का ऐसा सुराख करते हैं कि दीवार कम दिखे और सुराख ही बड़ा दिखे। आधा सच बताकर झूठ को ही सच बताने, अफवाह उड़ाने और अपने हालात के लिए दूसरे को जिम्मेदार बताकर नफरत का बीड़ा बोने वाली इन संस्थाओं को लेकर कुछ लोगों ने रिसर्च भी किया है।

खैर जब संस्था का उद्देश्य ही नफरत अफवाह और झूठ फैलाना हो तो आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का क्या मतलब। अपने देश की आजादी हो या दूसरे देश की। बीमारी तो असर करेगा ही।

शनिवार, 27 मार्च 2021

किसान आंदोलन से डरने लगी सत्ता

 

किसानों के आंदोलन को तीन माह हो रहे हैं लेकिन पांच राज्यों के चुनाव में फंसी सत्ता को इससे कोई मतलब नहीं है, न ही आम जनमानस ही इस आंदोलन से उद्देलित है, ऐसे में किसान आंदोलन और भी लंबा चले तो किसी को क्या फर्क पड़ेगा लेकिन एक बात जान ले आंदोलन किसी सत्ता का विरोधी नहीं होता, आंदोलन का मतलब सत्ता की मनमानी से मुक्ति का रास्ता है, आखिर नमक आंदोलन छेड़ कर गांधी जी ने क्या किया था, मुठ्ठी भर नमक बिट्रिश सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी और न ही विदेशी वों की होली जलाने से ही बिट्रिश सत्ता के राजा को ही कोई फर्क पडऩे वाला था लेकिन हिन्दुस्तानियों का दिल जुड़ गया था।

और जब दिल जुड़ता है तो लोग जुड़े है तब मनमानी करने वाली सरकार का सिंहासन डोलने लगता है, वह जनता को एक साथ जुडऩे नहीं देता क्योंकि निरापद सामूहिक कर्म किसी भी आततायी सत्ता को कंधा देता है, उसे तो हिंसा चाहिए ताकि अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सके इसलिए जब आंदोलन अहिंसक हो तो वह उसे हिंसक बनाने षडयंत्र रचता है ताकि भला मनुष्य खामोश बैठ जाए और सत्ता अपनी मनमानी करता रहे। अविश्वास भय और अलग-अलग झुंड चाहिए ताकि हर झुंड को वह अपनी ताकत से दबोच ले।

यही वजह है कि वह किसान आंदोलन ही नहीं इससे पहले हुए शाहिन बाग को लेकर भी भय, अफवाह फैलाते रहा, निजीकरण, बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त लोग एक साथ जमा न हो जाए इसलिए वह राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की चासनी में में डूबे रसगुल्ले परोसता है। क्योंकि सत्ता यह बात जानती है कि खुदीराम, आजाद, भगतसिंह से निपटना आसान है लेकिन गांधी से निपटना अब भी कठिन है क्योंकि गांधी का मतलब अहिंसा, सामूहिकता, समर्पण और भय से मुक्ति है।

किसानों के पास क्या है, दुनिया में किसी भी देश के किसानों से कम आय भारतीय किसानों की है जबकि दुनिया के देशों में कृषि उत्पादन के मामले में वह सबसे आगे की दौड़ में है तब किसान आंदोलन से सरकार क्यों डरे, क्योंकि किसानी से होने वाले नुकसान की वजह से हर साल लाखों युवा किसानी छोड़ दूसरे काम कर रहे हैं।

यही वजह है कि किसान आंदोलन को लेकर न सरकार गंभीर है और न ही आम लोग ही इससे जुड़ पा रहे हैं तब मोदी सत्ता की मनमानी के चलते झुंड में बंटे आंदोलनकारी निजीकरण, महंगाई, बेरोजगारी इकट्ठा क्यों नहीं हो पा रहे हैं।

किसानों ने पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा के खिलाफ वोट डालने की अपील करते हुए आंदोलन का विस्तार तो कर दिया है तब क्या निजीकरण का खिलाफत करने वालों को भी इन राज्यों के चुनाव में अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं करनी चाहिए।

किसानों के भारत बंद को जो लोग असफल बता रहे हैं उन्हें जानना चाहिए कि यदि किसानों का आंदोलन असफल है तो  अहमदाबाद में पत्रकार वार्ता के बीच किसान नेता की गिरफ्तारी पुलिस नहीं करती। सत्ता डरने लगी है यह ईशारा है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

बोल के लब आजाद है तेरे...

 

यकीन मानिये महाराष्ट्र में जो लेटर बम फटा है, उसका कोई मतलब नहीं है, ये सिर्फ जनता को उसके असली मुद्दों से भटकाने का एक राजनैतिक तरीका है क्योंकि यही भाजपा खुद सत्ता में हो तो ऐसे लेटर का वही हश्र करती है जो आज महाराष्ट्र की सरकार कर रही है। यदि यकीन न हो तो गुजरात के संजीव भट्ट या असम के अखिल गोगई की याद दिला दूं।

संजीव भट्ट गुजरात केडर के अधिकारी ने अपने पत्र में कहा था कि गुजरात दंगे को भड़काने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार है लेकिन इसके बाद क्या हुआ, हंगामा मचा और संजीव भट्ट जेल में ढंंूस दिये गये। इस पत्र को लेकर अब शिवसेना हमलावर हो गई है।

असम के अखिल गोगई का पत्र तो और भी विस्फोटक है, जेल में बंद अखिल गोगई को एनआईए दफ्तर में भाजपा ज्वाईन करने, बीस करोड़ रुपये देकर अपना एनजीओ शुरु करने जैसे आरोप है। जेल से लिखे इस पत्र के बाद क्या भाजपा ने कोई कार्रवाई की। यही नहीं उत्तर प्रदेश के आईपीएस अमिताभ ठाकुर को जबरिया सेवानिवृत्त करने जैसे कितने ही आरोप भाजपा की झोली में है। सारदा स्कैम के आरोपी मुकुल राय का भाजपा प्रवेश क्या किसी लेटर बम से कम है।

ऐसे में कल बिहार विधानसभा में हुए शर्मसार कर देने वाली घटना से कौन शर्माये। महाराष्ट्र में ही अपराधियों का राजनैतिक दलों से संबंध किसी से नहीं छिपा है। उद्व ठाकरे मंत्रिमंडल के दो दर्जन सदस्यों पर आपराधिक मामले दर्ज है तो भाजपा के 105 विधायकों में से 60-65 विधायकों पर गंभीर आपराधिक प्रकरण दर्ज है।

हमाम में सभी नंगे है कि तर्ज पर जिस तरह से राजनीति ने आपराधियों को न केवल संरक्षण दिया है बल्कि उसे सत्ता की राह भी दिखाई है। मोदी सरकार के मंत्रिमंडल और सांसदों पर गंभीर अपराध की फेहरिस्त है ऐसे में महाराष्ट्र में लेटर बम को लेकर हंगामा क्या सिर्फ राजनैतिक नौटंकी नहीं है।

राजनैतिक दलों की अपनी सुविधानुसार परिभाषा देने की ललक से जो लोग भ्रमित है उनका क्या कहा जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में संसद में जब कहा था कि वे जनप्रतिनिधियों के अपरधिक मामलों को शीघ्र निपटाने कमेटी बनायेंगे। किसी ने वह कमेटी देखी, या अपराधियों की टिकिट कटते ही देखी क्या? बल्कि दूसरे दलों के अपराधिक आरोप वाले नेताओं को भाजपा में प्रवेश भी मिल गया।

पिछले सात सालों में देश की हालत क्या हो गई है यह किसी से छिपा नहीं है, किसान कितने दिनों से आंदोलित है यह अब खबर ही नहीं बनता, खबर तो निजीकरण से आरक्षित वर्गों को हो रहे नुकसान भी नहीं है। खबत तो वही बनेगा जो सत्ता चाहेगी, इसलिए इन दिनों महाराष्ट्र ही खबर है।

गुरुवार, 25 मार्च 2021

केजरीवाल का खौफ...

 

क्या देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब केजरीवाल सरकार से खौफ खाने लगी है नहीं तो वह दिल्ली राज्य की सत्ता हथियाने पिछले दरवाजे का इस्तेमाल क्यों कर रही है, ऐसा कानून वह क्यों बनाना चाहती है जिससे केजरीवाल सरकार के हाथ पैर बंध जाये और एलजी वही करें जो मोदी सत्ता चाहे!

यह सवाल भाजपाईयों को पसंद नहीं आने वाला है और वे इस बात को सिरे से नकार सकते है कि नरेन्द्र मोदी किसी से नहीं डरते और न ही भाजपा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार को कुचलना ही चाहती है बल्कि वे इसके लिए देश की राजधानी की व्यवस्था को लेकर कई तरह का तर्क-कुतर्क दे सकते हैं लेकिन सच तो यही है कि केजरीवाल सरकार ने जिस तरह से सत्ता चलाते हुए गर्वमेंस दी है और राजनीति की है उससे भाजपा के राष्ट्रवाद और हिन्दूतत्व के मोनोपल्ली की चूलें हिल गई है।

ऐसे में जब नगर निगम के उपचुनाव में भी भाजपा एक भी सीट नहीं जीत सकी तब सत्ता हथियाने के लिए यह बिल लाया गया है कहा जाये तो इसका मतलब आसानी से समझा जा सकता है।

दरअसल केजरीवाल ने जिस तरह से आम जनता के हित में मोहल्ला क्लीनिक से लेकर स्कूल की व्यवस्था की। तय सीमा और तय लागत से कम में ओवर ब्रिज व विकास के कार्य किये वह देश के दूसरे राज्यों के लिए मॉडल बनने लगा है। जबकि इसके उलट मोदी सत्ता आर्थिक नीति, विदेश नीति से लेकर अन्य नीति में फेलवर दिखने लगा है। 

सवाल सत्ता अच्छी तरह से चलाना भर होता तो शायद मोदी सत्ता केजरीवाल की तरफ से लापरवाह हो सकती थी लेकिन केजरीवाल ने राजनीति के चतुर खिलाड़ी के रुप में स्वयं को पेश करते हुए कश्मीर में धारा 370 हटाने पर जिस तरह से खामोशी बरती और एनआरसी और सीएए के मुद्दे पर दूरी बनाई जो भाजपा के लिए बेचैन करने वाला था। इतना ही नहीं अभी पिछले महिने केजरीवाल ने जिस तरह से दिल्ली की बजट को राष्ट्रवादी बजट और रामलला के दर्शन के लिए बजट में प्रावधान किया वह सीधे सीधे भाजपा के राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व के मोनोपल्ली पर हमला था।

और शायद यही वजह है कि मोदी सत्ता नहीं चाहती कि केजरीवाल ताकतवर बने इसलिए दिल्ली की सत्ता स्वयं चलाना चाहती है?

इस बिल के पास होने का अर्थ साफ है कि दिल्ली में चुनी हुई सरकार का कोई अर्थ ही नहीं बचेगा और न ही आम जनता को सरकार चुनने का ही कोई मतलब ही रहेगा। केजरीवाल सरकार जो भी कानून बनायेगी उसे एलजी आराम से रोक देगा और विवाद की स्थिति में राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा। इसका मतलब साफ है कि सत्ता किसके हाथ में होगी?

बुधवार, 24 मार्च 2021

सत्ता की तिलमिलाहट...


