गुरुवार, 18 मार्च 2021

सीना ठोक के...

 

जब इस देश के दस लाख बैक कर्मचारी निजीकरण के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे तब उसी समय केन्द्र सरकार सौ और कंपनियों या संस्थानों को बेचने का निर्णय कर रही थी! सवाल यह नहीं है कि सरकार इसे क्यों बेच रही है क्योंकि जनता ने उन्हें जिस काम के लिए चुना है वह बखूबी कर रही है, पेट्रोल-डीजल पर वह कितना टेक्स ले रही है वह सीना ढोक के कहती है। कंपनी बेचने की बात भी वह सीना ठोक के कह रही है तब सवाल यह है कि क्या कंपनियों को वह औने-पौने दर पर बेच सकती है!

हालांकि यह सवाल अब पूछना देशद्रोह हो जायेगा क्योंकि उसे जनता ने चुना है और वह चाहे तो देश की किसी भी कंपनी का निजीकरण कर सकती है और वह चाहे तो फ्री में भी दे सकती है क्योंकि जनता ने जब उसे चुना है तो फिर सत्ता पर सवाल क्यों?

लेकिन हम यहां सवाल नहीं उठा रहे है बल्कि बता रहे है कि मोदी सत्ता ने पांच ट्रिलियन इकानामी करने के लिए देश की सौ संस्थानों को बेचने का या निजीकरण करने का निर्णय ले लिया है जिसमें रेलवे से लेकर खेल स्टेडियम तक शामिल है।

ऐसे में हम यह भी बता दे कि कोई भी खरीददार जब घाटे का सौदा नहीं करना चाहता तब वह क्या करेगा। वह उस कंपनी के एसेट्स की कीमत कम आंकेगा और फिर एसेट्स से भी कम कीमत पर कंपनी खरीद लेगा, क्योंकि इस देश में बैंक से लोन लेने के लिए किसी भी एसेट्स का मूल्यांकन कैसे किया जाता है यह किसी से छिपा नहीं है तब सरकार का आंकलन या मूल्यांकन पर कोई सवाल कैसे उठा सकता है। और यह सब सीना ठोंक के किया जा रहा है।

पिछले 6-7 सालों में जिन संस्थानों का निजीकरण किया गया था जिसे बेचा गया उसके बारे में कहा जाता है कि उन कंपनियों के जो एसेट्स थे उसका बाजार मूल्य कई गुना ज्यादा था। ऐसे में जब आम जनमानस राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की चासनी में डूबी हो और विपक्ष में लडऩे की ताकत ही न बची हो तब सत्ता जानती है कि उसे क्या करना है और वह वही कर रही है।

2014 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में करीब पांच लाख लोगों की नौकरी चली गई है, देश में बेरोजगारी दर चरम पर है लेकिन जब लक्ष्य हिन्दूत्व की रक्षा का हो तो ये सारे मुद्दे गौण हो जाते है।

यही वजह है कि पांच राज्यों के चुनाव में जो लोग भाजपा की जीत का दावा कर रहे हैं वे जानते है कि इस देश को कहां ले जाना है और चुनाव कैसे जीता जाता है। इसलिए स्मृति ईरानी ने बढ़ती महंगाई पर कैसे हाय तौबा मचाया था वह मायने नहीं रखता। सरकार पेट्रोल पर प्रति लीटर 33 रुपए और डीजल पर 32 रुपए वसूल कर रही है उसका भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि खाली बैठे युवाओं के मन में हिन्दू राष्ट्र का सपना जाग गया है और उन्हें इन महंगाई से कोई लेना देना नहीं है और न ही निजीकरण के बाद आरक्षित वार्गो की नौकरी का क्या होगा? यह भी सवाल बेमानी है क्योंकि आरक्षण ने उनका अधिकार छीना है वह यही समझे है।

तब मंदिर में पानी पीने वाला आसिफ के लिए हिन्दुत्व का औजार चुनाव में भी कारगर होगा, तब देश की संस्थाएं कैसे किसने से बची रह सकती है।