बुधवार, 21 जुलाई 2021

डरपोक सत्ता ही हमलावर होती है...

 

पेगासस स्पाईवेयर मामले में खुलासे के बाद मोदी सत्ता ने जिस तरह का जवाब देने की कोशिश की है वह विश्वास करने के कितना लायक है यह तो जनता तय करेगी लेकिन सत्ता हासिल करने के इस खेल ने लोकतंत्र के मर्यादा को ही तार-तार नहीं किया है बल्कि वह ऐसे तमाम लोगों के बेडरुम में झांकने की शर्मनाक कोशिश की है जो सत्ता की राह में रुकावट बन सकते थे।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार का इस तरह का सत्ता लोभ देश हित में कितना उचित है? विपक्ष और संवैधानिक संस्थानों को समाप्त कर मोदी सत्ता भारत को किस दिशा में ले जाना चाहती है और क्या सत्ता के इस खेल में हिन्दुओं का भला होगा? सवाल कई है लेकिन कांग्रेस मुक्त भारत की सपना तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही है तब क्या हम भाजपा या मोदी के इस बात को स्वीकार कर लें कि जितने भी भाजपा के विरोधी है क्या वे सभी देशद्रोही है? क्या संवैधानिक संस्थानों में नकेल डालने फोन टेपिंग की जाती रही?

यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे है क्योंकि सत्ता की भूख से बर्बादी के किस्से इतिहास में भरे पड़े हैं। सत्ता की मनमानी से न देश का कभी भला हुआ है और न ही समाज या व्यक्ति का। इतिहास हिटलर-मुसोलिनी और वर्तमान में साऊथ कोरिया के राजशाही के किस्से की विभत्सता और विकरालता इस बात के गवाह है कि सत्ता में बने रहने के खेल की कीमत पूरी दुनिया को किस हद तक चुकानी पड़ती है।

यदि हिन्दू-मुस्लिम या इसाई धर्मान्तरण ही देश का चुनावी मुद्दा रहा और वही जीत-हार तय करते रहेंगे तो फिर हमारा दावा है कि महंगाई और बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बिकने का क्रम भी इसी तरह से चलता रहेगा। रक्षा तक यदि निजी क्षेत्रों को बेचे जाने की सोच इसी तरह बलवती रही तो फिर सरकार के लिए अपना कहने का क्या बचेगा। रेल-हवाई सेवा बैंक से लेकर सब कुछ निजी हाथों में सौंपकर सरकार इस देश का संचालन किस तरह से करना चाहती यह तो समझ से परे हैं तब सवाल यह भी है कि क्या नफरत की राजनीति  में झुलकर नया पौध कैसे फलेगा फूलेगा।

हम यह नहीं कहते कि मोदी सरकार इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाकर दूसरे धर्मों के लोगों का जीवन नारकीय बना देगा। क्योंकि यह किसी भी सत्ता के लिए संभव नहीं है तब हिन्दू राष्ट्र की सोच लेकर सड़कों पर मॉब लिचिंग करने वाले क्या यह बात नहीं जानते की आग हवा पानी का प्रहार जात-धर्म, अपना-पराया नहीं देखता। बहरहाल फोन टेपिंग को लेकर जिस तरह से सवाल खड़े हुए है उनका जवाब सिर्फ गृहमंत्री का इस्तीफा है?

सोमवार, 19 जुलाई 2021

'मोर रायपुर का दुख...

 छत्तीसगढ़ की बात -1


प्रदेश की सत्ता को बदले ढाई साल बीत गये लेकिन 'मोर रायपुरÓ का दुख यदि जस का तस मुंह चिढ़ा रहा हो तो फिर इसका मतलब क्या है? दरअसल सत्ता की अपनी सीमा है, उसकी अपनी प्राथमिकता है तब सवाल यही है कि क्या सत्ता बदलने से कुछ हो सकता है।

देश इन दिनों भाजपा के ध्यान भटकाने वाले मुद्दे में उलझा है। जनसंख्या नीति से लेकर हिन्दू मुस्लिम के भाजपाई खेल में आम लोगों की तकलीफें गुम हो जा रही है और लोग उफ भी नहीं कर पा रहे हैं तो उसकी राजनैतिक दलों की वह सफलता है जो युवाओं के गले में राजनीति का पट्टा दिखाई देने लगता है।

इस शहर ने राज्य बनने से पहले या युवाओं के राजनैतिक पट्टा पहनने से पहले आंदोलन का जो स्वरुप देखा है वह सिर्फ इतिहास की बात रह गई है, तब सवाल यही है कि क्या अव्यवस्था, महंगाई केवल राजनैतिक दलों के मुद्दे है? छात्र राजनीति के उस दौर में सिलाई की कीमत बढ़ जाने पर या सिनेमा टिकट की कीमत बढ़ जाने पर आंदोलन तोडफ़ोड़ और आगजनी तक पहुंच जाता था। निगम के जलकर बढ़ाने पर भी  आंदोलन की उग्रता इस शहर ने देखा है। तब सवाल यही है कि क्या सिर्फ पट्टा पहन लेने मात्र से असल मुद्दे गायब हो जाते हैं तो यकीन मानिये राजनीतिक दलों ने बड़ी समझदारी से पट्टा पहनाकर लोगों के अधिकार छिन लिये है।

छात्र राजनीति को समाप्त करने की वजह से भी शायद यही रही कि वे जरूरी मुद्दे न उठाये, जेएनयू या दूसरे विश्वविद्यालय पर सरकारी हमले भी इसी राजनीति का हिस्सा रहा है, ताकि अपनी लूट को बेरोकटोक जारी रखा जा सके। हम बात छत्तीसगढ़ की राजधानी की कर रहे हैं। जहां की राजनीति ने लोगों को इतने आश्वासन दिये कि अब तो लोग इन आश्वासनों से पक गए हैं।