देश में बदहाल होती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई, नाराज होते किसान, निजीकरण के नाम पर आरक्षण पर प्रहार, बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त युवा और प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा ही यदि अच्छे दिन की आहट है तो फिर दिल्ली में एलजी का पावर और बढ़ाने तथा महाराष्ट्र और बंगाल में प्रपंच भी किसी तमाशा से कम नहीं है।

शुरुआत दिल्ली में केजरीवाल के कामकाज से शुरु किया जा सकता है जहां की योजनाओं के परिणाम ने विकास के नए दरवाजे ही नहीं खोले हैं बल्कि मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की लोकप्रियता को भी बढय़ा है ऐसे में एलजी को अधिकाधिक महत्व देना क्या केन्द्र की सत्ता की सोची समझी रणनीति नहीं है।

तब मुंबई में आईपीएस परमबीर सिंह के एक पत्र को लेकर मचा बवाल को षडय़ंत्र का हिस्सा मानने से कैसे इंकार किया जा सकता है।

भले ही नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री है लेकिन भाजपा के पास न देश की राजधानी की सत्ता है और न ही आर्थिक राजनीति मानी जाने वाली मुंबई की ही सत्ता है। ऐसे में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती स्वयं को बचाये रखने की है, मुंबई जब आर्थिक राजनीति है तो वहां से पार्टियों को फलने फुलने का साधन भी पर्याप्त मिलता है ऐसे में मुंबई की सत्ता होने का मतलब साफ है।

इन दो महानगरों की सत्ता जब विरोधियों के पास हो और तीसरे महानगर चेन्नई की सत्ता दूर की कौड़ी हो तो कलकत्ता के लिए तिलमिलाहट तो स्वाभाविक है और इस तिलमिलाहट में प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा उनके भाषणों में साफ दिखने लगा है। टीएमसी का मतलब समझाने में लगे प्रधानमंत्री की मंशा पर जो लोग आज ताली बजा रही है वही जब कोई भारतीय जनता पार्टी का मतलब भारतीय जनता पार्टी या भुगतों जनता पार्टी कहने पर नाराज होते है।

दरअसल सात साल की सत्ता की नीति ने देश को जिस राह पर चलाया है उससे देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था ने आम आदमी का जीवन स्तर नीचे की ओर ले गया है। आम आदमी को धर्म जाति में इस तरह उलझा दिया है कि उनकी सोच ही बदल गई है। जिन लोगों का गुस्सा बढ़ती-महंगाई, छिनते रोजगार पर निकलना चाहिए वह गुस्सा प्यारे बच्चे पर निकलने लगा है।

कोई भी देश यदि अपने धर्म और जाति की श्रेष्ठता को लेकर उलझा रहेगा तो वहां आप किसी जरूरी मूलभूत मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित कर ही नहीं सकते, यही वजह है कि अब दूसरे राजनैतिक दल भी अपने को हिन्दूवादी साबित करने में लगे है।

राजनैतिक दलों में सत्ता हासिल करने की होड़ होनी चाहिए लेकिन उनके मुद्दे धर्म और जाति की बजाय आम आदमी से जुड़े होने चाहिए लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह से राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद के नाम पर लोगों के दिमाग को मपा गया उसने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को हिलाकर रख दिया है।

ऐसे में जब देश के प्रधानमंत्री की भाषा ही मर्यादा की सीमा लांघने लगे, किसी के साथ हुई दुर्घटना को मजाक बना दिया जाए और सत्ता के लिए सिर्फ झूठ का सहारा लिया जाए या नफरत फैलाई जाए तो इसका मतलब साफ है कि देश से बड़ा पार्टी हो गया है।

मंगलवार, 23 मार्च 2021

गजब मोदी सत्ता...!

 

हम जानते हैं कि आप इस बात का यकीन नहीं करेंगे कि मोदी सरकार ने अपनी सत्ता के दौरान उद्योगपतियों का लगभग साढ़े सात लाख करोड़ रुपया राईट ऑफ कर दिया है, जबकि मनमोहन सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में दो लाख 20 हजार करोड़ ही राईट ऑफ किया था।

और यह बात वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में सीना ठोक के बताया कि इस वित्त वर्ष में कमर्शियल बैकों ने एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ के बैंक लोन राईट ऑफ किया है। और यह बात किसी को शायद ही पता हो कि बैंक की खराब स्थिति को संभालने ही सर्विस टेक्स के नाम पर मनमानी वसूली हो रही है।

भले ही उद्योगपतियों की मित्रता के आरोपों को खारिज कर दिया जाए। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि जिन उद्योगपतियों के लोन बट्टा खाता में डाला गया है उनमें मेहुल चौकसी और विजय माल्या की कंपनी भी शामिल है। ऐसे पचास कंपनी है जिनके करोड़ों रुपये यानी 68,607 करोड़ रुपये को बट्टा खाते में डाल दिया गया है।

इसका दुष्परिणाम आम जनमानस को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि राईट ऑफ की गई रकम की भरपाई के लिए बैक आम आदमी से वसूल करता है, जिसमें सर्विस चार्ज के अलावा सेविंग खाते में ब्याज दर कम कर देता है, मिनिमम बैलेंस चार्ज सहित अन्य चार्ज का बोझ आम जनता पर पड़ता है। ऐसे में किसानों की फसल एमएसपी से लेने पर आर्थिक बोझ बढऩे की बात कहने वाली मोदी सत्ता की हकीकत को समझना होगा।

सवाल यह नहीं है कि सरकार उद्योगपतियों के कर्ज माफ करती है या उसे बट्टा खाते में डाल देती है सवाल तो यह है कि इन कर्जदारों के भाद जाने पर वह रकम की भरपाई आम जनमानस से क्यों?

एक तरफ सरकार स्वयं को जनता का हितैषी बताते नहीं थकती लेकिन दूसरी तरफ वह आम जनता पर नये-नये तरीके से पैसा वसूलने का बोझ डाल रही है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के इस दौर में जब गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, मध्यम वर्ग का जीवन नारकीय होता जा रहा है तब भी सरकार बड़े उद्योगपतियों से ऋण की वसूली करने की बजाय आम लोगों पर कर का बोझ क्यों लाद रही है।

मोदी सत्ता के इस दौर में आम आदमी पर हो रहे इस खेल में निजीकरण का फैसला भी समानता को बढाने वाला है। हमने पहले ही कहा है कि निजीकरण एक तरह से आरक्षित वर्गों पर प्रहार है और उनके जीवन को और कठिन बना देने वाला है ऐसे में जिन लोगों को लगता है कि आरक्षण से देश को नुकसान हो रहा है वे जान ले कि आरक्षण यदि नहीं होगा तो एक बड़ा वर्ग समानता और मुख्यधारा की दौड़ में कभी नहीं आ पायेगा। आरक्षण के बाद भी जाति के आधार पर लोगों की हत्या कर दी जा रही है, ऐसे में बढ़ती महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी में निजीकरण से सरकार भले ही कुछ कमा ले एक बड़ा तपका सब कुछ खो देगा।

सोमवार, 22 मार्च 2021

पिछले दरवाजे से आरक्षण पर प्रहार !

 

केन्द्र सरकार जिस तरह से निजीकरण को लेकर कदम बढ़ा रही है, उससे न केवल देश का लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रहार हो रहा है बल्कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर भी हमला है। यह सीधे-सीधे आरक्षित वर्ग पर हमला है और आरक्षण पर प्रहार है।

निजीकरण का मतलब मोटे तौर पर भले ही आर्थिक स्थिति को बताया जा रहा है लेकिन यह संघ की उस विचारधारा का एक रुप है जो आरक्षण की खिलाफत करता है। हैरानी तो इस बात की है कि निजीकरण को लेकर पार्टी के भीतर बैठे आरक्षित वर्ग के लोग भी खामोश है जबकि निजीकरण से सर्वाधिक नुकसान इन्ही आरक्षित वर्ग के लोगों को है।

इस देश में संविधान लागू करते हुए आरक्षण का प्रावधान इसलिए किया गया था ताकि अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों को समानता का अधिकार मिल सके, इन वर्गों के गरीब लोग, सुदूर गांव और जंगल में रहने वाले वंचित लोग शहरों में रहने वाले लोगों से शिक्षा, नौकरी और राजनीति में बराबरी का दर्जा प्राप्त कर सके।

लेकिन आरक्षण की खामियां गिनाकर इसका विरोध करने वालों की कमी नहीं है। यह सच है कि आरक्षण के नियमों में कुछ खामियां है लेकिन इन खामियों की वजह से सभी को इसके लाभ से वंचित करना न तो उचित है और न ही देश की एकता के लिए सही है।

राष्ट्रीय सेवक संघ की नीति रही है वह आरक्षण की खामियां गिनाते रही है और इसकी समीक्षा करने की बात कहते रही है, आरक्षण विरोधी चेहरे मौन है यह भी किसी से छिपा नहीं है लेकिन जिस तरह से अब आरक्षण पर प्रहार होने लगे है वह संविधान की मूल भावना पर प्रहार है।

हम यह नहीं कहते कि संविधान पर उंगली उठाने वाले या तिरंगा को अशुभ बताने वालों में देशभक्ति की कमी है लेकिन एक बात तो तय है कि यदि निजीकरण हुआ तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान अजा जजा वर्ग के लोगों को ही होगा। कुछ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की कमजोरी पर प्रहार कर पूरे संस्थानों को बदनाम करने की नीति की वजह से ही निजीकरण को लेकर आम लोग खामोश है लेकिन सच तो यह है कि निजीकरण से असमानता का अंतर और बढ़ जायेगा। निजीकरण को लेकर जिस तरह से बैंक कर्मी आंदोलित है, बीमा कर्मी आंदोलित है यह सिर्फ उन संस्थानों तक ही सिमट कर रह गया है जबकि निजीकरण से जिन्हें सर्वाधिक नुकसान होना है उस अजा जजा वर्ग के नेता इसके गंभीर परिणाम से कैसे अनजान रह सकते हैं।

किसान आंदोलन भी इसी निजीकरण के खिलाफ है। तीनों कृषि कानून से निजीकरण का ही मार्ग प्रशस्त हो रहा है तब भला टुकड़ों में हो रहे आंदोलन का मतलब क्या है।

हैरानी तो इस बात की है कि आरक्षण के खिलाफ पिछले दरवाजे से हो रहे इस प्रहार पर कांग्रेस सहित तमाम राजनैतिक दल भी खामोश है ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था और मूल्यों का क्या मतलब है यह समझा जा सकता है।

रविवार, 21 मार्च 2021

अनिर्णय का बोझ

 

कांग्रेस नेतृत्व इन दिनों अनिर्णय के बोझ से बिखरता जा रहा है। नाराज नेताओं को संभाल नहीं पाने की वजह से कांग्रेस का संकट गहराता जा रहा है, ऐसे में राहुल-प्रियंका की मेहनत का सिर्फ इतना ही मतलब है कि वे खुद को स्थापित करना चाहते है।

वैसे कांग्रेस तो राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से ही लगातार कमजोर होते चली गई लेकिन सोनिया के नेतृत्व में बनी मनमोहन सरकार ने आम कांग्रेसियों की उम्मीद कायम रखी लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद जिस तरह से कांग्रेस में बिखराव शुरु हुआ उससे नेतृत्व की क्षमता पर भले ही सवाल न उठे लेकिन नेतृत्व की निर्णय क्षमता पर तो सवाल उठने ही लगे हैं।

ऐसे में उन लोगों की चिंता बढ़ गई है जो कांग्रेस को लोकतंत्र के प्रहरी के रुप में देखते हैं! लेकिन सवाल वही है कि कांग्रेस से छिटकते लोगों को कैसे संभाला जाए? क्या कांग्रेस में नए तरह का परिवर्तन है या वह प्रसव वेदना से दो चार हो रही है ताकि नए पौध का आगाज हो!

हालांकि कांग्रेस के लिए इस तरह का संकट नया नहीं है। इंदिरा गांधई के नेतृत्व को भी ऐसी ही चुनौती मिली थी लेकिन तब इंदिरा के पास सत्ता की ताकत थी लेकिन आज?

लगातार हारते चुनाव से भले ही कई लोग हताशा में चले गए है लेकिन कांग्रेस में अभी भी ऐसे लोग हैं जो कांग्रेस में जान फूंकने की ताकत रखते है, हर गांव में कांग्रेस को चाहने वाले हैं, इस सबके बावजूद इस सच्चाई से कतई इंकार नहीं है कि चुनावी राजनीति में जीत ही महत्वपूर्ण है और लगातार पराजय ने कांग्रेस के भीतर उथल-पुथल मचा दी है। हालांकि कुछ लोग इसके पीछे की वजह कांग्रेस के उन नेताओं पर दोष मढ़ते हुए बताते हैं कि कई नेता सिर्फ सत्ता और रुतबे के जाल में इतना फंस चुके है कि उन्हें स्वयं के हित के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता और ऐसे ही लोग नये लोगों के लिए एक इंच जमीन छोडऩे को तैयार नहीं है ऐसे में गुटबाजी और अंर्तकलहर को संभाल पाना तब और मुश्किल हो जाता है जब आप लगातार चुनावी राजनीति में पराजित हो रहे हो।

राजस्थान में सचिन पायलट मान गये तो सब ठीक हो गया वरना  उसका भी हश्र मध्यप्रदेश की तरह तय था। ऐसे में ज्योतिरादित्य सिंधिया की स्थिति को लेकर भले ही कांग्रेसी खुश हो ले लेकिन इससे गई सत्ता तो वापस होने वाली नहीं है।

तब सवाल यही उठता है कि कांग्रेस नेतृत्व आखिर किस तरह से संगठन चलाना चाहती है। क्या सिर्फ राहुल और प्रियंका के भाग दौड़ से ही कांग्रेस की वापसी हो सकेगी या नेतृत्व इस बात का इंतजार कर रही है कि मोदी सत्ता की गलतियों से जनता उन्हें सत्तासीन कर देगी?

