शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

दोगली शख्सियत...

 कोई भी शख्सियत जब नफरत के मसाले से पकी हो तो वह आम आदमी कहां रह पाता है, उसमें मानवीय संवेदनाओं का तो अभाव होता ही है अपने घर परिवार के प्रति भी निष्ठुर हो जाता है, ऐसेलोग घडिय़ाली आंसू बहाने में तो माहिर होते ही हैं प्रमुख पदों पर बैठते ही इनकी ताकत खौफनाक हो जाती है। वे बात-बात पर झूठ और गुमराह करने वाली तस्वीरें पेश करते रहते हैं। और यह दोगली शख्सियत अचानक रुप नहीं लेता बल्कि यह सालों की मेहनत का नतीजा है। 

खैर इन सब बातों को अब कहने का कोई मतलब ही नहीं है क्यों यह समय कोविड से निपटने का है, इस देवभूमि को पिछली लाशों से मुक्त करने का है, आप इस समय सत्ता से न इस्तीफा मांग सकते हैं और न ही उनसे इस्तीफे की उम्मीद ही कर सकते है। हां उनकी लापरवाही और गैर जिम्मेदारी को चुपचाप किसी तमाशाबीन की तरह देख सकते हैं, जिनके अपने चले जा रहे हैं उनकी हिम्मत बढ़ा सकते हैं ताकि जो सत्ता की इस लापरवाही के बाद भी बच गये हैं वे कम से कम अच्छे से जी तो सके।

अपनों के जाने का दुख वही जानता है जिसका अपना घर-परिवार होता है लेकिन जब व्यक्ति अपने धर्म-जाति को लेकर कुंठित हो जाये तो उसके भीतर की आत्मा कहां जिन्दा रहती है उसे तो बस अपने धर्म को ही श्रेष्ठ बताना है। और इसके एवज में पिछली लाशें उन्हें कभी नहीं दिखाई देगी। कोरोना के शिकार तो फिर भी ठीक हो जा रहे हैं लेकिन सत्ता की लापरवाही के शिकार लोगों का दर्द कोई नहीं समझ सकता। ऐसे मे कल जब रिजाईन मोदी का नारा बुलंद हुआ तो इसे ब्लाक कर दिया गया। सरकार यानी मोदी सत्ता कह रही है कि उसने ब्लॉक नहीं किया? और न ही उसके इशारे पर ही ब्लॉक हुआ है?

लेकिन एक बात सत्ता जान ले किन इस देश की जनता सब-कुछ देख रही है। अब तो पूरी दुनिया में मोदी सत्ता की थू-थू हो रही है और हाईकोर्ट ने जिस तरह से लानत भेजी है उसके बाद तो सत्ता को एक दिन भी बने रहने की नैतिकता नहीं है लेकिन शरम कहां बनती है तब क्या बचा रहता है। अब तो लोगों का भी कहना है कि लानत है सत्ता की आजाद मिजाजी को। मौत के इस मंजर के लिए भले ही कुछ लोग अकेली सत्ता को दोषी मानने से इंकार कर रहे हो। लेकिन सच तो यही है कि यदि उपलब्धि का चोंगा सत्ता अकेले पहनती है तो इन लाशों की साड़ी भी उन्हें ही पहनना है।

प्रख्यात कवि कुमार विश्वास ने जिस ढंग से अपने ट्वीट में कहा है कि उससे तो साफ है कि उनके दिल में कितना गुस्सा है।

यह मंजर क्या गुस्सा दिलाने वाला नहीं है, मां का बच्चों की जिन्दगी के लिए कलपना, पत्नी का मुंह से ही पति को आक्सीजन देने की कोशिश और लाशों को रिक्शा, ठेला, सायकल से ले जाना। क्या सरकार इतनी भी व्यवस्था करने के लायक नहीं बची है तो फिर वह क्यों हैं।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

सत्ता का तांड़व...