धूल और मच्छर तथा औद्योगिक प्रदूषण से त्रस्त इस शहर में राज्य बनने के बाद एक से एक धुरंधर महापौर तो दिये ही है, सत्ता में दमदार माने जाने वाले विधायकों की भी लंबी फेहरिश्त है, लेकिन 'मोर रायपुरÓ का दुख यदि जस का तस है तो इसकी वजह जननेताओं की प्राथमिकता है जो खुद को चमकाने की रूचि ज्यादा है। राजधानी बनने के पहले से ही रायपुर का नाम यदि महंगे शहरों में शुमार है तो इसका मतलब क्या है? खाना-पीना, तो यहां महंगा है ही ट्रैफिक सेंस भी बदत्तर है। अपराध के आकड़े भी बढ़ रहे हैं तो अवैध कालोनी भी बेहिसाब है, जुआ-सट्टा से लेकर शराब-शबाब के मामले भी आये दिन सुर्खियों में रहते हैं क्योंकि मोर रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी है।

ऐसे में चिकित्सा सेवा के नाम पर लूट और स्लाटर हाउस कहलाते अस्पताल की फेहरिश्त में कैसे कमी हो सकती है। चार-चार बडे सरकारी अस्पताल वाले इस शहर में यदि निजी अस्पतालों में भीड़ अधिक है तो इसकी वजह सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था है। यदि मेडिकल कालेज  अस्पताल में चार माह से हार्ट की सर्जरी बंद है तो क्या यह निजी अस्पतालों की लूट को बढ़ावा देने की नीति नहीं है। मोर रायपुर का सबसे बड़ा दुख सड़क जाम, नाली जाम, बेतरतीब कचरा भी है इसे हम फिर भी विस्तार देंगे। क्या है शारदा चौक चौड़ीकरण का सच?

रविवार, 18 जुलाई 2021

लालबत्ती और फूल छाप

 छत्तीसगढ़ की बात -1


छत्तीसगढ़ में निगम मंडल में नियुक्ति को लेकर एक बार फिर कलह होने लगा है जिसे नहीं मिला है वे एक और सूची की प्रतिक्षा में है तो जिन्हें दे दिया गया है उनके नामों को लेकर कई तरह का विवाद है, जूनियर-सीनियर का चक्कर भी जबरदस्त है। ऐसे में इस सूची को लेकर जो अंधा पीसे कुत्ता खाये की बात कर रहे है वे जान ले कि कांग्रेस में यह परम्परा है।

कांग्रेस में जब भी जिसकी चली उसने अपनी नंगी चलाया है विद्याचरण शुक्ल के समय की कहानी कौन नहीं जानता, अर्जुन सिंह ने तो शुक्ल बंधुओं के खिलाफ कमर कसने वाले पटवा चोर नाका चोर को भी प्रमुखता दी। स्वरुपचंद जैन पर अपने नौकरों और ड्रायवरों को प्राथमिकता देने तो मोतीलाल वोरा राज में सुभाष शर्मा के किस्से क्या कम थे। ऐसे में वर्तमान में जिनके पास ताकत है वे अपने ऐसे लोगों को निगम मंडल में बिठा रहे हैं जिन्हें कांग्रेस जानते भी नहीं तो इसे परम्परा मान कर भूल जाना चाहिए।

उधर राहुल गांधी जी गुस्से में हैं, उनका गुस्सा क्या रंग लायेगा यह तो पता नहीं लेकिन छत्तीसगढ़ में फूल छाप कांग्रेसियों की चर्चा नई नहीं है, जब कांग्रेस को जरूरत नहीं थई तब अजीत जोगी ने दर्जनभर भाजपा विधायकों को कांग्रेस में लाये थे लेकिन उनकी ताकत कितनी बड़ी यह 2003 के चुनाव परिणाम से अंदाजा लग गया था। राजधानी में तो फूल छाप कांग्रेसियों की लंबी फेहरिश्त है भाजपा के शहर विधायक बृजमोहन अग्रवाल की जीत के पीछे यही फूल छाप कांग्रेसी है।

और जब 15 साल के निर्वासन के बाद कांग्रेस की सत्ता आई है तब भी कई मंत्रियों के बंगले में फूल छाप वालों का प्रभाव खुली आंखों से देखा जा सकता है। एक मंत्री ने कांग्रेसियों को काम दिलाने का प्रयास किया तो पता चला कि कांग्रेसी नेता काम करना ही नहीं चाहते। वे पांच-पचीस के चक्कर में उन्हीं भ्रष्ट ठेकेदारों को काम दिलाने लगे जो भाजपा सरकार में भी ठेकेदारी कर रहे थे। ज्यादातर कांग्रेसियों को बड़ी गाड़ी में घूमना और जमीन का काम करना ही रास आता है।

कोरोना का खेल

कोरोना की तीसरी लहर की तमाम चेतावनी के बाद भी बाजारों में भीड़ बढऩे लगी है, भीड़ से उत्साहित डीएम ने नाईट कफ्र्यू हटा दी। बकरा बाजार हो या महंगाई के खिलाफ पदयात्रा सब जगह बगैर मास्क का काम चल रहा है। इसकी वजह पता करने पर ठीक-ठाक तो कोई  नहीं बता पाया लेकिन कहते है पीएम ने सीएम पर छोड़ा तो सीएम ने डीएम पर छोड़ दिया, अब डीएम तो जिले का राजा होता है और राजा कुछ भी करे कौन रोकेगा।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

देशद्रोह कानून क्यों न समाप्त हो...

 

भारत की सर्वोच्च अदालत ने देशद्रोह कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए केन्द्र से पूछा है कि महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे महान लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले इस कानून की वर्तमान में क्या जरूरत है?

दरअसल पिछले सात सालों में धारा 124ए का जिस तरह से विरोध के स्वर को दबाने सत्ता ने इसका दुरुपयोग किया है वह किसी से छिपा नहीं है। फादर स्टेन की मौत के बाद तो पूरी दुनिया में जिस तरह से भारत की थू-थू हुई है उसके बाद सर्वोच्च अदालत भी सक्रिय हो गया है। हालांकि सर्वोच्च अदालत के सवाल पर भारत सरकार के अर्टानी जनरल ने इस कानून की वकालत करते हुए कहा कि रद्द किये जाने की जरूरत नहीं है बल्कि दिशा-निर्देश तय किये जाने की जरूरत है। लेकिन सच तो यह है कि इस कानून का हाल के सालों में जिस तरह से दुरुपयोग किया गया है उसके बाद इसके औचित्य पर ही सवाल उठने लगे है।

