बुधवार, 26 मार्च 2014

कर्णधारों की कवायद


न नीति न नैतिकता, भाड़ में जाए जनता
देश की सत्ता संभालने की बिसात बिछ चुकी है और मोहरे भी बिठाये जाने लगे हैं। सत्ता के लिए दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा अपने अपने सहयोगियों के साथ आमने सामने है। पिछले दो दशक से जनता ने किसी एक दल को बहुमत के आकड़े से दूर रखा है तो इसकी वजह इन दिनों प्रमुख राजनैतिक दलों की सत्ता की भूख है जिसे जनता अच्छी तरह जान चुकी है। और इस बार भी जिस तरह से सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधन किये जा रहे हैं उसके बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल जाए इसकी सभावना कम ही है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में भारत की सत्ता के लिए 9 चरणों में हो रहे चुनाव में सत्ता हासिल करने की कवायद में लगे दलों ने जिस तरह से राजनैतिक सुचिता और अपने दलों के सिद्धांतो को तिलाजंति दी है वह आश्चर्यजनक है।
अपने दम पर सरकार बनाने से दूर होते कांग्रेस में तो अफरा तफरी का माहौल है। उसके कई बड़े नेता चुनाव लडऩे से मना कर रहे हैं या फिर जिधर बम उधर हम की तर्ज पर दूसरे दलों का सहारा लेने लगे हैं। इसके बावजदू राहुल गांधी को पिछले चुनाव से अधिक सीटें जीतने की उम्मीद हैं तो इसकी वजह कांग्रेस विरोधियों की वह करतूत है जो हर हाल में सत्ता हासिल करने अनैतिक गठबंधन या कांग्रेस से आने वालों को टिकिट देना या यादिरप्पा जैसों को गले लगाना है।
चुनाव के घोषणा के पहले जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ माहौल था वह माहौल चुनाव आते-आते खतम होने लगा तो इसकी प्रमुख वजह भी भारतीय जनता पार्टी का मुद्दे की बजाय नरेन्द्र मोदी को प्रमोट करना है।
दरअसल भाजपा के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वह आज भी अपने दम कर कांग्रेस को परास्त करने की सोच ही नहीं पैदा कर पाई हैं इससे पहले भी वह कांग्रेस को सत्ता से दूर करने की लड़ाई में गठबंधन का सहारा लेते रही है और इस खेल में न केवल उसने अपनी पार्टी के सिद्धांतो को तिलांजलि दी बल्कि राजनैतिक सुचिता को भी दरकिनार किया।
पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी की हवा तो उस दिन ही हवा हो गई जबब उसने विहार में राम विलास पासवान से समझौते किये और यदिरप्पा को पार्टी से टिकिट दी। यही नहीं बीजेपी के बड़े नेताओं ने जिस तरह से सुरक्षित सीट की तलाश शुरू की तभी से भाजपा की जीत को लेकर संशय के बादल न केवल मंडराने लगे बल्कि मोदी की हवा पर भी सवाल उठने लगे।
राजनैतिक विश्लेषकों की माने तो इस बार भी किसी एक दल के जादुई आकड़े छुने की संभावना दूर दूर तक नहीं दिख रहा है। और यही वजह है कि भाजपा की बौखलाहा खुलकर सामने आने लगी है। और वह भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाने की बजाय नरेन्द्र मोदी के नाम का सहारा ले रही है। हर हर मोदी का नारा और दिल्ली भाजपाध्यक्ष हर्षवर्धन का भगवान भी नहीं रोक सकने वाले बयान को इसी बौखलाहट का परिणाम भी माना जा रहा है।
दूसरी तरह जनता भी यह समझ नहीं पा रही है कि आखिर कांग्रेस और भाजपा किस मामले में अलग है। भ्रष्टाचार की फेहरिश्त दोनों ही दलों में कम नहीं है तो अपराधियों को टिकिट देने के मामले में भी दोनों दलो की एक ही तरह की राम है। दोनों ही दलो के सहयोगियों के कारनामें भी एक ही तरह के है तो फिर सत्ता की दौड़ में अफरातफरी दोनों ही दलों में एक समान है। इधर गांधी परिवार पर वंशवाद का आरोप लगाने वाली भाजपा में भी वंशवाद का जो खेल इस चुनाव में हुआ है वह भी दोनो को एक कर रही है। यही वजह है कि अनैतिक गठबंधन से सत्ता हासिल करन के खेल ने दोनों ही पार्टियों से जनात का मोह भंग किया है और नई नवेली आम आदमी पार्टी में उम्मीद दिखने लगी है।
छ: महीने की पार्टी आम आदमी पार्टी को जिस तरह से बड़े शहरों में समर्थन मिल रहा है और जिस तरह से कस्बों तक लोग उनसे जुडऩे लगे है वह दोनों ही दलों के लिए हैरान कर देने वाली है और इसे नजर अंदाज करना भी भारी पड़ सकता है। क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोट काहु पार्टी की सोच हवा हो चुकी है।
क्या कांग्रेस और भाजपा के बड़े नेता आपस में मिले हुए है या कार्पोरेट घरानों के कारनामों पर दोनों ही दल चुप हैं। यह सवाल उबकर आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से कांगे्रस और भाजपा के दिग्गजों को चुनौती देने का फार्मूला बनाया है क्या यह नई राजनीति जनता के दुखते रग को छु पायेगी।
ऐसे कितने ही सवाल है जो जनता के मन में है और कहा जाता है कि यही सवाल पिछले हो दशकों से किसी एक दल को सत्ता के जादुई आंकड़े से दूर रखा है।