रविवार, 15 अप्रैल 2012

निर्मल दरबार हो या दिव्य दरबार सब जगह है पैसों का चमत्कार


 यह तो चमत्कार को नमस्कार करने वाली कहावत को ही चरितार्थ करता हैं। वरना आम लोग न निर्मल दरबार के झासे में आते न दिव्य दरबार के कथित चमत्कार पर आस्था रखते। इन दरबारों में पैसो का खेल इतने सहज ढंग से होने लगा है कि स्वयं के लूटे जाने का संदेह भी नहीं होता और ठगे जाने पर यह सोचकर व्यक्ति खामोश हो जाता है कि उनकी किस्मत ही फूटी है, वरना दरबार से कई लोगों को फायदा हुआ है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी में इन दिनों पंडोखर सरकार के दिव्य दरबार की चर्चा जोरों पर है। कागज के लिखा पढ़ी के इस खेल में नाम से लेकर मोबाईल नंबर और समस्या से लेकर उसके निजात का समाधान  दिव्य दरबार में होने का दावा किया जा रहा  है। 'बकौल पंडोखर सरकार बड़े-बड़े संस्थाओं और बादशाहों के दरबार काल के गाल में समा गए। क्योंकि वे व्यक्ति थे। व्यक्ति द्वारा अर्जित भौतिक संपदाओं का अस्तित्व सीमित होता है। लेकिन शक्ति का प्र्रभाव असीम न सर्वकालिन होता है। लगभग इसी तरह की बात इंदिरा गांधी के जमाने में धीरेन्द्र्र ब्रम्हचारी और चंद्रशेखर वीपी सिंह के जमाने में चंद्र्रास्वामी भी करते रहे है। इसके बाद आशाराम बापू से लेकर निर्मल बाबा के दरबार लगे और ये सभी इस किस लिए चर्चित हुए ये किसी से छिपा नहीं है। सत्ता के नजदीक जाकर चर्चित होना और पैसा कमाना इन दिनों बाबाओं का संगल बनकर रह गया है। निर्मल बाबा के चमत्कार ने तो इन दिनों पूरे देश में तहलका मचा कर रख दिया है। ठीक वैसा ही तहलका इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पंडोखर सरकार गुरूशरण महाराज ने मचा कर रख दिया है। बजरंग बली के आर्शीवाद से लबरेज गुरूशरण महाराज दावा करते है कि स्वास्थ समाज के निर्माण में लगे है और उन्हें सब कुछ पहले से निकले कागज में मिल जाता है। दरबार में पीडि़त व्यक्ति के कागज उठाते ही महाराज उनका नाम से लेकर समस्या तक हीं नहीं जानते बल्कि इन समस्या की मुक्ति का भी उपाय बताते है। उपाय में वे उन्हें अपने निवास स्थान किसी न किसी अमवस्या को बुलाते है। शादी  ब्याह में विलंब से लेकर बच्चा नहीं होने में फिर स्वास्थ्य ठीक करने से लेकर घर की समस्याओं से मुक्ति तक का दावा गुरूशरण महाराज करते नहीं थकते। बस पीडि़त को उनके कहे अनुसार दान धर्म करना है। दूसरे बाबाओं से स्वयं को अलग रखते हुए गुरूशरण महाराज कहते है कि आस्था के साथ खिलवाड़ करने वालों को इसका दुष्परिणाम भुगतना ही होगा। हमारे बेहद भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि गुरूशरण महाराज के दिव्य दरबार में जिस तरह का खेल चलता है वह लोगों को प्रभावित करने की रणनीति का हिस्सा है और गुरूशरण महाराज के यहां भी पैसों का बोल बाला है। यह अलग बात है कि  उनके पैसा लेने का तरीका अलग है, चूंकि उनके आने-जाने रहने-ठहरने की एवज में एक निश्चित रकम ली जाती है। यहीं नहीं दरबार में प्रवेश भले ही नि:शुल्क हो लेकिन पीडि़त उनकी बातों में आकर पंडोखर का दरवाजा तो खटखटा ही लेते है।  दूसरे बाबाओं को स्वयं को अलग रखने के बावजूद एक चीज तो तय है कि यहां भी पैसा बोलता है।
पैसा लिया जाता है तरीका भले ही अलग-अलग हो, विशिष्टों का विशेष ख्याल रखा ही जाता है। बहरहाल चमत्कार को नमस्कार की तर्ज पर इन दिनों राजधानी में निर्मल बाबा के बदनामी के बाद भी अपना खेल खेलने में गुरूशरण महाराज सफल हो रहे हैं।

निजी स्कूलो की दादागिरी...