हालांकि कांग्रेस ने पिछले चुनाव में इस कानून को रद्द करने की बात अपने घोषणा पत्र में कही थई जिसे लेकर भारतीय जनता पार्टी ने खूब बवाल मचाया था और कांग्रेस के खिलाफ माहौल भी बनाया गया था कि वह देशद्रोहियों को बचाना चाहती है लेकिन सच तो यही है कि इस कानून ने आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले, सत्ता की तानाशाही और मनमानी के खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने का काम किया और आंकड़े बताते है कि जिन लोगों पर राष्ट्रद्रोह कानून के तहत जेल में डाला गया था उनमें से 99 फीसदी से अधिक लोग बाद में रिहा हो गये। 

तब सवाल यही है कि क्या सरकारों के खिलाफ आंदोलन करना राष्ट्रद्रोह है, बढ़ती महंगाई और सरकार के मनमाने फैसले पर क्या चुप्पी साथ लेना चाहिए। सत्ता और उसके इशारे पर पुलिस कार्रवाई का सबसे बड़ा उदाहरण तो आईटी की धारा 66ए है जिसे  रद्द कर दिया गया है लेकिन पुलिस अब भी इस धारा के तहत अपराध दर्ज कर रही है। ऐसे में धारा 124ए के दुरुपयोग को लेकर जिस तरह विरोध के स्वर बढ़ते जा रहे है उसके बाद केन्द्र सरकार को इसे समाप्त करने की पहल खुद करनी चाहिए। क्योंकि यह तय हो चुका है कि विरोध के स्वर को दबाने के लिए राष्ट्रद्रोह कानून का बेजा इस्तेमाल कर प्रताडि़त किया गया है। देखना है कि सर्वोच्च न्यायालय इस पर आगे क्या करती है?

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

मोदी का मास्टरस्ट्रोक उत्तरप्रदेश चुनाव

 

उत्तरप्रदेश में अगले साल होने वाले चुनाव के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपने मास्टरस्ट्रोक के जरिये विरोधियों को चौंका दिया है, बसपा जहां अपने अस्तित्व बचाने में लगी है तो कांग्रेस पस्त हो चुकी है, सपा जरूर संघर्ष कर रही है यही नहीं आरएसएस और योगी आदित्यनाथ भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक से मजबूर हो गए हैं।

अपने मास्टर स्ट्रोक के लिए चर्चित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर हाल में उत्तरप्रदेश जीतना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि भाजपा उत्तरप्रदेश में हार गई तो 2024 बेहद कठिन और मुश्किल हो जायेगा। ऐसे में उत्तप्रदेश की राजनीति को नजदीक से समझने वाले यह भी जानते है कि केवल कमंडल की राजनीति से दोबारा सत्ता हासिल नहीं किया जा सकता।

हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और आरएसएस उत्तरप्रदेश की सत्ता को बरकरार रखने जनसंख्या नीति और समान नागरिक संहिता का राग छोड़ चुके हैं लेकिन यह भाजपा का पुराना राग है और इसके सहारे उत्तरप्रदेश की वैतरणी पार करना आसान नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आगे आकर मास्टर स्ट्रोक खेल दिया है, प्रधानमंत्री के इस खेल ने अस्तित्व बचाने जूझ रही है बसपा के सामने नया संकट शुरु हो चुका है और उसकी हालत लोकसभा चुनाव परिणाम की तरह हो गई है। जबकि नेतृत्व संकट से जूझ रही कांग्रेस के सामने अपना पिछला प्रदर्शन बेहतर करने की चुनौती है, हालांकि प्रियंका गांधी ने जिस तरह से अपनी सक्रियता बढ़ाई है उससे कांग्रेस में नई जान फूंक दी है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती समाजवादी पार्टी है और भाजपा जानती है कि समाजवादी पार्टी के सामने कमंडल का जादू इस बार नहीं चलने वाला है और न ही जनसंख्या नीति की फूलझरी ही काम आने वाली है। सबसे बड़ी दिक्कत यादव वोटो की है जिसे तोडऩा आसान नहीं है। शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार कमंडल के साथ मंडल का मास्टर स्ट्रोक खेला है। इसके तहत सबसे पहले विरेन्द्र यादव को मंत्रिमंडल में शामिल कर यादवों के बीच प्रचरित किया गया तो पिछड़ा वर्ग से 27 मंत्री बनाकर अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रभावित करने की रणनीति बनाई गई, इतना ही नहीं उत्तरप्रदेश में सत्ता और संगठन में यादव के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग की भागीदारी बढ़ाई गई तो आरएसएस में भी पिछड़ा और दलित वर्ग के लोगों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाने लगी। ब्राम्हण या अगड़ी जाति के लिए अपनी पहचान बनाने वाले संघ को भी उत्तरप्रदेश जीतने मोदी की बात माननी पड़ी है।

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बुधवार, 14 जुलाई 2021

मोदी सत्ता में हत्यारे, डकैत मंत्री...

 

बंगाल के राजनैतिक हिंसा पर बवाल काटने वाले हिन्दूवादी जब उत्तरप्रदेश के चुनावी हिंसा पर चुप्पी ओढ लेते है तो इसका मतलब साफ है कि वे केवल दूसरों के पाप गिनाकर अपना पाप धो लेना चाहते हैं। यह बात हम दावे के साथ इसलिए कह रहे हैं कि राजनैतिक हिंसा को लेकर भारतीय जनता पार्टी ही नहीं तमाम राजनैतिक दलों का नजरिया इसी तरह का है। नहीं तो भाजपा में आपराधिक सांसदों की संस्था सौ से अधिक नहीं होती और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मंत्रिमंडल में 33 मंत्री आपराधिक पृष्ठभूमि के ही होते।

जब देश के मंत्रिमंडल में ही 33 मंत्री आपराधिक श्रेणी के हो और उनमें से दर्जनभर मंत्रियों पर हत्या, हत्या के प्रयास और डकैती जैसे अपराध दर्ज हो तब सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सत्ता की मंशा क्या है। बंगाल और उत्तरप्रदेश में व्यापक स्तर पर हुई हिंसा ने सााबित कर दिया है कि राजनैतिक दलों का ध्येय हर हाल में सत्ता हासिल करना है और इसके लिए कुछ भी किया जा सकता है। तब सवाल यह है कि आखिर देश का युवा क्या कर रहा है, क्या उसकी हैसियत केवल राजनैतिक दलों के लिए रोजी में काम करना रह गया है, क्या वे सिर्फ दिहाड़ी मजदूर रह गये हैं जो चुनाव में अपनी रोजी लेकर चुपचाप सत्ता की करतूतों का तमाशा देखे।