 

क्या आपने उन भेडिय़ा बच्चों के बारे में सुना है जो चांद की तरफ मुंह उठाकर हुंकाती मादा की घातक छातियों से दूध पीते है, और जब उस बच्चे को झुण्ड से अलग कर बचा लिया जाता है तो वह सबसे पहले बचाने वालों को ही काटता है। उनमें न तहजीब होती है और न ही उससे प्रेम की कल्पना ही की जा सकती है।

आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना हरकत किसी भेडिय़ा बच्चे से कम नहीं है। बदइंतजामी ने तो जिन्दा लोगों को लाश में तब्दिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। इस माह यानी अप्रैल में ही कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा पचास हजार पार कर चुका है और विशेषज्ञों की माने तो आने वाले दिनों में इसमें और तेजी आएगी। लोगों को तो पचास हजार वाले सरकारी आंकड़ों पर यकीन ही नहीं है वे इसे कई गुणा बता रहे हैं।

अपनी नाकामी छुपाने कोई सत्ता किस हद तक निचता पर उतर जाये ये कहना मुश्किल हो गया है। सत्ता की बेशर्मी आप गिनते रह जाएंगे और उससे ज्यादा निचता और बेशर्मी तो उन लोगों की है जो अपनी हिन्दू कुंठा के चलते देश को पहले ही बर्बाद कर देना चाहते हैं। देशभर में जिस तरह से कब्रिस्तान से श्मशान घाट तक लाशों की लाईने दिखाई देने लगी है वह किसी भी संवेदनशील सरकार के मुंह में तमाचा है लेकिन केन्द्र सरकार अभी भी सिर्फ और सिर्फ राजनीति कर रही है। लगता है कि भाजपा शासित राज्य के मुख्यमंत्री तो मोदी-शाह से इस कदर दहशत में है कि न तो वो एक देश एक कीमत पर ही कुछ बोल पा रहे हैं और न टीका को सभी तरह के टेक्स फ्री पर ही कुछ बोल पा रहे हैं। यदि हम महामारी में भी केन्द्र की सत्ता वेक्सीन में टैक्स माफ नहीं कर पा रही है तो इसका मतलब क्या है। 

पहले ही सरकार की लापरवाही, बदइंतजामी और लॉकडाउन के चलते कालाबाजारी की मार झेल रही जनता यदि सरकारी स्तर पर भी आपदा में अवसर की शिकार होकर अपने जान-माल को नहीं बचा पा रही है तो इस सरकार को होने का मतलब क्या है। अब तो इस सरकार की लापरवाही और बदइंतजामी को गिनाने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि इस लापरवाही की लाश पर अब भी कुंठित हिन्दू बेशर्मी से जश्न मनाने का मौका ढूंढते रहते है। संघी नफरत का जज्बा लिये झपट्टा मारने को तत्पर गिद्ध की तरह वे केन्द्र की लापरवाही का ठिकरा राज्यों पर फोडऩा चाहते हैं।

हैरानी तो इस बात की है कि वे पिछली गलतियों से सबक लेने की बजाय नई-नई गलितयां कर अपनी बेशर्मी का परिचय देते हैं। और हद तो यह है कि वे अब भी यह मानने को तैयार नहीं है कि उनकी लापरवाही और अहंकार की वजह से दूसरी लहर में मौत का तांडव मचा है। सबसे शर्मनाक और हैरानी की बात तो यह है कि सत्ता अब भी इस विपदा से निपटने की कोई कारगार कोशिश नहीं कर रही है। जबकि विशेषज्ञों  की राय में आने वाला वक्त बेहद मुश्किल भरा होगा। ऐसे में आत्मा चित्कार उठता है और कहता है-

बस-बस-बस

सत्ता का हवस, बस-बस

झूठ का साहस, बस-बस

कोरोना के कहर से सब बेबस

छाती पे जलती लाश बस-बस

बदइंतजामी, बेरुखी का कॉकस 

सत्ता का अट्हास बस बस बस

सत्ता की रईसी, प्राण वायु की गरीबी

दबता जनता का नस, बस बस बस

कौशल दबा दो सत्ता का नस

न हो सके टस से मस।।

बस बस बस...

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

सिस्टम का मतलब...

 

क्या देश की जनता को सत्ता द्वारा इतना बेवकूफ समझा जाता है कि वह कुछ भी कहे मान ले। दरअसल बात सिस्टम के फेल हो जाने की हो रही है। सच तो यह है कि सिस्टम फेल नहीं बल्कि एक्सपोज हो गया। खुद को बचाने जिस बेशर्मी से सत्ता ने सिस्टम पर दोष मढ़ा है वह हैरान ही नहीं उन लोगों के मुंह में करार तमाचा है जो दिन-रात इस देश की तरक्की के लिए काम कर रहे हैं।

