रविवार, 29 अप्रैल 2012

सुराज के बाद सुराख...


 अभी लोग ग्राम सुराज की नौटंकी से उभर भी नहीं पाये थे कि राजा ने बिजली का झटका देकर मानों कहा हो खुब एन्जॉय कर लिए? उठो? नौटंकी के दौरान कलाकारों ने जो मेहनत की है उसका मेहंताना भी तो निकालना है और यह जनता की जेब से ही निकलेगा? कोई मुफ्त में नौटंकी नहीं दिखाता और यही सब हो रहा है छत्तीसगढ़ में। आपको नौटंकी पसंद हो या न हो पैसा तो देना ही पड़ेगा।
छत्तीसगढ़ में चल रहे इस खेल में आम आदमी त्रस्त हो चुका है। भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी सरकार तो एक तरफ तो यहा के गरीबों के लिए घडिय़ाली आंसू बहाते है लेकिन दूसरी तरफ लोगों का जीना कठिन करते जा रही है।
राज्य निर्माण के तहत कहा जा रहा था कि यह देश का इकलौता कर मुक्त राज्य बनेगा। करों के बोझ से जनता बेहाल है। केन्द्र सरकार की नीति तो इसके लिए दोषी है ही छत्तीसगढ़ सरकार भी कम अत्याचार नहीं कर रही है। एक्सेस  पॉवर से पावर कट बन चुके हर राज्य में बिजली से वैसे भी परेशान है और सरकार बिजली दर बढ़ाने में आमदा है। गोवा या दूसरे राज्य की तरह पेट्रोल-डीजल में कम करके राहत देने की बात तो दूर उसने आम आदमी को बिजली का ऐसा झटका दिया है कि उसके घर का बजट गड़बड़ाना स्वाभाविक है।
छत्तीसगढ़ को पॉवर हब बनाने के सपने कहां तक पूरा हुआ है कोई नहीं जानता लेकिन बिजली के नाम पर अरबों-खरबों का घोटाला जरूर हुआ है। ओपन एक्सेस से लेकर उद्योगों से बिजली खरीदी में बेतहाशा गड़बड़ी की बात तो महालेखाकार की रिपोर्ट में भी आ गई है। विद्युत कंपनी को घाटे में दिखाकर  जनता से वसूली की कोशिश हो रही है। गांव-गांव में बिजली की कटौती से लोग परेशान है लेकिन इन सबसे सरकार को कोई लेना देना नहीं है। एक तरफ महंगाई के लिए केन्द्र सरकार को गरियाया जाता है और दूसरी तरफ आम लोगों पर करों का बोझ डाला जाता है। ऐसे में आम आदमी के पास क्या विकल्प है।
जनता तो अभी नक्सली और सरकार का खेल देख रही थी। जिस तरह से प्रदेश में नक्सलवाद हावी होता जा रहा है, सरकार कोयले की कालिख से पुती नजर आ रही है, कानून व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है और आम आदमी इन सबसे अवाक है तब बिजली की दरों में वृध्दि से आम आदमी का जीना दूभर हो जायेगा। 
                                                                     

शनिवार, 28 अप्रैल 2012







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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

28-4-2012

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सावधान! संभल जाओं...


नक्सलियों के निशाने पर अभी और भी वीआईपी है? यह खबर न केवल सरकार के लिए चेतावनी है बल्कि नक्सलियों द्वारा किये जा रहे दबाव की राजनीति का एक अहम हिस्सा हैं। आजादी के सात दशक में विकास का ढिंढोरा पिटने की कोशिश में लगी सरकारे भले ही यह दावा करें कि उसने विकास में हर संभव काम किया है पूरी तरह गलत हैं। सात दशक में हमने गांव में रहने वालों को लोकतंत्र की परिभाषा नहीं समझा पाये,बिजली तो छोड़ दिजीए पानी,शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधा से वंचित रखा और जिसने भी इस मांग को लेकर आंदोलन किया उसे पीटकर जेल में बंद कर दिया और सत्ता के लिए दारू और पैसे बांटते रहे। क्या यही विकास हैं।
छत्तीसगढ़ की उपेक्षा की वजह से ही राज्य की मांग उठी थी, लेकिन राज्य बनने के बाद भी उपेक्षा जारी हैं। भ्रष्टाचार में गले तक फंसी सरकार के पास संतुलित विकास की कोई योजना ही नहीं हैं। सत्ता में बने रहने की राजनीति के तहत मुफ्त में चावल से लेकर अन्य चीजे बांटी गई लेकिन लोगों की मुल जरूरतों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। और अब जब नक्सली एक कलेक्टर को उठा ले गये तो सरकार का पूरा अमला विकास विरोधी का तमगा देने पर आमदा हैं।
सात साल के शासन में छत्तीसगढ़ का सात हाल हो चुका है। उद्योगों को खेती की जमीन दी जा रही है और अपनों को सरकारी जमीन व खदानों का बंदरबांर किया जा रहा हैं। कोयले की दलाली में फंसी सरकार की करतूत की वजह से ही कलेक्टर के अपहरण मामले में लोगों का गुस्सा नक्सलियों से ज्यादा सरकार के प्रति हैं।
नक्सलियों की करतूत नि:संदेह ब्लेकमेलर की है और इसकी मत्र्सना जितनी भी की जाए कम है लेकिन सरकार क्या कर रही हैं। क्या उसे नहीं मालुम है कि ग्राम सुराज केवल और केवल एक नौटंकी है। जिसमें और अच्छा करने और सरकार के घर तक पहुंचने का दावा तो किया जाता है लेकिन वास्तविकता इनसे कोषों दूर हैं। सरकार का इसी सोच का फायदा उठाकर नक्सली दूरस्त अंचलों में आम लोगों के नजदीक जा पहुंचे है लेकिन सरकार को सिर्फ सत्ता से मतलब हैं। क्योंकि विकास से लोग जागरूक होंगे और जागरूक लोग कभी भी सरकार की करतूतों पर सड़क पर आ सकते हैं। यह कोई भी सरकार नहीं चाहती।
यही वजह है कि सरकारें किसी की भी रही सबने अपने जेब गरम कर उतना ही काम किया जितने में उनका सत्ता कायम रहे।
                                    

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

जिद के आगे...


लगता है छत्तीसगढ़ की पुलिस अब भी अपने को नहीं सुधार पाई हैं। कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के अपहरण के बाद यह तय हो चुका है कि नक्सली किसी भी हद तक जा सकते हैं लेकिन पुलिस को इन सबसे कोई लेना देना नहीं है  तभी तो विधायक डमरुधर पुजारी को कल झिटीपानी में ग्रमीणों ने न केवल घेर लिया बल्कि उनके एक सुरक्षा कर्मी की पिटाई भी कर दी। अन्य सुरक्षा कर्मी किसी तरह विधायक को ग्रामीणों के चंगुल से बचा पाये और एसपी ने टीआई जे आर मण्डावी को थाने से हटा दिया।
गांव-गांव में ग्राम सुराज का विरोध हो रहा हैं। गांव वाले इस नौटंकी को बंद करने आवाज उठा रहे हैं लेकिन सरकार के मुखिया को इससे कोई लेना देना नहीं है क्योंकि उन्हें मालूम है कि वे जिस तरह की सुरक्षा में चलते हैं उनका गांव वाले क्या नक्सली भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। स्वयं की सुरक्षा को सब की सुरक्षा की भूल की वजह से ग्राम सुराज तमाशा बनकर रह गया हैं। अधिकारी बंधक बनाये जा रहे है तो विधायको की जान सांसत में है लेकिन इससे राजा को कोई लेना देना नहीं हैं। वे तो एन्जॉय कर रहे हैं।
गरियाबंद भी नक्सली प्रभावित जिला है और यहां विधायक को इतनी कम सुरक्षा में ग्राम सुराज में भेजा जाना किसी अनहोनी को आमंत्रित करना है बावजूद यह सब चल रहा हैं। पुलिस प्रशासन शायद यह मानकर चल रही है कि कलेक्टर के अपहरण के बाद उनकी रिहाई तक नक्सली कोई वारदात नहीं करेंगे तभी तो झिटीपानी में गिनती के सुरक्षा कर्मियों के साथ विधायक को जाने दिया गया। यदि गांव वाले की जगह नक्सली होते तब ये गिनती के सुरक्षा कर्मी क्या करते।
सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि छत्तीसगढ़ में विकास हुआ ही नहीं है गांव-गांव में स्कुल-पानी स्वास्थ जैसी जरुरी चीजो से लोग वंचित है और विकास का ढिंढोरा अब फूटने लगा हैं। ऐसे में अधिकारियों को ग्राम सुराज के नाम पर चंद सुरक्षाकर्मियों के साथ भेजा जाना उचित नहीं हैं।
सरकार के अब भी संतुलित विकास की योजना मेें कोई  रूचि नहीं है वह तो मुफ्त में बांटने की योजना बनाने में भरोसा कर रही है ताकि लोगों का ध्यान उन जरूरतों से हट जाये और वे मुफ्त की चीजे पाने लाईन लगाने में ही अपना समय गंवा दे।
राजधानी के अस्पतालों व स्कुल-कालेजों की तरह सभी जिलों में सर्वसुविधा मुफ्त अस्पताल व स्कुल कालेज खोलने की योजना नहीं बनाने की मंशा ने संतुलित विकास की अवधारणा को नजर अंंदाज किया है लेकिन यह भी जान ले कि यह सब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला हैं।
                  

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

अंधा बांटे रेवड़ी...

अंधा बांटे रेवड़ी...
 दुर्गा नगर और रवि नगर शिफ्ंिटग  के दौरान जिस तरह के इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बाढ़ देखी गई वह कई तरह के सवाल खड़े करते हैं।  इन लोगों को सड़क चौड़ीकरण के लिए हटाकर बीएसयूपी मकान दिया जा रहा है।
 निगम दूर्गा नगर व रविनगर के जिन 298 परिवारों को बीएसयूपी योजना के तहत बने मकान दे रहा है उनमें अधिकांश परिवार गरीबी रेखा की सूची मेें हैं। जिन्हें न केवल मुफ्त में अनाज दिया जा रहा बल्कि एक बत्ती कनेक्शन भी मुफ्त में दिये जा रहे हैं। लेकिन शिफ्ंिटग के दौरान जिस तरह के महंगे सामान इनके घरों से निकला हैं उसे देखकर नहीं लगता कि ये लोग गरीबी रेखा के सूची के लायक है फिर भी इन लोगों का नाम गरीबी रेखा की सूची में दर्ज हैं। और इन्हें वह मकान में शिफ्ट कर दिया गया जिनके ये हकदार ही नहीं हैं। वास्तव मेें केन्द्र सरकार ने बीएसयूपी योजना के तहत मकान देने का जो निर्णय लिया है वह गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए है लेकिन यहां तो सिर्फ सड़क बनाने के नाम पर केन्द्र की इस योजना का केवल पलिता लगाया जा रहा है बल्कि वास्तविक लोगों को उसके हक से वंचित किया जा रहा हैं।
  सरकारी योजनाएं बनती किसी के लिए है और इसका फायदा कोई और उठाता है यह प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिला। वोट की खातिर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और शासन की मिली भगत के चलते किस तरह गरीबों की योजनाओं का फायदा उठा रहा है यह दुर्भाग्य ही नहीं घोर आपराधिक कृत्य हैं। सर्वे टीम से लेकर सिफारिस करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई किये जाने की जरुरत हैं।
 वैसे तो गरीबी रेखा कार्ड की फर्जीवाड़ा को लेकर काफी बवाल मचा है लेकिन वोट बैंक की खातिर इनके खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाया।
 एक तरफ सरकार गरीबों के लिए बड़ी-बड़ी योजना चलाने का वादा कर रही है दूसरी तरफ योजना का लाभ साधन संपन्न लोग ही उठा रहे है। हाल ही मेें ग्राम सुराज के दौरान मुख्यमंत्री ने जिस सुमन को गोद में उठाया था वह सरकार की योजना का पोल खोल रहा है लेकिन इस सबसे लापरवाह सरकार में बैठे लोग और राजनैतक दलों के कार्यकरताओं को इससे कोई लेना देना नहीं हैं।
अंधा बांटे रेवड़ी, अपन-अपन को दे कि तर्ज पर गरीबी रेखा सूची में साधन संपन्न लोगों के नाम शामिल करने की वजह से सरकार के खजाने में डाका तो डाला ही जा रहा वास्तविक लोग भी योजना का लाभ लेने वंचित हो रहे हैं।
रविनगर और दुर्गा नगर में तो मकान शिफ्ंिटग की वजह से सब कुछ दिख गया लेकिन दूसरी बस्तियों मेें भी यही हाल हैं। जो व्यक्ति पार्षदों सर्वेटीम की जी हुजूरी करता है उसका कार्ड आसानी से बन जाते है भले ही वह हकदार न हो लेकिन जो लोग ऐसा नहीं कर पाते ऐसे हकदारों के नाम छुट जाते है। सरकार को इस दिशा में कठोर कदम उठाना चाहिए और सर्वे टीम के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि सरकार के इस नीति के चलते ही अमीरो और गरीबों में मनभेद बढ़ा हैं।
                                 

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

छोड़ दो कलेक्टर को... ऐसी तैसी हो जनता का...


