मंगलवार, 31 मार्च 2020

जीना है तो कैद हो जाइये...


राशन दुकान में टूट पड़ी भीड़ रामनगर 

आउटर में फँसे ट्रक वालों को भोजन वितरित करते हुए समाजसेवी अशोक गोलछा और  उनके साथी 

जब सरकार के स्तर पर गलतियों का अंबार हो तो आम लोगों के घरों में रहने का कितना फायदा मिलेगा। घरों में रहने के बाद भी वे कितने सुरक्षित है कहना कठिन है?
हम यहां मोदी सरकार की गलतियां नहीं गिनाने बैठे हैं बल्कि लोगों को सचेत कर रहे हैं कि वे सरकार की तरफ से हुई इतनी गलतियों के बाद भी गलती न करे। घर में स्वयं को कैद कर लें। जरूरत हो तभी घर से निकले और सामान खरीदने के बाद घर वापसी त चेहरों को हाथ न लगाये। सामानों को अच्छी तरह धोकर ही उपयोग करे। एक बार बाहर निकलने के बाद वापसी में कोशिश करें की हाथ को साफ करके ही घर में घुसे। क्योंकि जिस स्तर पर गलतियां हुई है हमारी छोटी सी लापरवाही हमें मौत के मुंह में ढकेल सकती है। 
हालाँकि यह वक़्त सरकार की ग़लतियाँ गिनाने का नहीं है लेकिन यक़ीन मानिए की इस देश के लोगों को लाठी का डर न होगा तो वे घर में ही न रहे लेकिन सरकार ने भी कब उनके लिए सोचा यही वजह है कि वे कुछ पा जाने के लालच में सड़कों पर हैं क्योंकि अब उनको रोज़गार कब मिलेगा इसका ठिकाना भी तो नहीं है ,हर तरफ़ जब अंधेरा नज़र आए सरकार से कोई उम्मीद न हो तो लोग क्या करे ,सच तो यह है कि ग्रामीण भारत ही असली भारत है लेकिन लाँकडाउन में इसकी ही अनदेखी की गई । सरकार ने तो कह दिया किसी का वेतन न काटे लेकिन क्या शिकायत आने पर वह वेतन नहीं देने वाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई करेगी सच मानिए वह वेतन भी नहीं दिला पाएगी ।इस देश में मध्यम वर्ग भी है उनके लिए क्या किया गया , कुछ नहीं उनका भी रोज़गार गया पैसों की उन्हें भी दिक़्क़त है
पहले ही जनसंख्या विस्फोटक के कगार पर खड़े इस देश में कोरोना को लेकर सरकार की रीति नीति अक्षम्य है लेकिन जो गलतियां हुई है उससे आम लोगों को सबक लेकर कार्य करना है स्वयं को और देश को सुरक्षित रखने का इससे बेहतर कोई उपाय नहीं है।
चीनी और अमेरिकी वायरस से वैसे भी समूचा विश्व परेशान रहा है। वे कब क्या कर दे इनका कोई भरोसा नहीं है। ऐसे में इस देश के लोगों के साथ किस हद तक राजनीति हुई है यह बताने की जरूरत नहीं है। इन दिनों जब पूरे विश्व में कोरोना की त्रासदी से आम लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है तब यह जान ले कि ऐसी कौन-कौन सी गलतियां है जिसकी वजह से स्वयं को पूरी तरह कैद में रखने की जरूरत है।
30 जनवरी को इस देश में पहला केस सामने आता है लेकिन इसके 50 दिन बाद ही लॉक डाऊन किया जाता है। इसके पीछे अमेरिकी वायरस के स्वागत या मध्यप्रदेश में सरकार बनाने की छिपी मंशा के बजाय इसकी गंभीरता को सरकार के स्तर पर कम आंकना ही कहा जा सकता है।
पूरी दुनिया में जब कोरोना को लेकर चिंता जताई जा रही थी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी घोषित कर दिया था तब सरकार ने विदेश से आने वालों की जांच में गंभीरता नहीं दिखलाई। लोग बीमारी लेकर अपने-अपने शहरों तक बेधड़क लौट गये। लॉक डाउन से पहले सरकार ने यह नहीं सोचा कि 15 से 20 करोड़ वे लोग जो रोजी-रोटी के चक्कर में शहरों में है उनकी वापस कैसे होगी। या उन्हें वापसी से कैसे रोका जायेगा। यही वजह है कि दिल्ली से लेकर हर राज्यों की सरहदों में भीड़ बढ़ गई और परेशान लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल ही निकल पड़े।
सरकार की सबसे बड़ी गलती तो यह भी है कि शुरु में इसकी गंभीरता नहीं समझने की वजह से अचानक लॉक डाउन की गलती करनी पड़ी। प्रधानमंत्री के संबोधन में दैनिक उपयोग को लेकर कोई बात नहीं करन से अफरा-तफरी का माहौल हो गया। कालाबाजारियों को मौका मिल गया।
सवाल यह नहीं है कि सरकार ने गरीबों के लिए एक लाख सत्तर हजार करोड़ का पैकेज दिया है सवाल यह है कि यह हर जरूरतमंद तक कैसे पहुंचेगा। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि तीस जनवरी को पहला केस आने के बाद लाक डाउन के 50 दिन तक जो लोग विदेशों से आकर  छुप गये उनमें से जिन्हें बीमारी थी वह कहां-कहां है यह भी किसी को पता नहीं है। ऐसे में स्वयं को कैद रखें। 
आश्चर्य की बात तो यह भी है कि अभी भी आयोजन हो रहे हैं। मस्जिदों व अन्य स्थानों से विदेशी पकड़ा रहे हैं और कुछ लोग अभी भी हिन्दू-मुस्लिम या राज्य सरकारों को बदनाम करने में लगे है लेकिन सच यही है कि गलतियां उपर से हुई है और स्वयं को कैद में रखने के अलावा कोई उपाय नहीें है।यक़ीन मानिए यदि तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने हल्ला न मचाया होता तो दिल्ली की दोनो ही सरकारें अभी भी सोते रहती इसलिए प्लीज़ स्वयं को क़ैद कर लें।

सोमवार, 30 मार्च 2020

एक बहस पत्रकारिता पर...

एक बहस पत्रकारिता पर...
अब इस पत्रकारिता का क्या करोगे? जिसे देखो वही गरियाने लगा है। लोगों की उम्मीद बढ़ी है। इस उम्मीद में खरा उतरना मुश्किल होता जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे पहले भी कम नहीं थे परन्तु सरकार का पहले इतना दबाव नहीं होता था। तब अखबार का मतलब एक मिशन होता थआ। परन्तु समय बदला। सरकार और कार्पोरेट सेक्टर ने विज्ञापन का ऐसा दबाव बनाया कि इसके झांसे में सभी आ गये। सिर्फ यही नहीं तय होने लगा कि खबरे कौन सी छपनी है बल्कि यह भी तय होने लगा कि खबरें कैसे बनाई जाए। खबरों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह होने लगा।
बड़े कार्पोरेट सेक्टर के लिए मीडिया मुनाफा कमाने का व्यवसाय बन गया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद जिस तरह की क्रांति आई उससे पत्रकारिता के मूल उद्देश्य ही बिखर कर रह गया। जो दिखता है वह बिकता है का खेल शुरु हुआ और यह उस स्तर तक जा पहुंचा जहां अवसाद के अलाला कुछ नहीं बचा। अपने नंगे पन पर गर्व करते मीडिया पर लोगों का कितना गुस्सा है यह कहीं भी महसूस किया जा सकता है।
कौन पत्रकार नाम कमाना नहीं चाहता और कौन मेहनत करना नहीं चाहता। सारे पत्रकार सहज भाव से अव्यवस्था के खिलाफ कलम चलाना चाहते हैं। हर अव्यवस्था पर शब्दों के प्रहार से वह सिर्फ हंगामा ही नहीं खड़ा करना चाहता बल्कि अव्यवस्था को मिटा देना चाहता है। परन्तु सबको मनचाही स्थिइत नहीं मिलती। कुछ पत्रकार जरुर क्यारी में लगे गुलाब की तरह अपनी सुंगध बिखरने में सफल हो जाते हैं परन्तु यह सब इतना आसान नहीं होता। कोई आंख तरेर खड़ा होता है। कोई नोटों की गड्डियां लिये खड़ा होता है और अब तो सरकारी पदों में बैठे लोगों में भी संयम नहीं रहा। सीधे जेल भिजवाने की धमकी तो किसी के मुंह से सीधी सुनी जा सकती है और फिर अखबार खोलने वाले भी तो दुकानदार हो गये हैं। लाखों करोड़ों की मशीन लगाकर कोई सरकार से पंगा क्यों ले? अखबार की आड़ में माफियागिरी भी करनी है। चिटफंड कंपनी चलानी है, जमीन लेनी है कोल ब्लॉक से लेकर सरकारी ठेका भी तो लेना दिलाना है।
पत्रकारिता के प्रति आम लोगों का गुस्सा यूं ही नहीं बढ़ा है। इसके पीछे दुकानदारी की वह सोच है जो सरकार के भ्रष्ट तंत्र के साथ खुद वैतरणी पार लगाकर सात पुश्तों की की व्यवस्था कर लेना चाहता है। वह दिन लद गये जब पत्रकार मरियल सा पायजामा कुर्ता या खद्दर पहने समाज सेवा के लिए जाना जाता था। मोहल्ले से लेकर शहर में उसकी इज्जत होती थी। हर पीडि़त पक्ष बेधड़क अपनी व्यथा कह देता था। अच्छे-अच्छे पुलिस के अधिकारी भी पत्रकारों के सामने आने से कतराते थे। परन्तु जमाना बदल गया है। तेजी से बदला है अब कलम की विवशता आंखों में साफ पढ़ी जा सकती है यह अलग  बात है कि अब इन पानीदार आंखों को देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं है वह तो बस पत्रकारिता में आये इस बीमारी को ही देखकर अपनी भड़ास निकालने में सुकून महसूस करता है।
पत्रकारिता का एक और मिजाज है। वह कभी कभी उत्साही हो जाता है और जिसकी परिणिति बस्तर जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति से साफ समझा जा सकता है जहां सरकारी पदों पर बैठे लोगों के पास जनविरोधी कानून जैसे हथियार के अलावा कुचलने या जेल में भेजने के सारे सामान होते हैं। राजधानी तक उनकी आवाज कैसे पहुंचे। यह भी प्रश्न खड़ा है। प्रश्न तो राजधानी के पत्रकारों और पत्रकारिता पर भी उठने लगे है परन्तु वे सौभाग्यशाली होते है कि उनके पास बंधी बंधाई तनख्वाह है।
परन्तु अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरों के बाद भी सरकारी तंत्र और माफियाओं के गठजोड़ से मचे लूट के बाद भी क्यारियों के गुलाब की तरह पत्रकारिता का सुंगध कायम है पीडि़तों के लिए न्याय का दरवाजा खोलता है और अव्यवस्था के खिलाफ हंगामा खड़ा करता है। भले ही क्या करोगे ऐसा पत्रकारिता के शब्द ताकतवर दिखाई पड़ रहे हो परन्तु वह ताकतवर कतई नहीं है। पत्रकारिता आज भी खामोश नहीं है उसके कलम में धार कायम है स्याही जरुर फीकी हो गई है परन्तु अभी इतनी फीकी नहीं हुई है कि इसे पढ़ा न जाए। स्याही गाढ़ी जरुर होगी। समय लगेगा।

रविवार, 29 मार्च 2020

धोखा देना तुम्हारी फितरत है क्या...!




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी के तर्ज पर कोरोना से निपटने जब लॉक डाउन की घोषणा की थी तब किसी ने नहीं सोचा था कि इस अचानक फैसले का दुष्परिणाम क्या होगा? किसी ने यह भी नहीं सोचा था कि कितने घरों में चूल्हा नहीं जलेगा और कितने लोगों को डबलरोटी से गुजारा करना पड़ेगा। 15 से 20 करोड़ उन मजदूरों का क्या होगा जो एक राज्य से दूसरे राज्यों में कमाने खाने गये हैं या अपने ही राज्यों के शहर में कमाने आये हैं। पंचर बनाने से लेकर मिी गिरी करने वाले या कचरा में कबाड़ बिनकर जिन्दगी गुजारने वालों का क्या होगा? ऐसे कितने ही सवाल है जिसका जवाब न प्रदेश सरकार के पास है न केन्द्र की मोदी सरकार के पास ही है।
यहां तक की राष्ट्र के नाम संबोधन में ही इस संभावित तकलीफों का ही जिक्र था यही वजह है कि जब लोगों की तकलीफें सामने आने लगी, आवाज बनने लगी तो सरकारों ने मरहम लगाने के लिए चंद रुपये डाल दिये। कुछ दान दाताओं ने भोजन और अनाज विचरित करने की जिम्मेदारी अपने उपर लेने लगे।
दानदाताओं की रोज आती खबरों में हमारे सांसद और विधायक भला क्यों पीछे रहते उन लोगों ने भी इनके खिलाफ उठते आक्रोशित आवाजों को शांत करने भामाशाह या कर्ण बनने के होड़ में लग गये लेकिन कहते हैं चोर चोरी से जाये हेराफेरी से न जाये। बस यही कहावत सांसदों और विधायकों पर लागू होने लगा है कहा जाय तो अतिशंयोक्ति नहीं होगा।
दान देने वाले इन जनप्रतिनिधियों ने मक्कारी की जो सीमा रेखा पार की है वह इतिहास में अनोखे ढंग से दर्ज किया जाना चाहिए। कुछ विधायकों व सांसदों ने जरूर अपनी निजी पूंजी से दान दिया है। लेकिन कई सांसद व विधायकों ने एक माह का वेतन दान दिया है। इस एक माह का वेतन को भी सहायता राशि मानकर दान की श्रेणी में रखा जा सकता है लेकिन कई सांसदों ने इस कठिन दौर में भी अपनी हरकतों से देश को शर्मसार किया है। दानवीर कर्ण और भामाशाह की श्रेणी में अपना नाम दर्ज कराने ऐसा घृणित खेल शायद इस देश के ही जनप्रतिनिधि कर सकते हैं।
ऐसे अनेकों सांसद हैं जिन्होंने कोरोना से निपटने में केन्द्र को मदद देने अपने सांसद निधि का एक-एक करोड़ रुपया दान दिया है। यह वह निधि है जिसका उपयोग सांसद स्वयं के लिए कर ही नहीं सकते लेकिन इसे दान देकर यह बताने की कोशिश हुई मानो ये अपना पैसा दे रहे हैं। जबकि सांसद निधि का उपयोग वैसे भी क्षेत्र के लोगों के लिए ही किया जाता है।
है न ये अपनी तरह का अनोखा दानी।
हैरान की बात तो यह है कि इस खेल में ज्यादातर भाजपा के ही सांसद है जिन्हें राष्ट्रभक्ति का विशेष तमगों से नवाजा जाता है।
अब यह बात कोई नहीं कह सकता कि जमात अंग्रेजों के समय जो हरकत करता रहा है वह अब भी कर रहा है क्योंकि आदतें आसानी से पीछा नहीं छोड़ती। और धोखा देना ही फितरत है।

शनिवार, 28 मार्च 2020

कितने घरों में चूल्हा नहीं जला ! बता पाओगे सरकार ...