इस देश की वह पुलिस जो इस भीषण काल में भी अपनी नींद खराब कर, सड़कों पर पहरेदारी कर रही है, इस देश के डाक्टर, नर्स, नर्सिंग स्टॉप अपने परिवार की चिंता किये बगैर गरीबों की सेवा में लगे है, जाति धर्म का भेद भुलाकर इस महामारी में आम जन एक साथ खड़े हैं क्या ये सभी सिस्टम को कटघरे में खड़े करने का अधिकार सत्ता को है? दरअसल खराबी सिस्टम में नहीं सत्ता में बैठे लोगों में है। जब उसकी लापरवाही गैर जिम्मेदारी सबके सामने आने लगा तो वह सिस्टम को दोष देने लग गया। 

जो लोग आज अपनी जिम्मेदारी और लापरवाही के चलते इस देश की यह हालत की है वे लोग तब क्यों सिस्टम को दोष नहीं दे रहे थे जब गृहमंत्री के पुत्र जय शाह को पद दे रहे थे, तीन हजार करोड़ की मूर्ति बनवा रहे थे, सिस्टम खुद के लिए 8 हजार करोड़ का प्लेन खरीदता है। चुनाव प्रचार करने बंग्लादेश चला जाता है लेकिन अस्पताल नहीं जाता। देश की सम्पत्ति को यह सिस्टम निजी हाथों में सौपता है, किसान बिल लाता है, सीएए लाता है, नोटबंदी करता है, विधायक खरीदता है, नमस्ते ट्रम्प करता है तब सिस्टम ठीक था लेकिन जब लोग बिलखकर तड़पकर मरने लगे तो सिस्टम फेल हो गया।

दरअसल सिस्टम फेल ही नहीं हुआ है बल्कि एक्सपोज हो गया है। क्योंकि इस सिस्टम ने जिस तरह से बात-बात पर झूठ बोलकर नफरत की दीवार खड़ी की थी और अपनी सुविधानुसार सिस्टम तैयार किया था वह इस महामारी में पूरी तरह एक्सपोज हो गया। हमने पहले ही कहा है कि यह देश दुनिया के किसी भी देश से भिन्न है, इस देश को किसी धर्म या महजब का ही प्रयास है। यह देश बना है प्रेम और सत्य की राह पर चलकर बना है, यहां झूठ-नफरत, छल-प्रपंच का कोई स्थान नहीं है और जिसे भी सत्ता ने इसे अपने इशारे पर हांकने की कोशिश की उसे मुंह की खाना पड़ी है।

जो हिन्दू कुंठा से ग्रसित है वे खुद ही जान ले कि छोटे-छोटे राज्यों में बंटे इस देश को एक करने में क्या कुछ नहीं किया गया, तब भारत बना है। आजादी की लड़ाई में हिन्दु ही नहीं मुस्लिम-सिख सहित सब धर्म के लोगों ने अपना लहू बहाया है। इस देश पर जितना हिन्दुओं का अधिकार है, उतना ही अधिकार दूसरे धर्म के लोगों का है।

लेकिन पिछले सालों में सत्ता ने क्या किया, वह अपनी तरह का सिस्टम तैयार करने लगा, अपनी कुंठा, झूठ और नफरत को सिस्टम का अंग बनाने की कोशिस की गई। जब सत्ता में बैठे लोगों का समूचा ध्यान ही अपनी सत्ता को विस्तार देने में हो तो फिर वह आम लोगों के बारे में कैसे सोच सकता था, उसका सारा सिस्टम सत्ता के लिए था इसलिए महामारी की चेतावनी को नजरअंदाज कर पहली लापरवाही की गई, पहली लहर में हुई लापरवाही ने कितनी ही जाने ली।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

जिम्मेदारी से दूर...


एक तरफ सत्ता थी जो अपनी गैर जिम्मेदाराना हरकत और लापरवाही से जनता को मुसिबत में डाल दिया था तो दूसरी तरफ जनता अपनी जिम्मेदारी समझ इस संकटकाल में लोगों की मदद के लिए आगे आ रही थी। सोनू सूद तो हीरो बन गये है लेकिन छत्तीसगढ़ की राजधानी में कितने ही लोग हैं जो लोगों की सेवा कर रहे हैं, विधायक सत्यनारायण शर्मा और उनके दोनों बेटे पंकज और विकास तो पीपीई कीट पहनकर दिन रात सेवा में लगे थे तो विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने कोविड सेंटर खोल दिया था, शहर कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश दुबे, सराफा व्यापारी अशोक  गोलछा, प्रहलाद सोनी, डॉ. राकेश गुप्ता, मनजीत बल्ला, विकास तिवारी कितने ही नाम है जो सहायता के लिए हर पल तत्पर थे और हैं।