सुकमा कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई को लेकर एक तरफ जहां सरकार के प्रति लोगों का आक्रोश चरम पर है वहीं दूसरी तरफ नक्सलियों के प्रति भी बेहद नाराजगी दिख रहीं हैं। नक्सलियों द्वारा रिहाई के एवज में की गई मांग को लेकर अधिवक्ता संघ तो खुलकर साामने आते हुए यहां तक कह दिया कि नक्सलियों की रिहाई की मांग सरकार ठुकरा दे और सेना की मदद से नक्सलियों की खात्मा कर दे। इसी तरह के विचार फेसबुक पर देखने को मिल जायेंगे। लोगों का गुस्सा चरम पर है और वे नहीं चाहते की सरकार की किसी भी हरकत से नक्सलियों की हौसला बढ़े और जवानों की शहादत बेकार जाये।
छत्तीसगढ़ में 80 के दशक से शुरू हुए नक्सली आन्दोलन का समाधान नहीं निकालने का यह दुष्परिणाम है कि सरकार सांसत में है। एक तरफ काम करने वाला कलेक्टर की जान खतरे में है तो दूसरी तरफ दुर्दान्त हत्यारे हैैं जिन्हें छोड़े जाने की मांग हैं। एक तरफ कुआँ और दूसरी तरफ खाई की स्थिति है ऐसे में सरकार के सामने सबसे बड़ी दिक्कत बीच के रास्ते का है ताकि सरकार की साख बची रह सके।
जो लोग नक्सलियों की रिहाई का विरोध कर रहे है उनका विरोध पूरी तरह सही है। क्योंकि जेल में बंद नक्सली इस लायक ही नहीं है कि उनसे सहानुभूति भी रखी जा सके। सैकड़ो परिवारों को तबाह करने वालों के प्रति सहानुभूति क्यों होनी चाहिए। हिंसा का लोकतंत्र में कहीं स्थान नहीं है और नक्सली कम से कम वे लोग नहीं है जो हालात के कारण हत्या करते हैं।
यह ठीक है कि आजादी के इन सात दशकों में जितनी भी सरकारें आई उनका ध्येय केवल अपनी जेब गरम करने का रहा हैं। गांव की तरफ सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि बंदूक उठाया जाये और बेकसूरों की हत्या की जाये।
हम किसी भी तरह के हिंसा के खिलाफ है और सरकार के लिए इसे एक चेतावनी के रुप में देखते है कि वह अब गांवों में विकास की सोचे। हर व्यक्ति को पानी-शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध कराये और राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़े।
नक्सलियों का मकसद केवल लूटपाट तक सिमट कर रह गया है ऐसे में उनकी मांगे मानने का असर यहां की कानून व्यवस्था पर पड़ेगा। वैसे भी देश हित में कोई बड़ा नहीं होता। मौका सरकार के पास भी है कि वह नक्सलियों से बात कर इस समस्या का समाधान निकाले। और अब तक की जो खामियां है उसे दूर करें।
इस एक घटना से कई सवाल खड़े कर दिये हैं कि क्या अपहरण हुआ व्यक्ति कलेक्टर होने के कारण सरकार इतनी गंभीर दिखाई पड़ रही है? क्या उन हत्यारे नक्सलियों को इसलिए छोड़ देना चाहिए ताकि वे बाहर निकलकर फिर सैकड़ों परिवारों को तबाह करे। सवाल और भी खड़े होंगे जिसका जवाब सरकार को देना ही होगा।
                                  

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

राजनीति के लिए राजनीति...


इन दिनों पूरे देश में विभिन्न राजनैतिक दल आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर काम रही हैं। कांग्रेस-भाजपा की हर चाल एक दूसरे को निपटाने के हिसाब से हो रहा हैं। एक तरह यूपीए सरकार अपने मंत्रियों की करतूतो पर मुंह छिपा रही हैं। तो भाजपा शासित राज्यों में भाजपाईयों की यही स्थिति हैं। विकास का भौंडा प्रदर्शन हो रहा है और हालात दिनों दिन बिगड़ते जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में तो हालात बदतर हो गई हैं। आगामी चुनाव के हिसाब से सरकार की कोशिश हैट्रिक की है और वह इसी को ध्यान में रखकर ही फैसले ले रहे हैं। भाजपा सरकार ग्राम सुराज चला रही है तो कांग्रेस वादा निभाओं। इसके बीच आम जनता के सामने यह दिक्कत खड़ी हो गई है कि वे किसे चुनें।
इन दिनों सब तरफ कलेक्टर एपी मेनन की रिहाई को लेकर हल्ला है,अपने अपने तरीके से लोग इस पर बहस कर रहे है तो कोई नक्सलियों को गरिया रहे है तो,कुछ प्रार्थना भी कर रहे हैं। पिछले तीन दिनों से इसी बात की चर्चा है कि कभी शांति का टापू कहलाने वाले इस राज्य की हालात कैसे बिगड़ गया। डॉ.रमन सिंह की साफ सुथरी छवि पर कालिख के छींटे कैसे पडऩे लग गये हैं। केन्द्र सरकार की करतूतों का फायदा भाजपा की निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ में जरुर मिलता लेकिन बिगड़ते हालात ने भाजपाईयों के चेहरों से हंसी लगभग गायब ही कर दी हैं।
कोल ब्लाक आबंटन सहित कानून व्यवस्था को लेकर करघरे में घिरी सरकार के लिए कलेक्टर का अपहरण ताबूत में कील की तरह काम काम करने लगा हैं। नक्सली हिंसा पर सरकार की आलोचना को राजनीति की बात कहने वालों के मुंह भी अब सील गए हैं। क्योंकि हालात सचमुच काबू से बाहर हैं।
इन दिनों पूरा छत्तीसगढ़ में हालात ठीक नहीं हैं। नक्सल प्रभावित जिलों में विकास पूरी तरह से ढप पड़ गया है और     इससे निपटने में जब राज्य सरकार असफल हो चुकी है तब वह इससे बचने का उपाय ढँूढ रही हैं। भाजपा अब नक्सली समस्या को राज्य की बजाय केन्द्र की झोली में डालने आमदा हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए है राज्यों के मुख्यमंत्रीयों की बैठक मेें जिसमें तमाम गैर कांग्रेसी केन्द्र के हस्तक्षेप को लेकर राज्यों की स्वतंत्रता बनाये रखने एक कानून का विरोध करते नजर आये थे।
हमारा शुरू से ये मानना है कि केन्द्र और राज्य दो अलग-अलग इकाई है और इनमें सामंजस्य जरुरी हैं। नक्सली समस्या से जब राज्य अलग हो चुकी है तब उसे नक्सल प्रभावित जिलों को बेहिचक केन्द्र के हवाले कर देना चाहिए। लेकिन यहां तो हालात दूसरे जिलों में भी खराब हैं। उद्योगपतियों की दादागिरी और माफियाओं के बोलबोला ने कानून व्यवस्था की स्थिति खड़ी कर दी हैं। व सरकार के भ्रष्टाचार से आम आदमी डरी है ऐसे मेंं लोकतंत्र को जिंदा रखने नये सिरे से बुध्दिजीवियों की बैठक लेकर अच्छे सुझावों पर अमल करना चाहिए। अन्यथा जनता पीसती रहेगी। और राजनीति के लिए राजनीति करने वाले अपना खेल जारी रखेंगे।
               

रविवार, 22 अप्रैल 2012

किस किस को गरियायें...


  छत्तीसगढ़ में अफसरों का राज है, छत्तीसगढ़ में उद्योगपतियों का राज है, छत्तीसगढ़ में व्यापारियों  का राज है, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का राज है, छत्तीसगढ़ में माफियाओं का राज है और छत्तीसगढ़ में भाजपा का राज हैं। मीडिया और जनता के बीच इस तय शुदा राज मेें आम आदमी अपने को ठगा महसुस करने लगा हैं। राजा को इससे मतलब नहीं है कि किसका राज हैं। उन्हें मालूम है वे अपनी चला ही लेंगे, उनके सुख सुविधा में कोई कमी नहीं होगी। वे जब चाहे जैसा चाहे कर सकते है इसलिए उन्हें कोई फर्र्क नहीं पड़ता कि राज किसका हैं। छत्तीसगढ़ की इस स्थिति को लेकर राज का सपना देखने वाले हैरान हैं कि आखिर छत्तीसगढ़ में ये सब हो क्या रहा हैं। लोकतांत्रिक तरीके से अपनी मांगे रखने वालों का दमन किया जाता है और कानून को ताक पर रखने वालों की सब मांगे पूरी कर दी जाती हैं। जब आई बी से लेकर तमाम गुप्तचर संस्थानो ने नक्सलियों की संभावित करतुत पर सरकार को सचेत रहने कह दिया गया था। तब सरकार ने बगैर सुरक्षा व्यवस्था के सुराज दल को किसके सहारे भेज दिया था। राजा से आज ये सवाल पूछने चाहिए कि वे तो जेड श्रेणी की सुुरक्षा के बीच उडऩखटोला से जहां नहीं वहां पहुंच जाते हैं। वे सुरक्षित है तो क्या जनता भी सुरक्षित हैं। उन्होंने आईबी की रिपोर्ट की अनदेखी क्यों की। क्या उनकी जिद इसी तरह से चलते रहेगी और लोग मारे जा रहे हैं उनका क्या कसुर हैं। अरे भई नक्सली तो निर्दयी हैं,उनका काम ही हत्या करना है ,आम लोगों मेंंं भय पैदा करना है, लेकिन सरकार तो ऐसी नहीं होती, अपनी जिद पूरी करने के लिए क्या किसी के जान को दांव पर लगाना उचित हैं। बचपन से सुनते आ रहें है कि लोकतंत्र में हम जी रहें हैं लेकिन कहां है लोकतंत्र और कहां है लोकतांत्रिक सरकार। स्वयं के फायदे और राज कायम रखने सिर्फ हथियारों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा हैं। वरना विरोध को कुचलने की तमाम कोशिश हो रही हैं। उद्योगों की जमीन देने की जनसुनवाई का मामला हो या फिर खदानें देने का मामला हो। राजा की मर्जी का विरोध करने वालों की खैर नहीं हैं। विधानसभा में सचिव जैसे पदों पर किसी को भी बिठा दिया जाता है और विरोध करने वालों को नौकरी से निकालने का फरमान जारी हो जाता हैं। आम आदमी को भीख दी जाती है ताकि वे इसी के भुलावे में रहे और पानी, बिजली, स्वास्थ्य से वंचित रखा जाता है। ताकि उन्हें विकास से कोसो दूर रखा जा सके। सड़के इस लिए बनाई जा रही है कि ताकि लूटेरे आसानी से गांव तक पहुंच चुके। स्कूल भवन बनवा दो, गुरूजी मत रखो, अस्पताल खुलवा दो लेकिन डॉक्टर न रखो ये सोच क्या लोकतांत्रिक है? सुुकमा के कलेक्टर का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया है अब इसे निदंनिय, कायरता बताते रहे। नक्सलियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब उन्हें गांव वालों को कत्ले आम मचाते समय फर्क नहीं पड़ता तब उनके लिए अपहरण से क्या फर्क पड़ेगा। आखिर सरकार इससे अलग क्या कर रही है। जरा भाजपा के लोग सोचे की क्या इस तरह के राज्य की कल्पना की गई थी। सोचना कांग्रेस ही नहीं आम लोगों को भी है। कि ऐसी सरकारों को आखिर किस तरह से  कितने दिन बर्दास्त किया जाना चाहिए। डॉ रमन सिंह के हिम्मत की दाद दी जानी चाहिए कि नक्सलियों के कत्लेआम के बाद भी वे इस बात पर अडिग है कि ग्राम सुराज की नौटंकी जारी रहेगी।
   

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

सुकमा कलेक्टर का अपहरण, सुराज दल के अब तक पांच मरे



हवा से जमीन नापना भारी चेतावनी के आगे जिद हावी
 तमाम तरह की गुप्तचर संस्थाओं की चेतावनी के बावजूद ग्राम सुराज चलाना सरकार को भारी पडऩे लगा है। जेड प्लस सुरक्षा और उडऩखटोला से सुरक्षित राजा की सोच के चलते ग्राम सुराज दल के लोगो में दहशत व्याप्त है लेकिन नौकरी की मजबूरी उनकी जान पर बन आई है।
हमारे बेहद भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक ग्राम सुराज शुरू होने के पहले ही प्रदेश के विभिन्न गुप्तचर संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट में नक्सली क्षेत्रों में ग्राम सुराज चलाने को गंभीर खतरा बताते हुए अतिरिक्त सावधानी बरतने का निर्देश दिया था। कुछ संस्थाओं के द्वारा तो इसे रद्द करने तक कहा गया था। लेकिन राजा की जिद ने जहां कल बीजापुर के पास तीन जाने ले ली वहीं आज दो जाने गई व सुकमा कलेक्टर एलेक्सपाल मेनन का अपहरण हो गया। इससे पहले विक्रम उसेंडी के पहुंचने से पहले विस्फोट किया गया और कल तो महेश गागड़ा व कलेक्टर बीजापुर बाल-बाल बच गए थे।  वैसे छत्तीससगढ़ में जिस तरह से नक्सलियों ने अपने पैर पसारे है उसे रोकने में सरकार पूरी तरह असफल रही है। ग्राम सुुराज को लेकर भले ही नक्सलियों ने किसी तरह की चेतावनी नहीं दी थी लेकिन गुप्तचर रिपोर्ट से स्पष्ट था कि सरकार अपने जिद पर अड़े रही तो मामला बिगड़ सकता है। ग्राम सुराज को लेकर गुप्तचर रिपोर्टो को नजर अंदाज करने राजा रमन सिंह ने बस्तर से ही अभियान की शुरूआत कर यह संदेश देने की कोशिश की कि सरकार किसी से डरती नहीं है और मुख्यमंत्री को जब कुछ नहीं हो सकता तो बाकि किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन इस सोच  के चलते राजा सााहब ये भूल गए कि वे जेड प्लस सुरक्षा और उडऩखटोला से यात्रा करते हैं और इस हवाई दौरे ने नक्सलियों के जमीनों पर कब्जे की हकीकत को अंतत: उजागर कर ही दिया और उडऩखटोला की बजाय जमीन पर चलने वाले संकट में आ ही गए। हवा में रहकर जमीन की हकीकत को नजर अंदाज करना राजा की आदत हो सकती है लेकिन गुप्तचर संस्थाओं  की चेतावनी की अनदेखी के पीछे की जिद के चलते आज सुरक्षा दल  के आगे अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए है। यह  सर्वविदित है कि नक्सलियों की करतूत घोर निंदनीय है। उनका हमलावर नीति कायरना है और इसका सब तरह निंदा भी हो रहा है। लेकिन सरकार को हवा से उतर कर जमीन की हकीकत को समझना होगा। वैसे तो ग्राम सुराज को लेकर जिस तरह से प्रचार के नाम पर करोड़ों रूपए फूंके जा रहे है इसके औचित्य पर ही सवाल उठ रहे है और यह नौटंकी बनकर रह गया है। वैसे भी जब राजा को यह एन्जॉय का साधन लगे तो इससे बदतर व्यवस्था क्या हो सकती है।
बहरहाल कलेक्टर के अपहरण ने सरकार के दावों की न केवल कलई खोल दी है बल्कि हवा से जमीन नापने की हकीकत को भी सामने ला दिया है कि आखिर गुप्तचर संस्थाओं की रिपोर्ट को नजरअंदाज केवल जिद पूरी करने क्यों की गई।

कालाधन और कोयला...