उस दिन अचानक लक्ष्मण मेरे पास आया और कहने लगा गांव जाऊंगा, गाड़ी-मोटर बंद है? कैसे करूं।
मैंने पूछा लिया- क्या करेगा वहां जाकर यहीं रह। सरकार कुछ न कुछ व्यवस्था कर देगी।
नहीं महराज! इंहा अड़बड़ तकलीफ हे फेर जीना मरना जेन होही अपन घर दुवार में होवय तो बने हे। ऐसा कहकर लक्ष्मण ने कहा कोई रास्ता है तो बताईये।
मैंने भी इधर उधर फोन लगाया जब जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो मैंने भी कह दिया पता करता हूं धैर्य रख। तब तक तेरे खाने पीने का इंतजाम कर दूंगा। वह चला गया।
रात्रि भोजनपरांत मैं टहलने निकला तो संजय शुक्ला जो मेरे बचपन का मित्र था उसके साथ टहलते-टहलते अचानक लॉक डाउन की स्थिति पर चर्चा होने लगी। अभी मैंने सिर्फ इतना ही कहा था कि रोज कमाने खाने वालों के लिए सरकार ने कुछ उपाय किये बिना लॉक डाउन कर दिया।
तो संजय बोल पड़ा हा वो लक्ष्मण है न। वह पूछ रहा था कि तिल्दा के पास उसका गांव है पैदल कितने घंटे में पहुंच जायेगा मैंने भी कह दिया, सुबह से निकलोगे तो शाम तक पहुंच ही जायोगे।
मैं चौका! आखिर लक्ष्मण और उसका परिवार 50-60 किलोमीटर पैदल कैसे जायेगा। बच्चे छोटे हैं। मन खिन्न हो गया। लक्ष्मण को मैं तीन साल पहले पहली बार तब देखा जब वह मीडिया सिटी में मेरे मकान के लिए ठेकेदार ने चौकीदार बना कर रखा था। तब से मकान बनते तक वह सपरिवार पास ही रहा। उसके बेटे को मैंने ही निजी स्कूल में भर्ती करवाकर फीस कम करवाया था। तब से वह भी मुझे ही नहीं मीडिया सिटी के सभी पत्रकारों की ईज्जत करता था। छोटा मोटा निजी काम कर देता था। जो दो रख लेता था।
पैदल जाने की उसकी सोच ने मुझे भीतर तक हिला दिया। सुबह-सुबह उसके पास पहुंचा तो उसके जाने की तैयारी पूरी हो गई थी। स्वाभिमानी भी था वह। इसलिए मदद नहीं ले रहा था। मनाने की सारी कोशिशें विफल होते देख, मैंने फिर कुछ लोगों से गांव छोडऩे की बात की। अंतत: वह इस बात के लिए तैयार हो गया कि बच्चों को मोटर सायकल में मैं छोड़ दूं दोनों पति-पत्नी पैदल चले जायेंगे।
इस वाक्ये को बताने का मेरा मकसद यही है कि देश में 10 करोड़ से अधिक लोग खाने-कमाने एक राज्य से दूसरे राज्यों में जाते हैं और अचानक लॉक डाउन से उनकी तकलीफ को कौन समझे?
विदेशों में गये लोगों के लिए सरकार ने हवाई जहाज की सुविधा फिर घर तक पहुंचाने की सुविधा कर दी लेकिन इन गरीबों तक सुविधा तब पहुंची, जब देर हो चुकी थी। कितने ही परिवार मासूम बच्चों के साथ दर्जनों मिल चल चुके थे। न उनके पैर के छालों की चिंता थी न उनके भूख प्यास की। लॉक डाउन यानी लॉक डाउन।
यह सच इसलिए भी कह रहा हूं कि कुछ राजनैतिक पार्टी के लोगों ने सरकार की भूमिका पर सवाल उठाने पर मेरी आलोचना करते हुए कहा है कि यह वक्त आलोचना का नहीं चुपचाप घर बैठने का है लेकिन कोई इस त्रासदी में घर में तो बैठ सकता है लेकिन चुप कैसे रह सकता है।
सवाल तो उठाने ही होंगे वरना सरकार कब अपने से व्यवस्था करती है। यदि अपने से व्यवस्था की होती तो हजारों लोगों को भूखे प्यासे यूं ही पैदल नहीं चलना पड़ा। जो राजनैतिक पार्टी के लोग अपनी सरकार के पक्ष में खड़े हैं उन्हें मैं खड़ा होने से नहीं रोकूंगा लेकिन क्या वे इस बात के लिए आवाज उठाने तैयार है कि जो इस घातक चीनी वायरस के ईलाज में जूझ रहे डॉक्टर नर्स को जरूरी मास्क, सेनेटाइजर व अन्य जरूरी मेडिकल सामग्री भी सरकार उपलब्ध नहीं करा पा रही है। चौक-चौराहे से गली-मोहल्लों तक ड्यूटी बजा रहे पुलिस व सफाई कर्मी को आवश्यक चीजें उपलब्ध कराने में सरकार क्यों असफल है।
सरकार को जानने का मैं कोई दावा नहीं करता लेकिन इतना तो जानता हूं कि सरकार तभी जागती है जब लोग सवाल उठाते हैं। लक्ष्मण जैसों की बात को आप भूल भी जाईये तो कोई राजनैतिक दल के सदस्य ये बता सकते हैं कि बड़े व्यापारियों ने इस विषम परिस्थिति में खाद्यानों की कीमत क्यां बढ़ा दी और सरकार लगाम क्यों नहीं लगा पा रही है।
चलों कोई दलदल में फंसे लोग ही सरकार से यह जान ले कि तमाम सूचना तंत्र होने के बाद भी किसी सरकार ने यह पता किया की लॉक डाउन के बाद कितने घरों में चूल्हा नहीं जल रहा और कितने ऐसे लोग हैं जो होटल में खाते थे जिन्हें डबलरोटी या मिक्चर से पेट भरना पड़ा।
जब सरकार के पास यही जानकारी नहीं होगी तो सवाल उठेंगे ही। और सवाल उठते रहेंगे।

गुरुवार, 26 मार्च 2020

निजी स्कूलों की मनमानी



नोटिस भेज मामले का पटाक्षेप!
छत्तीसगढ़ की राजधानी में संचालित हो रहे निजी स्कूलों की मनमानी चरम पर है न बच्चों की सुरक्षा की चिंता है न ही शिक्षकों की बेहतर व्यवस्था भी है। स्कूल में बलात्कार जैसी घटनाओं के बाद भी शिक्षा विभाग का रवैया इतना उदासीन है कि वह इस भर्राशाही पर कार्रवाई की बजाय वसूली में व्यस्त है और यदि मामले को लेकर लोग आक्रोशित भी हुए तो नोटिस थमाकर मामले का पटाक्षेप कर दिया जाता है।
ताजा मामला टाटीबंध स्थित भारत माता स्कूल का है जहां एक चार वर्षीय बच्ची बलात्कार की शिकार हो जाती है लेकिन शाला प्रबंधन का रवैया इतना गैर जिम्मेदाराना है कि वह पीडि़त पक्ष से ही दुव्र्यवहार करती है। शाला प्रबंधन के इस रवैये को लेकर यहां बच्चों के पालक आक्रोशित है और ब्लू बर्ड की अध्यक्ष शिवानी सिंह ने तो स्कूल की मान्यता रद्द करने की मांग की है।
ऐसा नहीं है कि शाला प्रबंधकों का इस तरह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार का मामला पहला हो इससे पहले भी स्कूल की तरफ से पिकनिक गये बच्चों में से दो बच्चों की मौत सिरपुर में नदी में डूबने से हो गई थी तब भी साथ गये शिक्षकों की लापरवाही सामने आई थी लेकिन इस मामले में न तो शाला प्रबंधकों ने ही कोई कार्रवाई की और न ही शिक्षा विभाग की तरफ से ही कोई कार्रवाई की गई। जिसकी वजह से बच्ची के बलात्कार के बाद पालकों का आक्रोश खुलकर सामने आया है। इस मामले में ब्लू बर्ड के सचिव नियाज अहमद का कहना है कि निजी स्कूलों की मनमानी और लापरवाही से बच्चों की जान पर बन आई है। निजी स्कूलों के संचालकों से शिक्षा विभाग वसूली में व्यस्त है।
ऐसा नहीं है कि निजी स्कूलों की लापरवाही पहली बार सामने आई है इससे पहले रेडियंट स्कूल और राजकुमार कॉलेज में भी बच्चों की जान पर बन आई थी। हमारे बेहद भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों के द्वारा निजी स्कूलों से जमकर वसूली की जाती है और हर शिखायत पर वसूली धड़ल्ले से चल रही है। वहीं कई निजी स्कूलों के संचालक अपने प्रभाव और पैसों का इस्तेमाल कर बच्चों के जान से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूक रहे हैं।

आदमी तोता नहीं है

आदमी तोता नहीं  है
एक  कहानी है। गर्मी में शिकारियों का जंगल  की तरफ बढते कदम से चिंतित एक बुजुर्ग पक्छी अपने साथियो को सावधानी बरतने की सलाह देता है। शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे।  जंगल के दूसरे पक्छियो ने यह ज्ञान सीख ली।  तोतो ने भी इसे रट लिया ,परन्तु ज्ञान रटने से नहीं आता , ज्ञान का जिव्हा से नहीं मष्तिस्क से सम्बन्ध है बुध्दि से सम्बन्ध है। सिर्फ जिव्हा से काम नहीं चलता , आत्मसात करना पड़ता है।  दूसरे पकछियों ने बुजुर्ग की सलाह को  आत्मसात किया।  तोतो ने     शब्दों को जिव्हा में ही लटका रखा , वे शब्दों को न नीचे दिल तक उतार पाए और न ही ऊपर मष्तिस्क तक ही ले जा पाए। वे दिन-रात रटते रहे, शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। परन्तु दिल और दिमाग के बीच शब्द का कोई महत्व नहीं रह जाता,काला  अक्छर भैंस बराबर ,,,,,,, .
          अब वे दिन गुजरे जमाने की बात है। शिकारियों ने शिकार का तरीका ही नहीं  बदला  है बल्कि  शिकार तक  बदल चुके है।  उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य और जानवर में फर्क का अवकाश समाप्त कर दिया है।  तोता अब भी सिर्फ रटकर रह जाता है।  आदमी अपनी भाषा की बजाय अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करने लगा है। आज भी  कई लोग है जो सोचना भी नहीं चाहते कि जुबान के अलावा भी कुछ है जो मनुष्य को आगे बढ़ाती है , वह समझना ही नहीं चाहता कि उसके जबान के ऊपर मष्तिस्क और निचे भरोसा है। ऊपर पहाड़ है,निचे जल श्रोत है। ऊपर राजधानी है,नीचे शहर है गांव है। ऊपर राजा है नीचे प्रजा है।
ऊपर और निचे के बिच भी कुछ है और इस खाई में जुबान महत्वपूर्ण है वह पूल का काम करती है , और इस पूल पर पहरा बैठा दिया जाये तो उसकी स्थिति उस रटन्त तोते  की तरह ही होगी जो शिकारियों के आने से लेकर फसने तक को झटके में बोल लेता है,परन्तु शिकार होने से नहीं बच पाता।  सत्ता यही करती है।  ज़माने से यही करते आई है।  उसने दिल और दिमाग के बिच के सेतु पर पहरा बिठा रखा है।  प्रजा को उतना ही बोलना है जितना सिखाया गया है। उससे ज्यादा नहीं बोलना है। क्योंकि वह जनता है,मष्तिष्क और हृदय के बीच जुबान पर पहरा नहीं लगाया गया तो सब कुछ संतुलित हो जायेगा , फिर उसकी सत्ता कैसे बनी रहेगी। सोवियत संघ की तरह बिखर जायेगा,लातूर या केदार नाथ की तरह तबाह हो जायेगा। इस तबाही को रोकना है।  कुछ ऐसा करना है कि आदमी तोता हो जाये। सत्ता की अनचाही भाषा न बोल पाए।
वाणी व्यक्ति को पहचान के स्तर पर खोलती है।  उसका एक एक शब्द समाज में दूर दूर तक असर करता है।  जिस तरह से आग जलती है तो लौ ऊपर की तरफ उठती है,उसी तरह वाणी भी दूर दूर तक लोगो के मष्तिस्क तक पहुंचती है।  कुछ हृदय में भी जा पहुंचती है।  तोते की तरह सिर्फ जिव्हा में नहीं अटकती। यह बात सत्ता में बैठे लोग जानते है , इसलिए अभिव्यक्ति पर पहरा लगाने के नए नए तरीके ईजाद किये जाते हैं। ऐसे शब्दों पर पानी डाल दिया जाता है जो आग की लौ की तरह सुलगते है उप्र उठते है।
एक तरफ आधुनिकता के चलते पूरा विश्व एक गावं की तरह हो गया है,श्री श्री रविशंकर जैसे आध्यात्मिक गुरु जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के उद्घोष करते हैं तो दूसरी तरफ बस्तर है जंहा अभिव्यक्ति पर पहरे है,सत्ता की अनचाही भाषा राष्ट्रदोह बन जाता है। सत्ता की अनचाही भाषा को आतंक की भाषा करार दिया जाता है। यह सत्ता की विकृति है,लोकतंत्र पर गहरे काले धब्बे है। हमारी विचारधारा ही सही है , यह हठधर्मिता का उदाहरण जेएनयू दिल्ली के साथ पुरे देश ने देखा है।  हठधर्मिता कही न कही संकीर्णता को छूती है।  पहरा कंही भी बिठाओ , अभिव्यक्ति पर या जीवन पर , इससे स्वतंत्रता और विकास के मूल्य तो प्रभावित होंगे ही।  मूल्यों को लेकर कल तक चिंता जताने वाले आज स्वयं पहरेदार होने लगे है। हर बात में बुराई देखने वाले अब अच्छाई की वकालत करने लगे हैं वे भूल जाते है कि पहरेदारी आदमी को तोता बना देता है।
परन्तु आदमी तोता नहीं। है।  लोकतंत्र में हमारी आस्था है।  आस्था तुलसी के बिरवे में भी है,और गंगा  जल के साथ भी है। आस्था में तर्क नहीं चलता।  सिर्फ भारत माता की जय नहीं कहने या लाल सलाम कह देने भर से लोकतंत्र और देश के प्रति आस्था को नहीं तौला जा सकता।  आस्थाएं  है जो मनुष्य को उसके हक और उसूल के साथ खड़ा होने की ताकत दे।  प्रगति वह जो विवेकशील हो।  कागज पर लिखे शब्द केवल आड़ी तिरछी रेखाएं भर नहीं होती , कलम उन रेखाओं में जान डालती है। मनुष्य के हृदय और मष्तिस्क में हलचल उतपन्न करती है।  इसलिए वह हृदय के पास खीसे में रहती है,वाणी और ह्रदय के बीच कलम होती है।  आदमी चुप भी रहे तब भी कलम दिखती है,बोलती है। अभिव्यक्ति के खतरे सामने है। कोई भी एक चीज ज्यादा होगी तो दूसरे का पलड़ा हल्का हो जायेगा।  दोलन की स्थिति बनेगी।  इस स्थिति को कोई बदलना नहीं चाहता सब अपना पलड़ा भारी रखना चाहता है।
इसलिए धर्म में नैतिकता,मर्यादा की सीख है। संस्कार को लेकर पूरी किताबें है।  राम-कृष्ण से लेकर जीसस-पैगम्बर तक मर्यादा में रचे-बसे है। धर्म और संस्कृति को लेकर हाय तौबा मचने,मार -काट  करने वाले यह भूल जाते है कि जब आदमी ही नहीं बचेगा तब धर्म का औचित्य क्या रह जायेगा।  धर्म व्ही है जो धारण करने योग्य है।  और शासक वह है जो सबकी सुने।
इतिहास की दुहाई देने वाले इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं है।  राम को मानने वाले राम की सुनने तैयार नहीं है। जबकि राम ने पवित्रता पर उठी तर्जनी को न्याय देने सीता को वनवास की आज्ञा देने से भी नहीं हिचके ।  उन्होंने न्याय स्थापना के लिए आमजन की सुनी। जबकि तब बड़ी आसानी से वे उस तर्जनी को मरोड सकते थे परन्तु उनके मानने  वाले तर्जनी दिखाने वालो के गर्दन और जुबान तक नापने तैयार है।
विरोधियो को कुचलने की कोशिश  का हश्र हमने ७० के दशक के मध्य में देखा है।  इतिहास से भी हम सबक लेने को तैयार नहीं है।  जब धर्म और इतिहास से भी सबक नहीं लिया जाये तब क्या किया जा सकता है।  तब बस्तर ही क्यों कही भी अभिव्यक्ति का गला घोटने वाले खड़े हो जायेंगे जब पांच साल के लिए कुर्सी संभालने वाले तर्जनी तोड़ने आमदा हो तो साठ साल तक कुर्सी में बैठने वालो से क्या उम्मीद बेमानी हो जाती है क्योंकि इन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ही पांच साल वालो की है।  जनप्रतिनिधियों को याद रखना चाहिए कि पांच साल में परीक्छा उन्हें ही देनी है।  तब वह तर्जनी मतदान केंद्र में  अपना काम करेगी। लोकतंत्र कायम रहेगा,यह विश्वास अपनी जड़े जमा चुका है।

