शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

सरकारी जमीनों का बंदरबांट अब बंद करो...

जब से रमन सरकार सत्ता में आई है सरकारी जमीनों को बांटने में दस गुणा से यादा तेजी आई है। कभी उद्योगों के नाम पर तो कभी कस्बों या नई राजधानी के विस्तार के नाम पर सरकारी जमीनों को कौड़ियों के मोल हड़पा जा रहा है। यही स्थिति ही तो न चारागान के लिए जमीनें बचेंगी न ही खुली हवा में सांस लेने के लिए ही जमीन बचेंगी। कांक्रीट के जंगल ने पहले ही राजधानी रायपुर के लोगों को गर्मी में रहने मजबूर कर दिया है। ऐसे में सरकार शहर या उद्योगों की बजाय गांवों के विकास न कृषि के विकास पर सिर्फ इसलिए योजना नहीं बनाती क्योंकि इससे आम लोग ख्रुशहाल होंगे और फिर उनके भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति पर अंकुश लग जाएगी।
ताजा मामला राजधानी से लगे ग्राम अछोली का है। यहां श्मशान की जमीन एक उद्योगपति को आबंटित की जा रही है। लोग जब विरोध पर सड़कों तक आएं तब पता चला कि यहां की सरकारी जमीनों पर किस तरह से उद्योगपतियों ने अवैध कब्जा कर रखा है। अवैध कब्जों में निश्चित रुप से पटवारी से लेकर मुख्यमंत्री तक की सहमति होगी अन्यथा पटवारियों व तहसीलदारों पर कार्रवाई क्यों नहीं की जाती।
अब तो गृह निर्माण मंडल ने भी कस्बों में अपनी योजना को विस्तार करना शुरु कर दिया है और कस्बों की सरकारी जमीनों पर कांक्रीट के जंगल खड़ा किया जाने लगा है। गृह निर्माण मंडल के पदाधिकारी से लेकर इंजीनियरों ने एक साजिश के तहत पैसा कमाने का खेल खेला है। चूंकि निर्माण में भ्रष्टाचार और कमीशन का लंबा चौड़ा खेल है इसलिए शहर से कस्बों तक सरकारी जमीनों को हड़पा जा रहा है। पूरी सरकार इस खेल में शामिल है और छत्तीसगढ़ की सरकारी जमीनों को साजिश के तहत हड़पा जा रहा है। भाजपा सरकार में ही नहीं कांग्रेस ने भी कमोबेश यही काम किया है। विद्याचरण शुक्ल को अपोलो अस्पताल के लिए दी गई जमीन का क्या हुआ। किसी में हिम्मत है कि पूछा जा सके? और जब विद्याचरण शुक्ल अस्पताल के नाम पर जमीन हड़पने लगे तो फिर भाजपाई क्यों पीछे रहे इसलिए भाजपा नेता गौरीशंकर अग्रवाल के रिश्तेदार डॉ. कमलेश्वर अग्रवाल और मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के भाई देवेन्द्र अग्रवाल के साढू डॉ. सुनील खेमका को कौड़ी के मोल सरकारी जमीन देने का कोई कांग्रेसी कैसे विरोध कर सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल पर तो बंगले, प्रेस और पेट्रोल पम्प के नाम पर सरकारी जमीनों को लीज पर लेने का मामला सुर्खियों में रहा है।
अखबारों द्वारा सरकारी जमीनें जब हड़पी जाने लगी तो फिर चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर खेल को कौन रोक सकता है। लीज की जमीनें और उस पर अवैध निर्माण के खेल ने छत्तीसगढ़ की सरकारी जमीनों को तहस-नहस तो किया ही पर्यावरण को भी अच्छा नुकसान पहुंचाया है। खुली हवा में सांस लेने को दुर्लभ बनाते इन सरकारी योजनाओं पर आम आदमी केवल दुख जाहिर ही कर सकता है। हम सरकारी जमीन के ऐसे किसी भी बंदरबांट के विरोधी है यदि स्वयंसेवी संगठनों को भी ऐसे जमीनें दी जाती है तो वह भी गलत है और राजनैतिक पार्टियों को तो बिल्कुल भी सरकारी जमीनें नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि व्यवसाय का रुप ले चुकी राजनीति ने आम आदमी की बजाय अपने हितों को ही अधिक साधा है।