अखबारों की सुर्खिया रही कि रामदेव बाबा विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने छत्तीसगढ़ से आन्दोलन करेंगे तो दूसरी खबर कानून को ताक में रखकर कोयला खदाने चलानी की हैं। एक दूसरे के पूरक इन खबरों को लेकर बेचैनी बढऩी स्वभाविक हैं। पहले ही कोयले की कालिख पूती सरकार के लिए ये दोनों खबरे क्या मायने रखती हैं। ये हमें नही मालूम लेकिन जिस तरह से यहां होने वाले चुनाव को लेकर राजनैतिक दलों की तैयारियां चल रही हैं उस लिहाज  से कालाधन और कोयला महत्वपूर्ण मुद्दा बनने जा रहा हैं।
रामदेव बाबा लाख कहे कि उनका भाजपा से कोई लगाव नहीं हैं लेकिन यह साबित हो चुका है कि आर एस एस उनके पीछे हैं। बाबा के लिए कालाधन मुद्दा हो सकता है और कंाग्रेस के लिए कोयला मुद्दा बन सकता हैं। लेकिन आम आदमी के लिए आज भी रोटी कपड़ा और मकान ही मुद्दा है जिसे देने में सरकार असफल रही हैं। कालाधन हो या कोयला दोनों का मतलब ही भ्रष्टाचार  से हैं। ऐसे में बाबा के लिए छत्तीसगढ़ में आन्दोलन तब और भी मुसिकल हो जाता हैं जब यहंा की सरकार कोयले की कालिख को पोछ नहीं पाई हैं। हजार करोड़ से ऊपर के इस घपलेबाजी में जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी से लेकर मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के शामिल होने का अंदेशा हो तब छत्तीसगढ़ के लिए कालाधन से महत्वपूर्ण कोयला इसलिए भी है क्योंकि यहां विकास अब भी गावों से कोसों दूर हैं। उद्योगपतियों की सरकार के आरोपों से घिरे छत्तीसगढ़ सरकार पर बाबा का क्या रूख होगा?क्या वे इतने ही बेबाकी से कोयले पर बोल पायेंगे जितनी बेबाकी वे काला धन पर बोल पाते हैं। अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद जब सारी राजनितिक पार्टियों का सुर एक हो, एक जैसे दिख रहे हो तब बाबा के लिए छत्तीसगढ़ में आन्दोलन आसान नहीं हैं। छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है डॉ. रमन सिंह के राज में ऐसा कोई विभाग नहीं है जहां के भष्टाचार के किस्से आम लोगों की जुबान पर नहीं चढ़े हो। खेती की जमीनों की बरबादी से लेकर सरकारी जमीनों को बंदरबार का मामला हों या खदान बेचने से लेकर जंगल काटने तक में सरकार घिरी हुई हैं। निजी अस्पतालों और निजी स्कूलों को फायदा पहुंचाने सरकारी अस्पताल व सरकारी स्कूलों की दशा किसी से छिपी नहीं हैं। बिजली-पानी के लिए तरसते लोगों की बात हो या उनके दूसरे मौलिक अधिकारों की हनन की बात हो सरकार चौतरफा घेरे में हैं। ऐसे में बाबा सिर्फ काला धन पर बोलकर सरकार को खुश रख सकती है आम आदमी पर उनकी छवि क्या होगा यह कहना कठिन हैं।
                                                       

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

रोम का जलना...


कहते हैं कि जब रोम जल रहा था। तब वहां का सम्राट चैन से बंशी बजा रहा था। यह किस्सा एक दूसरे परिवेश में छत्तीसगढ़ में चल रहा हैं। गांव वालों की हालात खराब हैं। आम आदमी को उनकी मूलभत सुविधा नहीं मिल पा रही हैं। गरीबी और विकास से कोसो दूर आम लोग अपनी तकलीफ पर ठीक से रो भी नहीं पा रहे हैं। और प्रदेश का राजा डॉ. रमन सिंह को यह सब एन्जॉयमेंट का साधन नजर आ रहा हैं। वे खूब एन्जॉय कर रहे हैं। और उन्हें नयी-नयी मांगे भी सुनने को मिल रही हैं।
सात-आठ साल के शासन में राजा साहब को कभी इस तरह की मांगे नहीं सुनाई पड़ी। इसलिए उन्हें यह सब मजा आ रहा हैं। और यह सच भी है कि राजा को तभी मजा आयेगा जब लोग उससे कुछ मांगेंगे। उनकी तारीफ में कसीदे गढ़े जायेंगे। पहले जमाने में भी यही होता रहा हैं। राजा अपने महल में अपने कुुनबे के साथ मदमस्त होते थे। और एन्जॉयमेंट के लिए जब निकलते थे तब गरीबों को देखकर मजा आता था। वे इनमें अपना मनोरंजन ढूंढते थे और कभी कुछ कोई मांगते तभी देते थे। 
मैने ग्राम सुराज की मांगो,शिकायतों व आवेदनों को देखा हैं। मुझे अपनी बुध्दि पर तरस आता हैं कि इनमें से कोइ भी मांगे मुुझे नई क्यों नहीं लगी। सड़क, बिजली, पानी, स्कुल, अस्पताल व पुल-पुलिया यही सब तो मांग रहे हैं। और नौकरशाहों की करतूूतोंं व जनप्रतिनिधियों की दादागिरी में नयापन कुछ भी नहीं हैं। लेकिन राजा ने कहा है तो उनके लिए नया ही होगा?
ग्राम सुराज के दो दिन में राजा को सब कुछ अच्छा लगा। गरीबी और अभाव में जीते लोगों को देखना और इस दौरे को अच्छा बताना राजा के लिए ही संभव हैं। क्योकि यदि लोग अभाव व गरीबी में नहीं होंगे तो राजा से क्यों मांगेंगे।
छत्तीसगढ़ का यह दुर्भाग्य है कि अलग राज बनने के बाद भी यहां के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चिकित्सा के अभाव में लोग मर रहे हैं। पानी-बिजली शिक्षा जैसी जरूरी चीजे उन्हें मिल नहीं रही हैं। और सरकार में बैठे लोग पैैसों की लालच में आँखे बंद किये बैठे हैं। हालत बदतर होते जा रहीं हैं। खेती की जमीनों का उद्योगों को बंदरबार किया जा रहा हैं। खनिज संपदा का भरपूर दोहन हो रहा हैं। जंगल बेतहाशा काटे जा रहे हैं। कानुन व्यवस्था की हालत चिंताजनक हैं। लेकिन राजा को एन्जॉय करना हैं। इसलिए वह ग्राम सुराज चला रहे हैं।
पहले के  जमाने में भी यही सब होता था राजपाट से छुट्टी के लिए आखेट मेें निकल जाता था। तंबूओं में रहते थे। लेकिन सभी सुविधाओं के बाद कुछ भी नहीं बदला है तो सिर्फ तरीका। राजाओं का राजा की तरह ही होगा।
                                                        

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

निजी डॉक्टरों को फायदा पहुंचाने सरकारी योजनाओं की अनदेखी


करोड़ो रूपए अनुपयुक्त पड़े रहे
 वैसे तो इस सरकार पर उद्योगपतियों का तमगा नया नहीं है। लेकिन निजी डॉक्टरों व नर्सिंग होमों को फायदा उठाने के लिए जिस तरह से अपने ही अस्पताल को सुविधा से वंचित रखने का खेल डॉक्टर होते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के नेतृत्व में खेला जा रहा है। वह शर्मनाक ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण है।
चावल से लेकर सायकल बांटकर नाम कमाने में विश्वास रखने वाली भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह भले खुद डॉक्टर है लेकिन इनकी रूचि आम लोगों की चिकित्सा सुविधा ठीक से देने की नहीं है। यहां तक केन्द्र की राशि का भी ये ठीक से उपयोग नहीं कर पा रहे है और इसकी वजह से आम आदमी निजी नर्सिंग होम के चक्कर में अपना सब कुछ लूटा रही है। डॉ रमन लाख दावा करे की उनकी सरकार गरीबों की हितचिंतक है। लेकिन सीएजी की रिपोर्ट ने यह चौकाने वाला खुलासा किया। बकौल सीएजी इससे स्पष्ट था कि भारत सरकार से वित्तिय सहायता प्राप्त करने होने के बाद भी केन्द्रीय योजना के धीमी गति से क्रियान्वयन के कारण राज्य की जनता योजना में प्रावधानित विशिष्ट आयुष चिकित्सा सेवाओं से वंजित रही। सीएजी की इस टिप्पणी को भले ही रमन सरकार और पूरी भाजपा काल्पनिक बता रही हो लेकिन इस टिप्पणी से यह बात तय हो गया है कि सरकार की मंंशा गांव वालों के लिए क्या है। निजी अस्पतालों को बढ़ावा देने के षडय़ंत्र के चलते सरकार ने जानबूझ कर पैसा रहते हुए सरकारी चिकित्सा सुविधाओं को पंगु बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखा है। सरकारी अस्पताल को लेकर सीएजी ने अपनी जांच के बाद स्पष्ट किया है कि सरकार ने जिला एलोपैथिक चिकित्सालयों में आयुष प्रकोष्ठ की स्थापना नहीं की और जहां कहीं इसकी स्थापना की भी तो वह अत्यंत काम चलाऊ रहा। इसी तरह सरकार ने सामुदायिक स्वस्थ्य केन्द्रों में विशेषीकृत चिकित्सा केन्द्रों की स्थापना में भी ठीक से रूचि नहीं दिखाई है। 22 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से 20 में यह योजना ही लागू नहीं की गई। यहां तक की केन्द्र सरकार से प्राप्त इस योजना की 3 करोड़ रूपए अनुपयुक्त पड़ी रही। जबकि बचे 2 में से केवल बलौद में ही स्थिति ठीक ठाक थी। यहीं नहीं सरकार ने इस योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए कर्मचारियों की जरूरतों को भी नजर अंदाज किया। ज्ञात हो कि प्रदेश के निजी नर्सिंग होमों की लूटपाट से आम आदमी त्रस्त है। हालत यह है कि निजी चिकित्सालयों में ईलाज कराने वाले स्वयं को ठगा महसूस कर रहे है। लेकिन सरकार को इससे कोई लेना-देना नहीं है। नर्सिंग होम के मनमाने फीस व लूटखसोट को सरकार द्वारा छूट दिया गया है कहा जाए तो अतिशंयोक्ति नहीं होगा। सूत्रों का कहना है कि सीएजी रिपोर्ट ने जिस तरह से पर्याप्त केन्द्रीय फंड के उपयोग नहीं करने का खुलासा किया है उसके बाद तो इन सबके पीछे षडय़ंत्र की बू आने लगी है कि  सरकार जानबूझ कर आम लोगों को सुविधा देने की बजाय स्लाटर हाऊस बन चुके नर्सिंग होम में ढकेल रही है। जहां ईलाज के नाम पर आम आदमी को लूटने का गोरख धंधा चल रहा है।
बहरहाल सीएजी की रिपोर्ट में इस खुलासे के बाद सरकार का रूख क्या होगा यह देखना है।

पानी और बिजली...


