शुक्रवार, 18 जून 2021

विरोध के स्वर...

 

राजनीति जो करा दे वह कम है, और जब सवाल अस्तित्व बचाने का हो तो राजनीति किसी नौटंकी से कम नहीं होता। ये हाल है छत्तीसगढ़ में भाजपा की। छत्तीसगढ़ में 15 साल की सत्ता का सुख भोगने वाली भाजपा लगभग दर्जनभर सीट में सिमट गई है और इन दिनों वह एक बार फिर अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। यह लड़ाई कम नौटंकी ज्यादा है कहा जाए तो कम नहीं होगा। क्योंकि एक तरफ पूरे देश में आम आदमी जिस तरह से केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त है केन्द्र की लापरवाही के चलते कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं, वैक्सीन की कमी बड़ा मुद्दा  है उसे छोड़ छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी कुछ और ही मुद्दों पर आंदोलन करने जा रही है। ये वे मुद्दे हैं जिसके बारे में डॉ. रमन सिंह की सरकार ने 15 साल कुछ नहीं किया।

दरअसल मोदी सत्ता की लापरवाही से हुए कोरोना नरसंहार के बाद भाजपा के सामने प्रधानमंत्री मोदी की छवि की चिंता है, महामारी के इस दौर में आक्सीजन की कमी और दवा की कालाबाजारी भारतीय जनता पार्टी के लिए कभी मुद्दा नहीं बना, पेट्रोल, डीजल, खाद्य तेलों के अलावा राशन की बढ़ती कीमत भी भाजपा के लिए इन दिनों कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि यदि वे इसे मुद्दा बनायेंगे तो फिर प्रधानमंत्री की छवि का क्या होगा।

हैरानी की बात तो यह है कि 15 साल सत्ता में रहने के दौरान जिन पर शराब की नदिया बहाने, दारु वाले बाबा की तोहमत लगने और जिनके राज में शराब ठेकेदारों के हाथों दस-दस हजार में थाना खरीदे जाने का आरोप लगता रहा है वे अब वादा निभाओं और भूपेश सरकार के ढाई साल को असफल बताते हुए आंदोलन कर रहे हैं। असल में यह जनता के लिए आंदोलन के नाम पर राजैतिक नौटंकी है कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि यह हर व्यक्ति जानता है कि आज जनता के लिए असल मुद्दा महंगाई और बेरोजगारी के साथ कोरोना है ऐसे में मोदी सरकार  की टैक्स नीति के चलते आम आदमी व्यापारी किसान मजबूर किस तरह से परेशान है यह किसी से छिपा नही है।

एक तरफ छत्तीसगढ़ भाजपा अपने अस्तित्व बचाने छटपटा रही है तो दूसरी तरफ देश की सत्ता अपनी छवि चमकाने विरोध के स्वर या असहमति के स्वर को कुचल देना चाहती है। जो ट्वीटर कभी भाजपा के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का  सबसे बेहतर हथियार था वही ट्वीट के खिलाफ अब पूरी सत्ता की ताकत लगी है। सत्ता की ताकत तो विरोध में प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ भी लगी है। यूएपीए कानून का जिस  तरह से बेजा इस्तेमाल किया गया वह किसी से छिपा नहीं है, पढऩे-लिखने वाले छात्रों, कलाकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को जेल में डाला गया और इसके बाद कोर्ट ने जो तीखी टिप्पणी की वह कौन नहीं जानता।