बुधवार, 25 मार्च 2020

संगठन पर सत्ता भारी अध्यक्ष मरकाम की लाचारी...


बघेल समर्थकों का दबदबा, पुरानों की छुट्टी

छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमेटी की घोषणा के बाद यह स्पष्ट रुप से सामने आया है कि संगठन पर सत्ता हावी है और नये चेहरों के नाम पर जिस तरह से युवाओं को तवज्जों दी गई है  उसके बाद यह भी स्पष्ट हो गया है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम संगठन को कैसे चलाने वाले हैं। हालांकि सत्ताधारी दलों में संगठनों का रोल क्या होता है यह किसी से छिपा नहीं है।
छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस की बहुप्रतीक्षित सूची जारी  की गई तब किसी ने नहीं सोचा था कि उन चेहरों को नजरअंदाज कर दिया जायेगा जो अब तक संगठन में पहचाने जाते थे। या जिनकी पहचान कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के रुप में होते रही है। नई टीम में जिस तरह से गिरिश देवांगन को उपाध्यक्ष बनाया गया है वह भी कम हैरानी वाला नहीं है। प्रभारी महामंत्री के तौर पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सबसे करीबी माने जाने वाले गिरिश देवांगन को संगठन के हिसाब से प्रमोशन देना कहा जा सकता है लेकिन राजनैतिक रुप से इसका अलग ही अर्थ लगाया जा रहा है। हालांकि देवांगन समर्थक यह भी कहते हैं कि चूंकि उन्हें लालबत्ती दिया जाना है इसलिए भी प्रभारी महामंत्री के पद से हटाया गया है। मोहन मरकाम ने इस मामले में अपनी पसंद के रवि घोष को प्रभारी मंत्री बनाने में जरूर सफलता पाई है लेकिन पूरी कमेटी में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस बाबा का दबदबा अब भी कायम है। कन्हैया अग्रवाल, पंकज शर्मा जैसे युवा चेहरों को महामंत्री का पद देकर कांग्रेस किस तरह से राजनीति करना चाहती है यह भी आने वाले दिनों में देखना होगा। हालांकि कई चर्चित नाम सूची से गायब होने की वजह उन्हें निगम-मंडल में नियुक्ति देने की चर्चा भी है लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम को ध्यान में रखकर ही दमदार व चर्चित माने जाने वाले चेहरों को संगठन से दूर रखा गया है ताकि मोहन मरकाम का ेकिसी तरह की दिक्कतों का सामना न करना पड़े। और वे पूरी टीम के साथ तालमेल बिठा सके। हालांकि गुरुमुख सिंह होरा, कमला मनहर, गिरिश देवांगन, अटल श्रीवास्तव जैसे आधा दर्जन ऐसे नाम भी संगठन में है जो प्रदेश अध्यक्ष पर भारी पड़ सकते हैं। 
भूपेश मंत्रिमंडल के सदस्यों में किसकी कहां चली यह कहना मुश्किल है लेकिन जिस तरह से नगरीय निकाय मंत्री डॉ. शिव डहरिया ने अपनी पत्नी को कार्यसमिति में जगह दिलाई है वह भी चर्चा का विषय है। हालांकि इन दिनों मिसेस डहरिया आरंग क्षेत्र में बेहद सक्रिय है और प्राय: हर कार्यक्रमों में उनकी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी को देखा जा सकता है। इसी तरह महापौर नहीं बनाने के बाद भी सभापति बनने वाले प्रमोद दुबे ने भी अपने विरोधियों को करार जवाब देते हुए यह साबित कर दिया है कि वे अब भी भूपेश बघेल के करीबी है यही वजह है कि उनके खास समर्थक गिरिश दुबे को एक बार फिर शहर अध्यक्ष बना दिया गया है।
बहरहाल जिला अध्यक्षों में भी महिलाओं को महत्व दिया गया है और पूरी सूची में जिस तरह से सत्ता का प्रभाव दिख रहा है वह आने वाले दिनों में मरकाम के लिए क्या असर करेगा यह वक्त ही बतायेगा।

मंगलवार, 24 मार्च 2020

जिनसे लोकतंत्र को खतरा बयाया उन्हीं से जा मिले गोगोई


दो हजार अठ्ठारह की जनवरी में जब जस्टिज रंजन गोगोई ने प्रेस कांफ्रेस लेकर जिस सत्ता को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था और आज जबप वे सेवानिवृत्ति के बाद उन्हीं सत्ता के साथ खड़ा हो जाते हैं तो इस परिस्थिति को कोई कैसे देखेगा? सवाल यह नहीं है कि इस देश में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है सवाल यह भी नहीं है कि इससे पहले जब कांग्रेस की सत्ता भी यही करते रही है। सवाल है कि कांग्रेस ने यदि कोई गलत किया तो क्या वर्तमान सत्ता को भी गलत करना चाहिए।
देश के राष्ट्रपति ने जैसे ही पूर्व जस्टिज रंजन गोगोई का नाम राज्यसभा के लिए प्रेषित किया वैसे ही पूरे देश में यह बहस छिड़ गई कि क्या यह सही फैसला है। बहस इस बास की भी होने लगी कि क्या जिसे लोकतंत्र के लिए उन्होंने खतरा बताने के लिए प्रेस कांफ्रेंस तक ले डाली थी वह सत्ता आज उन्हें अनुकूल कैसे हो गई। इस बहस में यह सवाल भी उठकर सामने आयें है कि तब उनके फैसले न्याय के अनुरूप थे या सत्ता के अनुरूप थे। राफेल से लेकर उनके कितने ही फैसले को लेकर सवाल गहराने लगे हैं तब संवैधानिक संस्थानों की साख कहां रह जायेगी।
रंजन गोगाई को लेकर उठ रहे इन सवालों का जवाब रंगनाथ मिश्रा से लेकर हिदायतुल्ला तक दिया जा रहा है लेकिन इस फैसले ने लोकतंत्र की चिंता तो बढ़ा रही है।

मॉल की छत में चल रहे हुक्का बार में छापा



सौरभ धाड़ीवाल और भूपेन्द्र माखीजा चला रहे थे
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। प्रदेश सरकार के द्वारा हुक्का बार प्रतिबंधित करने के बाद भी कलर्स मॉल में हुक्का पार्लर चलाने वाले सौरभ धाड़ीवाल और भूपेन्द्र माखीजा को गिरफ्तार तो किया लेकिन नशीली सामग्री मिलने के बाद भी जानबूझकर केस को कमजोर किया गया। क्या धाड़ीवाल और माखीजा के खिलाफ कमजोर केस दबाव में बनाया गया।
छत्तीसगढ़ सरकार ने हुक्का पार्लरों में चल रहे नशे के व्यापार को देखते हुए इसे प्रतिबंधित तो किया है लेकिन अभी भी शहर के कई जगहों पर चोरी छिपे हुक्का पार्लरों का न केवल संचालन किया जा रहा है बल्कि इन पार्लरों में तम्बाकू सहित अन्य नशीले पदार्थों का भी धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है।
ताजा मामला कर्लर मॉल के छत पर चल रहे टॉय हुक्का पार्लर का है। इस छापे ने शहर में चल रहे चोरी छिपे हुक्का पार्लरों की न केवल कलई खोल दी बल्कि छापे के बाद पुलिस पर दबाव का जो खेल चला वह भी साबित करता है कि किस तरह से पहुंच वाले लोग कानून को ठेंगा दिखकर हुक्का पार्लरों का संचालन कर रहे हैं। आखिर सौरभ धाड़ीवाल और भूपेन्द्र माखीजा कौन है यह तो शीघ्र ही खुलासा हो जायेगा लेकिन पुलिस ने यहां कुल छ: लोगों को गिरफ्तार किया है।

सोमवार, 23 मार्च 2020

खबर का असर, शराब तस्कर गिरफ्तार


टिकरापारा इलाके में होली पूर्व जब्त की गई 175 पेटी शराब के तस्करों की आखिर गिरफ्तारी हो ही गई। रसूखदार माने जाने वाले इन तस्करों ने गिरफ्तारी से बचने के उपाय में कोई कमी नहीं छोड़ी थी और पुलिस के कुछ दलाल भी सक्रिय थे लेकिन सेंटिंग की खबर प्रकाशित होते ही पुलिस को गिरफ्तार करना पड़ा।
ज्ञात हो कि हमने रायपुर व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में अवैध शराब में शामिल तस्करों को लेकर कई बार खबर प्रकाशित की है लेकिन शराब तस्करों की पहुंच के आगे हर बार मामला रफा दफा कर दिया जाता था लेकिन होली पूर्व टिकरापारा ईलाके में ट्रक से करीब 175 पेटी शराब जब्त होने के बड़े मामले ने सरकार की नींद उड़ा दी इतना ही नहीं इस मामले को भी रफा दफा करने की कोशिश में राजेश सावलानी, विजय रामानी, राजेश मोटवानी सक्रिय हो गये थे और पुलिस के कुछ दलाल भी उच्चाधिकारियों से संपर्क बना रहे थे और जिसकी सूचना जैसे ही हमारे संवाददाता को हुई इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया गया।
खबर के प्रकाशित होते ही हड़कम्प मच गया और तस्करों का खेल बिगड़ गया। पुलिस ने इस मामले में महावीर नगर निवासी राजेश मोटवानी और राजेन्द्र नगर निवासी विजय रामानी के बाद खम्हारडीह के राजेश सावलानी को धर दबोचा। इसके बाद चौबे कालोनी के रुकु खान को भी पकड़ा गया। बताया जाता है कि इन तस्करों द्वारा लंबे अरसे से अवैध शराब की तस्करी की जा रही थी और सूत्रों का दावा है कि इनके कारनामों की खबर कुछ थाना प्रभारियों को भी है जिन्हें हर माह बंधी बंधाई रकम भी दी जाती है।
इस मामले में सिटी एसपी प्रफुल्ल ठाकुर ने कहा कि अवैध शराब बिक्री के मामले में किसी को बख्शा नहीं जायेगा। हालांकि इन तस्करों से संबंध रखने वाले थानेदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। बहरहाल शराब तस्करों के इस खेल में लाखों रुपयों के व्यारे-न्यारे की कहानी भी चर्चा में है। देखना है कि इस मामले को रफा-दफा करने वाले दलाल कब गिरफ्त में आते हैं।