गर्मी शुरू होते ही छत्तीसगढ़ में पानी की समस्या शुरू हो जाती हैं हर साल का यह रोना हैं। सरकार किसी की भी रही हो इन समस्याओं का हल नहीं हुआ और जिस तरह से सरकार काम कर रही है आने वाले दस -बीस सालों में यह समस्या सुुलझने वालीं नहीं हैं।
सरकार का मतलब अब भष्टाचार हो गया हैं और सत्ता जन सेवा की बजाय अपनी पीढिय़ों के लिए व्यवस्था करने का साधन बन चूका हैं। दो दशक से रायपुर में ही पानी और बिजली को लेकर गर्मी शुरू होते ही हंगामा देख रहा हँू। और इसके उपाय के लिए कोई दीर्घकालिन योजना बनाने में सरकार पूरी तरह असफल रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों का तो और भी बुरा हाल हैं। लेकिन सरकार है कि विकास के दावे करते नहीं थकती।
जब आम आदमी को पानी-बिजली जैसे जरूरी चीज ही उपलब्ध नहीं हो रहा है तब विकास के दावे किस मुंह से की जाती हैं। यह समझ से परे हैं।
कल ही राजधानी में पानी और बिजली को लेकर जोरदार हंगामा हुआ। नगर निगम में भाजपाईयों ने हंगामा किया तो खमतराई में लोगों ने पत्थर बाजी की। इन घटनाओं से सबक लेने की जरूरत इसलिए भी है क्योकि अभी गर्मी शुरू ही हुई है। पूरा दो माह गर्मी बचा है ऐसे में हालात को ठीक ढंग से नही समझा गया तो आने वाले दिनों में कोई अनहोनी से नहीं रोका जा सकेगा।
राजा और इसकी सेना अभी ग्राम सुुराज में लगी हैंं। गांवों में बिजली और पानी की सर्वाधिक समस्या हैं। यदि सुराज दल के पहुंचने के दौरान बिजली चली गई तो विषम स्थिति बन सकती हैं। पहले ही दिन जिस तरह से संसदीय सचिव के भाजपा गांव में सुराज दल को बंधक बनाया गया वह एक चेतावनी हैं।
हमें लगता है कि इस नौटंकी को यहीं समाप्त कर नये सिरे से विकास के लिए सोचना चाहिए। सरकार यह मान ले कि आजादी के सात दशक बाद भी गांवों में रहने वालों को उनका अधिकार नहीं मिला हैं और विकास की अब तक की बातें केवल कल्पना है या बकवास हैं। वक्त रहते इसे नहीं समझा गया तो आने वाले दिनो में जनता का रूख समझना मुस्किल होगा हालांकि पुलिसियां डंडे की जोर पर और सत्ता के दम पर अब तक जन आन्दोलन को सरकार कुचलते रहीं हैं। लेकिन यह स्थिति आगे भी रहेगी कहना कठिन हैं।
संतुलित विकास के लिए नये सिरे से इबादत लिखनी होगी। आखिर गांव वालों को उनके अधिकार से कब तक वंचित रखा जा सकता हैं।
क्या उच्च शिक्षा, सर्वोच्च चिकित्सा व फिटकरी से छने पानी पीने का अधिकार सिर्फ शहर वालों को हैं। यह सोच सरकार को बदलनी होगी और शहर को सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधा गांव वालों को भी दी जानी चाहिए। केवल मुफ्त में चावल-नमक या दूसरी चीजे देकर लंबे अरसे तक किसी को बहलाया नहीं जा सकता।                                    

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

गांवों में राज ...

गांवों में राज ...
छत्तीसगढ़ के गांवों की दशा बदतर हैं। सरकार हर साल की तरह इस साल भी 'ग्राम सुराजÓ में निकल पड़ी हैं। बकौल मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह 'खामियों से मिलता हैं बेहतर रास्ताÓ ही ग्राम सुराज अभियान की वजह हैं।
लेकिन छत्तीसगढ़ में इस अभियान के औचित्य पर ही सवाल उठने लगे हैं। विज्ञापन के रुप में करोड़ो खर्र्च करने के बाद क्या गांवों की दशा सुधर जायेगी।  दरअसल सरकार की सोच छत्तीसगढ़ के  विकास की है ही नहीं हैं। वरना पिछले सात साल के शासन में एक तो ऐसी योजना होती जिससे गांव में सुराज दिखता। हद तो यह है कि सरकार गांव वालों को लोकतंत्र के मायने ही नहीं समझा पाई हैं। शिकायतों के पुलिन्दों को विभागो में भेज देना और इसे निराकरण बताकर राजनैतिक लाभ लेना ही ग्राम सुराज का एकमात्र उद्देश्य रह गया हैं।
वास्तव में सरकारे चाहती है कि छत्तीसगढ़ का विकास  हो तो उसे गांववालों के विकास के लिए एक ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे हर व्यक्ति को स्वास्थ्य शिक्षा और पानी उपलब्ध हो जाये। आजादी के 7 दशक बाद जब ये तीन चीजे ही गांव वालों को मयस्सर नहीं हो पाया हैं। तब भला गांव में सुराज कैसे आ पायेगा।
हम बार-बार कह चूके है कि ग्राम सुराज हमें सरकारी नौटंकी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आता। हो सकता है हमारी इस बात से बहुत से लोग इत्तेफाक नहीं रखते हो लेकिन ग्राम सुराज का खेल सालों से चल रहा है सरकार कितने गांवों में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करा पाई हैं। वास्तव में सरकार इस अभियान के जरिये पटवारियों व पुलिस वालों पर नकेल कसने की ढिंढोरा भर पिटती हैं। ताकि गांव वाले पानी-चिकित्सा और शिक्षा की तरफ ध्यान ही न दें। ग्राम सुराज में आने वाले आवेदनों को देख के लगता है कि लोगों को ग्राम सुराज का मतलब भी सड़क स्कुल और पटवारी-पुलिस की शिकायत ही समझाया गया हैं।
वास्तव में ग्राम सुराज का मतलब छोटे कर्मचारियों को बदनाम करना या प्रताडि़त ही रह गया हैं जबकी इतने सालों के ग्राम सुराज के बाद सरकार को ऐसी योजना बनानी चाहिए थी कि हर ब्लाक मुख्यालय में सर्वसुविधायुक्त अस्पताल हो जाए, उच्च शिक्षा के पर्याप्त साधन हो और गांव-गांव में पीने का साफ पानी उपलब्ध हो जाए।
सरकार किसी की भी हो किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि आखिर गांव वालों को शहर की तरह सुविधा कैसे दी जाए। न ही गांव वालों के प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों ने ही इस ओर सोचा। जीतते ही राजधानी में घर पा लेने के बाद चुनाव जीतना ही उद्देश्य रह गया है। ग्राम सुराज को लेकर मुख्यमंत्री की इस बेहतर रास्ते सिर्फ डायलॉक न बने बल्कि गांव वालों को बेहतर सुविधा मिले। तभी गांव में सुराज आयेगी।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

कथनी और करनी...


सत्ता में आने के पहले नैतिकता की सारी बातें धरी की धरी रह जाती हैं। न पार्टी विद डिफरेंस रहता हैं। और न ही चाल चेहरा ऐर चरित्र ही दिखता हैं। राजनैतिक सुचिता तो कुड़ेदान में चला जाता हैं। और जनता का भ्रम फिर भी बना हुआ हैं।
भारतीय राजनीतिक का यह चेहरा है। हो सकता है कि बहुत लोग मुझसे इत्तेफाक नहीं रखते होंगे लेकिन राजनेताओं का पतन जिस तेजी से हूआ हैं, उसके बाद आम  आदमी के पास यह यज्ञ प्रश्न है कि इस देश का क्या होगा। बड़े-बड़े महात्मा सैनिक शासन की दुहाई देने लगे हैं। तो कोई अंगे्रजी राज को बेहतर बताते नहीं थक रहे हैं।
इन सब विषम परिस्थितियों के बावजूद हम बतादे कि लोकतांत्रिक व्ययस्था से अच्छी कोई और व्यवस्था नहीं हैं। यह बात और है कि इसमें सुधार गुंजाईस हैं। छत्तीसगढ़ में चौतरफा लूट खसोट में सरकार का कोई जवाब नहीं है लेकिन क्या कांगे्रस की खामोशी पर टिप्पणी नहीं हो रही है। लेकिन तीसरी पार्टी का विकल्प भी खुलने लगा हैं। जोर आजमाईश के बीच कांगे्रस ने तेवर कड़े कर लिए है और सत्ता छिने जाने का डर भाजपा में भी दिखने लगा हैं।
पिछले 7-8सालों के भाजपाई शासन में कुछ अच्छे निर्णय हुए हैं लेकिन इन निर्णयों पर कोयले की कालिख पूतने लगी है। आदिवासियों और हरिजनों का आह भी दिखने लगा है। बस्तर की समस्या सुलझाने। में सरकार पूरी तरह असफल रही हैं। यहां गांव के गांव उजड़ गये और आदिवासी दोनो तरफ से मारे जा रहे हैं। मैदाली इलाको में धंधेबाजों ने माफिया राज चला रखा हैं। जिसका फायदा कांगे्रस केो मिलते दिख रहा हैं।
ग्राम सुराज की नौटंकी फिर शुरु हो रही हैं। हम ऐसे किसी भी आंदोलन के खिलाफ हैं जिसमें पैसे पानी की तरह बहाकर  राजनैतिक लाभ लेने की सरकारी कोशिश हो रही हों।
दरअसल ग्राम सुराज जनता तक पहुंचने का सशक्त माध्यम बताया जाता हैं। वास्तव में जब-जब दर्शन जैसे कार्यक्र म हो रहा हो तब ग्राम सुराज का कोई मतलब नहीं रह जाता। ग्राम सुराज के औचित्य पर तो उसी दिन प्रश्न लग चूका था। जब यहा मिलने वाली शिकायतों के निराकरण का मतलब संबंधित विभाग तक पहुंचा देना बस रह गया।
क्या सरकार के पास इस बात का जवाब है कि छत्तीसगढ़ में निर्माण के बाद आप आदमी को उसकी मुलभूत सुविधाएं ठीक ढंग से क्यों नहीं पहुचाई गई। विकास के नाम पर केवल शंहरों का विकास की कोशिश हुई। जब राजधानी जैसे जगह पर सरकारी स्कूलों को हाल बहतर हो, पीने के पानी के लिए रतजगा करना पड़े और सरकारी अस्पताल का हाल बहतर हो तब वह किस तरह दावा करता हैं कि विकास हुआ हैं।
दरअसल विकास के मायने बदल गयेे हैं। सड़क,स्कुल भवन व पंचायत भवन को विकास मतलब मुलभूत सुविधाएं उपलब्ध  कराना होता हैं। वह छत्तीसगढ़ मे कहीं नहीं दिखता। बल्कि भ्रष्टाचार से लबरेज अधिकारियों की सलाह पर काम हो रहे हैं जिन्हें हर हाल में राजधानी या शहरों में रहना हैं।                                    

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

ग्राम सुराज का सच...


हर साल की तरह इस साल भी रमन सरकार का ग्राम सुराज शुरू हो रहा है, करोड़ो रूपए फूंके जाएंगे, गांव-गांव में जाने की नौटंकी होगी और गांव वाले दमाशाबीन स्वयं को ठका सा महसूस करेंगे। लेकिन इस बार का अभियान थोड़ा अलग है, कांग्रेस वादा निभाने दबाव बनाएंगी तो सरकार कोयले की कालिख पोछने के अलावा अदिवासियों की पिटाई व हरिजनों के आरक्षण में कटौती की काट भी देखेगी।
पिछले साल की अभियान का कटु अनुभव रहा है अधिकारियों को कई जगह बंधक बनाए गए थे और इस बार कांग्रेस भी वादा निभाओं नारे के साथ कूद गई है। तब अभियान कैसे पूरा होगा, कहना कठिन है।
हर तरफ से गले तक भ्रष्टाचार में डूबी सरकार का यह अभियान तब चुनौतिपूर्ण हो जाता है जब सरकार के मुखिया डॉ रमन सिंह पर कोयले की कालिख पूती हो। सर्व आदिवासी समाज के पिटाई का मामला गर्म है जब सतनामी समाज भी बाह मोड़े खड़ा हो तब अधिकारियों के लिए गांव से चुपचाप लौट आना एक सुखद बात होगी।
वैसे हम इसी जगह पर कई बार यह बात कह चुके है कि ग्राम सुराज नौटंकी के अलावा कुछ और नहीं है। अधिकारियों के लिए पिकनिक और सैर करने का जरिया बन चुके इस अभियान से हमे तो नहीं लगता कि सरकार को भले ही राजनीतिक फायदा मिले, आम जनता का कुछ भला नहीं होने वाला है।
सालों से लंबित लोगों की दो-चार मांगें मान लेने और पटवारी, गुरूजी पर निलंबन की गाज गिराने वालों को सफलता कहने वालों को राजधानी में बैठे भ्रष्टाचार के मगरमच्छो की तरफ भी एक बार देख लेना चाहिए। मनोज डे से बाबूलाल अग्रवाल और न जाने कितने भ्रष्ट लोग मलाईदार पदों पर बैठे है। अपने करतूतो से बदनाम करने वाले संविदा में नौकरी कर रहे है। उनकी तरफ देखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिए।
सीएजी के रिपोर्ट ने सरकार के सच का जो खाल खिचा है। उसके बाद भी सरकार ग्राम सुराज के नाम पर संगीनों के साये में अपना राजनीतिक फायदा देख रही है तो इसे हम दिवालिया ही कहेंगे।