कांग्रेस की स्थिति इसी से समझा जा सकता है कि पिछले चार साल में 170 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी? ऐसे में नेतृत्व की कमजोरी पर सवाल तो उठेंगे ही?

शनिवार, 20 मार्च 2021

कैसे खुश रहें?

 

विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट में भारत फिर फिसल गया! हमारी स्थिति से बेहतर तो पाकिस्तान है, पाकिस्तान की बात इसलिए कही जा रही है कि हमारी खुशहाली छिनने के आरोपियों ें से एक पाकिस्तान को भी माना जाता है और नफरत और अलगाव का बीज बोने वाले पाकिस्तान को हमसे बदतर बनाते रहते हैं।

ऐसे में उस सपने की हकीकत को समझना होगा, जो अच्छे दिन आयेंगे के जुमले के साथ आम जनमानस को दिखाया गया था, ये उन कट्टरपंथियों और कुंठित हिन्दुओं के लिए भी चेतावनी है जो एक धर्म विशेष पर निशाना साधकर स्वयं को श्रेष्ठता की श्रेणी में स्थापित करना चाहते है। बोया पेड़ बबू का तो आम कहां से होय की कहावत को चरितार्थ करते सत्ता के लिए दो ही मूल मंत्र है, पहला अपनी सत्ता बरकरार रखना और दूसरा सत्ता की रईसी बरकरार रखना इसके लिए देश जल जाये या लोग टेक्स के बोझ से नारकीय जीवन जीने मजबूर हो इससे न राजतंत्र में मतलब था और न ही लोकतंत्र में ही इसका मतलब रह गया है।

एक दो जनप्रतिनिधियों की गरीबी और सादगी जब खबर बेन या उसे मिसाल के तौर पर पेश किया जाए तो इसका साफ मतलब है कि बाकी लोग जनता के सीने पर पैर रखकर अपनी रईसी को स्थापित कर रहे हैं।

जिस देश में प्रधानमंत्री ने 32 रुपया रोज देकर किसानों को सम्मान देने का दावा करते हैं उसी देश में पेट्रोल डीजल में एक लीटर में 33 रुपए वसूले जा रहे हो उस देश में खुशहाली कैसे आयेगी।

खुशहाली नफरत से कभी नहीं आती है। खुशहाली के लिए जितने भी आवश्यक तत्व है उनमें विद्वेष, नफरत, भेदभाव, अलगाव का कोई स्थान नहीं है और जब सत्ता ही नफरत की राजनीति पर टिकी हो तो खुशहाली की कल्पना ही बेमानी है।

याद कीजिए वो पुराने दिन जब अभाव में भी लोग खुश थे लेकिन अच्छे दिन के सपने की चाह ने हमें आज विश्व सूची में कहां खड़ा कर दिया है।

सत्ता पूरी तरह कर्ज में डूब चुका है और देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने लगातार सरकारी सम्पत्ति को बेचा जा रहा है। ऐसे में यदि कोई नौकरी की कल्पना करे तो इसका मतलब क्या है? कर्ज में हर राज्य डूबा हुआ है, लाखों करोड़ों के कर्ज की स्थिति यह है कि कोई भी राज्य सरकार पटा पाने की स्थिति में नहीं है, वह केन्द्र की ओर ताक रहा है और केन्द्र सरकारी सम्पत्ति बेचकर अपनी रईसी को बरकरार रखना चाहता है।

पिछले सालों में देश की स्थिति के लिए सिर्फ कोविड को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से कोई भई सत्ता नहीं बच सकती।

हमने पहले ही कहा है कि सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों का आचरण, विचार ही महत्वपूर्ण होता है और यह सब झूठ, अफवाह और नफरत की बैशाखी पर टिका हो तो देश खुशहाली के रास्ते पर चल ही नहीं सकता। तब आज किसान आंदोलित है कल युवा, मजदूर से लेकर ऐसे लोग आंदोलित होंगे जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

प्रसन्नता आपसी सद्भाव, प्रेम के बीच फलता फूलता है, कुंठा हमेशा ही नुकसानदायक होता है। आप सिर्फ मुस्लिम राजाओं के अत्याचार को उभर कर वर्तमान पीढ़ी पर दोष नहीं दे सकते, या हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम क्यों के सवाल को उभारकर आप उन लोगों की करतूत को नहीं नकार सकते जो आज भी दलितों पर अत्याचार कर रहे है, महिलाओं के पहनावे पर अपनी बीमार सोच को लाद रहे हैं यह भी एक तरह का आतंक है जो समाज के खुशहाली के रास्ते का रोढ़ा हैं। खुश रहें?

विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट में भारत फिर फिसल गया! हमारी स्थिति से बेहतर तो पाकिस्तान है, पाकिस्तान की बात इसलिए कही जा रही है कि हमारी खुशहाली छिनने के आरोपियों ें से एक पाकिस्तान को भी माना जाता है और नफरत और अलगाव का बीज बोने वाले पाकिस्तान को हमसे बदतर बनाते रहते हैं।

ऐसे में उस सपने की हकीकत को समझना होगा, जो अच्छे दिन आयेंगे के जुमले के साथ आम जनमानस को दिखाया गया था, ये उन कट्टरपंथियों और कुंठित हिन्दुओं के लिए भी चेतावनी है जो एक धर्म विशेष पर निशाना साधकर स्वयं को श्रेष्ठता की श्रेणी में स्थापित करना चाहते है। बोया पेड़ बबू का तो आम कहां से होय की कहावत को चरितार्थ करते सत्ता के लिए दो ही मूल मंत्र है, पहला अपनी सत्ता बरकरार रखना और दूसरा सत्ता की रईसी बरकरार रखना इसके लिए देश जल जाये या लोग टेक्स के बोझ से नारकीय जीवन जीने मजबूर हो इससे न राजतंत्र में मतलब था और न ही लोकतंत्र में ही इसका मतलब रह गया है।

एक दो जनप्रतिनिधियों की गरीबी और सादगी जब खबर बेन या उसे मिसाल के तौर पर पेश किया जाए तो इसका साफ मतलब है कि बाकी लोग जनता के सीने पर पैर रखकर अपनी रईसी को स्थापित कर रहे हैं।

जिस देश में प्रधानमंत्री ने 32 रुपया रोज देकर किसानों को सम्मान देने का दावा करते हैं उसी देश में पेट्रोल डीजल में एक लीटर में 33 रुपए वसूले जा रहे हो उस देश में खुशहाली कैसे आयेगी।

खुशहाली नफरत से कभी नहीं आती है। खुशहाली के लिए जितने भी आवश्यक तत्व है उनमें विद्वेष, नफरत, भेदभाव, अलगाव का कोई स्थान नहीं है और जब सत्ता ही नफरत की राजनीति पर टिकी हो तो खुशहाली की कल्पना ही बेमानी है।

याद कीजिए वो पुराने दिन जब अभाव में भी लोग खुश थे लेकिन अच्छे दिन के सपने की चाह ने हमें आज विश्व सूची में कहां खड़ा कर दिया है।

सत्ता पूरी तरह कर्ज में डूब चुका है और देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने लगातार सरकारी सम्पत्ति को बेचा जा रहा है। ऐसे में यदि कोई नौकरी की कल्पना करे तो इसका मतलब क्या है? कर्ज में हर राज्य डूबा हुआ है, लाखों करोड़ों के कर्ज की स्थिति यह है कि कोई भी राज्य सरकार पटा पाने की स्थिति में नहीं है, वह केन्द्र की ओर ताक रहा है और केन्द्र सरकारी सम्पत्ति बेचकर अपनी रईसी को बरकरार रखना चाहता है।

पिछले सालों में देश की स्थिति के लिए सिर्फ कोविड को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से कोई भई सत्ता नहीं बच सकती।

हमने पहले ही कहा है कि सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों का आचरण, विचार ही महत्वपूर्ण होता है और यह सब झूठ, अफवाह और नफरत की बैशाखी पर टिका हो तो देश खुशहाली के रास्ते पर चल ही नहीं सकता। तब आज किसान आंदोलित है कल युवा, मजदूर से लेकर ऐसे लोग आंदोलित होंगे जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

प्रसन्नता आपसी सद्भाव, प्रेम के बीच फलता फूलता है, कुंठा हमेशा ही नुकसानदायक होता है। आप सिर्फ मुस्लिम राजाओं के अत्याचार को उभर कर वर्तमान पीढ़ी पर दोष नहीं दे सकते, या हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम क्यों के सवाल को उभारकर आप उन लोगों की करतूत को नहीं नकार सकते जो आज भी दलितों पर अत्याचार कर रहे है, महिलाओं के पहनावे पर अपनी बीमार सोच को लाद रहे हैं यह भी एक तरह का आतंक है जो समाज के खुशहाली के रास्ते का रोढ़ा हैं।

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

पितृ सत्ता का रोग...


21वीं सदी के सफर के बाद भी पितृ सत्ता अपनी सलतनत की मनमानी छोडऩे तैयार नहीं है वह कभी फटी जींस पर झांकने लगती है तो कभी पहनावे से जाति-धर्म की पहचान करती है। घोर धार्मिकता प्रदर्शित करने वाले ये लोग महादेव की जयकारा तो करते हैं लेकिन अर्धनारिश्वर के लिए एक इंच जगह छोडऩे को तैयार नहीं है।

लिबास को संस्कार और राष्ट्रवाद से जोडऩे वालों की बुद्धि पर यह देश सालों से तरस खा रहा है लेकिन इनकी बेशर्मी कम नहीं होती। आज हम जिस दैार में जी रहे है उसकी अनदेखई करना न केवल बौद्धिक दिवालियापन है बल्कि देश के पुरातन संस्कृति को नकारना भी है।

ऐसे में पंडित जवाहर लाल नेहरु को गरियाने वालों के समर्थन करने वाली महिलाओं को यह याद रखना चाहिए की जब पंडित नेहरु ने महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हकदार बनाने और पितृ सत्ता की मनमानी और अत्याचार से मुक्ति के लिए हिन्दू कोड बिल लाने लगे तो किन लोगों ने खिलाफत की और यह हिन्दू कोड बिल क्या था।

बात 1941 की है, हिन्दू प्रॉपर्टी लॉ कमेटी बनाकर सम्पत्ति के हस्तांतरण के लिए, जिसके अध्यक्ष बीएन राव थे। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से यह काम रुक गया। लेकिन 1944 में इसी कमेटी को फिर अपडेट किया गया। इस कमेटी ने आजादी के कुछ महीने पहिले 1947 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन इससे पहले महिलाएं जान ले कि तब व्यवस्था क्या थी?

