गुरुवार, 13 मार्च 2014

कौन जिम्मेदार?


सत्ता = अनैतिक गठबंधन+ धन बल + बाहुबल + झूठे वादे+ जाति-धर्म का दुरूपयोग + बेहिसाब चुनावी खर्च + गलत आरोप-प्रत्यारोप + शराब खोरी + मुफ्त खोरी+ वोट खरीद
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव का बिगुल बज गया है। सत्ता हासिल करने की लड़ाई का आगाज जिस तरह से पिछले दो-तीन दशकों से चल रहा है वह न केवल शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया है बल्कि कौन किसके साथ है कहना मुश्किल है। हर हाल में सत्ता के लिए सिद्यांतो से समझौते के खेल से न गांधीवादी बचे है न हितुत्व वादी ऐसे में चुनाव आयोग के साथ-साथ आम जनता की जिम्मेदारी भी बढ़ी है। कार्पोरेट जगत की बढ़ती ताकत के बीच कमर तोड़ती महंगाई और बढ़ते भ्रष्टाचार से आज देश त्रस्त है तब इसके लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जाए।
लोकतंत्र का चुनाव 9 चरणों हो रहा है। देश की जनता इन 9 चरणों में अपना प्रतिनिधि चुनेगी। सिद्दांतत: ये प्रतिनिधि ही हमारे हीतों को देखेंगे पर क्याा यह सचमुच हो रहा है। राजनैतिक दलों का सिद्यांत हर हाल में सत्ता तकर पहुंचना रह गया है। प्रत्याशी स्वयं चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते कहीं जाति-धर्म का सहारा ले रहे हैं तो झूठा शपथ पत्र दे रहे हैं धन की बारिश, शराब की नदिया और मुर्गाभात की दावतें उड़ाई जा रही है। राजनैतिक दल जीतने वाले प्रत्याशी के नाम पर बाहुबली और भ्रष्ट लोगों को टिकिट दे रही है जिसका परिणाम सबके सामने हैं। संसद का नजारा शर्मनाक हो चुका है हमारे प्रतिनिधि दुर्योधन और दुशासन की तरह लोकतंत्र का चीरहरण कर रहे हैं और अच्छे लोग भीष्म की भूमिका में तमाशा देख रहे हैं। सत्ता की चाह में डुबे ये कथित लोग पार्टी फोरम में भी इसका विरोध नहीं कर रहे हैं और आम आदमी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है।
क्या यह सही वक्त नहीं है कि सारे अच्छे लोग जाति धर्म से परे उठ कर अच्छे लोगों को ही चुनाव जीताये चाहे वह किसी भी दल का हो? तभी हम लोकतंत्र को बचा पायेंगे। चुनाव सुधार की प्रक्रिया में तेजी के अलावा आम नागरिक अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभाये?
आज जब सभी दलों का ध्येय सिर्फ सत्ता पाना हो। सत्ता के लिए सिद्यांतो को भूल क्षेत्रिय दलो से हाथ मिला रहे हो न कांग्रेस ही  कांग्रेस रह गई है और न भाजपा ही भाजपा है तब भला इनके सिद्धांतो पर वोट डालने का औचित्य क्या रह गया है।
आज कांग्रेस के साथ कल भाजपा के साथ रह कर जिधर बम उधर हम के सिद्धांत पर चलने वालों की कमी नहीं है और न ही सत्ता के लिए राष्ट्रीय दलों को भी किसी से भी हाथ मिलाने से गुरेज ही रह गया है। ऐसे में आम जनता के सामने स्वत: ही विकल्प खुल गया है कि वह सिंद्धातों की राजनीति की दुहाई देने वाले दलों की बजाय अच्छे प्रतिनिधि का चयन करें।
जनता की जिम्मेदारी तब और भी बढ़ जाती है जब उनके राजनैतिक दल ऐसे लोगों को टिकिट देने से गुरेज नहीं करते जो लोकतंत्र के दुश्मन है और जिनका अपराध से नाता है।
संसद के हर सत्र में तमाशा बन रहे जनप्रतिनिधियों की अपने स्वार्थ के लिए एका भी आश्चर्यजनक है पार्टी नेतृत्व की अक्षमता की वजह से गलत लोग प्रभावशील होने लगे है। नेतृत्वकर्ता कितना भी काबिल हो यदि उसमें कड़ी कार्रवाई करने की क्षमता न हो तो अनैतिक काम करने वालों का ही हौसला बढ़ता है। पिछले दो तीन दशकों में यह बात खुलकर सामने आ चुका है कि ईमानदारी का मतलब चुप्पी नहीं है। लोग तो आज भी कहते हैं कि मनमोहन सिंह अच्छे व्यक्ति है पर मंत्रीमंडल की करतूत पर खामोशी का इस अच्छाई से क्या मतलब है।
लोकतंत्र में सभी की जिम्मेदारी तय है लेकिन हमने देख लिया है कि किसी भी तबके ने अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभाई है अब जनता की बारी है कि वह सिद्धांत विहिन राजनैतिक दलों के वोट कमाऊ राजनीति का हिस्सा बनने की बजाय झूठे घोषणापत्र जारी कर सिद्धांत बघारने वाले दलों की बजाय अच्छे जनप्रतिनिधि को चुने भले ही उसकी सरकार न बने पर लोकतंत्र को बचाने का हथियार जरूर बनेगा।