रविवार, 15 अप्रैल 2012

निर्मल दरबार हो या दिव्य दरबार सब जगह है पैसों का चमत्कार


 यह तो चमत्कार को नमस्कार करने वाली कहावत को ही चरितार्थ करता हैं। वरना आम लोग न निर्मल दरबार के झासे में आते न दिव्य दरबार के कथित चमत्कार पर आस्था रखते। इन दरबारों में पैसो का खेल इतने सहज ढंग से होने लगा है कि स्वयं के लूटे जाने का संदेह भी नहीं होता और ठगे जाने पर यह सोचकर व्यक्ति खामोश हो जाता है कि उनकी किस्मत ही फूटी है, वरना दरबार से कई लोगों को फायदा हुआ है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी में इन दिनों पंडोखर सरकार के दिव्य दरबार की चर्चा जोरों पर है। कागज के लिखा पढ़ी के इस खेल में नाम से लेकर मोबाईल नंबर और समस्या से लेकर उसके निजात का समाधान  दिव्य दरबार में होने का दावा किया जा रहा  है। 'बकौल पंडोखर सरकार बड़े-बड़े संस्थाओं और बादशाहों के दरबार काल के गाल में समा गए। क्योंकि वे व्यक्ति थे। व्यक्ति द्वारा अर्जित भौतिक संपदाओं का अस्तित्व सीमित होता है। लेकिन शक्ति का प्र्रभाव असीम न सर्वकालिन होता है। लगभग इसी तरह की बात इंदिरा गांधी के जमाने में धीरेन्द्र्र ब्रम्हचारी और चंद्रशेखर वीपी सिंह के जमाने में चंद्र्रास्वामी भी करते रहे है। इसके बाद आशाराम बापू से लेकर निर्मल बाबा के दरबार लगे और ये सभी इस किस लिए चर्चित हुए ये किसी से छिपा नहीं है। सत्ता के नजदीक जाकर चर्चित होना और पैसा कमाना इन दिनों बाबाओं का संगल बनकर रह गया है। निर्मल बाबा के चमत्कार ने तो इन दिनों पूरे देश में तहलका मचा कर रख दिया है। ठीक वैसा ही तहलका इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पंडोखर सरकार गुरूशरण महाराज ने मचा कर रख दिया है। बजरंग बली के आर्शीवाद से लबरेज गुरूशरण महाराज दावा करते है कि स्वास्थ समाज के निर्माण में लगे है और उन्हें सब कुछ पहले से निकले कागज में मिल जाता है। दरबार में पीडि़त व्यक्ति के कागज उठाते ही महाराज उनका नाम से लेकर समस्या तक हीं नहीं जानते बल्कि इन समस्या की मुक्ति का भी उपाय बताते है। उपाय में वे उन्हें अपने निवास स्थान किसी न किसी अमवस्या को बुलाते है। शादी  ब्याह में विलंब से लेकर बच्चा नहीं होने में फिर स्वास्थ्य ठीक करने से लेकर घर की समस्याओं से मुक्ति तक का दावा गुरूशरण महाराज करते नहीं थकते। बस पीडि़त को उनके कहे अनुसार दान धर्म करना है। दूसरे बाबाओं से स्वयं को अलग रखते हुए गुरूशरण महाराज कहते है कि आस्था के साथ खिलवाड़ करने वालों को इसका दुष्परिणाम भुगतना ही होगा। हमारे बेहद भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि गुरूशरण महाराज के दिव्य दरबार में जिस तरह का खेल चलता है वह लोगों को प्रभावित करने की रणनीति का हिस्सा है और गुरूशरण महाराज के यहां भी पैसों का बोल बाला है। यह अलग बात है कि  उनके पैसा लेने का तरीका अलग है, चूंकि उनके आने-जाने रहने-ठहरने की एवज में एक निश्चित रकम ली जाती है। यहीं नहीं दरबार में प्रवेश भले ही नि:शुल्क हो लेकिन पीडि़त उनकी बातों में आकर पंडोखर का दरवाजा तो खटखटा ही लेते है।  दूसरे बाबाओं को स्वयं को अलग रखने के बावजूद एक चीज तो तय है कि यहां भी पैसा बोलता है।
पैसा लिया जाता है तरीका भले ही अलग-अलग हो, विशिष्टों का विशेष ख्याल रखा ही जाता है। बहरहाल चमत्कार को नमस्कार की तर्ज पर इन दिनों राजधानी में निर्मल बाबा के बदनामी के बाद भी अपना खेल खेलने में गुरूशरण महाराज सफल हो रहे हैं।

निजी स्कूलो की दादागिरी...

  
 निजी स्कूलों की मनमानी पर सरकार कुछ नहीं करने वाली हैं। ऐसा नही हैं की सरकार कुछ नहीं कर सकती। चाहे तो सरकार सब कुछ कर सकती हैं।  लेकिन सरकार की मर्जी हैं। आखिर उनकी जेब कौंन भरेगा हल्ला मचाओगे तो सरकार बयान दे देगी की मनमानी नहीं चलने दी जाायेगी। बस।
छत्तीसगढ़ की राजधानी ही नहीं पूरे छत्तीसगढ़ में  निजी स्कूलों की दादागिरी किसी से छिपी नहीं हैं। दो-चार कमरों में लगने वाले स्कूलों का भी सरकार कुछ नहीं बिगाड़ पाती। मनमानी या दादागिरी और  इसे गुण्डा गर्दी भी कहा जा सकता हैं। लेकिन यह सरकार को नहीं दिखता।
इस साल फिर कुछ पालक निजी स्कूलों की इस गुण्डागर्दी के खिलाफ सामने आये हैं लेकिन यह डरा सकने वाला नहीं दिखता। साल दर साल पालकों की जेब से अधिक से अधिक पैसे निकाले जाने की उनकी तरकीब के आगे आम आदमी मजबूर इसलिए हैं क्योंकि सरकार स्कूल में पढ़ाई का माध्यम अंगे्रजी रखा ही नहीं हैं, स्कूलों में टीचरों की कमी हैं।
यही वजह हैं कि निजी स्कूलों की गुण्दागर्दी किसी चौराहों पर लूटपाट करने वाले या हफ्ता वसूलने वालों जैसे स्थिति में पहुंच गई हैं। क्या सरकार को यह नहीं मालूम हैं कि हर साल फीस में बढ़ोतरी के अलावा भवन मरम्मत से लेकर निर्माण के लिए भी पैसे वसूले जाते हैं। हर साल किताबें बदल दी जाती हैं और ये किताबें वही मिलती हैं जो दूकानदार स्कूलों को कमीशन देते हैं। ड्रेस भी अमूमन तय दुकानों से खरीदना पड़ता हैं जुता,चप्पल ,टाई, मोजा तक तय दुकानों से ही खरीदना पड़ता है और इन दुकानों से एक मोटी रकम कमीशन के रुप में स्कूलों में पहुंचती हैं। यह सब सरकार नहीं देख रही है ऐसा नहीं हैं। सरकार में बैठे लोंगो के बच्चे भी इन्हीं स्कूलों में पढ़ रहे हैं। लेकिन पैसे की भूख ने उनकी जमीर को इन निजी स्कूल वालों के पास गिरवी रख छोड़ा हैं। सालों से इसकी शिकायतें होती रहती हैं। सत्ता किसी की भी हो इस पर बंदिश नहीं लगा पाया। और अपना पेट काटकर अच्छी शिक्षा की चाह रखने वाले मां-बाप दुखी हैं। उनके पास वक्त भी नहीं है कि वे इसके खिलाफ खड़े हो सके निजी स्कूलों की दादागिरी ने उन्हें हालात से समझौता करने को मजबूर कर दिया हैं। सरकार निजी स्कूलों को इसी शर्त पर मान्यता देती है कि वे लाभ हानि से परे शिक्षा देंगे लेकिन कितने निजी स्कूल इस सिद्धांत पर चल रहे है और क्या सरकार को यह दिखाई नहीं दे रहा है कि किस तरह इस राज्य को शिक्षा माफिया ने जकड़ रखा हैं।
इस बार हल्ला मचा तो कमेटी गठित कर दी गई लेकिन कमेटी क्या इसे रोक पायेगी।
             

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

अंधेरगर्दी पर जीत...


विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने जिन कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया था वे लोग इस अन्याय के खिलाफ कानूनी लड़ाई जीत गये। हाईकोट ने विधानसभा अध्यक्ष श्री कौशिक के इस निर्णय को निरस्त कर इन कर्मचारियों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि बर्र्खास्तगी किसी कर्मचारी के विरूद्ध कड़ी सजा है और वे लोग काम पर लौट आए थे तब उन्हें बर्खास्त करना उचित नहीं है।  न्यायालय के इस फैसले ने राज्य सरकार के लिए एक लाईन खींच दी है कि वे किसी के साथ इतना अन्याय न करे कि उसे कानून की सहायता लेनी पड़े। दरसल 29 अप्रैल 2011 में विधानसभा के कर्मचारियों ने विधानसभा के सचिव देवेन्द्र वर्मा के नादिरशाही और अपनी मांगो को लेकर हड़ताल पर चले गए थे। यह किसी से नहीं छिपा है कि देवेन्द्र वर्मा किस तरह से सचिव बने है। मध्यप्र्रदेश आबंटन के बाद भी वे छत्तीसगढ़ में किस तरह से जमे हुए है और उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपो की भी कमी नहीं  है। सरकार का उन्हें पूरी तरह संरक्षण प्राप्त है और इसी के चलते देवेन्द्र वर्मा की दादागिरी चरम पर है। उनके कृत्यों से न केवल विपक्ष बल्कि सत्ता पक्ष के विधायक भी परेशान है और कर्मचारियों को अपनी जूती की नोंक पर रखने का दावा शहर की चौराहों में चर्चा का विषय है। सहनशक्ति बर्दास्त के बाहर होने की वजह से ही यहां के कर्मचारियों ने आंदोलन शुरू किया लेकिन इस आंदोलन को कूचल दिया गया। सरकार ने इस आंदोलन को कूचलने एस्मा कानून का सहारा लिया जबकि तब न तो विधानसभा का सत्र चल रहा था और न ही कोई विपदा आ पड़ी थी। लेकिन देवेन्द्र वर्मा के करतूतो को उजागर करते इस आंदोलन को समाप्त करने एस्मा लगाया गया।  एस्मा के खौफ के आगे कर्मचारी नतमस्तक होकर काम पर लौंट गए चूंकि इन कर्मचारियों ने देवेन्द्र वर्मा से पंगा लिया इसलिए काम पर लौटने के बावजूद भी इन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। इस अन्याय को लेकर कर्मचारी ने विपक्ष से लेकर सत्ता पक्ष के मंत्री, मुख्यमंत्री तक गए लेकिन उनकी इसलिए नहीं सुनी गई क्योंकि इन लोगों ने देवेन्द्र वर्मा के खिलाफ मोर्चा खोला था। और कम कहीं सुनवाई नहीं हुई तब न्याय मंदिर का दरवाजा खटखटाया गया जहां देर ही सहीं अंधेर नहीं है और कर्मचारियों के पक्ष पर फैसला आया।  अब देखना यह है कि इस फैसले पर देवेन्द्र वर्मा की क्या प्रतिक्रिया होती है। क्या अन्याय के खिलाफ लडऩे वालों को कूचलने का कोई और रास्ता अख्तियार किया जाता  है।
 

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

...का दमन!


 क्या अब भी भाजपा हाईकमान को नहीं दिखता कि छत्तीसगढ़ भाजपा में सत्ता के अन्यायपूर्ण निर्णय से निष्ठावान भाजपाई सहमें हुए है। वे खुश नही हैं। अनुशासन के डंडे से आखिर  कब तक हकाला जायेगा और सत्ता के लिए संगठन को सबको लेकर चलना होगा।
कोयला कि कालिख के बीच दो दिन चली भाजपाई चिंतन के बाद यही निष्कर्ष निकलकर बाहर आया कि सत्ता की दमदारी और हाईकमान  के संरक्षण ने प्रदेश भाजपा की एकता को तार -तार कर दिया हैं। दो दिन की बैठक को लेकर किसी में उत्साह ही नही था और इस बार भी उसी की चली जिसकी वजह से पर्चा फेंके जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने बैैठक को लेकर खुद स्वीकार किया कि बैठक में मौजुद 40 फीसदी लोग आपस में बाते कर रहे हैं। 30 फीसदी सो रहे हैं और 10-15 फीसदी को मतलब ही नही हैं यानी 10-15 फीसदी वे लोग हैं जो सरकार के मलाईदार पदों पर बैठे हैं या जिन्हें सत्ता से सुख की प्राप्ती हो रही हैं।
   मुख्यमंत्री डॉ. सिंह के इस कथनी के बाद तो प्रदेश भााजपा की स्थिति खुद ब खुद स्पष्ट हो गई हैं। कांगे्रस की बढ़ती सक्रियता और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार की बेचैनी जैसे-तैसे इस संकट से निपटने की हैं। यही वजह है की  बैठक में उन लोगों को बोलने तक नहीं दिया गया जिनसे थोड़ा भी खतरा था। पार्टी मंच से बात रखने  की वकालत करने वालों ने भी रमेश बैस, करूणा शुक्ला ,दिलीप सिंह जुदेव से जहमत नही उठाई

 इस दो दिन की बैठक औचित्य क्या था यह जुदेव के इस बयान से पता चलता है कि वे सो रहे थे। सबकुछ अपनी मर्जी से चलानी हैं तो फिर यह नौटंकी किसके लिए? यह एक ऐसा सवाल है जो भाजपा में फिर से तूफान खड़ा कर सकता हैं।
   केवल कमल मुख्यमंत्री या कांग्रेसियों से दूरी बनाकर चलने की कहानी से अब कार्यकर्ता उत्साहित नही होने वाले हैं। क्योकि आम कार्यकर्ता  यह समझ चुका हैं पर्चे की एक-एक बात सच हैं और सत्ता में ईमानदारों की भागीदारी   इस कॉकस के रहते नही होने वाली हैं।
रमेश बैस की पट्टा वाली टिप्पणी और दिलीप सिंह के बैठक में सोने की गुंज के बाद भी हाईकमान को लगता है कि छत्तीसगढ़ में सरकार  ठीक ठाक चल रही है तो हमें कुछ नही कहना हैं।  
                             