पिछले सात साल की सत्ता की बात नहीं है, उससे पहले भी आप भातीय जनता पार्टी में अपराध-पूंजी के गठजोड़ को देख सकते हैं। पद को लेकर भाजपा में  भी हिंसा की लंबी फेहरिश्त है, लेकिन घटना के बाद आरोपियों को टिकिट देने और महत्वपूर्ण पदों पर बिठाने का खेल चलता रहा है।

और अब जब अगले साल 11 राज्यों में चुनाव होने जा रहा है तो महंगाई, बेरोजगारी, किसान आंदोलन की बजाय हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा बनाने की कोशिश जोर शोर से हो रही है। वाट्सअप यूर्निविसटी और ट्रोल आर्मी सक्रिय हो चुका है और वे महंगाई से ज्यादा जरूर हिन्दुत्व की रक्षा को जरूरी बताने ऐसे ऐसे झूठ परोस रहे हैं जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। ऐसे में यह सवाल जरूर उठाना चाहिए कि जब सत्ता में हत्या और डकैती के आरोपी बैठे हो, लालबत्ती के धमक से प्रशासन को हांक रहे हो तो फिर आम आदमी को क्या करना चाहिए। हत्यारे और डकैतों की सत्ता से हिन्दुत्व की रक्षा कैसे होगी?

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

जनसंख्या नियंत्रण के मायने...


देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जनसंख्या नीति को लेकर पूरे देश में एक नई तरह की बहस छिड़ गई है, कई हिन्दू संगठन इसके विरोध में खड़े होने लगे हैं तो सवाल यही है कि क्या इस देश में जनसंख्या को नियंत्रित करने की जरूरत है?

दरअसल जनसंख्या से जुड़ा मुद्दा केवल राजनीति है कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि जनसंख्या और समान नागरिकता संहिता भाजपा के एजेंडे का हिस्सा रहा है। तब सवाल यह है कि क्या जनसंख्या नियंत्रण कानून इस देश में लागू करने की जरूरत आ पड़ी है। उत्तरप्रदेश की जनसंख्या 22 करोड़ के करीब है और वह कई देशों से ज्यादा है, बढ़ती आबादी को लेकर इससे पहले भी कई सरकारों ने न केवल चिंता जताई है बल्कि इसे विकास में बाधा बताने से भी परहेज नहीं किया है।

निकम्मी सरकार तो अपनी असफलता के लिए बढ़ती जनसंख्या के पीछे छिप जाने का आसान तरीका ही ढूंढ लिया है लेकिन सच तो यह है कि किसी भी सरकार ने अपनी जनसंख्या को ताकत बनाने की कोशिश नहीं की। हम दो हमारे दो के नारे से शुरु हुई जनसंख्या नियंत्रण की कोशिश केवल शहरी क्षेत्रों और पढ़े लिखे तपको तक सिमट कर रह गया और भाजपा ने इसे धर्म की राजनीति के तहत इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। 

भाजपा के कई नेताओं का कहना है कि मुस्लिम समुदाय के लोग जनसंख्या के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है और चार शादी से लेकर ज्यादा बच्चा पैदा करना उनके जिहाद का हिस्सा है। जबकि कई हिन्दूवादी नेता तो यहां तक दावा करते हैं कि यदि जनसंख्या नियंत्रण कानून नहीं लाया गया तो हिन्दू आबादी अल्पसंख्यक हो जायेगी। और वे कई बार हिन्दुओं को अधिकाधिक बच्चा पैदा करने की सलाह भी देते है।

ऐसे में जनसंख्या नीति को लेकर सबसे पहले तो यही समझना होगा कि आखिर इसकी जरूरत कितनी और क्या है? क्योंकि भाजपा सत्ता के जल्दबाजी वाले फैसलों ने लोगों की मुसिबत ही बढ़ाई है। नोटबंदी से लेकर अब तक जितने भी फैसले लिये गए उन्हें लोगों के दबाव में संशोधित करना पड़ा है। 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने तो योगी की जनसंख्या नीति पर असहमति जता ही दी है तब सवाल यही है कि क्या जनसंख्या नीति की घोषणा केवल चुनावी फायदे के लिए किये जा रहे हैं क्योंकि पिछले सात सालों में सरकार के पास रोजगार तो है नहीं, कोरोनाल काल ने सरकारी सुविधाओं की पोल खोल दी है, अप्रवासी मजदूरों की व्यथा किसी से छिपा नहीं है किसान सात माह से आंदोलित है। तब क्या इस देश में अब सारे निर्णय राजनीतिक फायदे के लिए लिये जायेंगे? सोचना जरूर।

रविवार, 11 जुलाई 2021

कैसे निपटे जयचंद से...

 

छत्तीसगढ़ के चर्चित छापेमारी में जिस तरह से जयचंदों ने सरकार की मंशा को फेल किया है उसके बाद सरकार के माथे पर चिंता की लकीर साफ दिखाई देने लगा है। और वह फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है।

निलंबित एडीजी जीपी सिंह के ठिकानों पर एंटी करप्शन ब्यूरों द्वारा की गई छापेमारी ही लिक नहीं हुई बल्कि राजद्रोह की धारा के तहत अपराध दर्ज करने की बात भी लिक हो गई। हालांकि सरकार ने जीपी सिंह को घेरने के लिए चौतरफा इंतजाम करते हुए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दायर कर दिया है लेकिन जिस तरह से जीपी सिंह ने सरकार की गोपनीयता की पोल खोल दी है वह सत्ता के लिए भविष्य में चुनौती साबित होगी।

पन्द्रह साल के रमन राज के बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका के दौरान सैकड़ों घपले घोटाले का आरोप लगाया था और सत्ता में आते ही कई घोटालों की जांच भी शुरु कर दी लेकिन जयचंदों की वजह से सरकार को कई मामलों में मुंह की खानी पड़ी है। चर्चित नान घोटाले हो या डीकेएस सुपर स्पेशलिटी का मामला हो सरकार अभी तक इन मामलों में ज्यादा कुछ नहीं कर पाई है।  इसी तरह के कई मामले में सरकार को अपने कदम पीछे हटाना पड़ा है।