रविवार, 22 मार्च 2020

निजी अस्पतालों में लूट की छूट


जमीन तक लिखवा ले रहे हैं डाक्टर!
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। छत्तीसगढ़ में ईलाज के नाम पर डाक्टरों द्वारा चल रही लूट खसोट नया नहीं है लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद जब टीएस बाबा स्वास्थ्य मंत्री बने तो लोगों को उम्मीद थी कि बहुत कुछ ठीक कर लिया जायेगा लेकिन हॉल ही में श्री नारायणा हा
स्पिटल देवेन्द्र नगर का जो मामला सामने आया है उसके बाद तो यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य मंत्री को कोई मतलब नहीं है और रसूखदार राजनैतिक एप्रोच वाले डाक्टरों की मनमानी के आगे पूरी सरकार ही नतमस्तक है। आम आदमी ईलाज के नाम पर जमीन जायदाद बेच रहे हैं और कई अस्पतालों के डाक्टरों द्वारा इलाज का खर्चा नहीं पटाने पर स्टाम्प पेपर में जमीन तक लिखवा दी जा रही है।
छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित स्वास्थ्य घोटाले और स्लाटर हाउस बनते निजी अस्पतालों को लेकर हमने कई रिपोर्ट प्रकाशित की है लेकिन लगता है स्वास्थ्य मंत्री टीेस बाबा को इन बातों से कोई लेना देना नहीं है। अडानी से सेंटिंग के लिए चर्चित टीेस बाबा पर अब बड़े निजी अस्पतालों से भी सांठ-गांठ के किस्से जन चर्चा का विषय बन गया है। बताया जाता है कि जिलों के स्वास्थ्य अधिकारियों का निजी अस्पताल प्रबंधकों से न केवल गठजोड़ है बल्कि हर माह बंधी बंधाई रकम की वसूली के भी चर्चे हैं।
ताजा मामला तिल्दा विकासखण्ड निवासी निषाद परिवार का है जिसके एक सदस्य को सड़क दुर्घटना के बाद श्री नारायणा हास्पिटल देवेन्द्र नगर में एडमिट किया गया जहां बताया गया है छत्तीसगढ़ सरकार की योजना के तहत केवल राशन कार्ड से ईलाज किया जायेगा। लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने ईलाज के नाम पर दवाई के नाम पर अलग से पैसे लगने की बात कही और जब वे  ईलाज का खर्चा उठाने में असमर्थता जाहिर करते हुए डिस्चार्ज करने की बात कही तो ढाई लाख देने के बाद ही डिस्चार्ज करने की बात कहीं। दुर्घटनाग्रस्त परिवार के विजय निषाद ने प्रेस क्लब में अपनी आप-बीती बताते हुए कहा जय निषाद पिता श्री अर्जुन निषाद निवासी राम औरिगन, तिल्दा, जिला रायपर छग का निवासी हूँ। दिनांक 02.03.2020 को मेरे पापा का किसी ने कार से एक्सीडेंट करके वहां से भाग गया जिसका ईलाज के लिए मैने श्री नारायणा हॉस्पीटल देवेन्द्र नगर में एडमीट किया डॉ. ने कहा कि आपके पापा के ऑपरेशन का खर्चा राशन कार्ड के द्वारा हो जायेगा और जो दवाई का खर्चा आयेगा वह आपको करना पड़ेगा दिनांक 14.03.2020 तक दवाई में हमने 1 लाख रुपये लगभग दवाई में लगा चुके हैं हमारे पास ईलाज के लिए और पैसे नहीं है तो हम अपने पिताजी का ईलाज सरकारी हॉस्पिटल में करना चाहते है जिसके लिए हम डॉक्टरों से पांच दिन से डिस्चार्ज करने के लिए बोल रहे हैं लेकिन वे लोग बोल रहे हैं पहले 2.50 लाख रुपये जमा करो फिर डिस्चार्ज करेंगे बोल रहे हैं। हमें ईलाज करने से पहले हमें नहीं बताया गया था कि ीलाज करने में 2.5 लाख रुपये लग जायेगा और हमें बार-बार धमकी देते हैं कि आप यहां पर साईन किये हैं हमें पता नहीं था कि उसमें क्या लिखा है हम लोग सोंचे कि डॉ. लोग हमें राशन कार्ड से ईलाज करवाने के लिए हस्ताक्षर ले रहे हैं। हमें पता नहीं था कि उसमें क्या लिखा है। अभी हमें जो भी दवाई का खर्चा आ रहा है। उसका वहन करने में हमें काफी परेशानी हो रही है हम लोग मजदूरी का काम करते हैं। हमारे पास ईलाज के लिए पैसा नहीं हो पा रहा है जिससे हमारे पिताजी का ईलाज नहीं करेंगे बोल रहे है और 2.5 लाख दोगे तभी आगे का ईलाज हो पायेगा ऐसा बोल तो अभी एटीएच क्लब द्वारा 2-3 दिन से हमें दवाई का खर्चा दिया जा रहा है। एटीएच क्लब द्वारा जब हमें बाहर से दवाई लाकर दिया गया तो पता चला कि दवाई कॉफी कम रेट में प्राप्त हुआ जो कि हॉस्पिटल के दवाईयों से कॉफी कम था। हॉस्पिटल के दवाईयों का तुलना किया गया तो दवाई का रेट बाहर के दवाई के रेट से हॉस्पीटल के दवाईयों का रेट तीन गुना ज्यादा अंतर था।
 इस दौरान वहां मौजूद एटी एच के आर्यन राव ने भी अस्पताल प्रबंधन के रवैया की आलोचना की। सूत्रों की माने तो नारायणा अस्पताल को एक दमदार पूर्व मंत्री का वरदहस्त है और वे उनके रिश्तेदारी में भी आते हैं और यही वजह है कि इस अस्पताल की शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

शनिवार, 21 मार्च 2020

विभीषण होने के मायने


इतिहासत का एक ऐसा पात्र जिसने ईश्वर भक्ति में स्वयं को प्रमाणित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इसमें कतई संदेह भी नहीं है कि वे सबसे बड़े रामभक्त थे लेकिन उसे न तो समाज ने स्वीकारा न ही किसी और ने? जी हां हम यहां बात कर रहे हैं विभिषण का!
इतिहास गवाह है कि उनसे बड़ा रामभक्त कोई नहीं हुआ जिसने अपने कुल की परवाह नहीं की लेकिन यह भी सच्चाई है कि कोई भी मानव समाज न तो विभिषण बनना चाहता है और न ही कोई भी अपने पुत्र का नाम ही विभिषण रखना चाहता है ऐसे में ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य को उसके मुंह के सामने ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का विभिषण कहना? क्या बतलाता है आसानी से समझा जा सकता है। कांग्रेस में उपेक्षा और अपमान की जिस पीड़ा का ज्योतिरादित्य ने जिक्र करते हुए भाजपा प्रवेश की वजह बताई वह सम्मान उन्हें मुंह पर ही विभिषण के रुप में मिलने पर कैसा महसूस हुआ होगा यह तो वही जाने लेकिन राजनीति के विश्लेषक भी इस संबोधन से हैरान है।
हालांकि राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यहां कोई स्थाई दोस्त और दुश्मन नहीं होता। सब कुछ परिस्थितिजन्य होता है। लेकिन एक बात तो तय है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने मध्यप्रदेशथ में कांग्रेस को जो फटका दिया है उसकी पीड़ा से मुक्ति आसान नहीं है। हम इसी जगह पर कितनी बार लिख चुके हैं कि देश के राजनैतिक दलों ने जिस तरह से लूट मचाई है वह किसी संगठित गिरोह से कम नहीं है। असल मुद्दों से ध्यान भटकाकर जिस तरह से इन दिनों नफरत की दीवार खड़ा किया जा रहा है उससे कौन बच पा रहा है। यही वजह है कि सिंधिया के भाजपा प्रवेश से कांग्रेसियों ने भी असाधारण रुप से विषवमन करना शुरु कर दिया, कोई उनकी गद्दारी के इतिहास बताने लगा तो कोई खून और डीएनए तक पहुंच गया। इस तरह का विषवमन से क्या हासिल होगा। जिस पार्टी को गांधी के सिद्धांत पर चलने वाली पार्टी बताकर सत्ता के मजे लिया जाता रहा वह सिर्फ एक सिंधिया के छोड़कर जाने से शब्दों की हिंसा के रुप में फूट पड़ा। यह कांग्रेस के उन नेताओं के लिए भी चिंतन का विषय होना चाहिए जो गांधी के अहिंसक आंदोलन से देश को आजादी दिलाने तक की सफर का गुणगान करते हैं।
सिंधिया का भाजपा में क्या होगा यह भविष्य के गर्भ में हैं यदि सिंधिया को गांधी परिवार के आगे अपनी महत्वाकांक्षा पूरी होते नहीं दिख रही थी तो भाजपा में भी उनकी राह आसान नहीं है। भाजपा की बागडोर सिर्फ संघ के हाथों में नहीं है बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में मोदी-शाह की जोड़ी ने संघ के मिथक को तोड़ दिया है। संघ भले ही हाशिये में नहीं गया हो लेकिन उसकी मौजूदगी पूरी तरह से गायब है। सत्ता की ताकत के आगे जब देश की संवैधानिक संस्थाओं की साख को लेकर सवाल उठने लगे हैं तब भला संघ की साख की चिंता किसे होगी और वह कहां बच सकेगी।
यकीन मानिए आज सांसद-विधायक होना ही बड़ी बात नहीं है बल्कि सत्ता की धूरी होना बड़ी बात है यही वजह है कि आज किस पार्टी में विचारधारा बच पाई है। संघ के जिस स्वयंसेवकों की सादगी की चर्चा गाहे-बगाहे की जाती रही है उनके सत्ता से नजदीकियों के बाद उनकी सादगी का कहां कोई अर्थ रह गया है। संघ के प्रचारकों के खान-पान और सादगी की कहानियां सिर्फ सत्ता पाते तक ही सिमट गया है नहीं तो नरेन्द्र मोदी स्वयं संघ के प्रचारक रहे हैं, प्रधानमंत्री बनने से पहले उनकी सादगी के कितने ही किस्से सुनाए गए लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या हुआ। नौ लाख की सूट का जिक्र न भी करें तो चश्में-घड़ी जूते की सच्चाई कौन नहीं जानता।
इस देश ने शाी जी जैसे प्रधानमंत्री भी देखे हैं और मोरारजी देसाई जैसे प्रधानमंत्री भी। जवाहरलाल नेहरु तो शुरु से ही रहीसी में रहे लेकिन इस सच को कोई कैसे नकार सकता है कि राम मनोहर लोहिया के व्यंग्य के बाद वे भी अपने को सादगी के साथ ढालने लगे थे।
ऐसे में जब पूरी सत्ता ही पैसों की ताकत के आगे नतमस्तक होने लगी हो तब भला सिंधिया का भाजपा में जाने का क्या मायने है और फिर जब कांग्रेस की ताकत बढ़ेगी तब सिंधिया नहीं आयेंगे इसकी भी क्या गारंटी  है? शायद इसी सत्ता की ताकत की वजह से जब शिवराज सिंह ने ज्योतिरादित्य को मुंह में विभिषण कहा तो कांग्रेसी उपेक्षा और अपमान की पीड़ा से आहत सिंधिया विभिषण के मायने ढंढते हुए स्वयं को संघ का सबसे बड़ा भक्त मान रहे होंगे?

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

भाजपा प्रवेश के फायदे...