इस कमेटी के रिपोर्ट के पहले व्यवस्था थी कि महिलाओं को सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं था पिता की संपत्ति केवल बेटों को मिलता था, पत्नी के गुजारे का पति पर कोई दायित्व नहीं था, पति की सम्पत्ति पर भी अधिकार नहीं था, पति से रिश्ता जन्म जन्मांतर का था।

हिन्दू कोड बिल इन सारे प्रावधानों को खत्म करने वाला था, बेटी को सम्पत्ति पर अधिकार, बहु विवाह पर रोक, गुजारे भत्ते का प्रावधान इस बिल में खास प्रावधान थे। इस बिल के विरोध में उतरने वालों में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, हिन्दु महासभा और संघ अगुवाई करने लगे। कांग्रेस के भीतर राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल और तत्कालीन अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन प्रमुख थे।

दूसरी तरफ थे डॉ. भीमराव अम्बेडकर और पंडित नेहरु। नेहरु भी अड़ गये उन्होंने साफ कह दिया कि  वे यदि यह बिल पास नहीं करा पाये तो उनके प्रधानमंत्री रहने का कोई अर्थ ही नहीं है। तो राजेन्द्र बाबू ने भी कह दिया कि राष्ट्रपति किसी भी बिल पर हस्ताक्षर करने बाध्य नहीं है। बढ़ते विरोध के बीच यह भी कहा जाने लगा कि नेहरु चुने हुए नेता नहीं है फिर वे कैसे इतना बड़ा फैसला कर सकते है? यह सवाल नेहरु को साल गया और उन्होंने कहा चुनाव के बाद ये बिल लायेंगे। अम्बेडकर ने बिल पास नहीं कराने के फैसले के विरोध में केबिनेट से इस्तीफा दे दिया।

चुनावी बिगुल फूंका गया। नेहरु हर सभा में इस बिल का जिक्र करते और भारी जीत के बाद संसद में यह बिल पास कराया। बेटी को पिता की सम्पत्ति में अधिकार और बहुविवाह पर रोक क्रांतिकारी फैसले सिर्फ नेहरु की जिद् से पूरी हुई।

हम नहीं कहते कि विरोध के उन चेहरों को याद रखिये लेकिन महिलाओं को अत्याचार और पितृसत्ता की मनमानी तो याद रखना ही होगा क्योंकि यह एक बीमारी है जो कभी भी फटी जींस से आ सकती है।

गुरुवार, 18 मार्च 2021

सीना ठोक के...

 

जब इस देश के दस लाख बैक कर्मचारी निजीकरण के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे तब उसी समय केन्द्र सरकार सौ और कंपनियों या संस्थानों को बेचने का निर्णय कर रही थी! सवाल यह नहीं है कि सरकार इसे क्यों बेच रही है क्योंकि जनता ने उन्हें जिस काम के लिए चुना है वह बखूबी कर रही है, पेट्रोल-डीजल पर वह कितना टेक्स ले रही है वह सीना ढोक के कहती है। कंपनी बेचने की बात भी वह सीना ठोक के कह रही है तब सवाल यह है कि क्या कंपनियों को वह औने-पौने दर पर बेच सकती है!

हालांकि यह सवाल अब पूछना देशद्रोह हो जायेगा क्योंकि उसे जनता ने चुना है और वह चाहे तो देश की किसी भी कंपनी का निजीकरण कर सकती है और वह चाहे तो फ्री में भी दे सकती है क्योंकि जनता ने जब उसे चुना है तो फिर सत्ता पर सवाल क्यों?

लेकिन हम यहां सवाल नहीं उठा रहे है बल्कि बता रहे है कि मोदी सत्ता ने पांच ट्रिलियन इकानामी करने के लिए देश की सौ संस्थानों को बेचने का या निजीकरण करने का निर्णय ले लिया है जिसमें रेलवे से लेकर खेल स्टेडियम तक शामिल है।

ऐसे में हम यह भी बता दे कि कोई भी खरीददार जब घाटे का सौदा नहीं करना चाहता तब वह क्या करेगा। वह उस कंपनी के एसेट्स की कीमत कम आंकेगा और फिर एसेट्स से भी कम कीमत पर कंपनी खरीद लेगा, क्योंकि इस देश में बैंक से लोन लेने के लिए किसी भी एसेट्स का मूल्यांकन कैसे किया जाता है यह किसी से छिपा नहीं है तब सरकार का आंकलन या मूल्यांकन पर कोई सवाल कैसे उठा सकता है। और यह सब सीना ठोंक के किया जा रहा है।

पिछले 6-7 सालों में जिन संस्थानों का निजीकरण किया गया था जिसे बेचा गया उसके बारे में कहा जाता है कि उन कंपनियों के जो एसेट्स थे उसका बाजार मूल्य कई गुना ज्यादा था। ऐसे में जब आम जनमानस राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की चासनी में डूबी हो और विपक्ष में लडऩे की ताकत ही न बची हो तब सत्ता जानती है कि उसे क्या करना है और वह वही कर रही है।

2014 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में करीब पांच लाख लोगों की नौकरी चली गई है, देश में बेरोजगारी दर चरम पर है लेकिन जब लक्ष्य हिन्दूत्व की रक्षा का हो तो ये सारे मुद्दे गौण हो जाते है।

यही वजह है कि पांच राज्यों के चुनाव में जो लोग भाजपा की जीत का दावा कर रहे हैं वे जानते है कि इस देश को कहां ले जाना है और चुनाव कैसे जीता जाता है। इसलिए स्मृति ईरानी ने बढ़ती महंगाई पर कैसे हाय तौबा मचाया था वह मायने नहीं रखता। सरकार पेट्रोल पर प्रति लीटर 33 रुपए और डीजल पर 32 रुपए वसूल कर रही है उसका भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि खाली बैठे युवाओं के मन में हिन्दू राष्ट्र का सपना जाग गया है और उन्हें इन महंगाई से कोई लेना देना नहीं है और न ही निजीकरण के बाद आरक्षित वार्गो की नौकरी का क्या होगा? यह भी सवाल बेमानी है क्योंकि आरक्षण ने उनका अधिकार छीना है वह यही समझे है।

तब मंदिर में पानी पीने वाला आसिफ के लिए हिन्दुत्व का औजार चुनाव में भी कारगर होगा, तब देश की संस्थाएं कैसे किसने से बची रह सकती है।

बुधवार, 17 मार्च 2021

आदमी की प्रवृत्ति...

 

गब्बर सिंह का भी तो कोई परिवार नहीं था? फिर वह लूटपाट क्यों करता था? सोशल मीडिया में इस तरह के सैकड़ों सवाल तैर रहे हैं? लेकिन इनका एक ही जवाब है कि हर व्यक्ति की अपनी फितरत और प्रवृत्ति होती है? धंधेबाज व्यक्ति हर काम को इसी ढंग से करता है, आखिर कफन भी तो बेचे जाते हैं? और भौतिकता के दौर में नैतिकता, सुचिता तमाशा नहीं होता तो लालकृष्ण अडवानी इस तरह से न किनारे किये जाते और न ही वे चुप बैठ सकते थे।

ऐसे में जब किसान आंदोलन के दौरान लालकिले में झंडा फहराने वाले दीप सिंद्धू का भापा कनेक्शन और प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर सामने आया तो भी किसी को हैरानी नहीं हुई तब अब जब परिवहन मंत्री नीतिन गडकरी को घूस के रुप में बस देने वाले मामले में स्वीडिश बस कंपनी स्कैनिया के भारतीय पार्टनर एस.वी.एल.एल. के मालिक रुपचंद बैद के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर सामने आई है तब भी किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि आदमी कुछ भी बोल ले उसकी प्रवृत्ति नहीं बदलती उसका फितरत वैसा ही रहेगा।

इसलिए 2014 में जब संसद में अपराधिक प्रवृत्ति के सांसदों के फैसले शीघ्र करने के लिए अलग से व्यवस्था करने की बात कही गई तब भी हमने इसे बकवास कहा था हालांकि तब ट्रोल आर्मी ने हमें देशद्रोही तक कह दिया था, लोकपाल बिल और कालाधन वापसी को लेकर भी जो लोग प्रधानमंत्री  पर भरोसा करते हैं उन्हें यह जान लेना चाहिए कि संसद में करीब आधे सांसदों के खिलाफ अपराधिक मामले दर्ज है जिनमें भाजपा के सांसदों की संख्या भी बहुत ज्यादा है।

ऐसे में जब शारद चिट फंड घोटाले से जुड़े लोगों का भाजपा में स्वागत करते हुए सदस्यता से नवाजा गया तब भी यही सवाल था कि आखिर गब्बर सिंह का भी तो कोई परिवार नहीं है?

सवाल परिवार दोस्त या रिश्तेदारों का नहीं है सवाल उस राजनीति का है जिसका ध्येय सत्ता हासिल कर पावर हासिल करना है, जनसरोकार की बात ही बेमानी है और जब सत्ता में बने रहने के लिए राष्ट्रवाद, हिन्दू मुस्लिम ही पर्याप्त है तब नैतिकता की बात वे करते हैं जो विपक्ष में बैठे होते है। 

इसलिए नीतिन गडकरी ने जब सीना ठोक कर बस रिश्वत वाले मामले में मानहानि का दावा करने की बात कही तब पता चला कि रुपचंद वैद का क्या रोल है। क्या यह भाजपा की अंदरूनी लड़ाई के चलते यह सब हो रहा है। रिश्वत तो दी गई है? लेकिन क्या वह नीतिन के बजाय किसी और को मिली है?

भले ही ट्रोल आर्मी, आईटी सेल और वॉट्सअप युनिवर्सिटी को इसमें कोई रूचि न हो लेकिन दीप सिद्धू के बाद रूपचंद वैद के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर तो अपनी कहानी कह ही चुका है।

मंगलवार, 16 मार्च 2021

सबकी बारी आयेगी !

 

न किसान दिल्ली के भीतर जा पाये न उनकी आवाज ही दिल्ली की मोदी सत्ता ने सुनी। 2014 से पहले दिल्ली के वोट क्लब से लेकर रामलीला मैदान तक पहुंचना आसान था, दिल्ली को आवाज सुननी पड़ती थई लेकिन अब हालात बदल गए हैं, एक सौ दस दिनों से अधिक हो गये किसान आंदोलन को! लेकिन वे लुटियन दिल्ली में नहीं जा पाये ऐसे में विशाखापट्टनम में एक महिना से निजीकरण के खिलाफ चल रहे आंदोलन को दिल्ली कैसे सुन सकती है। तब बैंक कर्मी भी आंदोलन कर रहे है, इसके बाद हर वो कंपनी और संस्थान के लोग एक-एक करके आंदोलन करेंगे लेकिन एकजुटता के अभाव में अपनी बारी का सिर्फ इंतजार करेंगे!

बैंक कर्मियों ने निजीकरण के खिलाफ जब आंदोलन किया तो बैंकों को डूबाने की मोदी सत्ता की नीति पर सवाल उठाने की बजाय मीडिया पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त हो गई। ऐसे में विशाखापट्टनम में 35 दिनों से राष्ट्रीय इस्पात विकास निगम के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन को कौन दिल्ली तक पहुंचाए।

दिल्ली में जब पहले ही तय कर लिया है कि वह सबकुछ निजीकरण कर देगा तब संस्थाएं केवल अपनी बारी का इंतजार ही कर सकते है। इस्पात विकास निगम के करीब पचास हजार कर्मचारियों ने भी किसान आंदोलन को कहां सुना था, फिर बैक कर्मियों की तो अपनी दुनिया है।

क्या बैंकों की हालत के लिए वहां के कर्मचारी जिम्मेदार है या सरकार की वह नीति है जिससे उद्योगपतियों के अरबों रुपये के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिया। कर्जदारों से वसूलने की बजाय जनता पर सर्विस टेक्स का बोझ डालना कौन सी नीति है।

सवाल यही है कि यदि सरकारी बैक से आम जनता त्रस्त है तो निजी बैंकों की हालत कितनी अच्छी है, क्या वह जनता का पैसा नहीं डुबायेगी, हाल के वर्षों में लक्ष्मी विलास बैंक सहित कई निजी बैंक बंद हुए तो फिर सरकारी बैंकों के निजीकरण का मतलब सिर्फ उसके एसेट्स से कमाई करना नहीं है।

फूट डालो राज करो की नीति के दिन अब भी जारी है, सरकार की रणनीति रही है कि वह अपनी करतूत के खिलाफ उठ रहे आवाजों को एक न होने दे। और फिर इस सरकार ने तो राष्ट्रवाद, हिन्दूत्व, देशद्रोह, आतंकवादी जैसे ऐसे शब्द उछाले हैं जिससे असहमति के स्वर सहम से गये हैं।

बिखराव का फायदा उठाने की कोशिश ने देश की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर दिया है। पेट्रोल-डीजल पर मनमाने टेक्स ने सरकार की तिजौरी तो भरी है लेकिन अव्यवस्था के चलते या सही उपयोग नहीं होने से सब गड़बड़ हो गया है ऐसे में राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद का तड़का से आप खुश रहिए और अपनी बारी का इंतजार करते रहिए!

सोमवार, 15 मार्च 2021

ये कौन सी राह !