हालांकि जीपी सिंह के छापेमारी की खबर लीक होने की खबर से सरकार सचेत हो गई है लेकिन जिस तरह से सत्ता के खिलाफ षडय़ंत्र के कागजात मिलने का दावा किया जा रहा है उसके बाद यह कहना कठिन नहीं है कि पंद्रह साल की सरकार में डॉ. रमन सिंह व अन्य भाजपाईयों की अधिकारियों-कर्मचारियों में गहरी घुसपैठ है और सरकार के हर कदम की जानकारी उसे अमलीजामा पहनाने के पहले ही विपक्ष को खबर लग जाती है।

हालांकि इस पूरे खेल को देखे तो जिस तरह से भाजपाई ठेकेदारों ने मंत्रियों को घेर रखा है वह भी सूचना लीक होने का माध्यम बनता जा रहा है। पंद्रह साल के निर्वासन के बाद मिली सत्ता में पैसों की भूख की वजह से भाजपाई ठेकेदारों का मंत्री बंगले में न केवल, बेरोकटोक आवाजाही है बल्कि कुछ तो मंत्रियों के कीचन केबिनेट का हिस्सा भी बन चुके हैं। तब सवाल यही है कि सत्ता इन जयचंदों से कैसे निपटेगी।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

कुछ भी नहीं बदला न चाल चेहरा न चरित्र...

 

मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर चल रही चर्चाओं में सत्ता का अहंकार, अपराधियों को पनाह, झूठ-नफरत और अफवाह की राजनीति और हिन्दुत्व पर जोर की बात एक बार फिर सामने निकलकर आया है। तब तीन दशक पहले अटल-आडवानी की जोड़ी के चाल चेहरा और चरित्र बदलने की आवाज किसके लिए थी? क्या ये बात संघ के लिए थी या भारतीय जनता पार्टी के लिए थी? क्योंकि जिस तरह की राजनीति वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी ने मोदी-शाह के नेतृत्व में शुरु की है उसका अंत होते फिलहाल तो नहीं दिख रहा है।

तब सवाल यह है कि क्या चाल-चेहरा और चरित्र बदलने की बात क्या केवल जनता को भ्रमित करने का वैसे ही जुमला था जैसे कालाधन और खातों में लाखों चले जाने, पेट्रो-डीजल की कीमतकम कर देने का था। मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर चल रही बहस में भले ही हटाये गये लोगों को लेकर चर्चा ज्यादा है लेकिन चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि आखिर ज्योतिरादित्य सिंधिया को धूल चटाने वाले के.पी. यादव कहां है, एक दौर था जब विद्याचरण शुक्ल जैसे दिग्गज को हराने वाले रमेश बैस, मोतीलाल वोरा को हराने वाले रमन सिंह को मंत्री बनाया गया था ताकि वहां भाजपा का आधार बना रहे लेकिन लगता है मोदी सत्ता के लिए ये बातें महत्वपूर्ण नहीं है उनके लिए महत्वपूर्ण है स्वयं की ताकत का प्रदर्शन।

तब इस बात का क्या मतलब रह जाता है कि किसे हटाया गया किसे रखा गया क्योंकि पिछले सात सालों में हर क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की ही चली है। ऐसे में यदि चेहरा बदलने पर चाल और चरित्र बदलने का भ्रम खड़ा किया जा रहा है तो इस भ्रम को समझना होगा। नहीं तो देश की बदहाली को नारकीय तक जाने से नहीं रोका जा सकता। तीन दशक पहले जिस तरह से पार्टी विद डिफरेंस और  चाल चेहरा चत्रि का जुमला फेंका गया था उसका परिणाम क्या हुआ। क्या ऐसा है। संघ और भाजपा का देश में विस्तार हुआ लेकिन न झूठ की राजनीति का खात्मा हुआ न नफरत या अफवाह की राजनीति का ही खात्मा हुआ। हिन्दुत्व के नाम पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के उदाहरण आप गिनते थक जायेंगे। 

जिस मोहन भागवत ने अपने ज्ञान चक्षु खोलकर एक डीएनए की वकालत की है क्या वे संघ में अपने ही हिन्दू समाज के दलित आदिवासी और पिछड़ों को वह स्थान देंगे जो सम्मानजनक माना जायेगा। सत्ता की भूख के लिए बने मंत्रिमंडल के आरोप को भले ही खारिज कर दिया जाए लेकिन सच तो यही है कि स्वदेशी भी जुमला हो चुका है और मंत्रियों का काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निजीकरण को अमलीजामा पहनाना है तब अमित शाह और सहकारिता की जिम्मेदारी देने का मतलब आला निशाना सहकारिता ही है।

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

देश की बजाय चुनाव संभालने वाला मंत्रिमंडल

 

हर क्षेत्र में पिट चुकी मोदी सरकार की प्राथमिकता अब भी चुनाव है कहा जाए तो कुछ लोगों को यकीन नहीं होगा लेकिन यकीन मानिये मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार की वजह देश संभालना नहीं बल्कि जिन ग्यारह राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां भारतीय जनता पार्टी को संभालना है।

मंत्रिमंडल का बहुप्रतिक्षित विस्तार को लेकर जिस तरह का खेल खेला गया, असफलता के लिए बलि का बकरा ढूंढा गया और राज्यों में होने वाले चुनाव में जीत के सपने देखे गए उसके बाद तो यही लगता है कि आने वाले दिन आम लोगों के लिए ज्यादा मुसिबत भरा होने वाला है। तब सवाल यही है कि क्या मोादी सत्ता की प्राथमिकता केवल चुनाव जीतना है, तब आम लोगों के हितों का क्या होगा?

आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन सच यही है कि विभिन्न मंत्रालयों में खाली पड़े आठ लाख पदों की वजह से सरकार का कामकाज बुरी तरह प्रभावित है लेकिन उनमें भर्ती इसलिए नहीं की जा रही है क्योंकि कर्मचारियों-अधिकारियों के वेतन की दिक्कत है। अकेले रक्षा विभाग में ढाई लाख से ज्यादा पद रिक्त होने की चर्चा है।

देश की हालत किसी से छिपी नहीं है, आर्थिक बदहाली ने महंगाई को चरम पर पहुंचा दिया है और सत्ता अपनी रईसी बरकरार रखने और आर्थिक स्थिति सुधारने के नाम पर जिस तरह से आम लोगों पर टैक्स का बोझ बढ़ा रही है वह गब्बर सिंह टैक्स से कम नहीं है। लेकिन निर्मल सीतारमण को इसके लिए नहीं हटाया गया क्योंकि वह मोदी सत्ता के लिए सुविधाजनक है। महामारी में असफलता के लिए बलि का बकरा भले ही डॉ. हर्षवर्धन को बना दिया गया है लेकिन सच तो यह है कि महामारी प्रबंधन नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी का चेयरमेन तो खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है। रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर, बाबूल सुप्रियों जैसे कितने ही नाम है जिन्हें मंत्रिमंडल से हटाकर मोदी सत्ता ने न केवल अपनी ताकत दिखाई है बल्कि यह संदेश भी दिया है कि सत्ता का चेहरा बनने की कोशिश फिजूल है।

संतोष गंगवार तो शायद सिर्फ इसलिए हटाये गये क्योंकि उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र बरेली में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर योगी सरकार की आलोचना की थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया और नारायण राणे को पुरस्कार देकर दूसरे दलों के नेताओं को आमंत्रित करने की शैली भाजपा की नई नहीं है तब सवाल यही है कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत का असर मंत्री को नहीं जनता को भुगतना है। कुल मिलाकर केन्द्रीय मंत्रिमंडल  के विस्तार का ध्येय सिर्फ और सिर्फ 11 राज्यों में चुनाव जीतना है।

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

एडीजी की ताकत के पीछे भ्रष्ट राजनीति...

 

एडीजी जीपी सिंह की कहानी को समझने से पहले सत्ता माफिया और अफसरों के गठजोड़ में पनप रहे अपराध को समझना होगा। सत्ता माफिया और अफसर के इस गठजोड़ ने छत्तीसगढ़ में नया इतिहास रचा है। और यह सब खुलासा एडीजी सिंह के यहां छापे से सामने आया है। 

सवाल यह नहीं है कि एडीजी सिंह के घर से क्या-क्या मिला क्योंकि छत्तीसगढ़ में ऐसे अफसरों की लंबी फेहरिश्त हैं जिन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अरबों-खरबों की संपत्ति अर्जित की और जिन्हें आज भी सत्ता का संरक्षण मिला हुआ है।  एसीबी यानी एंटी करप्शन ब्यूरों के पास अभी भी उन 90 अफसरों की सूची है जिनके पास अनुपातहीन संपत्ति जब्त की गई लेकिन वे आज भी महत्वपूर्ण और मलाईदार पदों पर विराजमान है तो यह सब सत्ता के संरक्षण के बगैर संभव नहीं है। 

ऐसे में एडीजी सिंह के खिलाफ भी कोई बड़ी कार्रवाई होगी या अंजाम सजा तक पहुंच पायेगा यह कहना मुश्किल है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के समय जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के अफसरों का बंटवारा हुआ तो बहुत से भ्रष्ट अफसर छत्तीसगढ़ आ गये थे। उनमें वे अफसर भी थे जिनका मध्यप्रदेश के समय चर्चित घोटालों में नाम था उनमें से कई अफसर छत्तीसगढ़ में भी भ्रष्टाचार करते हुए मजे से नौकरी बजाते रिटायर्ड हो गए।

तीन साल की जोगी सत्ता में सत्ता, अफसर और माफिया के गठजोड़ के किस्से आज भी हवा में इसलिए तैर रहे हैं क्योंकि जिन डेढ़ दर्जन अफसरों को बर्खास्त करने, उनकी काली करतूत को  उजागर कर सजा दिलाने का दावा कर सत्ता में आई डॉ. रमन सिंह की सरकार में भी उन्हीं अफसरों का बोलबाला रहा। मुकेश गुप्ता, कल्लूरी तो पुलिस विभाग के हैं। आईएएस में आरपी मंडल से लेकर कितने ही नाम थे जो डॉ. रमन सिंह की सरकार में भी मजे से रहे।

डॉ. रमन सिंह की सरकार में एडीजी जीपी सिंह की गतिविधियों के लेकर सत्ता पर सवाल उठे लेकिन गठजोड़ ने सब ध्वस्त कर दिया, बिलासपुर के एसपी राहुल शर्मा के मर्डर केस जिसे आत्महत्या केस भी बताया जाता है उसका परिणाम कौन भूल सकता है। क्लोजर रिपोर्ट पर बवाल मचाने वाली कांग्रेस ने क्या कभी इस केस की फाईल फिर खुलवाई? नान घोटाले से लेकर कितने ही घोटाले का क्या हुआ।

भ्रष्ट अफसर नेता और माफिया का गठजोड़ क्या आज दिखाई नहीं दे रहा है कि वे सत्ता तक किस तरह पहुंच गए है। हाईकोर्ट ने 90 ऐसे  भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की रिपोर्ट भी मांगी है लेकिन क्या सरकार में हिम्मत है कि वे ऐसे भ्रष्ट अफसरों को मलाईदार पद से हटा सके। बल्कि कई अफसर तो भूपेश सरकार की गोद में बैठे है। तब एडीजी जीपी सिंह को लेकर मचा बवाल का क्या अर्थ है जबकि अभी तक उसे निलंबित तक नहीं किया गया है।

सोमवार, 5 जुलाई 2021

राफेल : छद्म राष्ट्रवाद का चेहरा...

