गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

नरफत का मुंडन

नफरत का मुंडन
आदमी को आदमी बनाये रखना सबसे कठिन काम है। सत्ता की चाहत ने राजनेताओं को इस तरह स्वार्थी बना दिया है कि वह सहज जन की आस्था ही नहीं उसकी भीतरी ताकत व सुरक्षा को हिलाकर रख दिया है। उसकी अपनी आदमी होने की पहचान धर्म-जाति में सिमटने लगी है।
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। दो सेव के पेड़ आपस में बात कर रहे थे। एक सेव दूसरे सेव से कहता है। देख रहे हो धर्म जाति और रंग को लेकर आदमी इस कदर लड़ रहा है कि देखना एक दिन सब कुछ समाप्त हो जायेगा और हम सेव ही सेव बच जायेंगे। उसकी बात पर सहमति जताते हुए दूसरे सेव ने पूछा था कौन सा सेव? हरा या लाल? यानी यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं होने वाली है? लेकिन क्या यह लड़ाई समाप्त नहीं होनी चाहिए?
यह सवाल आज मैं इसलिए उठा रहा हूं कि मुझे लगता है कि आदमी होने का अर्थ ही ज्ञान है, उसकी सोच उसका दिमाग है जो उसे अच्छे-बुरे की पहचान करने की ताकत देता है। इस देश में पूर्वजों की यही सोच ने हमें विश्व में गुरु होने की संज्ञा दी। अलग पहचान दी। पूरी दुनिया में भारत जैसा कोई देश नहीं है तो इसकी वजह हमारे आदमियत के नजदीक होने की कोशिश है। जितने श्रीराम यहां के मिट्टी पानी में बसे है उतने ही श्रीकृष्ण, माता स्वरुप शक्ति या हनुमान बसे हैं, ब्रम्हा-विष्णु-महेश भी हवा में समाये हुए हैं। कभी किसी ने एक दूसरे के मानने वालों पर लाठी-बंदूक नहीं तानी।
गौतम-महावी-गांधी के इस देश में न केवल सबको आश्रय मिला और वे भी आपस में गंगा जमुना की तरह मिल गये। राजशाही के दौर में भी दंगों की बात नहीं सुनी गई। पहला दंगा विश्व में कहां हुआ। यह कौन बपता सकता है? पर यह दावा है कि पहला दंगा कम से कम भारत में नहीं हुआ है। क्योंकि यहां वे लोग रहते हैं जो आदमीयत के ज्यादा नजदीक है। आदमी होने का अर्थ बचपन से ही संस्कार की छुट्टी में शामिल है। घर-परिवार-रिश्तेदारी, गांव-समाज का बंधन इस कदर दिलो-दिमाग में समाया है कि भरा-फरा परिवार में स्वर्ग का सुख देखा जाती है।
इस देश में जहां संस्कृति की रक्षा के लिए श्रीराम और धर्म की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण का जन्म होता है वहां आदमियत में जहर घोलने की कोशिश कभी सफल नहीं हो सकती। लेकिन क्षणिक सत्ता सुख की खातिर राजनेताओं का विष वमन विचलित करने वाला है। 
छत्तीसगढ़ में एक कहावत है हंडिया (हंडी) के मुंह में परई (ढक्कन) रख सकते है लेकिन आदमी के मुंह में क्या रखें? यानी आदमी का मुंह कब जहर उगल दे? जिस देश में आदमियत जिन्दा रखने रिश्तेदारी की अहमियत बचपने से समझाई जाती है। धर्म कथाओं व त्यौहारों का उत्सव मनाया जाता है, कर्म के अनुसार फल की दुहाई दी जाती हो। रावण के क्रोध, कंस के अत्याचार और शिशुपाल की बदजुबानी को क्या सिर्फ सत्ता सुख के लिए नजरअंदाज कर दिया जाए।
यह सच है कि कलयुग के पर्दापण के साथ ही बुराईयों का पहाड़ जगह-जगह खड़ा होगा लेकिन क्या हम बुराईयों को समाप्त करने कलि अवतार की प्रतिक्षा में आदमियत में घुलते जहर का घुंट खामोशी से पीते रहे? कर्म के अनुसार फल तो तय है? यह सोचकर कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने वाले समाज में नफरत के बीज बोने वालों के प्रति आखिर कब तक खामोशी की चादर ओढ़ कर बैठा जा सकता है?
अमेरिका में सिर्फ काला या गोरा होने पर हत्या कर दी जाती है? क्या हम वैसा ही विकास चाहते आज तो लोग हिन्दू-मुस्लिम सिख-इसाई को आपस में उलझाकर अपना सुख ढूंढ रहे है कल यदि कोई शिव भक्त, कृष्ण भक्त और राम भक्त को आपस में उलझाने लगे तब अजान से नींद खराब होने की बात कहने वाले सिर्फ इसलिए शिव मंदिर या राम मंदिर में चल रहे भजन कीर्तन को बंद कराने की कोशिश नहीं करेंगे कि वह तो ईश्वर खुदा या गाड को नहीं मानता! यह आज्बर की वजह से उसे आने जाने में तकलीफ होती है। उसकी आवाज उसे विचलित करती है। हिरण्यकश्यप ने आखिर प्रहलाद को सिर्फ विष्णु भक्त होने की सजा देना चाहता था। यह बात सभी को समझनी होगी और अजान पर टिप्पणी करने वाले सोनू निगम की तरह जितनी जल्दी नरफत का मुंडन कर दे उतना ही आदमी का आदमी बने रहने की कोशिश में प्रभावी कदम होगा।