  
 निजी स्कूलों की मनमानी पर सरकार कुछ नहीं करने वाली हैं। ऐसा नही हैं की सरकार कुछ नहीं कर सकती। चाहे तो सरकार सब कुछ कर सकती हैं।  लेकिन सरकार की मर्जी हैं। आखिर उनकी जेब कौंन भरेगा हल्ला मचाओगे तो सरकार बयान दे देगी की मनमानी नहीं चलने दी जाायेगी। बस।
छत्तीसगढ़ की राजधानी ही नहीं पूरे छत्तीसगढ़ में  निजी स्कूलों की दादागिरी किसी से छिपी नहीं हैं। दो-चार कमरों में लगने वाले स्कूलों का भी सरकार कुछ नहीं बिगाड़ पाती। मनमानी या दादागिरी और  इसे गुण्डा गर्दी भी कहा जा सकता हैं। लेकिन यह सरकार को नहीं दिखता।
इस साल फिर कुछ पालक निजी स्कूलों की इस गुण्डागर्दी के खिलाफ सामने आये हैं लेकिन यह डरा सकने वाला नहीं दिखता। साल दर साल पालकों की जेब से अधिक से अधिक पैसे निकाले जाने की उनकी तरकीब के आगे आम आदमी मजबूर इसलिए हैं क्योंकि सरकार स्कूल में पढ़ाई का माध्यम अंगे्रजी रखा ही नहीं हैं, स्कूलों में टीचरों की कमी हैं।
यही वजह हैं कि निजी स्कूलों की गुण्दागर्दी किसी चौराहों पर लूटपाट करने वाले या हफ्ता वसूलने वालों जैसे स्थिति में पहुंच गई हैं। क्या सरकार को यह नहीं मालूम हैं कि हर साल फीस में बढ़ोतरी के अलावा भवन मरम्मत से लेकर निर्माण के लिए भी पैसे वसूले जाते हैं। हर साल किताबें बदल दी जाती हैं और ये किताबें वही मिलती हैं जो दूकानदार स्कूलों को कमीशन देते हैं। ड्रेस भी अमूमन तय दुकानों से खरीदना पड़ता हैं जुता,चप्पल ,टाई, मोजा तक तय दुकानों से ही खरीदना पड़ता है और इन दुकानों से एक मोटी रकम कमीशन के रुप में स्कूलों में पहुंचती हैं। यह सब सरकार नहीं देख रही है ऐसा नहीं हैं। सरकार में बैठे लोंगो के बच्चे भी इन्हीं स्कूलों में पढ़ रहे हैं। लेकिन पैसे की भूख ने उनकी जमीर को इन निजी स्कूल वालों के पास गिरवी रख छोड़ा हैं। सालों से इसकी शिकायतें होती रहती हैं। सत्ता किसी की भी हो इस पर बंदिश नहीं लगा पाया। और अपना पेट काटकर अच्छी शिक्षा की चाह रखने वाले मां-बाप दुखी हैं। उनके पास वक्त भी नहीं है कि वे इसके खिलाफ खड़े हो सके निजी स्कूलों की दादागिरी ने उन्हें हालात से समझौता करने को मजबूर कर दिया हैं। सरकार निजी स्कूलों को इसी शर्त पर मान्यता देती है कि वे लाभ हानि से परे शिक्षा देंगे लेकिन कितने निजी स्कूल इस सिद्धांत पर चल रहे है और क्या सरकार को यह दिखाई नहीं दे रहा है कि किस तरह इस राज्य को शिक्षा माफिया ने जकड़ रखा हैं।
इस बार हल्ला मचा तो कमेटी गठित कर दी गई लेकिन कमेटी क्या इसे रोक पायेगी।