क्या कांग्रेस भीतर से इतनी डर गई है कि वह मुसलमानों के हित में खड़ा होने से पीछे भाग रही है? कांग्रेस ही क्यों दूसरी राजनैतिक दल भी क्या डर नहीं गई है? तब फिर इसे हम संघ की सफलता कह सकते हैं। क्या संघ जीत गया है और लोकतंत्र हार गया है? धर्म निरपेक्षता कोई मायने नहीं रखता? मानवता, संवेदना सब कुछ समाप्त हो चला है।

यकीन मानिए जिन पांच राज्यों में हो रहे चुनाव पर दृष्टि डाला जाए तो यह बात सच ही दिखेगा? क्योंकि इन चुनावों में तमाम राजनैतिक दलों ने मुसलमानों के हितों को लेकर दूरी बना ली है। भाजपा तो बंगाल विजय जय श्रीराम के नारे के साथ करना चाहती है। जिस बंगाल में गाडिय़ों के पीछे जय काली, जय माता दी लिखा जाता था उस बंगाल में भी जय श्रीराम के नारों ने जगह बनाकर जय काली को पीछे छोडऩे लगा है?

आजादी के आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने भी कुर्बानी दी है और कांग्रेस हमेशा ही अल्पसंख्यकों के साथ  खुद को खड़ा किया है, उसके लिए लड़ते रही है, यहां तक की विभाजन के दौरान हुए दंगों में भी कांग्रेस अल्पसंख्यकों के साथ डटकर खड़ी रही, संतुष्टिकरण के आरोपों से भी कांग्रेस कभी विचलित नहीं हुई। फिर बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव में वह मुसलमानों के साथ खड़ा होने से क्यों हिचक रही है, उसके घोषणापत्र में मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं होना यह दिखाता है कि हिन्दू वोट खिसकने के डर से वह भीतर तक कमजोर हो गई है। ऐसे में इन राज्यों के मुसलमानों के लिए चुनाव का क्या मतलब है। बंगाल की शेरनी कहलाने वाली ममता बैनर्जी भी मंदिरों में घूमने लगे और स्वयं को किसान-मजदूर का हितैषी बताने वाले, धर्मनिरपेक्षता की रहनुमा के तमगे पहनने वाले कम्यूनिस्ट पार्टी भी यदि मुसलमानों के साथ खड़ा होने से हिचकने लगे तो यह मान लेना चाहिए कि संघ ने जैसा चाहा वैसा इस देश को ढाल दिया है।

या तो मुसलमानों के साथ खड़ा होकर हार जाओं या जीतना है तो हिन्दुत्सव के झंडे के नीचे खड़े हो जाओ?ऐसे में जब मुद्दा सिर्फ जय श्रीराम नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? हमने पहले ही कहा था कि खेला तो देश की जनता के साथ होबे है। बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, बिकते सार्वजनिक उपक्रम, विश्वसनियता खोते संवैधानिक संस्थान के बाद भी यदि इस देश के चुनाव में हिन्दुत्व ही सबसे बड़ा मुद्दा है तो फिर कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता का ढोंग छोड़कर इसी राह पर चल पडऩा चाहिए। और मुसलमानों के लिए औवेसी की पार्टी तो है ही।

आजादी की लड़ाई से लेकर इस देश की तरक्की में मुसलमानों या अल्पसंख्यकों के योगदान को यदि झटके में खारिज करने की प्रवृत्ति के खिलाफ भी कांग्रेस खड़ा नहीं हो पा रही है तो फिर देश में कमजोर होते लोकतंत्र पर फ्रीडम हाउस, स्वीडन की वी डेमोक्रेसी ही नहीं सारी दुनिया ही उंगली उठायेगी तो गलत क्या है?

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह से सिखों को खालिस्तानी या आतंकवादी होने का तोहमत लगाया गया तब क्या उनके योगदान को खारिज करने की मंशा नहीं थी। हमने पहले ही कहा है कि आज मुसलमान निशाने पर है कल दूसरे अल्पसंख्यकों की बारी भी आ सकती है?

क्योंकि जिसका बीज ही नफरत, झूठ, अफवाह के साये में बना हो उससे और कोई उम्मीद बेमानी है लेकिन डरी हुई कांग्रेस का क्या कहें?

इन चुनावों का परिणाम जो भी हो, भले ही भाजपा के पक्ष में न हो लेकिन तमाम राजनैतिक दलों की मुस्लिमों से बेरुखी ने संघ को चुनाव से पहले ही नहीं जीता दिया है? धर्म निरपेक्षता क्या हार नहीं गई है?

रविवार, 14 मार्च 2021

खेला होबे...

 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने जब कहा कि खेला होबे (खेल हो गया) तो देश के दूसरे राज्यों में बैठे लोगों ने क्या समझा होगा? देश की जनता के साथ तो पहले ही खेला होवे हो चुका है।

राजनीति में जुमले और नारों का अपना महत्व है, अच्छे दिन आयेंगे और मोदी है तो मुमकीन है के नारों से जिस तरह से आम जनमानस को जोड़ा गया उसका सच क्या खेला होबे के साथ सामने नहीं है?

ये सच है कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में माहौल खड़ा कर दिया था तब देश में मंहगाई बढऩे लगी थी, लोकपाल बिल भी लोगों की प्राथमिकता में शामि था, राम मंदिर, धारा-370 जैसे मुद्दों ने कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश खड़ा कर दिया था। हालांकि रोजी-रोटी को लेकर उतना झंझट नहीं था, लेकिन आखिर वे इस देश में मजे से बिरयानी कैसे खा सकते हैं का सवाल बेवजह खड़ा किया गया। काला धन, भ्रष्टाचार और राजनैतिक अपराध को इस देश से उभारा गया कि इससे बुरा दिन तो कोई हो ही नहीं सकता था! पटेल-सुभाष बाबू की उपेक्षा और सिर्फ गांधी परिवार को प्राथमिकता के झूठ के उस अच्छे दिन की कल्पना लोक में विचरण का मार्ग प्रशस्त किया जो मोहक लगने लगा।

लेकिन परिणाम क्या हुआ! क्या सुभाष बाबू के मौत का वह रहस्य पिछले 6 सालों में उजागर हो पाया! सिर्फ धारा 370 के एजेंडे को छोड़ दे तो देश को क्या मिला?

इस पर चिंतन करने की जरुरत ही नहीं बेबाक बोलने की भी जरुरत है, असहमति के स्वर को दबाने देशद्रोह कानून का सहारा लिया गया! संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनियता तार-तार हो चुकी है! गैर सिलेण्डर की कीमतों ने फिर चूल्हे की ओर लौट जाने मजबूर कर दिया है, बढ़ती बेरोजगारी से कितने ही लोग रोज आत्महत्या कर रहे हैं या अपराध में चले गए। भ्रष्टाचारी-दूराचारी और माफिया एक ही छत के नीचे इकट्ठे होने लगे है, न अपराधियों-भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई हो रही है और न ही कालाधन आने की उम्मीद ही बची है?

सार्वजनिक उपक्रमों के बंद होने और बेचे जाने से किसकी नौकरी जा रही है, बढ़ती महंगाई से कौन ज्यादा पीडि़त है! उद्योगपतियों के बढ़ते कर्ज को बट्टा खाने में डालने से बैंक किससे पैसा वसूल रही है! ये सवाल पूछना भी देशद्रोह हो चला है तब दूसरी तरफ नजर भी दौडऩा चाहिए कि क्या उन लोगों के मजे लेकर बिरयानी खाने में दिक्कतें आई है, बिल्कुल नहीं आई है वे  अब भी मजे से बिरयानी खा रहे हैं हां हमारे खाने में परेशानी जरूर बढ़ गई है।

तब यदि ममता बैनर्जी कहती है खेला होबे यानी खेल हो गया तो बरबस ही देश के दूसरे राज्यों से आवाज सुनाई देती है खेला तो हमारे साथ पहले ही होबे है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

कैसा जनसरोकार !



एक तरफ केन्द्र सरकार के मनमाने फैसले से देश की आर्थिक स्थिति बदहाली की कगार पर है, बेरोजगारी और महंगाई से आम जनमानस त्रस्त है तब छत्तीसगढ़ सरकार के द्वारा विधायकों और पूर्व विधायकों की सुविधा की राशि को दो गुणा कर देने का मतलब क्या है? ये सच है कि भूपेश सरकार जब से सत्ता में आई है तब से आम जनों के हित में कई निर्णय लिये है लेकिन नोट बंदी, जीएसटी और कोविड की वजह से आर्थिक झंझावत भी कम नहीं है।

ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार का यह निर्णय न केवल हैरान कर देने वाला है बल्कि सत्ता के चरित्र को भी प्रदर्शित करता है। सवाल जनप्रतिनिधियों की सुविधा में ईजाफे का नहीं है और न ही हमें इस बात से इंकार है कि जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं में कमी हो लेकिन क्या यह वर्तमान समय में उचित है।

छत्तीसगढ़ भी उन राज्यों में शामिल है जिनकों लगातार कर्ज लेना पड़ रहा है, प्रदेश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है और केन्द्र की मनमानी के चलते आने वाले दिनों में कोई आर्थिक मदद की उम्मीद तो दूर योजनाओं के लिए या धान खरीदी के कोटे के लिए ही पैसा मिलने की उम्मीद नहीं है।

जानकारो का कहना है कि छत्तीसगढ़ राज्य में विकास के कार्यों में रफ्तार की कमी है। धीमी गति से चल रहे विकास कार्यों के अलावा नई नौकरी के रास्ते भी नहीं खुल पा रहे हैं। अस्पताल या स्कूल भवन तो बन गए है लेकिन डाक्टरों और शिक्षकों की कमी है। सहायक शिक्षक अपने वेतन की विसंगति को दूर करने आंदोलनरत है, मनरेगा का काम भी धीमी गति से हो रहा है। इसके अलावा भी वित्तीय स्थिति को लेकर कई तरह के सवाल है। साल दर साल राज्य का कर्ज बढ़ता ही जा रहा है, पैसों की कमी की वजह से कई योजनाएं तय समय में पूरी नहीं होने की वजह से योजना लागत में डेढ़ से दो गुणा वृद्धि हो गई है।

ऐसी स्थिति में पूर्व और वर्तमान विधायकों की सुविधा में सीधे दो गुणा वृद्धि को लेकर सवाल तो उठेंगे ही। क्या विधायकों की सुविधा जन सरोकार से बड़ा हो गया है।

राजधानी में ही शारदा चौक से तात्यापारा चौक तक चौड़ीकरण के लिए बजट का रोना रोया जाता है, तालाबों की सफाई का मामला हो या नए ओवर ब्रिज निर्माण का मामला हो सब कुछ वित्तीय संकट के कारण रुका पड़ा है।

सरकार अपने प्रचार प्रसार और सुविधा के नाम पर करोड़ों अरबों रुपये खर्च कर रही है लेकिन अस्पतालों की हालत बदहाल है, कहीं दवाई नहीं तो कहीं डाक्टर नहीं है। ऐसे में यह सवाल तो उठेंगे ही कि क्या जनप्रतिनिधि केवल अपनी सुविधा ही देखते है। जब छत्तीसगढ़ के विधायकों का वेतन वैसे भी बहुत ज्यादा है।

गुरुवार, 11 मार्च 2021

सबसे बड़ा रुपैया !

 

सत्ता का अपना चरित्र है, तो पैसे वालों का भी अपना चरित्र है। फिर नामधारियों का चरित्र भी अपनी तरह का है? ये तीनों प्रजाति कितने भी गरीबी से उठे हो सबकुछ छिन्न भिन्न हो जाता है।

जिस भ्रष्टाचार, अपराध, कालाधन बेरोजगारी और महंगाई को लेकर सत्ता में जब मोदी सरकार आई तब देश को नई उम्मीद जगी थी! लेकिन पिछले 6 सालों में क्या हुआ? इसका जवाब किसी के पास नहीं है क्योंकि मोदी को लेकर भले ही कोई उम्मीद न हो लेकिन विपक्ष के प्रति नाउम्मीद कायम है!

तो क्या भारतीय समाज ने भ्रष्टाचार, अपराध, महंगाई और बेरोजगारी को अपनी नियति मान चुका है या उन्होंने यह स्वीकार कर लिया है कि सत्ता किसी की भी हो यह सब तो चलता ही रहता है? तब इसका अभिप्राय क्या समझा जाए!

पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, इन राज्यों में सत्ता किसकी होगी यह तो 2 मई को ही पता चलेगा लेकिन सबसे दिलचस्प चुनाव बंगाल में हो रहा है, प्रधानमंत्री बंगाल में लगभग दो दर्जन रैली करेंगे? दिलचस्प इसलिए है क्योंकि उनकी भाषण शैली में अब भी जोश बाकी है, बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, बिकते सार्वजनिक उपक्रम, भाजपा में अपराध से जुड़े लोगों को शामिल करने और धनबल के तमाम प्रदर्शन के बाद भी कोई हुंकार भर सकता है तो यह काम प्रधानमंत्री मोदी ही कर सकते है।

ऐसे में जिन लोगों को मिथुन चक्रवर्ती के भाजपा प्रवेश से हैरानी हो रही है उन्हें शायद पता नहीं है कि मिथुन चक्रवर्ती के बेटे पर एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया था? ब्रिगेडियर परेड ग्राउण्ड में जिस परिवर्तन रैली की बात प्रधानमंत्री ने की वह परिवर्तन तो पूरे देश की जरुरत है लेकिन चुनाव तो बंगाल में हो रहे है ऐसे में नक्सली से लेकर कई तरह के आरोप के बाद भी मिथुन चक्रवर्ती भाजपा को इसलिए प्रिय है क्योंकि मिथुन चक्रवर्ती भाजपा को वोट दिला सकते हैं और जब वोट दिला सकते हैं। और जब वोट हासिल करना ही असली मकसद हो तब न प्रधानमंत्री मोदी की नैतिकता को देखनी चाहिए और न ही मिथुन चक्रवर्ती की ही नैतिकता या नास्तिकता वाली बात पर ध्यान देना चाहिए?

सवाल सिर्फ इन पांच राज्यों के चुनाव का नहीं है, और न ही सवाल इसके परिणाम का ही है? सवाल तो आम लोगों का है जिसका वर्तमान दौर में कोई मतलब ही नहीं रह गया है? आप आंकड़े गिनाते रहिए कि मोदी सरकार के दौर में इस देश में बेरोजगारी दर 40 फीसदी से उपर हो गया, महंगाई भी चरम पर है और आर्थिक हालत इतने खस्ते हो चले हैं कि न केवल सार्वजनिक उपक्रम बेचे जा रहे हैं बल्कि रिजर्व बैंक ने रिजर्व फंड भी खर्च किये जा रहे है, ईडी, सीबीआई या आयकर का इस्तेमाल लोगों को चुप कराने या पार्टी में लाने किया जा रहा है, धनबल से सत्ता को खरीदा जा रहा है? आम लोगों को इन बातों से क्या लेना देना है क्योंकि सत्ता की ताकत के खिलाफ आम आदमी कैसे लड़े वह तो अपने परिवार के पालन पोषण में ही उलझा हुआ है और जिसे लडऩा है वे या तो देशद्रोह कहलाने के डर से चुप हैं या पैसों से खरीदे जा चुके है!

बुधवार, 10 मार्च 2021

कांग्रेस और ठेकेदार !

 

छत्तीसगढ़ के कांग्रेस में क्या सचमुच सब ठीक चल रहा है? यह सवाल अब खुलकर सामने है कि मुख्यमंत्री की योजना को उनके ही मंत्री और पार्टी संगठन के लोग ही पलीता लगाने में लगे हैं और कांग्रेस के वे लोग अब किनारे होने लगे हैं या किनारे किये जा रहे हैं जिन्होंने कांग्रेस को सत्ता में लाने न केवल संघर्ष किया बल्कि जेल भी गये।

छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन मंत्रियों की भूमिका को लेकर कांग्रेस के भीतर ही सवाल उठाये जा रहे हैं जिसमें प्रमुख नाम संसदीय कार्यमंत्री रविन्द्र चौबे का है। रविन्द्र चौबे शुरु से ही अपनी कार्यशैली को लेकर विवाद में रहे हैं और मीठलबरा के नाम से चर्चित भी है।

ताजा मामला उनके विभाग में जिसके चलते भाजपाई ठेकेदारों को फायदा हुआ और दो-पांच प्रतिशत कमीशन देकर अपने खेल को जारी रखने लगे। जिसका परिणाम यह है कि वे ही लोग फिर मलाई खाने लगे जो पिछले पंद्रह साल से मलाई खा रहे थे। ऐसे में मंत्रियों के बंगले में उन्हीं ठेकेदारों की चल रही है जो पहले भी अपना चलाते थे। मनमाना कमीशन दो और भ्रष्टाचार करते रहो चूंकि अफसर वहीं है और पंद्रह साल की भरपाई मंत्रियों को करनी है तो मामला फिट है। छत्तीगढ़ के कई मंत्रियों पर भाजपाई ठेकेदारों को संरक्षण देने का आरोप लगने लगा है और इनमें से एक मंत्री रविन्द्र चौबे के खिलाफ तो शिकायत करने की भी तैयारी हो चुकी है। रविन्द्र चौबे के जल संसाधन और कृषि जैसे महत्वपूर्ण विभाग के बारे में कहा जाता है कि यह इन दिनों कमाई का बड़ा जरिया बन चुका है और इन विभागों में भाजपा से जुड़े ठेकेदारों की मनमानी से कांग्रेस के लिए मुसिबत खड़ी हो सकती है। इस विभाग में चल रहे कमीशनखोरी की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मंत्री के रुख से नाराज आधा दर्जन कांग्रेसियों ने प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया और राहुल गांधी से मय सबूत शिकायत करने की तैयारी कर चुके हैं।

शिकायतकर्ताओं ने जिस तरह से तीन चार ठेकेदारों की रविन्द्र चौबे, भाजपा के एक पूर्व मंत्री सहित भाजपा के कार्यक्रमों में शिरकत करने की जो तस्वीरें जुटाई है वह आने वाले दिनों में बवाल खड़ा कर सकता है। शिकायतकर्ता का कहना है कि एक तरफ कांग्रेस के लोग पूरे देश में भाजपा के खिलाफ चुनौतीपूर्ण लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में भाजपा से जुड़े लोगों को खाद-पानी दिया जा रहा है उसे बर्दाश्त नहीं किया  जायेगा।

हालांकि कई कांग्रेसियों का तो यहां तक कहना है कि यदि सत्ता आने के बाद भी कांग्रेस से जुड़े लोगों की उपेक्षा हो रही है तो हाईकमान को खबर होनी ही चाहिए।

मंगलवार, 9 मार्च 2021

घोर दरिद्रता...


 

अपने को विश्व का सबसे बड़ी पार्टी मानने घोर दरिद्रता से जूझ रही है! इतिहास की इस बेरुखी ने उन्हें इस कदर दरिद्र कर दिया है कि वे दूसरे दलों के नेताओं के पीछे छुप कर अपने इतिहास को छुपाने की कोशिश में लगी है।

यह बात हम पहले भी लिख चुके है कि माफी मांगने वाले वीर सावरकर, गोडसे, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इस पार्टी के सामने यह संकट सदैव रहेगा कि आजादी की लड़ाई में उनके तरफ से किसी योद्धा का इतिहास में वह नाम नहीं है जिस पर गौरव करके वोट हासिल किया जा सके। यही वजह है कि पांच राज्यों के चुनाव में  उन्हें फिर से एक बार उन महान नेताओं के पीछे छुपना पड़ रहा है जिन्होंने कभी भी संघ के समर्थन में एक शब्द नहीं कहे बल्कि विरोध में खड़े रहे!

हालांकि जंग और चुनाव में सब जायज है बावजूद इसे मानसिक दिवालियेपन की नजर से देखने के बजावय इतिहास को फिर से समझने की जरूरत है। बंगाल चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सुभाष बाबू, रविन्द्र नाथ टैगोर, बकिमचंद्र चटर्जी या अरविन्दो का सहारा ले रही है जबकि उसके अपने नायक श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी बंगाल से है लेकिन उन पर मुस्लिम लीग से मिलकर कांग्रेस के खिलाफ सरकार बनाने, गठजोड़ करने का ही इतिहास नहीं है बल्कि भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ आवाज बुलंद करने का भी आरोप है। इसलिए उन्हें वे किनारे कर सुभाष बाबू के पीछे खड़े हैं। ये अलग बात है कि सुभाष बाबू की मौत पर राजनीति करने वाले और कांग्रेस पर आरोप लगाने वाले 6 साल की सत्ता में किसी रहस्य को नहीं खोज पाये लेकिन यह सवाल कौन पूछे?

इससे भी भयावह राजनीति तो तमिलनाडु के चुनाव में चल रही है। तमिलनाडु की राजनीति के महान सपूत कामराज को कौन नहीं जानता, 15 साल की उम्र में आजादी की लड़ाई और कांग्रेस के इस महान नेता को लोग  आज भी याद करते है। मिड डे मिल और फ्री स्कूली शिक्षा के जानक के रुप में जाने जाने वाले कामराज ने लाल बहादुर शाी और इंदिरा गांधी की सत्ता के सबसे दमदार चेहरे रहे हैं।

ऐसे नेता कामराज के फोटो और कटआउट के साथ तमिलनाडु चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कट आउट का अर्थ क्या है जबकि वे जीवन पर्यन्त संघ का विरोध करते रहे हैं। क्या राजनीति का स्तर और भी गिरने वाला है। बेशर्मी क्या और बढ़ाने वाली है। आप इन सवालों को नजरअंदाज भले ही कर दें लेकिन सवाल उनके भीतर की आदमियत को समाप्त तो कर ही दिया है जो सत्ता मोह में बेशर्मी के हद तक गिर रहे हैं।

सोमवार, 8 मार्च 2021

समय लिखेगा अपराध...



एक तरफ फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को अमेरिका के विदेश सचिव ने स्वीकार करते हुए दरियादिली दिखाई है और कहा है कि हाल के सालों में जो कुछ हुआ उसमें अमेरिका सरकार सुधार लायेगी तो दूसरी तरफ भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को भ्रामक, गलत और अनुचित कहा है?

ेऐसे में भारत के हर नागरिक को फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट पढऩी चाहिए और फ्रीडम हाउस द्वारा आंशिक रुप से स्वतंत्र कहने वाले मुद्दों के अलावा दूसरी बातों को भी गौर करना होगा? एक तरफ हम 21वी सदी में भारत की तरक्की और अच्छे दिन आयेंगे के सपने में जी रहे हैं तो दूसरी तरफ नागरिक स्वतंत्रता का क्या हाल है यह किसी से छिपा नहीं है।

जिस देश में आज भी लिंग भेद, जाति और धर्म के नाम पर न केवल विभाजन रेखाएं खींची जाती है बल्कि कानूनन भेदभाव होता है, वहां आजादी का मतलब आसानी से समझा जा सकता है। सत्ता और राजनैतिक दलों की मनमानी, उनके झूठे वादों पर कानून की भूमिका पर कितने ही सवाल उठते रहे हैं। माफिया, आतंक की परिभाषाएं तक सुविधानुसार बदलती रही है।

हमने पहले ही कहा है कि इस देश में चुनाव करा लेना और कुछ भी बोल देना को ही लोकतंत्र मान लिया गया है, जबकि लोकतंत्र का मतलब नागरिक अधिकार से जुड़ा हुआ है, लेकिन नागरिक अधिकार का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। बोलने की आजादी के नाम पर सत्ता के साये में कुछ भी बोले जाने की छूट है लेकिन सत्ता विरोधी स्वर को देशद्रोही मान लिया जाता है।

कोरोना काल में तब्लीकी जमात पर कोरोना फैलाने का आरोप लगाकर क्या एक धर्म विशेष पर निशाना साधने की कोशिश नहीं हुई, किसान आंदोलन के दौरान भी खालीस्तानी और आतंकवादी बताकर क्या धर्म विशेष पर निशाना नहीं साधा गया। इस आंदोलन के दौरान नमाज पढऩे मुस्लिमों का वीडियो जारी कर क्या बताने की कोशिश हुई।

दिल्ली के सड़कों के नामकरण को लेकर की जा रही टिप्पणी किसे निशाना बनाने किया जाता है? ऐसे कितने ही सवालों को आप छोड़ दे तो थानों में रिपोर्ट लिखने की स्थिति, अदालतों में तारीख पर तारीख क्या लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता की आदर्श स्थिति है। आम कहावत है आप कितने भी सच्चे और ईमानदार रहे एक बार ताकतवर के चंगुल में फंस गये तो न्याय धरा का धरा रह जायेगा। ताकतवर तारीख लेता रहेगा और ईमानदार थक कर स्वयं से हार जायेगा?