 क्या अब भी भाजपा हाईकमान को नहीं दिखता कि छत्तीसगढ़ भाजपा में सत्ता के अन्यायपूर्ण निर्णय से निष्ठावान भाजपाई सहमें हुए है। वे खुश नही हैं। अनुशासन के डंडे से आखिर  कब तक हकाला जायेगा और सत्ता के लिए संगठन को सबको लेकर चलना होगा।
कोयला कि कालिख के बीच दो दिन चली भाजपाई चिंतन के बाद यही निष्कर्ष निकलकर बाहर आया कि सत्ता की दमदारी और हाईकमान  के संरक्षण ने प्रदेश भाजपा की एकता को तार -तार कर दिया हैं। दो दिन की बैठक को लेकर किसी में उत्साह ही नही था और इस बार भी उसी की चली जिसकी वजह से पर्चा फेंके जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने बैैठक को लेकर खुद स्वीकार किया कि बैठक में मौजुद 40 फीसदी लोग आपस में बाते कर रहे हैं। 30 फीसदी सो रहे हैं और 10-15 फीसदी को मतलब ही नही हैं यानी 10-15 फीसदी वे लोग हैं जो सरकार के मलाईदार पदों पर बैठे हैं या जिन्हें सत्ता से सुख की प्राप्ती हो रही हैं।
   मुख्यमंत्री डॉ. सिंह के इस कथनी के बाद तो प्रदेश भााजपा की स्थिति खुद ब खुद स्पष्ट हो गई हैं। कांगे्रस की बढ़ती सक्रियता और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार की बेचैनी जैसे-तैसे इस संकट से निपटने की हैं। यही वजह है की  बैठक में उन लोगों को बोलने तक नहीं दिया गया जिनसे थोड़ा भी खतरा था। पार्टी मंच से बात रखने  की वकालत करने वालों ने भी रमेश बैस, करूणा शुक्ला ,दिलीप सिंह जुदेव से जहमत नही उठाई
  ...का दमन!
 इस दो दिन की बैठक औचित्य क्या था यह जुदेव के इस बयान से पता चलता है कि वे सो रहे थे। सबकुछ अपनी मर्जी से चलानी हैं तो फिर यह नौटंकी किसके लिए? यह एक ऐसा सवाल है जो भाजपा में फिर से तूफान खड़ा कर सकता हैं।
   केवल कमल मुख्यमंत्री या कांग्रेसियों से दूरी बनाकर चलने की कहानी से अब कार्यकर्ता उत्साहित नही होने वाले हैं। क्योकि आम कार्यकर्ता  यह समझ चुका हैं पर्चे की एक-एक बात सच हैं और सत्ता में ईमानदारों की भागीदारी   इस कॉकस के रहते नही होने वाली हैं।
रमेश बैस की पट्टा वाली टिप्पणी और दिलीप सिंह के बैठक में सोने की गुंज के बाद भी हाईकमान को लगता है कि छत्तीसगढ़ में सरकार  ठीक ठाक चल रही है तो हमें कुछ नही कहना हैं।  
                             

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

दूसरों को गाली देने से खुद के पाप नहीं धूलतेइन दिनों पूरे देश में राजनीति के मायने बदल गए हैं। किसी फिल्म में कादर खान ने राजनीति ने मायने बताए थे कि रा से राक्षस की तरह जनता को निकलने वाला यह तिकड़मबाज डायलॉक वर्तमान राजनीति में कितना फिट बैठता है यह तो जनता तय करेंगी। लेनिक जिसकी राजनीति इन दिनों चल रही है। वह घोर निराशाजनक है। चोरी और सिना जोरी की पराकाष्ठा पार कर रही है और आम आदमी इस स्थिति से हैरान है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी के करीब राज्यसभा सदस्य अजय संचेती की कंपनी को कोल ब्लाक आबंटित करने के मामले में कुछ इसी तरह की राजनीति चल रही है।  कल तक सीएजी की रिपोर्ट को मुख्य हथियार बना कर केंद्र में कांग्रेस को घेरने वाली भारतीय जनता पार्टी आज छत्तीसगढ़ में सीएजी की रिपोर्ट को बेशर्मी पूर्वक नाकार रही है। सिर्फ नाकारा ही नहीं जा रहा है बल्कि कांग्रेस के करतूतो पर प्रहार कर अपनी करतूतों को छोटा बनाने का खेल खेला जा रहा है।
हम यह कतिये नहीं कह रहे है कि कांग्रेस के करतूतों पर पर्दा डाला जाए हमे तो सिर्फ यह कहना है कि दूसरे के पाप गिनाने से स्वयं के पाप न कम होते है और न ही धूल जाते है। कांग्रेस की करनी की वजह से ही छत्तीसगढ़ की जनता ने भाजपा को जिताया है। यह बात भाजपा को नहीं भूलनी चाहिए कि जनता सब देख रही है। कि किस तरह से छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार बढ़ा है। सरकार के अमूमन हर विभाग में अधिकारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार के किस्से रोज सुनाई पड़ रहे है आज जरूरत है इस स्थिति में सुुधार करने की लेकिन  उल्टा कांग्रेस को गरियाया जा रहा है। कांग्रेस की खामियां गिना कर सत्ता में आने के लिए भाजपा को चाल चेहरा और चरित्र को सुधारना होगा। सत्ता में आने से पहले दिये गये इस नारे का छत्तीसगढ़ में क्या हुआ है। किसी से छिपा नहीं है। चाल तो बिकाड़ा ही अब चेहरों पर भी कालिख पूतने लगी है जब चाल और चेहरे ठीक  न हो तो चरित्र पर उंगली उठाना स्वाभाविक है। भाजपा को समझना होगा कि राजनीति में सुचिता सिर्फ बोलने से नहीं होती है। जिसके लिए त्याग भी करने होते है और एक बार फिर एक बार यह बात दोहरा दूं कि दूसरे के पाप गिनाने से खुद के पाप कम नहीं होते।

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

सरकार की शिकायत


पता नहीं छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है? सब कुछ उल्टा-पुल्टा चल रहा हैं। कोयले की कालिख ने सरकार का हुलिया ही बिगाड़ दिया है। जिन   नौकरशाहों से काम लेने यहां की जनता ने जिस सरकार को चुना है उन्हें ही नौकरशाहों की शिकायत करनी पड़ रही है। नौकरशाह इस कदर हावी है कि सरकार के मुखिया तमाशाबीन बने हुए है। गृहमंत्री को वैसे तो मुख्यमंत्री के बाद सबसे ताकतवर माना जाता है लेकिन छत्तीसगढ़ में उनकी स्थिति इतनी कमजोर है कि उन्हें अपने ही जिले के कलेक्टर की मुख्य सचिव से शिकायत करनी पड़ रही है। ये वहीं गृहमंत्री है जो कभी तख्ता पलटने का दंभ भरते थे। लेकिन अब लाचार है। मुख्यमंत्री के जिले में जाकर कलेक्टर को दलाल और एसपी को निकम्मा कहते हैं तो कभी डीजीपी पर क्रोध करते हैं। विधानसभा में थानों के शराब ठेकेदारों के हाथों बिकने की बात करते हैं। तब आम लोगों का यह सोचना लाजिमी है कि आखिर छत्तीसगढ़ में हो क्या रहा है।
गृहमंत्री के बयानों के बाद एक बात तो तय है कि यहां सरकार नौकरशाह चला रहे हैं? जिनके आगे किसी की नहीं चलती। यह जांच का विषय हो सकता है कि गृहमंत्री व अन्य मंत्रियों की लगातार शिकायतों के बाद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह खामोश क्यों हैं। नौकरशाहों को टाईट क्यों नहीं करते लेकिन इसके पीछे ही जनचर्चा सरकार व भाजपा दोनों के लिए खतरनाक है। जनचर्चा के मुताबिक गले तक भ्रष्टाचार और एक-दूसरे की पोल पट्टी जानने की वजह से यहां नौकरशाह हावी है?
इस जनचर्चा को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। प्रदेश के मुख्यमंत्री को अपने मंत्रियों पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए। ये ठीक है कि नौकरशाह के भरोसे के बगैर सुचारू ढंग से काम नहीं हो सकता लेकिन भरोसे का मतलब स्वेच्छा चरिता की छूट नहीं होनी चाहिए।
मुख्यमंत्री को भी नौकरशाहों की तरह अपने मंत्रियों पर भी भरोसा करना चाहिए क्योंकि मंत्रियों की छवि से ही सरकार की छवि बनती है और यदि अधिकारी मंत्रियों की नहीं सुनेंगे तो यह अच्छा संदेश नहीं होगा। गृहमंत्री के बयान के पीछे तो वजह को मुख्यमंत्री को भी समझना होगा।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

काट डालेंगे जुबां अब चुप भी रहो...


छत्तीसगढ़ में इन दिनों राजनैतिक गरमी उफान पर है। सीएजी की रिपोर्ट ने तो आग में घी का काम कर दिया है, सरकार अपनी मनमानी पर उतर आई है और भाजपा के नेताओं को गलत का विरोध करने से रोका जा रहा है। सरकार की वजह से पार्टी की छवि खराब हो रही है लेकिन अनुशासन के डंडे ने जुबान पर ताला जड़ दिया है। भाजपा के निष्ठावान नेताओं की बेचैनी देखते ही बन रही है और जिन्होंने बेशर्मी ओड़ रखी है उनसे कोई जब इस पर चर्चा करना चाहे तो वे यह कहकर अपनी बात रखते हैं कि आजकल तो सभी चोर हैं। या कांग्रेस ने कम लूटा है। या विरोधी कौन सा दूध का धूला है।
छत्तीसगढ़ में चल रहे इस राजनैतिक गरमी को लेकर एक वर्ग चिंतित है कि आखिर ये सब क्या हो रहा है। कल तक सरकार के जिस मुखिया की छवि को लेकर दुनिया भर के दावे किये जाते थे अचानक वह इतना बदरंग कैसे हो गया। विरोधी तो हमेशा ही बोलते रहते है फिर ननकी राम कंवर, दिलीप सिंह जूदेव रमेश बैस से लेकर करुणा शुक्ला भी क्यों बोलने लगे हैं और जब ये बोल चुके तब इनका मुंह क्यों बंद कराया गया। शब्द जब मुंह से बाहर आ जाते हैं तब उसे लौटाया नहीं जा सकता लेकिन भारतीय राजनीति में बेशर्मी इस हद तक बढ़ गई है कि अपने कहे पर लीपापोती करने मीडिया पर दोष मढ़ दिया जाता है।
छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी वर्तमान में जिस दौर से गुजर रही है वैसा  कभी नहीं हुआ। सत्ता के आगे संगठन नतमस्तक है और कुर्सी बचाने हाईकमान के नाजायज मांगे भी पूरी की जा रही है। आम कार्यकर्ता हताश होते जा रहे हैं और एक खास गुट को ही लाल बत्ती से लेकर दूसरे काम दिये जा रहे हैं। असंतोष हावी है लेकिन अनुशासन का डंडा इतना मजबूत कर दिया गया है कि आम कार्यकर्ता भी गलत को गलत नहीं कह पा रहा है। सरकार की मनमानी की वजह से शर्मिन्दगी भी तो कार्यकर्ताओं को ही उठानी पड़ती है।
छत्तीसगढ़ भाजपा में भीतर ही भीतर सुलग रहे इस आग को बुझाने सब बड़ी सर्जरी की जरूरत आ पड़ी है। इसे पार्टी नेतृत्व को गंभीरता से सोचना होगा कि आखिर बेलगाम नौकर शाह भ्रष्ट सरकार और हताश कार्यकर्ता के सहारे चुनाव जीतना तो दूर जमानत बचा पाना मुश्किल होता है।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

फिर निलंबन क्यों किया...


छत्तीसगढ़ सरकार ने राजस्व मंगल में हुए घपलेबाजी के लिए दोषी मानते हुए आईएएस राधाकृष्णन् को निलंबित किया था ओर पांच महीने बाद ही इस अधिकारी का निलंबन समाप्त कर दिया। इस आईएएस अधिकारी को सरकार ने जिस वजह से निलंबित कर रखा था वह स्थिति अभी भी वैसे की वैसी है। घपलेबाजी में सिर से पांव तक डूबी सरकार के पास किसी भी बात का जवाब नहीं है। बगैर कार्रवाई के अधिकारी मजे से काम कर रहे हैं।
दरअसल सरकार ने अपनी यह नीति बना रखी है कि घपलेबाजी में नाम कमाओं महत्वपूर्ण पद पाओं। राजस्व मंडल के जिस घोटाले के लिए आईएएस राधाकृष्णन् को निलंबित किया गया था वह  मामला बेहद गंभीर है। आदिवासियों की जमीन को बेचे जाने के इस मामले पर जब हल्ला हुआ तो आईएएस राधाकृष्णन् को निलंबित कर दिया गया और जब माहौल शांत हो गया तो निलंबन वापस।
सरकार का यह खेल आश्चर्यजनक ही नहीं दुर्भाग्यजनक है। जांच के नाम  पर कभी वह अधिकारियों को बचा ले जाता है तो कभी ईमानदार अधिकारियों को प्रताडि़त किया जाता है। विवादास्पद अधिकारियों की फेहरिश्त लंबी होते जा रही है और सरकार कार्रवाई की बजाय लीपापोती में मशगुल है। रोगदा बांध के आरोपी जाय आम्मेन का मामला हो या मनोज डे से लेकर बाबूलाल अग्रवाल का मामला हो। बगैर जांच रिपोर्ट के महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से नवाजा जाना कितना उचित है और इसका क्या अर्थ लगाया जायेगा इससे सरकार को कोई मतलब नहीं है।
छत्तीसगढ़ में जमीनों के घोटाले की स्थिति गंभीर है। उद्योगों से लेकर बिल्डर जमीन हडऩे में लगे हैं ऐसे में सरकार को इस पर गंभीरता से कार्रवाई करनी चाहिए। अदिवासियों की जमीन हस्तांतरण का मामला तो और भी गंभीर है। भोले-भाले आदिवासियों से कौडिय़ों के मोल जमीन खरीदकर लूटने का सिलसिला थम नहीं रहा है और उपर से सरकार कार्रवाई की बजाय आरोपियों को संरक्षण देने में लगी है।
आईएएस अधिकारी के निलंबन समाप्ति से कई सवाल खड़े हो गये हैं। कि आखिर सरकार को निलंबन समाप्त करने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? जबकि अभी तक इस मामले में पूरी तरह से न जांच हुई न कार्रवाई। बाबूलाल अग्रवाल का निलंबन भी ऐसे ही हड़बड़ी में किया गया था।

रविवार, 8 अप्रैल 2012

शुभ संकेत नहीं..


