बुधवार, 31 मार्च 2021

सवाल झूठ का नहीं...

 

जब आप जानते हो कि वह बात-बात पर झूठ बोलता है? फिर भी उसका झूठ बहस का मुद्दा बने इसका मतलब क्या है? इसका मतलब समझने से पहले एक राजा की कहानी को याद रखना जरूरी है जो सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह का प्रपंच करता था कि जनता उसकी मनमानी की बजाय उसके दान-धर्म और कलाकारी पर ही ध्यान केन्द्रित करे। वह जानबूझकर ऐसे सवाल बड़ा करता था कि लोग उस सवाल को हल करने में लग जाए ताकि खूब ईनाम मिले।

यह एक तरह का सत्ता में बने रहने और मनमानी को जारी रखने का तरीका था। जनता को ऐसे सपनों में सलाह दो कि वह जागती आंखों में वही देखे जो सत्ता चाहती है, जो लोग जानते हैं कि यह सपना है उन्हें बागी करार देकर जेल में डाल दो और उनके खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा दो।

सत्ता की अपनी विचित्र शैली है, और लोकतंत्र में यह शैली तब तक कारगर होते रही है, जब तक स्वयं इस शैली के शिकार न हो जाये। तब तक बहुत देर हो चुका होता है। दरअसल प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परेशानी है, और स्वयं की गलतियों पर दूसरे पर दोष मढऩा मानवीय प्रवृत्ति है, और सत्ता इसी बात का फायदा उठाती है। ये सच है कि इस देश में आरक्षण की वजह से कुछ सामान्य वर्ग के लोगों को दिक्कत हुई है लेकिन इस दिक्कत को बड़ा बनाना और स्वयं को आरक्षण के खिलाफ बताकर जो सपना दिखाया जाता है उसे जानने की जरूरत है। सभी जानते है उसे जानने की जरूरत है। सभी जानते हैं कि आरक्षण समाप्त करना मुश्किल भरा काम है लेकिन आरक्षण का विरोध कर वोट बटोरे जा रहे हैं।

एसेे कितने ही उदाहरण है जो केवल राजनैतिक सब्ज बाग है, हिन्दू राष्ट्र की कल्पना हो या फिर मुस्लिमों या दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत की लकीरे खींचने की बात हो यह सिर्फ वोट हासिल करने का तरीका है। आजकल तो आय दुगनी करने और लाखों लोगों को रोजगार देने का नया जुमला शुुरु हो गया है और हैरानी की बात तो यह है कि इस प्रपंच में पढ़े-लिखे युवा भी फंसते चले जा रहे हैं।

बात असल मुद्दे से भटकाने से हुई है, बात शुरु हुई थी बात-बात में झूठ बोलने से। इसलिए यह बताना जरूरी है कि आम लोगों की सुरक्षाशिक्षा, रोजगार परिवहन के साधन और अस्पताल ही जरूरी मुद्दे हैं लेकिन इस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता। बहस की जाती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंग्लादेश की आजादी को लेकर झूठ क्यों बोल रहे हैं।

जबकि बहस होनी है कि पिछले सात सालों में अच्छे दिन क्यों नहीं आये, रुपयों के मुकाबले डालर का क्या हाल है, दो करोड़ रोजगार के वादों का क्या, पेट्रोल डीजल घरेलू गैस की बढ़ती कीमत और निजीकरण के लिए लगातार बिकते सार्वजनिक उपक्रम पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए। किसानों के आंदोलन को लेकर सरकार की बेरुखी पर सत्याग्रह क्यों नहीं किया जाना चाहिए और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर इन सात सालों में ऐसी क्या परिस्थितियां निर्मित हुई कि पांच लाख से अधिक लोगों ने भारत की नागरिकता त्याग दी। जिस दिन भी यह सवाल खड़ा करते लोग अपने-अपने हिस्से को लेकर खड़ा हो जायेगा देश मजबूत हो जायेगा।