हम यहां फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को जस्टिफाई नहीं कर रहे हैं बल्कि हमारा कहना है कि न्याय यदि विलंब से मिले तो उस न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता। विरोध के स्वर को देशद्रोह कहकर हम क्या अपने ही नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं कर रहे है। हाल के वर्षों में तुष्टीकरण और धर्मनिरपेक्ष शब्दावली पर प्रहार करके किसे निशाने पर लिया जाता है।

प्रवीण तोगडिय़ा, हरेन पंड्या और आडवानी को किनारे करने की राजनीतिक मजबूरी को सब जायज करार देने वाले ये भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर में आग लग जाये तो चुप बैठने का अर्थ स्वयं के घर को भी आग में झोंक देना है। जेएनयू आंदोलन हो सीएए आंदोलन, नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन हो, या किसान आंदोलन हर उस विरोध के स्वर को देशद्रोह का रुप दिया गया, रोहित वेमुला से लेकर कितने दलित आज भी दबंगों के आगे न्याय मांगने मर जाते हैं!

ऐसे में फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को सिरे से नकारने का क्या मतलब है? जब सत्ता के इशारे पर इडी, आयकर सीबीआई के छापे पड़ते हो और धर्म और जाति के आधार पर हमले होते हो!

रविवार, 7 मार्च 2021

किसानों के सौ दिन...

 

किसानों के आंदोलन को सौ दिन पूरे हो गये है लेकिन सरकार को इससे कोई मतलब भी है यह दिखाई नहीं देता? इसका मतलब क्या है? क्या मोदी सत्ता ने यह तय कर लिया है कि उसे चुनाव जीतने आता है और वह ऐसे किसी भी आंदोलन की परवाह नहीं करेगी? इसका मतलब साफ है कि किसानों का आंदोलन अभी और लंबा चलने वाला है। वैसे भी केन्द्र की पूरी सत्ता इन दिनों पांच राज्यों में होने वाली चुनाव में व्यस्त है तब किसानो के आंदोलन का क्या होगा?

सवाल यह भी है कि यदि मोदी सत्ता 2 मई को आने वाले चुनाव परिणाम में जीत जाती है, तब किसान क्या आंदोलन समाप्त कर देंगे? ऐसा भी नहीं है तब आने वाले दिनों में किसान आंदोलन का रुख क्या होगा? क्या किसान अब पांच राज्यों में जाकर भाजपा के खिलाफ माहौल बनायेंगे? अडानी-अंबानी के बहिष्कार को और गति देंगे या इसके बाद खुद चुनाव लड़ेंगे। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसान आंदोलन अब गांव-गांव तक पहुंचने लगा है।  यहां तक कि गांवों में भाजपा के सांसद विधायक और दूसरे नेताओं को किसानों के बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में आंदोलन को लेकर जो परिस्थितियां बन रही है वह देश को किस दिशा में ले जायेगी कहना कठिन है।

मोदी सत्ता ने साफ कर दिया है कि न वे तीनों कानून को वापस लेंगे और न ही एमएसपी को कानूनी दर्जा ही देंगे। इसके बाद भी यदि किसान आंदोलन कर रहे हैं और आंदोलन को गांव-गांव तक पहुंचा रहे है तो फिर सवाल यही है कि आने वाले दिनों में यह आंदोलन का स्वरुप क्या होगा?

हमने पहले ही कह दिया है कि जिस तरह से किसानों ने पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा से जुड़े नेताओं का बहिष्कार कर रहे हैं वैसा बहिष्कार यदि दूसरे राज्यों में होने लगे तब क्या होगा? क्या तब भी सरकार अपने कार्पोरेट मित्रों के भरोसे चुनाव जीत जायेगी।

कहना कठिन है क्योंकि किसानों की रणनीति को लेकर साफ है कि आगे वे कार्पोरेट घरानों का ही नहीं सत्ताधारी दल के नेताओं का भी बहिष्कार की रणनीति को विस्तार देने में लगे हैं। तब क्या भाजपा पांचों राज्यों में चुनाव हार जायेगी। क्योंकि चुनाव होने वाले राज्यों में भी तो बड़ी संख्या में किसान है?

सवाल कई है लेकिन एक बात तो तय है कि किसान आंदोलन लंबा ही नहीं चलेगा बल्कि वह भविष्य की राजनीति की दिशा भी तय करेगा और इतिहास में भी दर्ज होगा!

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

हिटलर की राह...

 

क्या भारत में लोकतंत्र खतरे में है? क्या देश के प्रधानमंत्री की राह हिटलरी हो चली है? क्या असहमति के स्वर को दबाने सरकारी तंत्र का दुरुपयोग किया जा रहा है? ये ऐसे सवाल है जिसे फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट से बल मिलता है।

दुनिया में लोकतंत्र को लेकर अपनी रिपोर्ट में फ्रीडम हाउस ने जिस तरह से अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र में गिरावट बताया है उसके बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत आखिर किस दिशा में जा रहा है। हालांकि इस रिपोर्ट पर अमेरिका के विदेश सचिव ने सहमति जताई है लेकिन भारत भर में इस रिपोर्ट से सन्नाटा छाया हुआ है। यही कोई वाहवाही की रिपोर्ट होती तो अब तक भक्त, वाट्सअप यूनिर्वसिटी और आईटी सेल तारीफों के कसीदे गढ़ते रहते लेकिन रिपोर्ट मोदी सत्ता की करतूतों पर सवाल उठा रहा है तो सन्नाटा है।

सन्नाटे और चुप्पी में वे लोग भी हैं जो कल तक किसान आंदोलन के समर्थन में खड़े थे, फिल्मी हस्तियां, कलाकार, साहित्यकारों की इस रिपोर्ट पर चुप्पी ने ही साबित कर दिया है कि सत्ता का भय किस कदर हावी है। रिपोर्ट की एक-एक बातें न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि यह बताती है कि वर्तमान सत्ता ने लोकतांत्रिक मूल्यों को किस तरह तोड़ा है।

ऐसे में नागरिकता कानून से लेकर जेएनयू और वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन को लेकर सरकार भूमिका को स्पष्ट करती है। सीबीआई, ईडी और आयकर की कार्रवाई को लेकर विपक्ष पहले ही आरोप लगाते रही है कि ये सब विरोध के स्वर को दबाने मोदी सत्ता का औजार है। अनुराग और तापसी के यहां मारे गये आयकर छापे भी इसी ओर चुगली करते हैं।

भारत की आंशिक आजादी को लेकर फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को लेकर इतिहास को पलटने की जरूरत है कि आजादी की लड़ाई में कौन खड़ा था, कैसे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने झूठ और अफवाह का सहारा लिया गया ?

ऐसी कितनी ही रिपोर्ट फाइलों में बंद है जो साफ कहता है कि दंगा होता नहीं करवाया जाता है, गढ़ा जाता  है? ऐसे कितने ही सवाल उठाये गये जो गैर जरूरी थे, जिसमें सिवाय नफरत के अलावा कुछ नहीं था।

ऐसे में आज तक फ्रीडम हाउस ने भारत के लोकतंत्र में आई गिरावट को लेकर जब रिपोर्ट प्रकाशित की है तब आम आदमी को सोचना होगा कि आखिर इस देश में किसकी जरूरत है।

क्या नेताजी सुभाष बाबू की वकालत सिर्फ इसलिए की जाती रही ताकि बीस साल तक तानाशाही शासन की मंशा के समर्थक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चालीस और पचास के दशक में बहुत से देश आजाद हुए जिनमें से अधिकांश देशों में राजशाही या तानाशाही सत्ता का उदय हुआ। भारत में भी कई राजा  इसके समर्थक थे लेकिन गांधी-नेहरु की सोच ने इस देश में लोकतंत्र की नींव रखी। 

ऐसे में सवाल यही है कि गांधी-नेहरु का विरोध करते-करते हम इतने अलोकतांत्रिक हो चले है कि इस देश में ही लोकतंत्र खतरे में आ रहा है।

गुरुवार, 4 मार्च 2021

गलतियों का पुलिंदा...

 

राहुल गांधी जब कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल एक गलती थई तो इसके मायने साफ है कि राहुल में गलत को गलत कहने का साहस है वे जानते है कि यह देश झूठ और नफरत से तरक्की नहीं कर सकता और न ही जनता को ज्यादा दिनों तक मूर्ख ही बनाया जा सकता। सत्ता में बने रहने के लिए कोई झूठ, अफवाह और भ्रम का सहारा तो ले सकता है लेकिन इससे देश का भला नहीं होने वाला।

लेकिन सवाल अब भी गलती स्वीकार करने की है तो गुजरात की गलती को गिनना शुरु कर दीजिए जिसे वे कभी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही नोटबंदी, जीएसटी का गलत इम्पीयरेंशन को ही गलत मानेंगे वे तो बिना बुलाये अमेरिका जाने और पाकिस्तान जाकर बिरयानी खाने को भी गलत नहीं मानेंगे और तो और बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी को ही गलत कहा जायेगा। विरोध के स्वर को देशद्रोही और जेएनयू के सच को भी वे गलत नहीं मानेंगे, आज इनकी गलती गिनते जाईये, आप इनके झूठ भी गिन सकते है जो ये कभी स्वीकार करने की साहस नहीं कर पायेंगे?

तब सवाल यही उठता है कि लोकतंत्र में क्या चुनाव जीतने ही महत्वपूर्ण हो चला है, जनसरोकार का कोई मतलब ही नहीं  रह गया, सुविधानुसार एनआरसी का खेल खेलो और जन सरोकार से टेक्स तब तक वसूलते रहो जब तक वह दम न तोड़ दे।

संवैधानिक संस्थानों के बजट को लेकर भी सवाल उठने लगे है तो सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के बजट में पिछले 6 सालों में लगभग दो गुणा बढ़ोत्तरी क्या दर्शाती है। क्या संस्थागत ढांचों को अपने अनुरूप करने की मंशा क्या नहीं दिखती, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ट जज गोगोई की राज्यसभा में नियुक्ति क्या गलत होने की चुगली नहीं करती?

ऐसे कितने ही सवाल है जो गलत फैसलों की ओर साफ इशारा करती है। किसानों को आतंकवादी और किसान आंदोलन को देशद्रोही बता देना क्या गलत नहीं है?

लेकिन इन गलतियों को स्वीकार करने का साहस किसमें है। ऐसे में राहुल गांधी के इमरजेंसी को लेकर वर्तमान में तुलना करने वाला बयान कई मायने में महत्वपूर्ण है।

आखिर इमरजेंसी क्यों लगी? इलाहाबाद के जस्टिस सिंहा ने दो बातों का जिक्र कर फैसला सुनाया था। जनप्रतिनिधि कानून 123/7 के तहत दो आरोप लगाये गये। पहला आरोप था जिसमें रायबरेली सभा के लिए सरकारी विभाग बिजली खीची गई उसके लिए सरकारी विभाग ने मदद की दूसरा आरोप था पीएमओ से जुड़े अधिकारी कपूर का सरकारी प्रचार में सहयोग कर रहे थे।

ऐसे में क्या यह वर्तमान में नहीं हो रहा है? लेकिन अब इन मामलों में न कोर्ट को कोई मतलब है न चुनाव आयोग का। ऐसे में यदि राहुल जब इमरजेंसी और वर्तमान दौर का जिक्र करते हैं तो साफ है कि सत्ता ने लोकतंत्र की खाल का जूता बनाकर पहन लिया है और संवैधानिक संस्था बजट के भार में दब गये है तब सवाल यही है कि गलती कैसे स्वीकार की जा सकती है क्योंकि नैतिकता से बड़ा चुनाव जीतना है।

बुधवार, 3 मार्च 2021

किसान आतंकवादी?