 

बाफोर्स तोप सौदे में कमीशन जब भ्रष्टाचार है तो राफेल सौदे में कमीशन बिजनेस डील कैसे हो सकता है? क्या छद्म राष्ट्रवाद का ये जीता जागता प्रमाण नहीं है। प्रारंभ से ही राफेल सौदे में हुई गड़बड़ी को मोदी सत्ता नकारते रही है लेकिन जिस तरह फ्रांस में राफेल डील की आपराधिक जांच शुरु हुई है उसके बाद यह साफ हो गया है कि राफेल डील दो सरकार के बीच के सौदे की बाते न केवल बकवास है बल्कि कमीशनखोरी भी जमकर हुई है। 

हालांकि अभी जांच के परिणाम पर कुछ भी बोलना जल्दबाजी होगी लेकिन जिस तरह की जांच फ्रांस में शुरु हुई है वैसी जांच की कल्पना करना भारत में मुश्किल है। चौकीदार चोर है के नारे के साथ शुरु हुआ आरोप-प्रत्यारोप के इस खेल में भले ही सत्ता हावी हो, और वह विरोधियों को देशद्रोह बताता रहा हो लेकिन कालेधन का मामला हो, पनामा पेपर का मामला हो या फिर बड़े उद्योगपतियों या भगोड़े उद्योगपतियों के बैक लोन को बट्टा खाते में डालने का मामला हो मोदी सत्ता की भूमिका संदिग्ध रही है। तब राष्ट्रवाद की बात कितना उचित है अब जनता ही तय करेगी।

सत्ता को क्लीन चीट देने, राष्ट्रवादी बताने, इमानदार बताने जिस तरह से मीम फैलाई गई कि उसके तो परिवार भी नहीं है तब किसके लिये भ्रष्टाचार किया जायेगा कि पोल तो शोले फिल्म के गब्बर सिंह से ही समझा जा सकता है जिसका कोई परिवार नहीं था लेकिन तबाही लूट खसोट और आतंक का पर्याय था। तब यदि गब्बर सिंह के तर्ज पर गब्बर सिंह जब कहते है कि इन्हें (जय वीरु) लाए हो रायगढ़ की रक्षा के लिए? तो याद कीजिए ये बात सत्ता पप्पू के संबंध में कहती है और पप्पू अपने कार्य में तल्लीन है।

हम यहां रायगढ़ की रक्षा की बात नहीं कर रहे हैं वह तो फिल्म शोले था लेकिन अभी बात काले धन को लाने की बजाय दो गुना हो जाना, पड़ोसी पाकिस्तान में पनामा पेपर मामले में सजा हो जाना और भारत में जांच रिपोर्ट तक नहीं आना की बात भी हम यहां कहकर राष्ट्रवादी सरकार पर उंगली नहीं उठाना चाहते। हम तो राफेल सौदे में हुई घपलेबाजी और आपराधिक जांच में भारत के नाम, मोदी के चहेते कंपनी जैसी बात के जिक्र पर चर्चा नहीं करना चाहते।

हम तो सिर्फ यही कहते हैं कि राफेल सौदे में यदि सबकुछ ठीक है तो क्यों जांच नहीं होनी चाहिए, भारत की सरकारी कंपनी की बजाय निजी कंपनी को काम देने से लेकर कई सवाल है जिसका जवाब देश को चाहिए। तब सवाल यही है कि राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़ कर कुछ भी कर गुजरने का दिन क्या पूरा होने वाला है, क्या रंगा सियार का सच उजागर फ्रांस करेगा या सत्ता बदलने का इंतजार किया जाए।

रविवार, 4 जुलाई 2021

बाबा को गुस्सा क्यों आता है...

 

शीर्षक देखकर बहुत से लोगों को नसरुद्दीन शाह और शबाना आजमी अभिनीत फिल्म अलबर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है कि याद ताजा हो गई होगी, लेकिन यकीन मानिये रियल लाईफ और रील लाईफ में ज्यादा अंतर नहीं होता, कुछ लोगों में नाराजगी व्यक्त करने का स्वभाव आदत में तब्दिल हो जाता है और वे ये भूल जाते है कि उनकी नाराजगी का दूरगामी असर क्या पडऩे वाला है।

हम बात कर रहे हैं प्रदेशत के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव यानी बाबा का। उनकी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से नाराजगी जग जाहिर है, नाराजगी की वजह के कई कयास है। ताजा मामला मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के उस बयान के बाद सामने आई हैं जिसमें बघेल ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने निजी अस्पतालों को मदद की जायेगी। इस योजना पर काम शुरु किया जा रहा है। वैसे देखा जाए तो इस तरह की योजना बनाना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार भी है लेकिन राजा साहेब यानी टीएस बाबा को लगता है कि मुख्यमंत्री अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे हैं इसलिए जब इस योजना को लेकर पत्रकारों ने स्वास्थ्य मंत्री बाबा साहेब से सवाल पूछा तो वे सवाल सुनते ही उखड़ गए और इस पर असहमति जताते हुए यहां तक कह दिया कि निजी अस्पतालों को गरीबों को मुफ्त में ईलाज करना चाहिए तभी अनुदान देना चाहिए।

हालांकि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से चूक गए राजा साहेब की नाराजगी नई नहीं है, वे पहले भी अपनी नाराजगी सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर चुके हैं, ढाई-ढाई साल वाले फार्मूले को  उनके ही समर्थकों द्वारा हवा देने का आरोप तो उन पर लगा ही है उनका इस मामले में गोल-मोल जवाब भी आशकाएं बढ़ाने वाला साबित हुआ। विभाग के बंटवारे से शुरु हुई नाराजगी की खबर हर किसी को है, कैबिनेट की कई बैठकों में बाबा के तेवर की चर्चा भी बाहर आते रही है ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पताल को लेकर दिये उनके बयान का क्या मतलब है यह तो वही जाने लेकिन बुरी गत बन चुकी भाजपा नेताओं के लिए यह नाराजगी मुद्दा जरूर बन गया है। 

वैसे अपने सौम्य व्यवहार और खुशमिजाज के लिए राजधानी में छवि बनाने वाले राजा साहेब के बारे में कहा जाता है कि यदि हकीकत पता करना हो तो अंबिकापुर और आसपास जरूर घुमा-देखना चाहिए। फिर अडानी के परसा कोल ब्लॉक में राजा साहेब की भूमिका तो वहां के ग्रामीण पहले ही बता चुके हैं कि परसा कोल ब्लॉक में अडानी के नियम कानून की धज्जियां पर बाबा कुछ नहीं बोलते जबकि यह क्षेत्र उनके विधानसभा में भी पड़ता है, धंधा पानी की चर्चा तो अलग ही मामला है। यानी बाबा को गुस्सा क्यों आता है कुछ-कुछ तो लोग समझने भी लगे हैं।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

बेटियां हत्यारिन... जिम्मेदार कौन?