दुख की बात तो यह है कि इस विषम परिस्थिति में राजनीति अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहा है और ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप यूनिर्वसिटी की बेशर्मी तो अब भी हिन्दू-मुस्लिम में लगी हुई है। चारो तरफ मोदी सरकार के प्रति गुस्सा और असंतोष बढ़ रहा है और उसे दबाने ट्रोल आर्मी और आईटी सेल एक बार फिर झूठ का सहारा लेकर नफरत फैलाने में लग गई। वे अब भी मानने को तैयार नहीं है कि केन्द्रीय सत्ता की लापरवाही और कोविड की गंभीरता को नजरअंदाज करने की वजह से ही हालत यहां तक आ पहुंची है।

हैरानी तो तब होती है जब देश के गृहमंत्री अमित शाह या दूसरे केन्द्रीय मंत्रियों का इस पर बयान आता है और राज्य सरकार को दोषी ठहराते हैं। जिन लोगों ने अपनी सत्ता बचाने बार-बार प्रोटोकाल की अवहेलना की हो वे प्रोटोकॉल को मुद्दा बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में धर्म की राजनीति करने वालों को याद करना चाहिए कि सत्ता को प्रोटोकाल की याद तभी आती है जब संकट में अपनी भूमिका को उजागर होते देखते हैं। महाभारत को याद कीजिए कि प्रोटोकाल की याद कब-कब दिलाई गई वे लोग जिन्हें पांच गांव नहीं देने को राजी थे, भरी सभा में द्रोपदी का चीरहरण कर रहे थे, अभिमन्यु को अकेले घेर कर मार रहे थे। वे जब कर्ण पर बाण चला रहे थे तो प्रोटोकाल बता रहे थे, दुर्योधन के जंघा पर वार के समय प्रोटोकाल बता रहे थे।

हैरानी तो तब होती है कि देश के प्रधानमंत्री जैसे ही प्रधानमंत्री केयर फंड से देश के सभी जिलों में आक्सीजन प्लांट डालने की घोषणा करते हैं उसके कुछ ही घंटों बाद देश के गृहमंत्री इस कदम का स्वागत करते हुए कहते हैं कि अब आक्सीजन की कमी नहीं होगी। यानी आक्सीजन प्लांट न हुआ अलाउद्दीन का चिराग हो गया, बोलते ही प्लांट तैयार होकर आक्सीजन देने लगेगा। आक्सीजन की जरुरत आज है और अभी है ऐसे में इस प्लांट का लाभ तो बाद में ही मिलेगा लेकिन जब देश के एक्सपर्ट और संसद में सांसद आने वाले दिनों में आक्सीजन की जरूरत बता रहे थे तब सत्ता ने क्या किया? तब क्यों नहीं व्यवस्था की। आक्सीजन के निर्यात को क्यों नहीं रोका गया।

दूसरी लहर की चेतावनी को क्यों नजर अंदाज किया गया? और आज भी केयर फंड से जो आक्सीजन प्लांट बनाने की घोषणा की गई है उसका पूरा नियंत्रण केन्द्र के ही हाथ में है। यानी पिछली घोषणा की तरह क्या यह भी हवा हवाई होकर नहीं रह जायेगी। तब जनता के प्रति जिम्मेदारी की बात सत्ता न ही करे तो अच्छा है।

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

पत्रकार साथी तिवारी और हसन का निधन

 रायपुर – जनसंपर्क विभाग के सहायक संचालक डॉ छेदीलाल तिवारी हमारे बीच नहीं रहे, उनका बीती रात रायपुर के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। डॉ तिवारी कोरोना से हारने वालों में से नहीं थे, उनकी मौत का जिम्मेदार सुयश हॉस्पिटल की अव्यवस्था है। करीबी सूत्रों के मुताबिक उनके सिर में चोट लगी है और खून निकल रहा था, जबकि वे एक हफ्ते से अधिक समय से आईसीयू में थे। उनकी इस तरह मौत यह सवाल खड़े करती है कि कोरोना के इलाज के नाम पर आखिर हो क्या रहा है।

