गुरुवार, 24 जनवरी 2013

स्निग्धा जैसी सबकी किस्मत नहीं होती...


रमन सरकार ने शायद यह तयही कर लिय अहै कि निजी स्कूल चाहे कितनी भी मनमानी करे उस पर कोई कार्यवाही नहीं होगी और सरकारी स्कूलों का स्तर इतना गिरा दिया जाए कि लोग अपने ब'चों को निजी स्कूलों में पढाने पर मजबूर हो जाएं।
तभी तो सरकारी स्कूलों में समय के अनुरुप न तो अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ही शुरु की जा रही है और न ही शिक्षक रखे जा रहे हैं। न स्कूलों में ढंग से शौचालय बनाए जाते हैं और न ही पीने की पानी की व्यवस्था पर ध्यान दिया जा रहा है ऐसे में लोगों की मजबूरी का फ़ायदा निजी स्कूलों के द्वारा उठाया नहीं जाएगा तो क्या होगा।
छत्तीसगढ में निजी स्कूलों की मनमानी चरम पर है। मनमाने फ़ीस के अलावा जूता-मोजा, बेल्ट-टाई, कापी-किताब से लेकर लोगों की जेब पर डकैती डालने नए नए तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं। लेकिन न तो यह सब अधिकारियों को ही दिख रहा है और न ही जनप्रतिनिधि कहलाने वाले मंत्रियों को ही दिख रहा है। उपर से इन निजी स्कूलों की करतूतों पर लीपा पोती की जा रही है।
सरकार के लिए तो सरकारी स्कूल घाटे का धंधा कहलाने लगा है। उन्हे लगता है कि सरकारी स्कूल को सुधारने में फिज़ूल खर्च है। जबकि उनकी सुविधा बढाने में फिज़ूल खर्ची उन्हे नहीं दिखता। सरकारी खजाने से जनता के लिए खर्च करने में उन्हे तकलीफ़ होती है। पता नहीं यह पैसा उन्की जेब से जाता तो क्या करते।
कहने को तो सरकार का काम जनता का हित देखना है लेकिन सरकार हर काम को धंधे की नजर से देखने लगी है। जबकि हर साल के परीक्षा परिणाम से स्पष्ट है कि निजी स्कूल के ब'चों से Óयादा होशियार अभाव ग्रस्त सरकारी स्कूल में पढ़ रहे ब'चे हैं।
निजी स्कूलों में सुविधाओं के नाम पर खुले आम डकैती की जा रही है। चौतरफ़ा लूट खसोट के अलावा नियम-कानून की धÓिजयाँ उड़ाई जा रही हैं। यदि सरकारी स्कूलों में सरकार नर्सरी से ही अंग्रेजी माध्यम शुरु कर दे तो अस्सी फ़ीसदी से अधिक लूटेरे अपने संस्थान बंद कर देगें। ये वे लोग हैं जो शिक्षा के माध्यम से समाज सेवा का दावा तो करते हैं लेकिन सरे आम लोगों की जेबों पर डकैती डाल रहे हैं।
यही वजह है कि निजी स्कूलों में चल रही बसों की हालत बदतर है। लेकिन अधिकारी से लेकर मंत्रियों तक पहुंच रही उपरी कमाई की वजह से ब'चों की ज आन से खिलवाड़ किया जा रहा है।
राजकुमार कालेज की चलती बस से स्निग्धा वर्मा नाम की मासूम ब'ची सड़क पर गिर जाती है और कालेज प्रबंधन से लेकर पूरी सरकार इस मामले पर कार्यवाई करने की बजाए लीपा-पोती में लग जाती है। बस चालक और परिचालक जैसे छोटे कर्मचारियों को गिरफ़्तार कर लिया जाता है लेकिन काले प्रबंधन के खिलाफ़ जुर्म तक दर्ज नहीं किया जाता।
इस मामले में तो सीधे राÓयपाल को हस्तक्षेप करना चाहिए क्योंकि निजी शिक्षण संस्थाओं की मनमानी पर सरकार कुछ नहीं करने वाली। उपर से लेकर नीचे तक के लोगों का मुंह पैसों से भर दिया गया है। वे बोलेगें भी नही और कभी भी कोई और बड़ी घटना हुई तो मासूमों की जान तक जा सकती है। हर कोइ स्निग्धा वर्मा जैसी किस्मत वाली नहीं होती।


हद हो गई...


छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव सुनील कुमार को न केवल हाईकोर्ट में अपनी आमद देनी पड़ी बल्कि लिखित में यह कहना पड़ा कि आईंदा ऐसा नहीं होगा। हाईकोर्ट ने प्रदेश के गृह सचिव तक को नोटिस दिया है। एस पी कलेक्टर आए दिन हाईकोर्ट तलब किए जा रहे हैं और सरकार अफ़सरों की करतूतों पर परदा डाल रही है।
कोयले की कालिख के साथ कंठ तक भ्रष्टाचार में डुबी सरकार से बहुत Óयादा उम्मीद तो बेमानी है लेकिन सरकार की  करतूतों की सजा कोई कोई दूसरा क्यों भुगते। सरकार की इसी करतूत का फ़ायदा अधिकारी उठा रहे हैं। बेलगाम नौकरशाहों की मनमानी से आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। लेकिन सरकार को इसकी जरा भी परवाह हो ऐसा आचरण में नहीं दिखता।
वैसे तो रमन सरकार में अफ़सरशाही और प्रशासनिक आतंक की कहानी नई नहीं है एवं प्रशासनिक आतंक जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले विपक्षी कांग्रेसी नहीं उनकी ही पार्टी के नेता दिलीप सिंह जूदेव हैं। प्रशासनिक आतंक की हालत यह है कि गिनती के 4 अफ़सर पूरे प्रदेश को संभाल रहे हैं और उनके आगे न मंत्रियों की चलती है और न ही किसी और की चलती है।

प्रदेश में ऐसा कोई विभाग नहीं होगा जहां भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी फ़ल-फ़ूल रहे हैं। सरकारी खजानों पर तो डकैती डाली जा रही है। ईमानदार अफ़सरों को इतना प्रताडि़त किया जा रहा है कि वे आत्महत्या करने तक मजबूर हो रहे हैं। भ्रष्ट अफ़सरों को मलाईदार पदों पर ही नहीं बिठाया जा रहा बल्कि उन्हे रिटायरमेंट के बाद भी संविदा में रखा जा रहा है। पदोन्नति से लेकर तबादले में ईमानदार अफ़सरों की उपेक्षा की जा रही है और सरकार के मंत्रियों के पास पहुंचने वाली ऐसी शिकायतें रद्दी की टोकरी में फ़ेंकी जा रही हैं। यही वजह है कि अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ़ हाईकोर्ट में दस्तक दी जा रही है। अगर सरकार ही न्याय करे तो लोग कोर्ट क्यों जाएगें।
विधानसभा हो या मंत्रालय, कलेक्टरेट हो या पुलिस मुख्यालय सब जगह अफ़सरों की मनमानी से आम जनता त्रस्त है। अब तो अफ़सरों की अय्याशी का मामला इतना बढ गया है कि उनके द्वारा निवेशकों को लुभाने के नाम पर अश्लील नाच का आयोजन भी किया जाने लगा है। करीना कपूर हो या मैनपाट कार्निवल की रशियन बालाएं सब अफ़सरों की करतूतों की कहानी है जिस पर सरकार की पूरी स्वीकृति है।
प्रदेश में बैठी भाजपा सरकार को अपनी जिम्मेदारी का कितना अहसास है यह तो वही जाने लेकिन संविधानिक व्यवस्था में अफ़सरों से काम लेना सरकार की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में  सरकार इसलिए बिठाई जाती है ताकि सरकारी खजाने का सही और जनहित में उपयोग हो। बेहतर सरकार वही मानी जाती है जहां अफ़सर बेलगाम न हो और लोगों की समस्यायो का निपटारा न्यायालय जाने से पहले हो जाए।
लेकिन जब सरकार पर ही कालिख पूती हो, सरकार के ही मंत्रियों की करतूतों पर सवाल उठ रहे हों और खुद मंत्री की भूख सिफऱ् पैसा कमाने की हो तो अफ़सरों की स्वे'छाचारिता को कैसे रोका जा सकता है। गंभीर अपराधों के बाद भी यदि कई अफ़सर महत्वपूर्ण मलाईदार पदों पर बैठे हैं तो इसकी प्रमुख वजह रमन सरकार और उसके मंत्री हैं। लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताकत विधायिका होती है और उसकी जिम्मेदारी सिफऱ् सरकारी सुविधाओं का लाभ लेना या अपने हितों में फ़ैसला लेना बस नहीं है। बल्कि जनता के हित और चोरों को सजा मिले यह भी जिम्मेदारी है। लेकिन जिस तरह से उजार हुए भ्रष्टाचार के मामले में लीपापोती हो रही है वह उचित नहीं है। केवल बदनामी के डर से नरहरपुर कें आश्रम की आदिवासी मासूमों के बलात्कार की घटना पर लीपापोती करना शर्मनाक नहीं तो और क्या है। एक बात राजनेता जान लें कि लोकतंत्र में जनता का फ़ैसला सर्वोपरि होता है और हर बात हद में रहे तभी बेहतर है। अति सर्वत्र वर्जयेत।