भाजपा
कमल के भाजपा प्रवेश की खबर उस दिन अखबार की सुर्खियां बंटोर रही थी, जो भी सुनता हतप्रभ रह जाता। आश्चर्य में तो उसके मित्र केवल कृष्ण भी था। अखबार पढ़ते ही उसकी बेचैनी बढ़ गई थी, ठीक है कमल को आजकल उसकी पार्टी तवज्जों नहीं दे रही थी लेकिन पार्टी ने उसे क्या कुछ नहीं दिया था। यहां तक की कमल की पहचान ही इसी पार्टी से थी। और फिर उसने चुनाव में पूरी भाजपा के खिलाफ विषवमन भी किया था। भाजपा के खिलाफ उसके तीखे तेवर से पार्टी के कई नेता असहज भी हो जाते थे यही वजह है कि उसके भाजपा प्रवेश ने पूरे क्षेत्र को हैरानी में डाल दिया था। हैरान तो केवल कृष्ण भी था यही वजह है कि वह जल्द से जल्द कमल से मिलकर अपनी बेचैनी और जिज्ञासा दूर कर लेना चाहता था।
वह जल्दी से तैयार भी हुआ लेकिन पता चला कि कमल तो दिल्ली में है और एक दो दिन बाद ही लौटेगा। उसने उसे फोन लगाया लेकिन फोन किसी अन्य ने उठाया और बताया कि वे पार्टी प्रमुख के साथ बैठक कर रहे हैं। दो दिन बाद भी मौसम का तेवर वही था, मार्च-अप्रैल के महीने में भी धूप अपने तेज पर था। और केवल कृष्ण की जिज्ञासा थी या मौसम सचमुच गर्म था कहना मुश्किल है लेकिन प्रदेश की राजनैतिक फिजा का मिजाज बेहद गर्म था। शहर कमल के स्वागत में सज चुका था, कल तक जो लोग कमल के मुर्दाबाद के नारे लगाते थे वे आज जिंदाबाद के नारे लागने की होड़ में थे। 
केवल कृष्ण को तो कमल के इस बात पर हैरानी हो रही थी कि उपेक्षा के कारण ही उसने भाजपा प्रवेश किया है। वह समझ नहीं पा रहा था कि 15 दिन पहले तक मोदी सरकार की नीतियों ही नहीं खुद प्रधानमंत्री मोदी के स्टाईल का उपहास उड़ाने वाला कमल को अचानक क्या हो गया कि वह देश का भविष्य उनके हाथों में सुरक्षित जैसी बात कहने लगा।
खैर, मौसम ने मिजाज बदला, दिन की तेज धूप के बनी स्थिति शाम होते हवा ठंडी होने लगी और बूंदा-बांदी भी, होली का उत्साह अब भी आम लोगों में था, सड़क पर पी खाकर लुढ़कने वाले अपने में व्यस्त थे, फिर आम स्वागत सत्कार में भीड़ जुटाने वालों ने भी खूब दिल खोलकर खर्च किया था। जैसे-तैसे केवल कृष्ण जब कमल के घर पहुंचा तो भीड़ हटने लगी थी, और जब कमल भी सोने जाने का ईजाजत लेने लगा तो रात के बारह बज चुके थे लेकिन केवल कृष्ण अपनी जिज्ञासा को दूर करने इतना उतावला और बेचैन था कि उसने अकेले में बात करने की ईच्छा जता दी।
कमल बिल्कुल बड़े नेताओं की तरह केवल कृष्ण के कंधे पर हाथ रखकर उसे भीतर ले आया और मुस्कुराते हुए पूछा- कैसा रहा मेरा फैसला? 
केवल कृष्ण ने इतना ही कहा क्या भाजपा में तुम्हारी हैसियत वैसे ही रहेगी, क्या पार्टी प्रमुख से तुम्हे वैसा ही स्नेह मिलेगा, फिर दलबदल का दाग जो लगा है वह कैसे धुलेगा? पता नहीं केवल कृष्ण ने एक ही सांस में कितने सवाल कर बैठा।
लेकिन कमल भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था, उसने केवल कृष्ण के कांधे को थपथपाते हुए हंसने लगा। केवल कृष्ण कुछ और सवाल करता इससे पहले कमल ने कहा सब बताऊंगा लेकिन चलो पहले कुछ खा लेते है। डायनिंग टेबल सज चुका था घर के लोगों के चेहरे में जो खुशी दिख रही थी  उससे स्पष्ट था कि नई पार्टी को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है और वे कमल के निर्णय से खुश है। 
रोटी का टुकड़ा मुंह में डालते-डालते केवल कृष्ण ने जब कहा कि तुमने यह निर्णय सोच समझकर लिया है या भावावेश मेंं? कमल ने कहा सब सोच लिया है। भाजपा में जाने के फायदे बहुत थे और आज के दौर में यह जरूरी है। कमल यही नहीं रुका बल्कि बोलते चला जा रहा था, भाजपा में जाने का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि तुम्हारे राष्ट्रभक्ति पर कोई उंगली नहीं उठायेगा, दूसरा फायदा यह है कि अभी चार साल सत्ता का सुख मिलेगा तीसरा फायदा यह है कि आप हिन्दू हो जाओगे चौथा फायदा यह है कि आप आम लोगों की समस्या पर ध्यान नहीं दोगे तब भी आपकी निष्क्रियता पर कोई सवाल नहीं करेंगा और बगैर काम करे आप हिन्दू-मुस्लिम के सहारे चुनाव जीत जाओगे। वहां भी पार्टी प्रमुख को खुश रखना पड़ता था यहां भी पार्टी प्रमुख से संबंध बनाकर रखना पड़ेगा। कमल फायदा गिनाते जा रहा था और केवल कृष्ण अवाक होकर उसकी बात सुने जा रहा था। 
अचानक केवल ने कहा रात बहुत हो गई है वह चलता है। लेकिन कमल बोले जा रहा था। केवल चुपचाप उठकर बाहर निकल आया। सड़के सुनी थी, कहीं-कहीं पी-खाकर लुढ़कने वालों की टोली अपने में मशगुल थे और अंधेरा घना होता जा रहा था।

गुरुवार, 19 मार्च 2020

अंधेरा घना है कहना मना है!


मध्यप्रदेश के सियासी हमाम ने जिस तरह से होली के दिन सभी नेताओं को जिस तरह से नंगा किया है उससे एक बात तो तय है कि जनता की चिंता किसी को भी नहीं है हर पार्टी को हर हाल में सत्ता चाहिए और पार्टी ही क्यों हर विधायक और हर सांसद को सत्ता चाहिए। जनता किसी को भी जिताएं सत्ता उन्हीं के पास होगी जिसके पास पैसों की ताकत होगी। इसलिए राजस्थान हो महाराष्ट्र हो या छत्तीसगझढ़? सब जगह पूंजी की ताकत जनता के फैसले को समय आते ही पलट देगी।
इतिहास गवाह है कि अंग्रेजी सत्ता के बढ़ते अत्याचार के बाद भी उनके समर्थकों की कमी नहीं रही है। सत्ता की मलाई तब भी कुछ लोग मजे से खाते रहे और उन्हें जनता पर हो रहे अत्याचार की फिक्र नहीं रही। लेकिन लोकतंत्र की मजबूरी यह है कि हर पांच साल में सत्ता को जनता के पास जाना है, इसलिए अब जनता के फैसले को बदलने का नया रिवाज चल पड़ा है। सत्ता ने तय कर लिया है कि मर्जी उसकी चलेगी जनता जो भी फैसला देगा, सत्ता तो हर हाल में उसी की बनेगी। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। 
याकिन मानिये पूरा सच इससे भी भयावह है। तब पूरा सच क्या यह नहीं है कि आज के विधायकों व सांसदों को हर हाल में सत्ता चाहिए! उनके लिए न पार्टी मायने रखते हैं और न ही नीति सिद्धांत। यही वजह है कि पूंजी का खेल चरम पर है। देशभर के सांसदों व विधायकों में 80 फीसदी से अधिक लोग करोड़ पति है और 60 फीसदी से अधिक पर आपराधिक प्रकरण दर्ज है।
जनता की हालत यह है कि वह वोट किसे दे क्योंकि राजनैतिक दलों के नेताओं में गठजोड़ इतना गहरा है कि वोट आप किसी को भी दे। अत्याचारियों या भ्रष्टाचारियों को कुछ नहीं होगा। मध्यप्रदेशथ हो या छत्तीसगढ़? दोनों ही जगह सत्ता बदली। कांग्रेस जब तक विपक्ष में रही शिवराज-रमन सरकार की करतूतों पर जोरदार लड़ाई लड़ी। सत्ता आते ही एक के बाद एक जांच कमेटी भी बनी लेकिन साल बीतने के बाद भी नतीजा क्या रहा? किसी भी मामले में कोई जेल नहीं गया। राज्यों की तो छोड़ दें मोदी सरकार ने ही किसे जेल भेज दिया। आप इसे न्यायालय की कमजोरी कहकर सत्ता का बजाव कर सकते हैं क्योंकि आपको यही यकीन दिलाया गया है कि भारतीय न्याय व्यवस्था कमजोर है। जबकि यह सच मानिये कि सरकार में बैठे लोग जिस तरह से एकजुट है उसे जनता का वोट भी अलग नहीं कर सकता।
इसलिए मध्यप्रदेश में सिंधिया का भाजपा में जाना फिर अन्य विधायकों का जाने पर जो लोग खुश हो रहे हैं या दुख जता रहे है उनका जनता से कोई लेना देना नहीं है। मीडिया की भूमिका भी इन दिनों नायाब हो चला है उसे भी हर हाल में पूंजी चाहिए इसलिए वह अपने को सत्ता के साथ खड़ा करते चले जा रही है तब यकीन मानिये आज यस बैंक गया है, कुछ सार्वजनिक कंपनियां बेची गई है। दो चार घपले घोटाले किये गये है कल पूरा देश घने अंधेरे में डूबा नजर आयेगा। लेकिन इस अंधेरे के खिलाफ कौन आवाज उठाये? विपक्ष? जी नहीं जब सत्ता की ताकत ही उद्देश्य हो तो आप उससे भी उम्मीद न करें क्योंकि वह भी पूंजी के ताकत के रास्ते सत्ता के साथ हो जायेगा। यहां नहीं मिलेगा तो वहां चला जायेगा और वहां के लोग न मिलने पर नई सत्ता के साथ आ जायेगे और जनता सिर्फ ताली बजायेगी अपने वोट का ताकत देख खुश होगी?

बुधवार, 18 मार्च 2020

अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता...


पूरे देश में इस समय राजनीति जिस तरह से चल रही है उसके एक ही मायने है कि राजनैतिक दल ही नहीं विधायकों व सांसदों को भी हर हाल में सत्ता की मलाई चाहिए? आम लोगों से दूर होते न्याय से किसी को लेना देना नहीं है पहले चुनाव जीतने किसी दल का सहारा लो फिर सत्ता की मलाई के लिए नीति सिद्धांत त्याग कर सत्ता की ताकत के साथ खड़े हो जाओं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज के भाजपा प्रवेश का तो यही मतलब निकाला जा सकता है।
बात ज्योतिरादित्य सिंधिया से ही शुरु किया जाना चाहिए। अठ्ठारह साल के राजनैतिक सफर में दस साल मंत्री और 17 साल सांसद रहने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया की गिनती कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में होते रही है। माधवराव सिंधिया के बाद जिस तरह से श्रीमती सोनिया गांधी के स्नेह और सानिध्य में ज्योतिरादित्य का राजनैतिक सफर शुरु हुआ था और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिनती होने लगी थी उसके बाद कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था कि वे सिर्फ एक लोकसभा का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से विदा हो जायेंगे।
इस अप्रत्याशित कदम ने कांग्रेस की राजनीति में भूचाल तो लाया ही है यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या नेताओं के लिए पद और सत्ता ही महत्वपूर्ण है और राजनैतिक पार्टियों में अब सिद्धांत और नीति कोई मायने नहीं रखते। दरअसल माधव राव सिंधिया ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता लाने में जो मेहनत की और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जिस तरह के तेवर दिखाये, खासकर प्रधानमंत्री मोदी को लेकर उनकी तल्ख टिप्पणी के बाद कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे भाजपा में चले जायेंगे और मोदी के रहते उनका भाजपा प्रवेश हो सकता है।
लेकिन आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है के प्राकृतिक सिद्धांत ने राजनीति के विपरित ध्रुव को ऐसा जोड़ा की राजनीति की परिभाषा ही बदल गई और सिंधिया जैसे दिग्गज कांग्रेसी भी यदि भाजपाई हो जाए तो फिर किस पार्टी के सिद्धांत पर बहस की जाए! और भरोसा किया जाए। जो सत्ता में है उन्हें हर हाल में सत्ता में बने रहना है और जो सत्ता में है उन्हें हर हाल में सत्ता चाहिए की नीति निर्धारित हो चुकी है तो फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि सरकार किसी की भी रहे। क्योंकि इसके बाद तो न व्यापम घोटाले मायने रखेंगे न नान घोटाले? बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, किसानों पर अत्याचार किसी भी बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। चुनाव जीतने के लिए किए गए वादों का ही मतलब है न कोई घोषणा का ही मतलब है। जिसके पास पूंजी की ताकत होगी वह उसे सत्ता की ताकत बनाकर सब कुछ हासिल कर ही लेगा।
पैसों की ताकत के दम पर विधायकों को अपने पाले में कर लो और सत्ता की एक चाबी अपने हाथ में रख लो। ज्योतिरादित्य खुद चुनाव हार गये लेकिन उनके पास पूंजी की जो ताकत है उसके चलते 22 विधायक उनके साथ है और जिसके पास भी ये 22 विधायक होंगे उनके लिए सिद्धांत नीति का क्या मतलब रहेगा आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे में मध्यप्रदेश की जनता किसी को भी चुन ले या किसी भी प्रदेश की जनता किसी को भी चुन ले इसका क्या मायने होगा?

ये क्या हो रहा है कप्तान साहेब!


पीडि़तों को प्रताडऩा, अपराधियों से सेटिंग
छत्तीसगढ़ की राजधानी में पुलिस का हाल बुरा है। वर्दी की आड़ में कमाई का जरिया बना चुके विभिन्न थानों में पीडि़तों की जहां सुनवाई नहीं हो रही है वहीं अपराधियों से सांठ-गांठ कर मामले को रफा-दफा करने का खेल खुले आम चल रहा है। हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पीडि़तों को मुख्यमंत्री और राज्यपाल से गुहार लगाना पड़ रहा है तो मुख्यमंत्री को चेतावनी देनी पड़ रही है।
नेहा की सुनवाई कब?
होटल गिरिराज की डायरेक्टर नेहा पुरोहित का जीना दूभर हो गया है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद है कि उनकी शिकायतों को पुलिस नजरअंदाज कर देती है। उनकी बिटिया से छेड़छाड़ होती है। सीसीटीवी के सबूत भी पुलिस के सामने कोई मायने नहीं रखता और अपराधिक तत्व थाने में घुसकर पुलिस के सामने नेहा से बदतमीजी करते है। पुलिस नेहा की शिकायत पर रिपोर्ट लिखना तो दूर उल्टे उसी के खिलाफ रिपोर्ट लिखना तो दूर उल्टे उसी के खिलाफ रिपोर्ट लिख देती है। हालत यह है कि वे राज्यपाल तक से न्याय की गुहार लगा चुकी है लेकिन कुछ नहीं हुआ। हालांकि वह परिवारवाद दायर करने की मन बना चुकी है लेकिन थानों की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुलिस किस तरह दबंगों का साथ देती है। इस मामले का एक पहलू यह भी है कि उसकी लड़ाई सम्पत्ति को लेकर अपने भाई से ही है और पुलिस खुलकर अपराधियों का साथ दे रही है।
शराब लॉबी से सेटिंग
पिछले दिनों पुलिस ने हरियाणा से ट्रक में आई 22 लाख की शराब जब्त करने के लिए अपनी पीठ थपथपाने में व्यस्त रही और जनता भी पुलिस की इस कार्रवाई की सराहना कर रही है लेकिन इस घटनाक्रम का दूसरा पहलू यह है कि शराब मंगाने वाले मुख्य आरोपी अभी भी पुलिस के गिरफ्त से बाहर है। रसूखदार माने जाने वाले इस अपराधी को गिरफ्तारी से बचाने में पुलिस के आला अधिकारी ही नहीं कांग्रेस के कुछ नेता भी लगे हैं। सूत्रों की माने तो सौदेबाजी का बड़ा खेल चल रहा है। बताया जाता है कि एक विशेष व्यवसायिक वर्ग से जुड़े इस शराब माफिया से दस लाख रुपये लिए जाने का हल्ला है हालांकि हमारे सूत्रों का कहना है कि अभी सेटिंग का खेल चल रहा है।
शराब की अवैध बिक्री को लेकर प्रदेश में जिस तरह का खेल आम चर्चा का विषय बना हुआ है और मुख्यमंत्री से लेकर डीजी तक बिफरे हुए हैं उसके बाद भी थाना या सीएसपी स्तर पर सेटिंग की खबरों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुलिस के हौसले किनते बुलंद हैं।
आरोपी को भगा दिया
तीसरा मामला नकली हवा कारोबार से जुड़ा है। मुखबिर की सूचना पर पिछले दिनों देवपुरी के एक गोदाम में छापा मारकर दो दर्जन कार्टून नकली दवाओं का जब्त तो किया गया लेकिन सूत्रों का दावा है कि जब्ती के दौरान वहां मौजूद मुख्य आरोपी श्रवण कुमार मंधानी उर्फ शिशुपाल को पुलिस के एक सिपाही ने महज पांच हजार लेकर भगा दिया। यही नहीं जिन निजी दवा दुकानों को यह दवाईयां बेची गई है उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा रही है।
बहरहाल ये तीन घटनाएं बताती है कि पुलिस की कार्यप्रणाली राजधानी में कैसे चल रही है और सिका दुष्परिणाम क्या होगा? क्या इससे सरकार की बदनामी नहीं होगी?

