मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

छोड़ दो कलेक्टर को... ऐसी तैसी हो जनता का...


सुकमा कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई को लेकर एक तरफ जहां सरकार के प्रति लोगों का आक्रोश चरम पर है वहीं दूसरी तरफ नक्सलियों के प्रति भी बेहद नाराजगी दिख रहीं हैं। नक्सलियों द्वारा रिहाई के एवज में की गई मांग को लेकर अधिवक्ता संघ तो खुलकर साामने आते हुए यहां तक कह दिया कि नक्सलियों की रिहाई की मांग सरकार ठुकरा दे और सेना की मदद से नक्सलियों की खात्मा कर दे। इसी तरह के विचार फेसबुक पर देखने को मिल जायेंगे। लोगों का गुस्सा चरम पर है और वे नहीं चाहते की सरकार की किसी भी हरकत से नक्सलियों की हौसला बढ़े और जवानों की शहादत बेकार जाये।
छत्तीसगढ़ में 80 के दशक से शुरू हुए नक्सली आन्दोलन का समाधान नहीं निकालने का यह दुष्परिणाम है कि सरकार सांसत में है। एक तरफ काम करने वाला कलेक्टर की जान खतरे में है तो दूसरी तरफ दुर्दान्त हत्यारे हैैं जिन्हें छोड़े जाने की मांग हैं। एक तरफ कुआँ और दूसरी तरफ खाई की स्थिति है ऐसे में सरकार के सामने सबसे बड़ी दिक्कत बीच के रास्ते का है ताकि सरकार की साख बची रह सके।
जो लोग नक्सलियों की रिहाई का विरोध कर रहे है उनका विरोध पूरी तरह सही है। क्योंकि जेल में बंद नक्सली इस लायक ही नहीं है कि उनसे सहानुभूति भी रखी जा सके। सैकड़ो परिवारों को तबाह करने वालों के प्रति सहानुभूति क्यों होनी चाहिए। हिंसा का लोकतंत्र में कहीं स्थान नहीं है और नक्सली कम से कम वे लोग नहीं है जो हालात के कारण हत्या करते हैं।
यह ठीक है कि आजादी के इन सात दशकों में जितनी भी सरकारें आई उनका ध्येय केवल अपनी जेब गरम करने का रहा हैं। गांव की तरफ सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि बंदूक उठाया जाये और बेकसूरों की हत्या की जाये।
हम किसी भी तरह के हिंसा के खिलाफ है और सरकार के लिए इसे एक चेतावनी के रुप में देखते है कि वह अब गांवों में विकास की सोचे। हर व्यक्ति को पानी-शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध कराये और राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़े।
नक्सलियों का मकसद केवल लूटपाट तक सिमट कर रह गया है ऐसे में उनकी मांगे मानने का असर यहां की कानून व्यवस्था पर पड़ेगा। वैसे भी देश हित में कोई बड़ा नहीं होता। मौका सरकार के पास भी है कि वह नक्सलियों से बात कर इस समस्या का समाधान निकाले। और अब तक की जो खामियां है उसे दूर करें।
इस एक घटना से कई सवाल खड़े कर दिये हैं कि क्या अपहरण हुआ व्यक्ति कलेक्टर होने के कारण सरकार इतनी गंभीर दिखाई पड़ रही है? क्या उन हत्यारे नक्सलियों को इसलिए छोड़ देना चाहिए ताकि वे बाहर निकलकर फिर सैकड़ों परिवारों को तबाह करे। सवाल और भी खड़े होंगे जिसका जवाब सरकार को देना ही होगा।