बुधवार, 30 दिसंबर 2020

यह भी तो एक तरह की चोरी है साहेब!


 

छत्तीसगढ़ के नगरनार स्थित संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने को लेकर बवाल मचा हुआ है। संयंत्र के निजीकरण का चौतरफा विरोध हो रहा है, इसे देखते हुए राज्य सरकार ने नगरनार संयंत्र के निजीकरण के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए इसे खरीदने की घोषणा कर दी है।

दरअसल बीते 6 सालों में जिस तरह से मोदी सरकार ने देश के रत्न माने जाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों को एक के बाद एक बेचा है उसके बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सार्वजनिक उपक्रम क्यों बेचे जा रहे हैं। यदि कोई उपक्रम घाटे में चल रहा है तो उसे सुधारने की बजाय निजी हाथों को सौंप देना कौन सी शासन व्यवस्था है। फिर सवाल यह भी है कि उन सार्वजनिक उपक्रमों को क्यों बेचा जा रहा है जो फायदे में चल रहे हैं। क्या यह सब सरकार की नाकामी नहीं हैं। सिर्फ 23 सार्वजनिक उपक्रम की नहीं बेचे गए बल्कि रेलवे, एयरपोर्ट से लेकर उन तमाम चीजों को निजीकरण किया जा रहा हैं जो वेलफेयर के तहत आते हैं और यही हाल रहा तो देश के पास अपना कहने को क्या रह जायेगा?

सवाल यह भी नहीं है कि निजीकरण के इस दौर में किसे फायदा पहुंचाने की कोशिश हो रही है। सवाल तो यह है कि इस निजीकरण से किस तरह से सरकार धोखाधड़ी कर रही है? क्या यह सब लोकतंत्र का हिस्सा है। 

सरकारें इसलिए बनाई जाती है ताकि व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाया जा सके और आम लोगों के हित में बेहतर सुधार हो लेकिन जिस तरह से मोदी सत्ता ने बीते 6 सालों में आर्थिक सुधार के नाम पर निजीकरण को प्राथमिकता दी है, उससे यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने इस देश पर राज्य इस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ही शुरु किया था।

ऐसे में नगरनार संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने को लेकर जब विरोध शुरु हुआ तो इसके पीछे का सच भी जानना जरूरी है। और छत्तीसगढ़ के हित की बात करने वाले भाजपाई नेतृत्व क्यों इसका विरोध नहीं कर रहा यह भी समझना होगा।

नगरनार संयंत्र के लिए जमीन किसानों ने दी। जमीन इसलिए दी गई ताकि एक सरकारी संयंत्र लग सके यदि निजी संयंत्र के लिए जमीन मांगी जाती तो बहुत से किसान तैयार ही नहीं होते। एनएमडीसी से अपने भविष्य में बेहतरी आने की उम्मीद में दी गई इस जमीन पर लगने वाले संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने की कोशिश न केवल बेईमानी है बल्कि किसानों के साथ धोखाधड़ी भी है।

इसलिए जब केन्द्र सरकार ने इसे निजी हाथों में सौंपने की दिशा में कदम उठाया तभी से इसका विरोध शुरु हो गया।

चूंकि निजी संयंत्र की स्थापना में किसानों से सीधे जमीन लेना आसान नहीं होता इसलिए सरकार यदि जमीन अधिग्रहण के बाद निजी हाथों को उसे सौंप दे तो यह जनता के साथ धोखा नहीं तो और क्या है? यह जमीनों की चोरी नहीं तो और क्या है? ऐसे में स्थानीय भाजपाईयों की  चुप्पी भी उन्हें गर्त में ले जायेगी।