प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह इन दिनों संकट में हैं। कांग्रेस ने यहां कोयले की कालिख पर मोर्चा खोल दिया है वहीं भाजपा में भी बगावत की चिंगारी फूटने लगी है। यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। पिछले 7-8 सालों से अपनी एकतरफा चला रहे डॉ. रमन सिंह के लिए यह चुनौती आसान नहीं है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा का जनाधार अब यदि कमजोर पड़ता जा रहा है तो इसकी वजह डॉ. रमन सिंह और उसकी पूरी टीम है। सत्ता में बैठे लोगों की लूट-खसोट की चर्चा चौक-चौराहों पर होने लगी है और जिन पर नकेल कसने की जिम्मेदारी है वे भी अपने करीबियों के माध्यम से ठेकेदारी में मशगूल हो तो फिर पार्टी के आम कार्यकर्ताओं का गुस्सा स्वाभाविक है।
भाजपा में असंतोष तो तभी से दिखाई देने लगा था जब पहला गुमनाम पर्चा जारी हुआ लेकिन तब इसे यह कह कर हल्के में लिया गया कि यह रमन विरोधियों की चालबाजी है लेकिन एक के बाद एक पर्चे आते गये और एक के बाद एक घोटाले की कहानी भी आनी शुरू हो गई। असंतोष तब बढ़ गया जब सादगी के साथ जनसेवा का नारा अभिषेक के विवाह समारोह के रूप में बाहर आया। कार्यकर्ता दबी जुबान कहने लगे ऐसी शादी की क्या जरूरत थी। आखिर जनता में इसका क्या संदेश जायेगा। मुख्यमंत्री बनते ही डॉक्टर साहब के पास पैसा कहां से आ गया और कब तक चापूलसों को ही लालबत्ती दी जायेगी।
इस चर्चा को भी अनुशासन के डंडे ने बाहर आने से रोक दिया। मंत्रियों के खर्चे और अधिकारियों की मनमानी के किस्से आम लोगों तक पहुंचने लगे और जब सीएजी की रिपोर्ट ने सरकार की करतूत पर से परदा उठाया तो पार्टी कार्यकर्ताओं में बगावत की चिंगारी फूटने लगी। कांग्रेस के तेवर से भाजपा के हितचिंतकों में सरकार के प्रति गुस्सा दिखने लगा है। श्रीमती करुणा शुक्ला और रमेश बैस ने अपनी सरकार के बारे में इतना कहा कि विपक्ष के लिए भी नहीं किया जाता। कांग्रेस से तो भाजपा निपट लेने की तैयारी की कर सकती है लेकिन जब वे स्वयं सरकार के करतूतों से खुश नहीं है तब आधे अधूरे मन से कैसे मुकाबला होगा। सौदान सिंह से लेकर रामप्रताप और जयप्रकाश नड्डा से लेकर गडकरी पर जिस तरह से सरकार के सदुपयोग-दुरूपयोग की चर्चा छिड़ी है यह भाजपा के लिए शुभ संकेत कतई नहीं है।

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

दाग अच्छे क्यों है...


कल तक एक सहज सुलभ और साफ सुधरे छवि के लिए पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को न केवल बिजली का झटका लगा है बल्कि उन पर कोयले की कालिख पूत गई है। और उनका नाम भी दागी नेताओं के फेहरिश्त से जुड़ गया है। लेकिन राजनीति इन सबको बहुत पीछे छोड़ चली है। जनता जानती है कि सभी पार्टी में इस तरह के लोग हैं और कोई दूध का धूला नहीं है।
डॉ. रमन सिंह पर उंगली उसी दिन से उठने लगी थी जब ओपन एक्सेस घोटाले से लेकर रतन जोत में घपलेबाजी सामने आई थी लेकिन भाजपा को जिस तरह से अपने इस योद्धा पर पहले भरोसा था वैसा आज भी है। डॉ. रमन सिंह पर तो तब भी उंगली उठाये गये थे जब उन्हें अपने पुत्र अभिषेक की शादी किसी राजा महाराजा की तर्ज पर किया था। लेकिन तब यह कहकर उन सवालों के मुंह में ताला जड़ दिया गया था कि इनमें होने वाले खर्च ड़ॉ. साहब स्वयं नहीं कर रहे है बल्कि उनके शुभचिंतक कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया पर ही जब उनके विभागों की कारगुजारी सामने आ रही है। कुर्सी में बने रहने अपने अध्यक्ष को खुश करने किसी भी हद तक जाने की बात सामने आ रही हो तब दूसरे मंत्रियों से कोई किस तरह उम्मीद कर सकता है। वनमंत्री विक्रम उसेंडी के भाई ने जिस तरह से जंगल काटने में कमी नहीं रखी। इस सरकार ने जिस तरह रोगदा बांध बेच दिया क्या यह किसी से छिपा है लेकिन राजनीति में अब न सुचिता का मतलब है और न ही चाल चेहरा और चरित्र ही मायने रखता है। छत्तीसगढ़ में अथाह पैसा है और इसका भरपूर दोहन स्वयं के फायदे के लिए जनप्रतिनिधि करने लगे है। जिस तरह से एक के बाद एक रमन सरकार भ्रष्टाचार में घिरते चली जा रही है। इसके बाद तो आने वाले दिनों की रक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना ही की जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि दाग सिर्फ डॉ. रमन पर ही अच्छे लग रहे हैं। कांग्रेस में भी यही हाल है जब किसी प्रदेश का नेता प्रतिपक्ष सरकार का 14 वां मंत्री कहलाये तो इसका अर्थ समझा जा सकता है। कांग्रेस के पदाधिकारी मंत्रियों से महिना लेने लगे तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वे भी सरकार के लूट के भागीदार हैं और वे  ऐसा कुछ नहीं करने वाले हैं जिससे आम जनता को राहत मिले।
चोर-चोर मौसेरे भाई  की तर्ज पर जिस तरह से जनप्रतिनिधियों ने अपने को अधिकारियों की गोद में बिठाकर उद्योगपतियों की दलाली करने लगे है और इस पर खबर नहीं छपना मीडिया पर भी उंगली उठाने वाला है। यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया आज भी उतनी करप्ट नहीं है और मुुद्दे को उठाने से परहेज नहीं करती है लेकिन जब दाग सभी पर लगने लगे तो जनता आखिर क्या करे?

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

विभागीय जांच के मायने...


हाईकोर्ट ने 16 साल से जारी विभागीय जांच को निरस्त कर दिया। पंचायत एवं ग्रामीण यांत्रिकी में पदस्थ सब इंजीनियर के एस राजपूत को पिछले 16 साल से विभागीय जांच के चलते न तो पदोन्नति का लाभ मिल रहा था और न ही अन्य सेवा का ही लाभ मिल रहा था।
यह खबर दिखने में जितनी छोटी है। मामला उतना ही गंभीर है। ऐसा नहीं है कि कोर्ट जाने से पहले राजपूत ने अपनी व्यथा मंत्री-अधिकारी से नहीं की होगी लेकिन जब संवेदनहीनता प्रताडऩा के हद तक बढ़ जाती है तब ही एक शासकीय सेवक को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखराना पड़ा होगा.
यह सरकार के कार्य प्रणाली पर उंगली उठाने लिए काफी है। कोई व्यक्ति को 16 साल तक न्याय से वंचित रखना घोर आपत्तिजनक है। जनप्रतिनिधियों का काम यह भी है कि सरकारी सेवा करने वालों को प्रताडि़त न होना पड़े और उनके गड़बड़झालों की सजा तत्काल मिले लेकिन पैसों की भूख न नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को भी तार-तार कर दिया है।
छत्तीसगढ़ में ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जहां ईमानदारों को प्रताडि़त होना पड़ रहा है और बेईमानों को महत्वपूर्ण पदों से नवाजा जा रहा है। आई पीएस राहुल शर्मा से लेकर शशि मोहन सिंह जैसे कितने ही उदाहरण है जिन्हें उनकी ईमानदारी के चलते प्रताडि़त किया गया और मनोज डे से बाबूलाल अग्रवाल जैसे कितने उदाहरण है जिन पर आरोपं के बाद भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई।
हाईकोर्ट का यह फैसला एक नई रेखा तो खिंची ही है। सरकार में बैठे लोगों के लिए चेतावनी भी है कि ने विभागीय जांच समय सीमा में कर न्याय करें क्योंकि डीले जस्टिज नॉट ए जस्टिज होता है।
सरकार के द्वारा विभागीय जांच में विलंब से बेईमानों को बचने का मौका भी मिलता है। पंजीयक उपायुक्त की फाईल तो तब तक रोक दी गई जब तक वे रिटायर्ड नहीं हो गये। रोगदा बांध के आरोपी के तो स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ही ले ली और भी ऐसे कई उदाहरण है जब सरकार ने जांच के नाम पर आरोपियों को बचाने व ईमानदारों को प्रताडि़त करने का उपक्रम किया है।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को तोड़ती हाईकोर्ट के इस फैसले ने ईमानदारों के लिए नया रास्ता खोला है कि आखिर एक आदमी को उसे मिलने वाले लाभ से 16 साल तक कैसे रोका जा सकता है।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

विस में भी सिर्फ राजनीति...


छत्तीसगढ़ विधानसभा का बजट सत्र 9 दिन पहले समाप्त हो गया। 9 दिन पहले समाप्त क्यों हुआ। यह कोई नहीं जानता? और किसी को जानने का अधिकार भी नहीं है। और वैसे देखा जाये तो यह ठीक भी हुआ। जब इस पवित्र मंदिर में बैठकर कुछ होना ही नहीं है। छल-प्रपंच ही करना है और सिर्फ राजनीति ही करनी है तब पैसों की बर्बादी क्यूं?
वैसे भी यह बजट सत्र था। और बजट पास हो जाने के बाद इसे चलाये रखने का कोई मतलब भी नहीं निकलता। आखिर कब यहां जनता से वास्ता रखने वाले मुद्दे उठाये जाते है। कब दोषियों को सजा दी जाती है और ऐसा जब कुछ नहीं होने वाला है तब इसे लंबा क्यूं खिंचा जाना चाहिए। हालांकि हम तो हर माह के आखरी सप्ताह में विधानसभा के सत्र लगाये जाने के पक्षधर हैं लेकिन तब जब यहां सारगर्भित चर्चा हो, छल प्रपंच न हो और भ्रष्टाचारियों को सजा मिले।
छत्तीसगढ़ में राजनैतिक सुचिता की दुहाई देने वाली भाजपा सरकार उसी मुददे पर चर्चा करने को तैयार नहीं है जिस सीएजी के मुद्दे पर उनका राष्ट्रीय नेतृत्व लोकसभा ठप्प कर देता है। रोगदा बांध जैसे कांड पर जांच पूरी नहीं हो पाने पर सवाल नहीं उठते। वनमंत्री के परिवार जंगल काट रहे हैं लेकिन यह भी मुद्दा नहीं है। लापरवाह प्रशासन तंत्र के चलते आम लोगों की जान जोखिम में है और चौतरफा लूट खसोट के चलते आम आदमी का जीना दूभर होता चला जा रहा है इस पर भी सत्ता पक्ष चर्चा तक को तैयार नहीं है। बेशर्मी इतनी कि अपने पार्टी व परिवार के लोगों को करोड़ों की जमीनें कौडिय़ों में दी जा रही है। और प्रदेश के मुखिया के विभाग की लापरवाही और भ्रष्टाचार के चलते छत्तीसगढ़ को हजारों करोड़ों का घाटा हो रहा है। इस पर सरकार चर्चा नहीं करना चाहती तब इनसे कार्रवाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
विधानसभा के इस बजट सत्र के 9 दिन पहले समाप्त करने के निर्णय पर विस अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने यह कहकर खुशी जाहिर की कि सदस्यों ने संसदीय परंपरा का मान रखा। लेकिन जनता से पूछिए? उसकी प्रतिक्रिया सुननी पड़ेगी। आज नहीं तो चुनाव में जनता एक-एक सवाल का जवाब न केवल सरकार से पूछेगी बल्कि कांग्रेस से भी पूछेगी कि वह उन मुद्दों पर कैसे चुप रह गई। रविन्द्र चौबे को रमन सरकार का 14 वां मंत्री क्यों कहा जाता है? और जब सेटिंग ही करनी है तो अलग-अलग चुनाव चिंह को लेकर जनता को गुमराह क्यों किया जा रहा है। जब मुुद्दे बाकी थे तब 9 दिन पहले विधानसभा समाप्त करने के निर्णय पर सहमति क्यों दी गई? और यदि यह विधानसभा या सरकार का फैसला है तो सड़क में लड़ाई क्यों नहीं की गई।

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

हालात काबू से बाहर...