मंगलवार, 17 मार्च 2020

निगम मंडल के लिए धड़कने तेज़


बजट सत्र समाप्ति की ओर है वैसे-वैसे निगम मंडल में नियुक्ति चाहने वाले कांग्रेसियों की धड़कने तेज होने लगी है। गणेश परिक्रमा के इस दौर में किसे लालबत्ती नसीब होती यह तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को ही पता है लेकिन इस नियुक्ति को लेकर अधिकारियों की भी रूचि देखने को मिल रही है।
छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के साथ ही कांग्रेसियों में लालबत्ती पाने होड़ मची हुई है और सवा साल होते-होते कई कांग्रेसियों की नियुक्ति टलने की पीड़ा भी बाहर आने लगी है। लोकसभा चुनाव और नगरीय निकाय में चुनाव की वजह से नियुक्ति का मामला टलते रहा है और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की बजट सत्र के बाद नियुक्ति की घोषणा से कांग्रेसी खेमे में हलचल बढ़ गई है।
सूत्रों की माने तो संगठन से जुड़े नेताओं की रूचि इसमें अधिक है। संगठन से जुड़े एक नेता का कहना है कि संघर्ष करने के दिन अब खत्म हो गये है और संघर्ष के बाद मिली सत्ता का लाभ अब उन्हें मिलना चाहिए। बताया जाता है कि एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर कई नेता लालबत्ती के लिए लग गये हैं। हालांकि वे जानते हैं कि नियुक्ति भूपेश बघेल को ही करना है इसके बावजूद वे दूसरे प्रभावशाली नेताओं की गणेश परिक्रमा से भी नहीं चुक रहे हैं। कांग्रेस के अदरूनी सूत्रों की माने तो संगठन के कई प्रभावशाली नेताओं की रूचि भी बड़े निगमों पर है। जिन निगमों को मलाईदार माना जाता है उसमें सबसे प्रमुख खनिज निगम, गृह निर्माण मंडल, बेवरेज कार्पोरेशन, पर्यटन मंडल के अलावा रायपुर विकास प्राधिकरण भी शामिल है और इन निगमों पर कांग्रेस के महामंत्री गिरिश देवांगन, कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल, प्रवक्ता शैलेष नीतिन त्रिवेदी, आरपी सिंह, अजय साहू के अलावा पुराने दिग्गज राजेन्द्र तिवारी, सुभाष धुप्पड़, गजराज पगारिया के अलावा दो दर्जन से अधिक दावेदार है। दौड़ में वैसे तो वे लोग भी शामिल है जो चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हुए है लेकिन इन्हें लेकर कांग्रेस के भीतर खाने में भी विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं।
हमारे बेहद भरोसेमंद सूत्रों की माने तो निगम मंडलों में नियुक्ति को लेकर मुख्यमंत्री ने सूची को अंतिम रुप दे दिया है और सिर्फ घोषणा करना ही शेष है। हालांकि निगमों में नियुक्ति को लेकर चर्चा इस बात की भी है कि हाईकमान का हवाला देकर सूची को कुछ दिन और लटकाया जा सकता है। 
बहरहाल कांग्रेसियों की धड़कने तेज हो चुकी है और देखना है कि नियुक्ति के बाद इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी।

बेरोजगारों को भी नहीं छोड़ रही मोदी सरकार, अरबों की वसूली

 

0 अकेले रेलवे ने वसूले हजार करोड़ से अधिक
0 न परीक्षा ली न नौकरी दी
कौशल तिवारी
नोटबंदी और जीएसटी के चलते देश की खराब होती आर्थिक हालत के बीच केन्द्र सरकार ने बेरोजगारों को भी ठगना शुरु कर दिया है। नौकरी देने के नाम पर बेरोजगारों से भी कमाई की जा रही है। अकेले रेलवे ने रिक्त पदों में भर्ती के नाम पर एक हजार करोड़ से अधिक की राशि बेरोजगारों से वसूल किये हैं और साल बीत जाने के बाद भी न परीक्षा हुई न भर्ती।
देश की जर्जर होती आर्थिक हालात को लेकर सरकार की रीति नीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपनी हर योजना को गरीबों से जोड़ती तो है लेकिन इसकी आड़ में कुछ चहेते कार्पोरेट घरानों को ही फायदा पहुंचाती है। नोट बंदी करते समय भी इसे गरीबों के हित और बड़े लोगों के खिलाफ बताकर खूब प्रचार प्रसार किया था लेकिन इसका सर्वाधिक नुकसान किसे हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। नोटबंदी के चलते देश के अर्थ तंत्र को जो झटका लगा जिससे रोजगार के क्षेत्र में नया संकट खड़ा हो गया।
इधर केन्द्र सरकार ने भर्ती परीक्षा के नाम पर जिस तरह से बेरोजगारों को भी लुटने का निर्णय लिया है वह हैरान कर देने वाला है। रोजगार का संकट चरम पर है और सरकार रोजगार देने की स्थिति में नहीं दिख रही है। ताजा मामला रेल्वे भर्ती बोर्ड का है। रेल मंत्री पियूष गोयल ने पिछले साल यानी 2019 में रेल्वे में रिक्त पदों में चार लाख भर्ती करने की घोषणा की थी। इसके बाद रेल्वे ने बेरोजगारों से कमाने का नया तरीका ईजाद किया।
रेल्वे भर्ती बोर्ड ने रिक्त पदों की भर्ती के लिए आवेदन मंगाये और कहा कि नान टेक्नीशियन वाले 35 हजार और ग्रुप डी के एक लाख पदों पर भर्ती की जानी है। इसके तहत पांच सौ रुपए का ड्राफ्ट भी आवेदकों यानी बेरोजगारों से मांगा गया। आवेदन आन लाईन भी किया जाना था। आप विश्वास करेंगे कि इन विभिन्न पदों के लिए लगभग 2 करोड़ 49 लाख आवेदन देशभर से आये और पांच सौ रुपये के हिसाब से रेल्वे को एक हजार करोड़ से भी अधिक राशि मिली।
मॉडल कन्डेक्ट नियम के तहत 9 माह में परीक्षा की सारी प्रक्रिया पूरी हो जानी था लेकिन सालभर बाद पिछले जनवरी से ये जनवरी आ गया लेकिन परीक्षा तक नहीं हुई। पैसा सरकार के पास पहुंच गया और इस एक हजार करोड़ रुपए का ब्याज क्या होता है जरा कल्पना करीए। खुले आम बेरोजगारों से कमाने का खेल यही खत्म नहीं हुआ है इस्टर्न रेल्वे ने भी कारपेंटर से लेकर मिी तक की भर्ती के लिए आवेदन मंगाना शुरु कर दिया है।
कुल मिलाकर बेरोजगारी के इस दौर में सरकार ने बेरोजगारों से कमाने का जो फार्मूला तैयार किया है वह हैरान कर देने वाला है। क्या इस पर सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान नहीं लेना चाहिए? क्या युवाओं को इस पर संज्ञान नहीें लेना चाहिए। क्या यह सवाल संसद में नहीं उठने चाहिए? लेकिन सरकार के इस खेल पर सभी खामोश है क्योंकि उसने इससे ध्यान हटाने सीएए एनसीआर ले आई है ताकि देश में लोग हर समस्या को भूल कर हिन्दू मुस्लिम करते रहे। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि इस मामले को लेकर मीडिया घरानों ने भी सरकार की मंशा की समीक्षा नहीं की वह भी हिन्दू मुस्लिम में उलझकर रह गई है। जब सरकार नोटबंदी से लेकर हर योजना को लागू करते समय गरीबों के लिए बताकर अपनी पीठ थपथपा रही है तब इन योजनाओं से गरीबों को कितना फायदा हो रहा है इस पर चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए?
बहरहाल बेरोजगारों को रोजगार देने के नाम पर सरकार किस तरह से युवाओं से कमाने का धंधा कर रही है वह भले ही चर्चा का विषय न बने लेकिन गरीबों के नाम पर अमीरों को दान की नई कहानियां रोज सुनने में आ रही है। 

सोमवार, 16 मार्च 2020

देश का बैकिंग सेक्टर आईसी यू में !



पीएमसी और यश बैंक के हालात के लिए भले ही मोदी सरकार जिम्मेदारी से बच रही है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार की नीतियों के चलते देशभर में बैकिंग सेक्टर आईसीयू में जाते दिख रही है। यहां तक की एसबीआई की हालत भी खराब होने लगी है उसके शेयर में 20 फीसदी तक गिरावट हुई है और इसकी वजह बड़े व खास औद्योगिक घरानों का आठ लाख हजार करोड़ रुपया सरकार द्वारा राईट अप यानी माफ करना है जबकि बैंकों में एनपीए दस हजार करोड़ के पास पहुंच गया है।
देश की डांवाडोल होती अर्थ व्यवस्था को लेकर भले ही सरकार चिंतित नहीं हो लेकिन हालत दिनों दिन खराब होने लगी है और यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में इसके गंभीर परिणाम आयेंगे। सूत्रों की माने तो पीएमसी और यश बैंक की बदतर हालत के लिए मोदी सरकार जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सार्वजनिक क्षेत्रों की संस्थानों को एक के बाद एक बेचना और आरबीआई के रिजर्व फंड से लाखों करोड़ों रुपये निकालने का अर्थ है कि सरकार के पास फंड की कमी होते जा रही है और सरकार की नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है।
2014 में मनमोहन सिंह की सरकार की जब विदाई हुई तब बैंकों में एनपीए की स्थिति लगभग ढाई लाख करोड़ रुपए थी जो बढ़कर अब लगभग दस लाख करोड़ रुपए हो गई है। सत्ता परिवर्तन के दौरान मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बैकों में एनपीए को लेकर आम सभाओं में चिंता जताने वालों ने  सत्ता हासिल करते ही किस तरह से काम किया यह आसानी से समझा जा सकता है। सरकार ने बैंकों के एनपीए घटाने में कोई रूचि नहीं दिखाई।
एनपीए का मतलब साफ है कि बैकों और सरकारों ने अपने कर्जदारों से वसूली की बजाय उसे बट्टा खाते में डाल दिया यानी बैंकों के इतने रुपये डूब गए जिसकी वसूली नहीं की जानी है और ये रकम स्वाभाविक तौर पर जनता के पैसे है। जब एनपीए की यह स्थिति है तो फिर बैंकों की हालत खराब होना तय है।
यस बैंक के डूबने को लेकर आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने जो आंकड़े दिये है वह कम चौकाने वाले नहीं है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि बैकों से कर्ज उन्हीं उद्योगपतियों को दिया जाता है जो राजनैतिक दलों को चंदा देते है। चूंकि बैक जो पैसा लोन देती है वह जनता का पैसा होता है ऐसे में कर्ज लेने वाली कंपनी डूब भी जाये तो इसका नुकसान न उद्योगपतियों को होना है और न ही सरकार में बैठे राजनैतिक दलों के नेताओं को ही इससे कोई मतलब है।
हैरानी की बात तो यह है कि यस बैंक 2017 से आरबीआई की निगरानी में होने के बावजूद उसने सरकार के कुछ खास माने जाने वाले उद्योगों को एक लाख करोड़ कर्जा दे दिया। जिसमें अंबानी ग्रुप, एस्सले ग्रुप, रेडियस डेवलेपर्स समेत कई कंपनी है और हैरानी की बात तो यह है कि इन कंपनियों ने भारतीय जनता पार्टी को करोड़ों रुपया चंदा दिया। एस्सले ग्रुप ने तो चालीस करोड़ दिया जबकि रेडियस ने पचास करोड़ चंदा दिया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या चंदा के एवज में सरकार ने इन कंपनियों को न केवल लोन दिलवाया बल्कि राइट अप में भी मदद की।

क्यों हैं निशाने पर शाहीन बाग...