 

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह से सत्ता पक्ष का रूख रहा है और किसानों को जिस तरह से भला बुरा कहते हुए आतंकवादी बताया गया, क्या यह सब आने वाले दिनों में भूला दिया जायेगा। सिर्फ असहमति के स्वर को दबाने किसी को राष्ट्रद्रोही या आतंकवादी करार देना क्या उचित है।

22 साल की दिशा को किस तरह से देशद्रोही करार देने की कोशिश हुई उसे भले ही लोग भूल जाये लेकिन दिशा उन्हें भी तब तक याद आयेगी जब सरकार की मनमानी के खिलाफ खड़ा होने वाला कोई लड़का या लड़की पर सरकार यही रूख अख्तियार करेगा।

ये देश न किसी धर्म विशेष का है और न ही किसी जाति विशेष का है। चुनाव जीतने धर्मों को बांटकर या जातियों को बिखेरकर सत्ता हासिल तो की जा सकती है लेकिन मनमानी बर्दाश्त नहीं की जायेगी।

ऐसे में दिल्ली बार्डर से शुरु हुआ किसान आंदोलन अब गांव-गांव में अपनी रफ्तार पकडऩे लगा है। जिन किसानों को सत्ता के मद में नेताओं और ट्रोल आर्मी ने आतंकवादी कहा है वह आने वाले समय में भाजपा को ही नहीं पूरे एनडीए को भारी पडऩे वाला है।

वैसे भी 2014 से असहमति के स्वर को देशद्रोही करार देने की ये परम्परा शुरु की गई है उसका दम किसान आंदोलन ने निकाल दिया है। असहमति के स्वर को नक्सली देशद्रोही बताने की परम्परा से सत्ता हासिल करने वाले यह भूल गये कि सत्ता किसी भी एक दल या व्यक्ति की जागीर नहीं है। लोकतंत्र में सरकारें आती जाती रहती है लेकिन यदि नफरत का पौधा बड़ा हो गया तो देश की तरक्की ही नहीं रुकेगी बल्कि विश्व में उसकी छवि भी खराब होगी।

पूरा इतिहास उठाकर देखा जाना चाहिए कि जिस भी शासक ने अपने धर्म या समाज को श्रेष्ठता की कसौटी में खरा उतारने नफरत का बीज बोया उन शासकों का इतिहास में नाम किस तरह लिया जाता है।

किसान आंदोलन अपने चरम पर पहुंचने वाला है। ऐसे में सरकार भले ही एमएसपी को लेकर यह कहने लगे कि एमएसपी रहेगा लेकिन सच तो यही है कि केन्द्रीय कृषि मंत्री ने किसानों की बैठक में स्पष्ट कह दिया है कि एमएसपी पर खरीदी करने की स्थिति में सरकार नहीं है। यानी दो तरह की बातें की जा रही है। हैरानी तो इस बात की है कि सत्ता संभालने के बाद मोदी सत्ता ने उद्योगपतियों को करोड़ों अरबों की छूट दी है लेकिन एमएसपी पर खरीदी से किसानों को होने वाले लाभ से वंचित रखा जा रहा है। चुनाव में स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने के वादे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार अब रिपोर्ट को लागू नहीं कर पाने की मजबूरी बता रही है।

ऐसे में अब एक ही सवाल है कि क्या सत्ता ने असहमति के स्वर को दबाने राष्ट्रवाद का नया फार्मूला लागू कर दिया है कि जो भी किसान आंदोलन का समर्थन करेगा वह देशद्रोही है या आतंकवादी?

मंगलवार, 2 मार्च 2021

आयशा और स्त्री...


नदी जानती है स्त्री का दर्द, वह सभी का दर्द जानती है, इसलिए वह बाहें फैलाकर चलती है और आयशा भी शायद यह जानती थी, इसलिए उसने अपनी अंतिम यात्रा के लिए साबरमती को चूना। इससे पहले उसने अपने पिता से भी बात की। वह शायद अपने पिता पर भी बहुत भरोसा करती थी। बेटी का पिता से प्यार कौन नहीं जानता लेकिन पितृ सत्ता वाले समाज में वे भी असहाय रहे होंगे?

घटना हिला देने वाली है, लेकिन यह सिर्फ क्षणिक भावुकता तक ही सीमित रह जाता है। फिर शांत और और पितृ सत्ता की दबंगई में किसी आयशा का इंतजार होगा? पत्रकारिता के दौर में मेरे सामने कई घटनाएं हुई, हर घटना के बाद आक्रोश के बाद शांति फिर पुनरावृत्ति, भारतीय समाज की प्रवृत्ति हो चली है।

इस घटना में जितना आयशा का पति दोषी है शायद उससे ज्यादा वह समाज भी दोषी है जिसने औरत को पंगु बना दिया है। देखने में यह सिर्फ दहेज नजर आता है लेकिन इसकी जड़ ी दमन है जिस पर कोई नहीं बोलना चाहता? कोई प्रहार नहीं करता क्योंकि पितृ सत्ता के आगे कुछ बोलना धर्म परम्परा का मुखालफत करना है।

दहेज प्रताडऩा को लेकर मैने जितनी भी रिपोर्टिंग की तो पाया कि महिलाओं का शादी के बाद कोई अपना घर नहीं है और पति के छोड़ देने का खतरा उसके मत्थे हर मां-बाप भाई बहन यह कहकर मढ़ देते है कि बेटी डोली में ससुराल जाती है और उसकी अर्थी...!

खैर यह सवाल समाज के सभी तपको को उठना चाहिए कि आखिर ियां जी कैसे लेती है! वाकई में इनकी तो नदी में कूद जाने की परिस्थितियां हर पल मौजूद है।

हालांकि ियों को लेकर बदलाव आये है लेकिन आज भी मां-बाप, भाई-बहन शादी करके बेटी को ऐसे रवाना करता है कि जा अब तेरा इस घर से कोई नाता नहीं है तू सिर्फ मेहमान होगी। हक तो सारा बेटों का है, गरीब से गरीब आदमी भी अपना झोपड़ा बेटा को ही देता है, कई तो एक चवन्नी भी देना नहीं चाहते। यहां तक की अमीर आदमी बेटी को करोड़ों की सम्पत्ति में से कुछ देना नहीं चाहता।

मुस्लिम समाज में तो और भी अजीब परम्परा है वहां तो तलाक के सारे अधिकार ही मर्दो के पास है और औरत का अधिकार सिर्फ वह मेहर है जिसे चार लोग बैठकर तय करते है, इस दौर में भी मेहर पचास हजार रुपये तक ही तय होते है। इतनी महंगाई में मेहर इतना कम है कि दूसरे दिन ही उतनी राशि हाथ में रखकर रवाना कर दे।

कैसी विडम्बना है कि पिता विरासत में हिस्सा देना नहीं चाहता और पति मेहर देकर कभी भी खिसका दे। अब सोचिये कि कोई इस परिस्थिति में कैसे जीये?

उसे अकेले रहने की स्वतंत्रता नहीं है पिता हिस्सा देना नहीं चाहता। पिता कहता है ससुराल में ही रह पति कहता है मेहर पकड़ भाग जा? कहां जाए। यहां कोई धर्म का फर्क नहीं है औरतें हर जगह इसी तरह से प्रताडि़त और पीडि़त है। ये हो सकता है कि हिन्दू औरतों के मुकाबले मुसलमान औरते ज्यादा प्रताडि़त होगी या इससे उलट होगा। हालांकि इस्लाम के नियम में मुस्लिम औरतों के लिए यह सुविधा है कि वे ससुराल में पति के मां-बाप की सेवा करने बाध्य नहीं है लेकिन?

दरअसल इन सारी समस्याओं की जड़ सिर्फ पैसा है। ऐसे में यदि दहेज में चार बर्तन देने की बजाय यदि सम्पत्ति का मालिक बना दिया जाय तो मामला कुछ और होगा! शादी जीवन-मरण का समझौता तभी होगा जब दोनों पक्षों के पास पैसा होगा या गरीब लड़कियां अपने पैरों में खड़ होने की ताकत रखेंगी। यदि औरतों के पास पैसा होगा और किसी ने उसे छोड़ा तो जिस औरत की जेब में पैसा होगा उससे कौन शादी नहीं करेगा?

ऐसे में आयशा का नदी की गोद में समा जाना जारी रहेगा और हम हर विलाप के बाद फिर एक आयशा को देखते रह जायेंगे!

सोमवार, 1 मार्च 2021

चुनाव, स्टेडियम, जनसरोकार

 

निर्वाचन आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। किसान आंदोलन के दौर में हो रहे इस चुनाव का परिणाम क्या होगा? और इससे मोदी सत्ता को कोई फर्क पड़ेगा कहना कठिन है क्योंकि सत्ता की रईसी को कायम रखने का जो तरीका वर्तमान दौर में चल पड़ा है उससे जन सरोकार कोई मायने नहीं रखता।

जन सरोकार सामने रखता तो बंगाल को लेकर जो बवाल काटा जा रहा है उसका कोई मतलब ही नहीं होता। क्योंकि बंगाल में ममता बेनर्जी को लेकर जिस तरह के सवाल खड़ा किया जा रहा है वह राजनीति का महज एक हिस्सा है। बंगाल इस देश का ऐसा राज्य है जिसकी तुलना भाजपा शासित प्रदेशों से की जाये तो वह बीस ही बैठेगा।  जीडीपी ग्रोथ हो या कृषि उत्पादन, बेरोजगारी दर की ही बात कर ली जाये तो वह भाजपा शासित उत्तरप्रदेश, हरियाणा, बिहार से बेहतर स्थिति में है, तब सवाल यह है कि क्या ये सब चुनाव में मुद्दे बनेंगे।

बिल्कुल नहीं बनेंगे क्योंकि ये मुद्दे भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते है। सवाल उठ सकता है कि बंगाल को यह किस दम पर बेहतर करने का दावा कर रहे है जबकि उसके द्वारा शासित प्रदेश उत्तर प्रदेश, हरियाणा में बेरोजगारी दर बंगाल के मुकाबले क्यों खराब है। पर केपिटल इंकम के मामले में भी बंगाल की स्थिति उत्तर प्रदेश -बिहार से बेहतर है।

ऐसे में क्या बंगाल में चुनाव का मुद्दा राष्ट्रवाद और धर्म नहीं होगा? यह सवाल भले ही गैर जरूरी लगे लेकिन सच तो यही है कि  इन राज्यों के चुनाव में भाजपा को सत्ता तक लाने के लिए यही एकमात्र मुद्दा है।

हम यह नहीं कहते कि किसान आंदोलन के इस दौर में भाजपा कृषि बिल को लेकर कोई मुद्दा छोड़ सकता है बल्कि यह देखना होगा कि किसान आंदोलन का इस चुनाव में क्या असर होगा। बढ़ती महंगाई भी मुद्दा बनेगा। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत का असर चुनाव में कितना पडेगा?

सत्ता की रईसी को लेकर जो लोग नाराज है वे कई तरह के मुद्दों को हवा दे सकते हैं लेकिन क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम का नाम गुपचुप ढंग से नरेन्द्र मोदी स्टेडियम किया जाना इन चुनाव का मुद्दा होगा?

हालांकि इस नामकरण को लेकर जब सवाल उठने लगे तो इसकी सफाई में केन्द्रीय मंत्री तो सामने आये ही ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप युनिर्वसिटी के छात्र भी गांधी-नेहरु परिवार के नाम पर देशभर में चल रहे संस्थानों, सड़क चौक की सूची जारी कर दी। लेकिन वे जब अपनी ही सूची में फंसने लगे तो नेहरु के भारत रत्न को लेकर सवाल खड़ा करना शुरु कर दिया लेकिन नेहरु के भारत रत्न को लेकर सवाल खड़ा करने वाले यह भूल गये कि नेहरु को भारत रत्न तब के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने बगैर केन्द्रीय सत्ता के सिफारिश की ही थी और उनके साथ सर्वपल्ली राधा कृष्णन सहित कई लोग थे जो तब सत्ता में थे।

लेकिन चुपचाप स्टेडियम का नामकरण कहीं वह डर तो नहीं है कि सत्ता जाने के बाद क्या होगा? खैर मामला कुछ भी हो लेकिन सोशल मीडिया में वायरल हो रहे इस मुद्दे में सबसे मजेदार मुद्दा हिटलर और सद्दाम हुसैन के द्वारा नामकरण को लेकर की जा रही तुलना है। ऐसे में इन राज्यों के चुनाव में एक बात तो तय है कि राजनीति जनसरोकार से दूर होता जा रहा है और चुनाव जीतने का मतलब सत्ता की रईसी को भोगना है। जन सरोकार कोई मायने नहीं रखता।