छत्तीसगढ़ सरकार में अनियमितता इस कदर बढ़ गई है कि पता ही नहीं चल रहा है कि यहां सरकार नाम की भी कोई चीज है। सीएजी की रिपोर्ट ने तो साबित ही कर दिया है कि इस सरकार की वजह से छत्तीसगढ़ को भारी घाटा हुआ है। अकेले मुख्यमंत्री के विभाग के कारनामों की वजह से छत्तीसगढ़ को हजार करोड़ से ऊपर का घाटा हो गया है। हालत यह है कि वित्तीय प्रबंधन के क्षेत्र में सरकार तो असफल रही है कानून व्यवस्था भी पूरी तरह चरमरा गई है। संवेदनहीनता चरम पर है और अफसरों ने चंडाल चौकड़ी खड़ी  कर रखी है। बेईमान महत्वपूर्ण पदों पर बैठ गए हैं और ईमानदार प्रताडि़त हो रहे है।
आईपीएस राहुल शर्मा की मौत की कालिख अभी सरकार  के माथे से छुटी भी नहीं है कि एक अन्य आईपीएस बीएस मरावी की मृत्यु ने सरकार के काम काज पर सवाल खड़ा किया है।
पहला सवाल तो यही है कि जिस व्यक्ति के सिर में गोली लगी हो और पिछले दो-तीन सालों से बीमार जैसी स्थिति में हो उसके प्रति संवेदनहीनता क्यों? दूसरा सवाल तो यह खड़ा होता है कि जब मरावी ने अपनी तबियत को लेकर बिलासपुर जाने से मना कर दिया था तब एक बीमार व्यक्ति को इतनी तनावग्रस्त इलाके में क्यों भेजा गया जहां जाकर अच्छा भला आदमी राहुल शर्मा को मौत को गले लगाना पड़ा।
क्या बिलासपुर संभाग पूरी तरह माफियाओं का गढ़ बन चुका है यहां सरकार माफियाओं को संरक्षण दे रही है जिसके चलते ईमानदार आदमी को काम करना मुश्किल हो गया है।
बिलासपुर से जिस तरह की खबरें आ रही है वैसा छत्तीसगढ़ में कभी नहीं हुआ कोल माफिया, लोहा माफिया शराब और जमीन माफिया का पूरी तरह पुलिस पर यहां कब्जा हो चुका है। वे जो चाहते हैं वहीं होता है। फिर सरकार कहां है। क्या उद्योगों को जमीन नहीं देने वाले शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों को लाठी मारने और उन्हें जेल में ठूंस देने से कानून व्यवस्था सुधर जाती है। सरकार में बैठे एक-एक लोगों के संरक्षण ने बिलासपुर की हालत काबू से बाहर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखा है।
ऐसी स्थिति में क्या वहां ऐसे अधिकारियों को भेज कर छूट देने की जरूरत नहीं है कि वे माफियाओं पर नकेल कसे। लेकिन जब माफियाओं के साथ मुखिया का नाम भी सामने हो तो हालात काबू में कैसे हो सकता है।
राजधानी में ही मंत्रियों व अधिकारियों को उन लोगों के साथ गलबहिंया करते देखा जा सकता है जिन पर हत्या या अपने  लठैतों से हत्या करवाने जैसे आरोप हैं। क्या मुख्यमंत्री को इन परिस्थितियों को नहीं समझना चाहिए की उनके गृहमंत्री शराब ठेकेदारों के हाथों थाने बिकने की बात क्यों कह रहे हैं। उनके गृहमंत्री कैसे कलेक्टर को दलाल और एसपी को निकम्मा कह रहे हैं क्या इस पर जांच नहीं होगी चाहिए। क्या गरीबों की आंखे फोडऩे वालों की सूचना तक नहीं देने वालों को बर्र्खाश्त नहीं कर देना चाहिए।
ये सारे सवाल बता रहे हैं कि हालात काबू से बाहर है और यही हाल रहा तो आज सिर्फ नाच देखकर रुपये लुटाये जा रहे हैं कल इस प्रदेश का भी वहीं हाल कर दिया जायेगा।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

वाह रे स्वास्थ्य मंत्री..

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अभी बालोद नेत्र कांड के बाद अब दुर्ग जिला अस्पताल में भी सात मरीजों की आंख खराब हो गई। ऊपर से तुर्रा यह है कि स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल को इसकी जानकारी तक नहीं थी।
छत्तीसगढ़ में ये क्या हो रहा है। मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह तो बेहद सीधे व सरल व्यक्ति हैं। उनमें ईमानदारी कूट-कूट कर भरी है और यही वजह है कि उन्हें ये हो रहे कुकर्मों की जानकारी ही नहीं मिल पाती। नंगा नाच करवा रहे हैं और सौदान सिंह हो या रामप्रताप सिंह उन्हें तो केवल सच्चे मुख्यमंत्री नजर आते हैं जिनके चेहरे सामने रख चुनाव जीता जा सकता है।
खेती की जमीन उद्योगों को देने की बात  हो चाहे कितने भी घोटाले हो, बेलगाम अफसरशाही से क्या फर्क पड़ता है चेहरा चुनाव जीतने के लिए है न हमारे पास। शायद इसी सोच के चलते मंत्रियों की विभागीय पकड़ कमजोर हो गई है। कायदे से इस खबर के बाद स्वास्थ मंत्री को तत्काल कड़े निर्णय लेने की हम जरूरत समझते हैं और जांच तो चलते रहती। एक तरफ जब नेत्र दान को लेकर चलाये जा रहे अभियान पर लाखों करोड़ों खर्च किये जा रहे हों तब दूसरी तरफ इस तरह की लापरवाही अक्षम्य है और तत्काल जिला अस्पताल के डाक्टरों पर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। कार्रवाई इस बात पर भी तत्काल हो सकती है कि इतनी बड़ी घटना की सूचना मंत्री को क्यों नहीं दी गई। सालों से जमें डाक्टरों की स्थिति तालाब के सड़ते पानी की तरह को भी सोचना होगा। स्वास्थ्य मंत्री यह कहकर बच नहीं सकते कि उन्हें जानकारी नहीं है। जब जानकारी मिली तब वे क्या कर रहे हैं। बालोद नेत्र कांड की जानकारी भी तो उन्हें मिली थी तब उन्होंने क्या किया। क्या दोषी डॉक्टरों को बचाने व पैसा खाने का उपक्रम नहीं हुआ है।
मुख्यमंत्री भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। जब किसी मंत्री के विभाग में एक के बाद एक घटना दुहराई जाये तो ऐसे मंत्रियों को क्यों उस विभाग की जिम्मेदारी दी जाए। बल्कि हम तो एक कदम आगे जाकर कहना चाहेंगे कि विभाग पर पकड़ नहीं रखने वाले मंत्रियों को हटा दिया जाना चाहिए।
बालोद नेत्र शिविर में 48 मरीजों की आंखे खराब होने के बाद दुर्ग जिला चिकित्सालय में 7 मरीजों की आंखे खराब हो गई। यह खबर किस तरह भयावह है इसे सोचकर रुह कांप जायें पर स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल का कहना है कि जांच की जायेगी फिर दोषियों पर कार्रवाई होगी।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों यहीं हो रहा है। अधिकारी से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, सबके विभाग में जांच चल रही है और परिणाम आने पर ही कार्रवाई होगी। तब तक सभी को खामोश रहने की जरूरत है। यदि सरकार चुन कर आई है तो उस पर इतना भरोसा तो किया ही जाना चाहिए कि जांच के बाद कार्रवाई जरूर होगी।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

फेल होती पीएससी परीक्षा...


 परीक्षा के दूसरे दिन ही पीएससी अध्यक्ष डॉ. जोशी के संघ मुख्यालय जाने को लेकर विवाद के बाद यूपीएससी के समाज शास्त्र का पूरा पर्चा हू ब हू छापे जाने को लेकर सवाल उठने लगे हैं। पहले ही विवादों में रहे पीएससी परीक्षा का यह विवाद दुर्भाग्यजनक है। संस्कारवान संघ के पीएससी अध्यक्ष डॉ. प्रदीप जोशी ही नहीं पूरी सरकार ही कटघरे में हैं कि आखिर यूपीएससी का पूरा का पूरा पर्चा दी गई। क्या इसके पीछे कुछ लोगों को पास करने की साजिश है।
पीएससी की परीक्षा में विवाद तो उसी दिन शुरू हो गया था जब इसके अध्यक्ष ने रविवार को परीक्षा होने के बाद मंगलवार की सुबह-सुबह लाव लश्कर के साथ संघ मुख्यालय पहुंच गए थे। तब यह चर्चा भले ही विधानसभा में यह कह कर समाप्त कर दी गई हो कि कोई भी कहीं भी आ जा सकता है लेकिन इस चर्चा का क्या कि पीएससी की सूची इस बार संघ कार्यालय से बनेगी?
अभी यह विवाद पूरी तरह समाप्त ही नहीं हुआ था कि यूपीएससी के हूबहू पर्चे से परीक्षा लेने की बात सामने आ गई। आखिर पीएससी के उपर इतनी बड़ी जिम्मेदारी है तब वह पेपर सेट कराने की जिम्मेदारी को महत्वपूर्ण कैसे नहीं मानती। क्या इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि यह सब सोची समझी करतूत है। पूरा पर्चा लीक करने का आसान तरीका है। अपने लोगों को ज्यादा बताने की जरूरत नहीं सिर्फ यूपीएससी का पर्चा जुगाड़ लेने की बात कह दो, पर्चा लीक हो जायेगा और मतलब सध जायेगा। इसके अलावा मॉडल उत्तर में जिस तरह की गलतियां है उसके बाद सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह सीधे कार्रवाई करे। जांच होते रहेगी।
छत्तीसगढ़ पीएससी में घपलेबाजी नई नहीं है और इसकी वजह से न केवल परीक्षार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हुआ है बल्कि छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा को भी धक्का लग चुका है इसी वजह से संघी डॉ. जोशी को अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन उनके क्रियाकलाप ने तो एक कदम और आगे बढ़ा दिया है।
इस पूरे मामले में वे सभी लोग सीधे दोषी है जिनके उपर प्रश्न पत्र छपाने से लेकर परीक्षा आयोजन तक की जिम्मेदारी है यहीं नहीं जिन विशेषज्ञों से प्रश्न बनवाये गए हैं। उन्हें भी काली सूची में डालनी चाहिए। मॉडल उत्तरों में गलतियां अक्षम्य है और ऐसे विशेष विशेषज्ञों के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। अन्यथा भ्रष्टाचार और घोटाले में पहले ही अपनी छवि खराब कर चुकी सरकार के माथे पर यह दाग भी दिखने लगेगा।

रविवार, 1 अप्रैल 2012

बेलगाम अफसर...


 बिलासपुर के विशेष न्यायालय ने कल छत्तीसगढ़ के 22 अफसरों पर जुर्म दर्ज करने का आदेश दिया है। जमीन घोटाले में लिप्त इन अफसरों के खिलाफ जर्म भी दर्ज हो जायेगा लेकिन इनके खिलाफ कैसे और क्या कार्रवाई होगी कोई नहीं बता सकता। नामी गिरामी ये अफसर आज भी ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं जहां मोटी कमाई की गुजांईश बरकरार है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले से ही भूमि घोटाले की खबरें आते रही है लेकिन इन घोटालों में जब मंत्री या यूं कहे पूरी सरकार ही शामिल हो तो फिर अफसरों पर कार्रवाई की बात बेमानी होकर रह जाती है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से रोज एक नये भ्रष्टाचार का खुलासा हो रहा है वह शर्मनाक है।
इस बेलगाम होते अफसरों को नहीं रोकने में सरकार पूरी तरह जिम्मेदार है। इस सरकार ने दागी अफसरों को गोद में बिठाने की जो परम्परा की शुरूआत की है इसका दुष्परिणाम सामने आने लगा है। हर विभाग में भ्रष्टाचार चरम पर है। खासकर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के उर्जा व खनिज विभाग में तो चून चून के दागी अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया गया है।
हमने कल ही इसी जगह पर बेलगाम जनप्रतिनिधियों की बात कहते हुए कहा था कि जब प्रदेश का मुखिया को ही विधानसभा में अपने द्वारा कहे गए अपशब्दों के लिए माफी मांगी पड़े तो फिर दूसरे जनप्रतिनिधियों से हम संयम की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं। हो सकता है हमारी ये बाते नागवार गुजरे लेकिन भरी विधानसभा में गृहमंत्री ने थानेदारों के बारे में जो कुछ कहा था वह ठीक है। या जब रमन सरकार की अपनी भारतीय जनता पार्टी डौंडी लोहारा से विधानसभा की टिकिट ऐसे अफसरों को देने की कोशिश करे जिसे नौकरी में रहने का अधिकार ही न हो। या जब मंत्री या सत्ताधारी पार्टी के लोग ही जब अफसरों से गलत काम करवाये तब बेलगाम अफसरों को कैसे रोका जा सकता है।
छत्तीसगढ़ के लिए यह भयावह स्थिति है। विधानसभा में मनोज डे पर उंगली उठी लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता, बाबूलाल अग्रवाल मामले में भी वे जिल्लत बर्दाश्त करने तैयार हैं और उनकी पार्टी जोगी शासन काल में जिन अफसरों को दलाल कहते नहीं चुकती थी उसे गोद में बिठा के रखना यह कौन सी राजनैतिक सुचिता है।
इस सबके बाद भी हम यह नहीं कह रहे हैं कि इस सरकार को पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है बल्कि हम चाहते है कि दागी अफसरों को फिल्ड में नहीं भेजा जाये। सरकार ये बात समझ ले कि फिल्ड में एक भी दागी असफर रहे या एक भी दागियों को गोद में बिठाया गया तो दूसरे अफसर भी नहीं डरेंगे और छत्तीसगढ़ में लूट का सिलसिला नहीं रूक पायेगा...! तब इसका खामियाजा आने वाली पीढ़ी को भोगना पड़ेगा।