रायपुर के जयस्तम्भ चौक पर स्थापित किये गये शाहीन बाग को प्रशासन ने बलपूर्वक हटा दिया। आखिर शाहीन बाग को क्यों हटाया गया यह किसके निशाने पर था और प्रशासन ने इसे हटाने के लिए जिस तरह पहले दिन दिल्ली हिंसा और फिर होली त्यौहार में शांति बनाये रखने का हवाला दिया उसके बाद क्या यह जरुरी नहीं हो गया कि शाहीन बाग को हटाने की असली वजह क्या हैं?
दरअसल दिल्ली में चल रहे शाहीन बाग की तर्ज पर जिस तरह से देशभर में लगभग सौ शहरों में शाहीन बाग चलने लगा है। सीएए के खिलाफ चल रहे इस शांतिपूर्ण आंदोलन ने न केवल केन्द्र सरकार की नींद उड़ा दी है बल्कि जिन राज्यों में शाहीन बाग चल रहा है वहां की सरकारों के लिए यह असहज होता जा रहा है। पहले तो इसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के साथ जोड़ा गया और भाजपा के कई नेताओं का दावा था कि दिल्ली चुनाव के बाद शाहीन बाग बंद हो जायेगा लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद भी जब यह बंद नहीं हुआ और इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलने लगा तो सरकार की बौखलाहट साफ दिखने लगी। दिल्ली में जिस तरह से गुजरात मॉडल को दोहराने की कोशिश हुई वह किसी से छिपा नहीं है। बड़बोले भाजपा नेताओं के भड़काऊ बयान पर जब सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई करने का आदेश जारी किया तो जज के ही तबादले कर दिये गये।
शाहीन बाग के आंदोलन ने उन गांधी विरोधियों के मुंह में करारा तमाचा जड़ा है जो चरखे से आजादी की आलोचना करते थे। क्योंकि शाहीन बाग ने जिस शांति और मौन के साथ आंदोलन को देशभर में विस्तार दिया है उससे हिंसा पर विश्वास करने वालों की मंशा को चकनाचूर कर दिया है। यही वजह है कि सरकार की तरफ से सीएए के समर्थन में न केवल प्रदर्शन किया जा रहा है बल्कि आंदोलनकारियों के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं।
दिल्ली हिंसा के बाद राज्य सरकारों की बेचैनी भी बढ़ गई थी और रायपुर  में जिस तरह से हिन्दू संगठनों ने शाहीन बाग के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था उससे पुलिस प्रशासन भी दबाव में था। रायपुर में जहां जयस्तम्भ पर शाहीन बाग चल रहा था तो इसके विरोध में शारदा चौक में हनुमान चालीसा का आयोजन होने लगा था। जो प्रशासन के लिए चिंता का विषय बनने लगा था। हनुमान चालीसा के आयोजकों ने स्पष्ट कह दिया था कि जयस्तम्भ से शाहीन बाग हटाये बगैर वे नहीं हटने वाले है।
ऐसी परिस्थिति में शाहीन बाग के आयोजक भी अड़ हुए थे तब पुलिस को बलपूर्वक कार्रवाई करनी पड़ी। पहले दिन प्रशासन ने दिल्ली दंगा का हवाला देते हुए शांति व्यवस्था पर खतरे के नाम पर इसे बंद कराया तो दूसरे दिन आनन फानन में होली त्यौहार के मद्देनजर जयस्तम्भ सहित चार प्रमुख स्थानों और मार्गों पर धारा 144 लगा दी गई। लेकिन चर्चा इस बात की रही कि जब दिल्ली का शाहीन बाग चल ही रहा है तो इसे बंद करने का क्या औचित्य है?
बहरहाल शाहीन बाग के शांतिप्रिय आंदोलन ने कई सवाल खड़े किये है जिसमें से सबसे बड़ा सवाल है शांति और मौन की ताकत? जिसकी वजह से अंग्रेजों को भी भागना पड़ा था।

रविवार, 15 मार्च 2020

सूचना का अधिकार भी तमाशा


कानून की आड़ लेकर जानकारी देने
से बच रहे हैं सूचना अधिकारी
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। सूचना का अधिकार कानून इसलिए लागू किया गया था कि इससे भ्रष्टाचार और मनमानी पर रोक लगाई जा सके लेकिन कानून की आड़ लेकर कई विभागों ने इस कानून को ही तमाशा बना दिया है। ऐसा ही एक मामला राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरों का है जिन्होंने जानकारी देने से मना कर दिया है।
सूचना का अधिकार कानून की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही है वह हैरान कर देने वाला है। बताया जाता है कि इस कानून के तहत आने वाले आवेदनों की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही है उसकी कहीं सुनवाई नहीं है। राज्य आयोग में भी आवेदनों की फाईल मोटी होते जा रही है।
बताया जाता है कि अफसरों की मनमानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बने इस कानून की खुले आम धज्जियां उड़ाई जा रही है। हालत यह है कि पहले तो आवेदन करने वालों से ही मिलीभगत करने की कोशिश की जाती है और जब यह कोशिश नाकाम हो जाती है तो कानून का सहारा लेकर जानकारी देने से मना कर दिया जाता है जिससे आदमी इतना परेशान हो जाता या जोश ठंडा हो जाता है। 
ताजा मामला राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरो से मांगी गई जानकारी का है। प्रो. बीएल पंथी ने राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरो से जानकारी चाही थी कि सन्....... से....... तक ब्यूरो ने कितने लोगों के खिलाफ छापे की कार्रवाई की और इसमें से कितने लोग अनूसूचित जाति और जनजाति के है तथा इनमें से कितने लोगों के खिलाफ न्यायालय में चालान पेश किया गया है। लेकिन इसकी जानकारी देने से इंकार करते हुए ब्यूरो के जनसूचना अधिकारी ने कानून का हवाला दे दिया जबकि मांगी गई जानकारी से किसी तरह की दिक्कत नहीं होनी है और न ही सुरक्षा या शांति को ही कोई खतरा उत्पन्न होने वाला है।
इस संबंध में प्रो. पंथी ने कहा कि वे इस मामले की आगे अपील करेंगे क्योंकि वे जिस शोषण मुक्ति मंच के माध्यम से अजजाजजा वर्ग का उत्थान करना चाहते है उसके तहत इस तरह की जानकारी इकट्ठा करना जरूरी है। सूचना के अधिकार के तहत काम कर रहे विभिन्न सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं का भी मानना है कि जानकारी लेना मुश्किल हो गया है अधिकारी पहले तो जानकारी लेने की वजह को लेकर सवाल जवाब करते है और जानबूझकर लेट लतीफ या अधूरी जानकारी देते हैं। 
बहरहाल सूचना के अधिकार कानून की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही है वह हैरान कर देने वाला है।

शनिवार, 14 मार्च 2020

साख का सवाल...


दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह ठीक नहीं हुआ यह बात सभी कहते हैं लेकिन अगर परन्तु के साथ दिल्ली हिंसा को परिभाषित करने की जो कोशिश हो रही है वैसी कोशिश इससे पहले कब हुई। यह सोचने की बात है। सोशल मीडिया के इस दौर में कहीं कुछ नहीं छुपता यह जितना बड़ा सच है उससे भी बड़ा सच यह भी है कि अफवाहों और झूठ को परोसने का जो होड़ मचा है उसमें सच कहीं खो सा गया है।
देश में धर्म के नाम पर जो लकीरें खींची गई है वह लकीर इतनी मोटी होने लगी है कि देश का भविष्य क्या होगा कहना कठिन जान पड़ता है। बढ़ते अंधकार के बीच आखिर तरक्की के रासेत क्या होंगे इसकी चिंता तो न सरकार को है और न ही विपक्षी दलों को ही इसकी चिंता है। तमाम राजनैतिक दलों की एक ही चिंता है कि उन्हें सत्ता का लाभ और निजी लाभ किस तरह से मिले। देश की सार्वजनिक कंपनियों और संवैधानिक संस्थाओं की साख जाती है तो जाती रहे वे विधायक या सांसद बनकर अपनी आय किसी तरह बढ़ा लें। बस यही चिंता है।
यही वजह है कि एक-एक कर राज्यों से सत्ता जाने के बाद भी न तो प्रधानमंत्री का रवैया बदला है और न ही भाजपा-संघ की रीति नीति में ही कोई बदलाव आया है। और आम जनमानस के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचा है क्योंकि जो भी राजनैतिक दल के लोग चुनकर आते है वे अपने नीजि फायदे में लग जाते हैं।
भाजपा एक-एक कर खोते राज्य के बाद भी यह मानने को तैयार नहीं है कि उनकी साख पर बट्टा लगा है तब सत्ता बदलने से भी क्या होगा? शाहीन बाग की तपिश के बाद दिल्ली में भाजपा नहीं आई, लोगों ने भाजपा को नकार भी दिया लेकिन इससे क्या होगा? न संवैधानिक संस्थाओं की साख बच रही है और न ही सार्वजनिक संस्थाओं का साख ही बन रहा। ऐसे में सत्ता की धर्म के खिलाफ खिंची जा रही मोटी लकीरों के पीछे का अंधकार और घना नहीं होगा। दिल्ली में क्या हुआ, पुलिस तमाशाबीन रही, कड़ी कार्रवाई की चेतावनी  देने वाले जज मुरलीधरन का तबादला कर दिया गया और तमाम राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे और सोशल मीडिया ने लाशों का धर्म बताने में लग गये। जब संवैधानिक संस्थाओं के ही साख पर बट्टा लग चुका हो तब आप किसा दरवाजा खटखटाएंगे? और दरवाजा खटखटाने से फायदा भी क्या रह गया है।
सीएए के खिलाफ उठे विरोध के स्वर को दबाने की कोशिश में हम दंगा करा देते हैं और सोचते हैं कि सत्ता के खिलाफ उठने वाले सभी आवाज को देशद्रोही घोषित कर देंगे। यह एक नया दौर है आप बेरोजगारी का मुद्दा उठा लें या शिक्षा की बदहाल स्थिति पर आवाज बुलंद करें, आपको एक ही जवाब मिलेगा, क्या इससे पहले दूसरी सरकारों में यह नहीं था। आप कोई भी सवाल उठा लें जवाब इसी तरह से आयेगा और फिर आपको देशद्रोही भी घोषित कर दिया जायेगा?
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इस सवाल को हल किए बगैर आप वर्तमान में घना होते अंधेरों से निकलने का रास्ता नहीं खोज सकते। दरअसल इस दौर में राजनैतिक दलों और नेताओं की पद लोलुपता ने उनकी साख पर बट्टा लगाया है। सत्ता की मनमानी के खिलाफ जब खड़ा होने वालों की कोई साख ही न बची हो तब भला आप इस घने अंधेरे में उजाले के रास्ते कैसे ढूंढ सकते हैं। तमाम विरोधी दलों में चाहे वह राहुल गांधी हो, लालू प्रसाद यादव हो, अखिलेश यादव से लेकर आप कोई भी नाम गिन ले इनकी साख कहां रह गई है, तब आम जनता किसके विश्वास पर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरे। 
क्षत्रपों यानी क्षेत्रिय दलों की अपनी स्वार्थ है और कांग्रेस तो आजादी के आंदोलन की गाथा तले ऐसे दब गई है कि वह उससे उबर नहीं पा रही है। सत्ता की मनमानी के खिलाफ उसे नये तरीके से जनता में विश्वास जमाना होगा। अन्यथा इस घनघोर अंधेरे को भुगतने के लिए तैयार हो जाईये क्योंकि जो लोग विधायक या सांसद चुने जा रहे हैं उनके लिए अपनी कमाई ही महत्वपूर्ण है। 

शनिवार, 7 मार्च 2020

शांति और हथियार..


.
वैसे तो अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे को निजी बताया गया लेकिन इस दौरे के अपने राजनैतिक निहितार्थ स्पष्ट रुप से देखे जा सकते हैं। साबरमति से लेकर ताजमहल की यात्रा ने गांधी की ताकत को एक बार फिर विश्व पटल पर रेखांकित किया ही ताजमहल की वैभव ने भी पूरी दुनिया का ध्यान अपनी खींचा।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रम्प और उसके परिवार की भारत यात्रा को लेकर विपक्ष की राजनीति को नजर अंदाज कर भी दें तब भी अमेरिकी राष्ट्रपति के वक्तव्य की मंशा को लेकर भारत को चिंता करनी ही चाहिए। आखिर गांधी के देश में आकर कोई घातक हथियारों की बात कोई यूं ही नहीं करता?
ये सच है कि मेहमानों के स्वागत में देश को कोई कमी नहीं करनी चाहिए लेकिन जब मेहमान अमेरिका जैसा ताकतवर देश हो तो अतिरिक्त सावधानी भी जरूरी है। दोस्ती में धोखा हमने चीन से भी खाया है और एक बड़े भूभाग से हाथ धोना पड़ा था हालांकि अमेरिका हमारा पड़ोसी नही है इसलिए उससे दोस्ती में दूसरी तरह की चिंता हो सकती है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान में आतंकवाद को लेकर भले ही समझाईश के बोल बोले हो लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि हमारे पाकिस्तान से संबंध अच्छे हैं इस आधार पर हम कह सकते हैं कि हम पाकिस्तान के साथ सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के पाक से संबंध की स्वीकारोक्ति ही भारत के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि एक तरफ वे दक्षिण एशिया में तनाव कम कर शांति की उम्मीद जताते हैं तो दूसरी तरफ भारत का ेसबसे खतरनाक मिसाईल और हथियारों से लैस करने का दावा करते हैं। आतंकवाद को लेकर पाक को नसीहत देने और अच्छे संबंधों की दुहाई के बीच हथियारों की होड़ चिंता की बात है लेकिन संघ राष्ट्रवाद की दौड़ के आगे यह स्वाभाविक चिंता भी किसी को दिखाई नहीं देने वाला है। पाकिस्तान की हालत आज किसी से छिपा नहीं है और न ही अमेरिका-पाक के रिश्ते ही नये हैं। आजादी के बाद से ही अमेरिका ने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भरपूर मदद की है। यहां तक की भारत के खिलाफ हिन्द महासागर में सातवा बेड़ा तक भेजा था लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तेवर ने अमेरिका को पांव वापस खिंचने मजबूर कर दिया था। भारत-रूस की दोस्ती के चलते अमेरिका ने भले ही पाकिस्तान को खुलकर मदद नहीं की लेकिन पाक के बहाने दक्षिण एशिया में अपनी दादागिरी करता रहा है। अमेरिकी कर्ज के आगे पाक की बरबादी के दास्तान को भूला देना क्या आसान है?
ऐसे में जब पाकिस्तान में अमेरिकी हथियार की खपत कमजोर होने लगी है तो क्या अमेरिका अपने हथियार बेचने नये बाजार नहीं ढंूढ रहा है। अमेरिका को लेकर विश्व में क्या यह धारणा नहीं है कि वह अपने हथियार बेचने कई देशों को अशांत करता रहा है। तब भला उसके भारत को घातक हथियारों और मिसाईलों से लैस करने का दावा क्या सिर्फ हथियार बेचना बस नहीं है?
आज भारत जिस तरह से आर्थिक झंझावतों से जूझ रहा है वह किसी से छिपा नहीं है और इन परिस्थितियों में हमें फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है। आर्थिक मंदी, बढ़ी बेरोजगारी और अंध राष्ट्रवाद की आग से झुलस रहे भारत को हथियार की बजाय मिल बैठकर शांति की नई पहल के साथ आगे बढ़ाना होगा अन्यथा हथियार की होड़ हमें आर्थिक रुप से तोड़ देगा जो भविष्य के लिए चिंता का विषय तो होगा ही अमेरिका का विश्व में प्रभुत्व की मंशा भी कामयाब हो जायेगी।

एक अनार सौ बीमार!