 

छत्तीसगढ़ में शराब की बह रही नदियों के लिए जिम्मेदार कौन? शराब ने गांवों की शांति छिन ली है और शराब की वजह से हो रहे अपराध न केवल शर्मसार कर देने वाला है बल्कि सत्ता के लिए चुनौती भी है। अभी लोग महासमुंद में पांच बेटियों सहित सामूहिक आत्महत्या की घटना लोग भूले भी नहीं थे कि अंबागढ़ चौकी के भगवान टोला गांव में फिर एक हृदय विदरक घटना हुई। यह घटना की वजह भी शराब है। शराबी पिता की हरकतों से परेशान नाबालिग बेटियों का गुस्सा इतना बढ़ गया था कि वे तब तक अपने पिता पर टंगिया से वार करते रहे जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो गई। मृतक सहदेव नेताम को शराब की लत थी और उसे अवैध शराब कोचियों से आसानी से शराब मिल जाता था, शाम होते ही नशे में धुत्त होकर वह घर पहुंचता और लड़ाई-झंझट करता था, घटना के दिन तो उसने टंगिया से अपनी पत्नी को ही मारना चाहा जिसे देख दोनों नाबालिग बेटियों ने टंगिया छिन कर पिता की हत्या कर दी।

छत्तीसगढ़ में इस तरह की घटनाएं अब रोज की कहानी है और शराबबंदी करने के वादे के साथ सत्ता में आई भूपेश सरकार को यह सब दिखाई सुनाई नहीं पड़ रहा है। गांव-गांव में अवैध शराब की बिक्री जिस तरह से बढ़ी है वह हैरान कर देने वाली है। यदि लोगों की बातों पर भरोसा करें तो अवैध शराब बिक्री के खेल में कई जगह के थाने तक शामिल है और अवैध शराब बिक्री की शिकायत पर भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती। कई जगह तो अवैध शराब बेचने वालों के द्वारा थाना खरीद लेने तक की चर्चा है लेकिन सत्ता को यह सब न दिखाई दे रहा है और न ही सुनाई ही दे रहा है।

छत्तीसगढ़ में शराब बंदी की मांग तब शुरु हुई थी जब पिछली सरकार में गांव-गांव में शराब भट्टी खोले जाने लगा था। शाम होते ही ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों का गुजरना दूभर होने लगा था। प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री कंवर को शराब माफियों द्वारा थाने खरीद लेने की बात कहनी पड़ी थी। तब कांग्रेस ने शराब को लेकर लोगों में व्याप्त नाराजगी को चुनावी मुद्दी बनाया और सत्ता भी हासिल की। लेकिन ढाई साल बीत जाने के बाद भी सत्ता इस तरफ से मुंह फेर कर बैठी हुई है। हालत बदतर होने लगे हैं, यही नहीं छत्तीसगढ़ के सरकारी दुकानों में बिक रही शराब की गुणवत्ता पर भी सवाल उठने लगे हैं। 

ऐसे में जिन बच्चियों ने अपने पिता को मारकर अपराधी बन गई है उसके लिए जिम्मेदार कौन है, क्या इसके लिए सत्ता जिम्मेदार नहीं है? सवाल कई है लेकिन शराब से कई परिवार बर्बाद होने लगे है और सत्ता चुप।

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

तुम कुछ भी करो हम मंदिर बनाकर जीतेंगे...

 जब देशभर के किसान अपनी मांगों को लेकर जिले से लेकर हर राज्य की राजधानी में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे, लोकतंत्र बचाने का नारा लगा रहे थे तब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राम मंदिर, तीर्थ क्षेत्र और अयोध्या नगरी को सबसे अलग बनाने की योजना बना रहे थे। इसका मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ये समझते हैं कि चाहे किसान नाराज हो जाये, बेरोजगार नाराज हो जाए, महंगाई चरम पर पहुंच जाए, राम मंदिर निर्माण और हिन्दू-मुस्लिम के सामने कोई भी मुद्दा या जन सरोकार मायने नहीं रखता और वे राम मंदिर के तामझाम के सहारे चुनाव जीतेंगे और इसे कोई रोक नहीं सकता।

तब सवाल यही है कि आखिर किसान आंदोलन कब तक चलेगा, हालांकि सात माह बाद भी किसानों की हिम्मत में कोई कमी नहीं है और वे जान चुके है कि केवल तीन कानूनों की वापसी के मुद्दे पर ही सरकार को नहीं झुकाया जा सकता इसलिए इस बार आंदोलन में तीनों कृषि कानून की वापसी के साथ लोकतंत्र बचाओं का भी मुद्दा जोड़ा गया और आगे जनसरोकार से जुड़े मुद्दे भी किसान आंदोलन का हिस्सा बनेगे तो अचरज नहीं है।

तब क्या मोदी सत्ता ने यह मान लिया है कि आंदोलन का प्रभाव उत्तरप्रदेश के चुनाव में इसलिए नहीं होगा क्योंकि उसने राम मंदिर का निर्माण शुरु कर दिया है और आगे कश्मीर पाकिस्तान और हिन्दू-मुस्लिम का मुद्द जब गहराने लगेगा तो किसानों के मुद्दे गायब हो जायेंगे। हालांकि उत्तरप्रदेश के पश्चिमी उत्तरप्रदेश, अवध और बुदेलखंड के किसान अब जोर-शोर से आंदोलन का हिस्सा बनने लगे है, 26 जून के आंदोलन का हिस्सा तो देश के कमोबेश हर राज्य के किसान बने भले ही कहीं ज्यादा कहीं कम संख्या रही।

पंजाब में भाजपा का वैसे भी कोई वजूद नहीं है और हरियाणा में अभी चुनाव दूर है तब वह ऐसे आंदोलन की अनदेखी भी कर रही है तो इसकी वजह है कि लोगों की याददाश्त बेहद कमजोर है इसलिए वह सत्ता की लापरवाही से कोरोना के नरसंहार, गंगा में बहती लाशे, आक्सीजन की कमी और बेरोजगारी को कैसे याद रखेगी। और जब बड़े-बड़े विद्वानों ने कहा है कि धर्म और राष्ट्रवाद का नशा के आगे कुछ भी मायने नहीं रखता तब राम मंदिर की योजना के सहारे सत्ता में वापसी की उम्मीद को कोई कैसे खत्म कर सकता है।