गुरुवार, 24 मई 2012

आग में घी...


यह आग में घी डालने का काम नहीं है तो क्या है। पहले ही मंहगाई से आहत जनता को जिस तरह से यूपीए सरकार ने अपने तीसरे वर्षगांठ पर पेट्रोल के दरों में बढ़ोत्तरी की है वह आम लोगों में गुस्सा बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं है।
इस मुल्य वृद्धि का चौतरफा विरोध पर जिस तरह से वित्त मंत्री प्रणय मुखर्जी का पेट्रोल की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है वाला ब्यान आया वह बेहद गैर जिम्मेदाराना है। यह बात सच है कि तेल कंपनियां ही पेट्रोल की कीमते तय करती है लेकिन सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है कहना सरासर बेईमानी है। यदि ऐसा नहीं तो अब जनता के गुस्से को वह कैसे रोकेगी। केन्द्र सरकार पहले ही घोटाले की वजह से संकट में है। सत्ता में बैठे रहने की मजबूरी को गठबंधन की मजबूरी बताकर अपने पाप को कम करनेे में लगी यूपीए सरकार आखिर कब तक जनता को बेवकूफ बनाते रहेगी।
हर जरूरी चीजों की कीमत लगातार बढ़ रही है आम आदमी का जीना कठिन होता जा रहा है। नीचे से उपर तक फैले भ्रष्टाचार से नौकरशाह और जनप्रतिनिधि गुलछर्रे उड़ा रहे है और आम आदमी बदतर जीवन की ओर चला जा रहा है। आखिर सरकारे होती किसलिए है। नियंत्रण में नहीं है तो नियंत्रण के लिए कानून क्यों नहीं बनना चाहिए। आखिर जनता को उसके मौलिक अधिकार से वंचित रखने की कोशिशें क्यों होनी चाहिए।
राजनैतिक तिकड़म के चलते जब सरकार बगैर बहुमत के  होते हुए चल सकती है तब पेट्रोल की कीमतों पर वृद्धि रोकने राजनैतिक तिकड़म का सहारा क्यों नहीं लिया जा रहा है। यह ठीक है कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के चलते कई चीजों में सब्सिडी की वजह से सरकार को घाटा उठाना पड़ रहा है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि खुद भ्रष्टाचार करके सात पीढ़ीयों की व्यवस्था कर लो और आम  आदमी को मंहगाई से मार डालो। पेट्रोल की कीमतों में हुई यह वृृद्धि आम लोगों का गुस्सा बढ़ाने वाला है। भले ही ममता नहीं मुलायम जयललीता नहीं मायावती से समर्थन पाकर यूपीए अपना सरकार बचा ले लेकिन वह लोगों के गुस्से से कैसी बचेगी।