निगम-मंडल में नियुक्ति को लेकर रार!
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। यह तो एक अनार, सौ बीमार की कहावत को ही चरितार्थ करता है। वरना निगम मंडल में नियुक्ति को लेकर दावेदारों में इस तरह घमासान नहीं होता। हालांकि निगम-मंडलों पर नियुक्ति मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के अधिकार क्षेत्र में है। लेकिन जिस तरह से वोरा गुट, चरणदास महंत, टीएस बाबा, ताम्रध्वज साहू के अलावा विधायकों ने लामबंदी शुरु की है उससे कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई सड़क पर आने की पूरी संभावना है।
छत्तीसगढ़ में विधानसभा के बजट सत्र के बाद विभिन्न निगम व मंडलों  में नियुक्ति किया जाना है। सालभर से नियुक्ति के इंतजार में पलके बिछाए और जी हुजरी करने वालों के सब्र का बांध भी भर चुका है और वे चाहते हैं कि मुख्यमंत्री शीघ्र ही निगम मंडलों में नियुक्ति करें। हालांकि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जिस तरह से राजनीति के माहिर खिलाड़ी के रुप में स्वयं को स्थापित किया है उससे नियुक्ति की राह में बहुत बड़ी बाधा नहीं है लेकिन यह कहना भी गलत होगा कि गुटबाजी में फंसी कांग्रेस के नेता पन्द्रह साल बाद मिल रहे सत्ता सुख से स्वयं को आसानी से वंचित कर दें।
यही वजह है कि निगम मंडल के बहाने लालबत्ती की चाह रखने वालों ने अपनी अपनी ताकत से गुटबाजी को हवा दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ कांग्रेस में वैसे तो भूपेश बघेल ने जिस तरह से राजनीति की है उससे बाकी नेताओं के सामने चुप्पी ओढऩे के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है लेकिन निगम मंडल में नियुक्ति को लेकर दावेदारों ने प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया, टीएस बाबा, मोतीलाल वोरा और ताम्रध्वज साहू के गणेश परिक्रमा में लग गये है। सूत्रों की माने तो पीएल पुनिया ने भी अपने कुछ एक-दो समर्थकों को नियुक्ति का आश्वासन भी दे दिया है। तो वोरा गुट से राजीव वोरा सक्रिय हो गये हैं। जबकि टीेएस बाबा और ताम्रध्वज साहू की चुप्पी से समर्थक हैरान है।
बताया जाता है कि कांग्रेस के कई विधायक भी लालबत्ती चाहते हैं और वे भूपेश बघेल से नजदीकियां बढ़ा भी रहे हैं तो कुछ दबाव की राजनीति में लगे हैं हालांकि ऐसे विधायक यह भी स्वीकार करते हैं कि भूपेश बघेल पर दबाव डालना आसान नहीं है और उनकी राजनीति के मिजाज को देखते हुए यह कहना कठिन है कि वे किसी दबाव में नियुक्ति करेंगे। कांग्रेस में भूपेश बघेल के समर्थक माने जाने वालों ने अभी से यह कहना शुरु कर दिया है कि जो संघर्ष के साथी है उन्हें ही लालबत्ती मिलेगी और फूल छाप कांग्रेसियों के लिए इस नियुक्ति में कोई जगह नहीं होगी।
निगम मंडल की नियुक्ति को लेकर कुछ वरिष्ठ कांग्रेसियो ने भी उम्मीद पाल रखी है ऐसे लोगों में जोगी व शुक्ल खेमें के वे लोग भी शामिल हैं जो सरकार बनते ही भूपेश बघेल के नजदीक आने की कोशिश में है। जिधर बम उधर हम की राजनीति करने वालों की सक्रियता भी कांग्रेस में चर्चा का विषय है। राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि भले ही विरोधी गुट मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए चुनौती न हो लेकिन सबसे बड़ी चुनौती संगठन के वे नेता हैं जो भूपेश बघेल के संघर्ष के दिनों में कांधे से कांधा मिलाकर हर लड़ाई में साथ खड़े रहे। ऐसे नेताओं को नजरअंदाज करना आसान नहीं हु

शुक्रवार, 6 मार्च 2020

आयकर छापे के पीछे का सच!


मुख्यमंत्री के करीबियों पर ही क्यों?
विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के करीबी माने जाने वाले आईएएस अफसरों व महापौर एजाज ढेबर के ठिकानों पर आयकर के छापे की वजह क्या राजनैतिक है या कुछ और? इसे लेकर राजधानी में चर्चा का बाजार गर्म है।
पिछले दिनों आयकर विभाग ने जिस अंदाज में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के करीबियों को अपने निशाने पर लिया है उसे लेकर कांग्रेसी खेमे में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है और इसे राजनीति से जोड़कर भी देखा जा रहा है। जबकि दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी भी आक्रामक मूड में दिख रही है।
आयकर की इस कार्रवाई को राजनैतिक चश्में से देखने की बड़ी वजह कार्रवाई का वह तरीका है जिसमें स्थानीय अधिकारियों को छापे से दूर रखना है। आईएएस विवेक ढांड और अनिल टुटेजा को मुख्यमंत्री का करीबी माना जाता रहा है जबकि एजाज ढेबर की मुख्यमंत्री से राजनैतिक पकड़ किसी से छिपी नहीं है।
सूत्रों की माने तो छापे की बड़ी वजह कांग्रेस को राज्य से जने वाली फंडिग में बाधा डालना है। कहा जाता है कि कांग्रेस को मजबूत करने में जिस तरह से भूपेश सरकार की फडिंग की चर्चा रही है उसे लेकर ही छापे की कार्रवाई की गई है। हालांकि आईपीएस मुकेश गुप्ता और पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के करीबी अफसर अमन सिंह की भूमिका की भी चर्चा है लेकिन छापे की वजह कहीं न कहीं फडिंग है।
इधर यह भी चर्चा है कि छत्तीसगढ़ सरकार के करीबियों ने रेत और शराब के कारोबार में अनाप शनाप पैसा बनाया है और इसकी चर्चा ने जिस तेजी से जनमानस को घेरे में ले रखा था उसकी शिकायत आयकर विभाग को लगातार मिल रही थी। चर्चा में यह भी कहा जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी को इस कमाई का बड़ा हिस्सा दिल्ली भेजा जा रहा है और पार्टी की हालत में सुधार होने से मोदी सरकार के सामने दिक्कतें होने लगी थी। लगातार राज्यों के चुनाव खासकर दिल्ली विधानसभा के चुनाव में पराजय के बाद भाजपा में चिंता बढ़ गई है और आने वाले दिनों में बिहार और बंगाल में होने वाले चुनाव से पहले भाजपा अपने विरोधियों को आर्थिक रुप से कमजोर कर देना चाहती है। हालांकि दिल्ली हो या छत्तीसगढ़ कहीं भी पैसों की ताकत काम नहीं आई लेकिन फिर भी भाजपा को भरोसा है कि पैसों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
इधर छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के करीबियों के ठिकानों पर आयकर छापे को राजनैतिक ढंग से भी देखने की कोशिश शुरु हो गई है। छापे की कार्रवाई की चपेट में शराब कारोबारी पप्पू भाटिया और होटल व्यवसायी गुरुचरण होरा के भी चपेट में आने को लेकर बाजार में चर्चा गर्म है। कहा जा रहा है कि भाजपा शासनकाल में भी इन दोनों व्यवसायियों का संबंध भाजपा के दिग्गज नेताओं से रहा है और सत्ता बदलते ही जिस तरह से इन दोनो ने जिधर बम उधर हम की नीति अख्तियार की थी उससे इनके खिलाफ भी आक्रोश था। बहरहाल यह ऐसा सच है जो साबित किया ही नहीं जा सकता है।
अब बेचने का कुछ नहीं रहा तो छापे से फंडिग...
राजधानी में मुख्यमंत्री के करीबी माने जाने वालों के ठिकानों में आयकर की दबिश को लेकर सोशल मीडिया में चल रहे चर्चा भी रोचक और मजेदार है। एक ने लिखा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बेचने के बाद भी जब फंडिग की कमी बनी हुई तो मोदी सरकार ने फंडिग जुटाने आयकर विभाग का सहारा लिया है।

ईतवारी घलो ल देशद्रोही बना दिन...



नवा नवा सरपंच बने ईतवारी ह जोरदार मड़ई के आयोजन करे रीहिस। गांव ल तोरण झंडा ले सजाय रीहिस, घर घर म उत्साह रीहिस, सगा पहुना के अवई जवई म गांव ह महरत रीहिस, मझनियाच ले किसिम किसिम के दुकान सजे लगीस, मंदहा मन अपन म मगन रीहिन त जुआ चित्ती वाला मन घलो अपन डेरा जमाय के जतन कर ले रीहिन, रातभर नाचा देखे के खुशी माई लोगन मन के चेहेरा म झलकत रीहिस।
जइसे जइसे बेरा ह खिसकत रिहिस तइसे तइसे बजार ह झमाझम होय लागीस आसपास के दसो गांव के मनखे मन घलो जुटीयाय लगीस। सांझ होवत होवत बजार म मनाखेच मनखे दिखे लागीस। ईतवारी के रुतबा ह अलगेच दिखत रहाय। पहली बार गांव म कोनो पढ़े लिखे सरपंच बने हे तेखर सेती ए दारी के मड़ई ह कुछ अलगेच रीहिस। बजार ह त बढिय़ा बइठे रीहिस। मंच ह घलो अलगेच सजे रीहिस। लइका मन के अपन अलगेच दुनिया होथे, कोनो कुछु ल निहारय त कोनो कुछु ल छु-छु के देखत रहाय। छु-छुअऊल खेलत लईका मन ह मंच म घलो चढ़ जाए त गिरत हपटत कुधरा म सनावत रहाय। गांव भर के ये तिहार के मजा कुछ अलेगेच होथे।
रात के नाचा रीहिस अऊ नाचा देखे बर जगह पोगराय बर लइका मन ह बोरा धर धर के आय लगीन। मंच म बाजा-गाजा बाजे लगीस। बीच-बीच म कोनो कोनो लइका मन मटके घलो लगय। नाचा पार्टी ह मंच के पाहु सजे संवरे लग गे। नाचा के पहिली सरपंच ईतवारी ह भाषण बाजी बर क्षेत्र के विधायक ल घलो बुलवा ले रीहिस। विधायक के आते ही गहमा गहमी शुरु होगे। मंच में सजे कुर्सी म जम्मो अतिथिमन ल बइठारे के बाद स्वागत भाषण दे बर इतवारी ह खड़े होईस त गांव वाला मन उत्साह म ताली बजाईन।
ईतवारी ह जय छत्तीसगढ़ ले शुरु करके विधायक ले गांव के विकास बर कई ठन मांग करीस एखर बाद विधायक ह भाषण दे बर खड़ा होईस त बाजू गांव ले आये जीवराखन ह विधायक ल बके झके लग गे। दू चार झन वोला चुप कराय बर गिस त ओ ह मुख्यमंत्री मुर्दाबाद विधायक मुर्दाबाद के नारा लगाय लगीन। जीवराखन के डहार ले घलो चार छ: झन खड़ा होके किसान मन उपर लाठी चार्ज अउ वादा खिलाफी करे के नारा लगात लगात मोदी जिन्दाबाद, भारत माता की जय के नारा लगाय लगीन त ईतवारी ह ओखर मन तीर जाके हाथ जोड़े लगीस। विधायक ह त हंगामा ल देख चुपचाप कब खिसकिस पता नई चलीस लेकिन आधा एक घंटा के बाद हंगामा ह शांत होईस त ईतवारी ह माईक म सब झन ल कले चुप बइठे ल कीहिस अऊ हंगामा के निंदा करे लगीस। ईतवारी के मन ह हंगामा के सेती उचट गे रीहिस वो ह मढ़ई तिहार ल राजनीति के अड्डा बनाय के निंदा करत हुए बोलिस भारत माता के जय अऊ मोदी जिन्दाबाद से कोन ल इंकार हो सकत हे। मोदी देश के प्रधानमंत्री हे। हमर मन के प्रधानमंत्री हे लेकिन राजनीति के चक्कर म हमन अपन सुख-दुख चैन ल काबर गंवावन। अतेक सुंदर आयोजन ल काबर खराब करन। लेकिन आजकल जेन हिसाब से राजनीति चलत हे ये ह ठीक नई हे। मोदी के चक्कर म हमन काबर लड़त झगड़त हन। ये गांव म जम्मो जात अऊ धरम के मनखे रथे। एक दूसर के सुख दुख म शामिल होथे। कखरो तिहार होवय मिल जुल के मनाथन। लेकिन जब ले ये मोदी सरकार आय हे कुछ न कुछु बात म झंझट होय लगे हे। जेन गांव म आज तक पुलिस नई आय हे अइसने लड़बो त ये गांव के का होही। ये देश ह गांधी के देश हे अऊ हमन गांधी के राह म चलबो। गांव के विकास करबो। पाकिस्तान अऊ हिन्दुस्तान के बंटवारा ह भाई बंटवारा हे। लड़ई भाई-भाई में होवत रथे लेकिन एखर ए मतलब नई हे के हमन अपना काम धाम ल छोड़ एक दूसर के जिन्दाबाद मुर्दाबाद करत रहन। पाकिस्तान बर हमर सेना काफी हे। हमर सेना निपट लिही लेकिन पाकिस्तान के चक्कर म जम्मो मुसलमान ल बैरी समझ लेना गलत हे। अब समय आगे हे जैइसे जर्मनी एक होगे वइसे भारत-पाकिस्तान ेक हो जाए। भारत जिन्दाबाद रहे पाकिस्तान जिन्दाबाद रहे तभे त हमन  एक होबो अऊ तरक्की करबो।
ईतवारी के पाकिस्तान जिन्दाबाद रहे के बात म फेर हंगामा शुरु होगे अऊ जीवराखन ह फेर हंगामा करे लगीस। अऊ ईतवारी ल देशद्रोही बताय लगीस। कोनो ह पुलिस ल फोन कर दिस पहली बार गांव म पुलिस आईस अऊ ईतवारी ऊपर देशद्रोही के जुर्म दर्ज कर गिरफ्तार कर लीन।