डॉ तिवारी एक सरल मिलनसार व्यवहार कुशल सहित जीवट व्यक्ति थे, अनेक चुनौतियों और संघर्षों के सामना करते हुए आगे बढ़े थे। उन्होंने अविभाजित मध्य प्रदेश के जनसम्पर्क विभाग में ऑटो चालक के रूप में नौकरी की शुरुआत की। उस ऑटो से वे डाक बांटा करते थे। लेकिन उन्होंने यह नौकरी करते हुए अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखी। राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री ली। तबतक विभाग ने उन्हें वाहन चालक बना दिया। इसके बाद छेदीलाल तिवारी ने पीएचडी की। उनके पीएचडी का विषय था ‘मध्य प्रदेश शासन में जनसम्पर्क की भूमिका’। पीएचडी करने के बाद साहब का ड्राइवर , डॉक्टर हो गया। इसकी चर्चा खूब हुई, इंडिया टुडे जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने इसे खबर बनाया। यह खबर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मिली। इसके कुछ समय बाद दिग्विजय सरकार की कैबिनेट ने एक प्रस्ताव पारित कर डॉ छेदीलाल तिवारी को सूचना सहायक बना दिया। और फिर धीरे धीरे डॉ तिवारी अपनी काबिलियत के बल पर आगे बढ़ते रहे।

डॉ तिवारी का पूरा जीवन प्रेरणा देने वाला है। डॉक्टर तिवारी की असामयिक मृत्यु से छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग में शोक की लहर व्याप्त है वही एक और दिल दहला देने वाले समाचार आया की रायपुर के वरिष्ट पत्रकार जियाउल हसन का कल रात रायपुर के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया वे लंबे समय से दैनिक समाचार पत्र वरिष्ठ पत्रकार अग्रदूत सहित अन्य संस्थाओं में अपनी सेवाएं दी हमेशा जिंदादिल एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी भाई जियाउल हसन के मृत्यु समाचार से प्रेस जगत को गहरा आघात लगा है वरिष्ठ पत्रकार जियाउल हसन को रायपुर प्रेस क्लब एवं छत्तीसगढ़ एडिटर्स एंड पब्लिशर्स एसोसिएशन द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई है



जन की बात-10

 

कोरोना की दूसरी लहर में सब तरफ वही हालात बनने लगे जो पहली लहर में देखी गई। सत्ता के उपर न मजदूरों को भरोसा है और न ही किसान-जवान, व्यापारी, मध्यम वर्ग किसी को भरोसा नहीं है, इसलिए मजदूर फिर वापस अपने घरों की ओर लौटने लगे। किसान पहले से ही आंदोलित हैं, व्यापारी सरकार की जीएसटी प्रणाली से असंतुष्ट है तो मध्यम वर्ग बढ़ती महंगाई, ऊपर से कोरोना का कहर और सत्ता की कथनी करनी में भेद।

सत्ता के प्रति आसक्ति जब जब इस देश ने देखा है वह अन्याय का शिकार हुआ है। याद कीजिए ऐसी ही आसक्ति इंदिरा गांधी ने 1975 में दिखाई थी, तब वे कहां न्याय के मार्ग पर चले थे लेकिन जल्द ही आंखे खुल गई लेकिन इस बार तो सत्ता के प्रति आसक्ति ने सारी सीमाएं लांघ दी है। रामायण में प्रभु राम ने भी कहा था सत्ता के प्रति आसक्ति का ही अन्याय की जननी है। दिन-रात जय श्री राम के नारे चीख-चीख कर बोलने वाले भी प्रभु राम की इस भाषा को नहीं समझ रहे हैं तब यह देश और किससे उम्मीद करें।

क्या सत्ता का वर्तमान इतना संवेदनाशून्य है कि उसे बिखरते परिवार, गिरती लाशें दिखाई नहीं दे रही है, अस्पतालों में उठ रहे सिसकने की , रोने की आवाज सुनाई नहीं दे रहा है। सत्ता वे होती है जो चुनौती को पहले ही पहचान लेता है या चुनौती का सामना करने को सदैव तत्पर रहता है। लेकिन यहां तो सिर्फ दायित्व का दंभ है, जिम्मेदारी का कहीं पता नहीं है। भक्त अब भी अपने कथित अवतारी के प्रेम में पशु हो गये हैं, ऐसे में इतिहास में घटित एक घटना को याद किया जाना चाहिए।

मिशिगन की डोरोथी मार्टिन ने अपने अनुनायियों और भक्तों को कयामत की चेतावनी देते हुए एक बार कहा कि 21 दिसम्बर 1954 की सुबह दुनिया खत्म हो जायेगी। भक्त तो भक्त होते हैं, कईयों ने अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी, कई लोग तो अपना सब कुछ बेच बाच कर डोरोधी के शरण में आ गये, डोरोथी ने कहा कि जो लोग उन्हें सच्चा गुरु मानते हैं वे सभी उडऩ तश्तरी में सवार होकर जायेंगे।

लेकिन, 21 दिसम्बर की दोपहर को ही स्पष्ट हो गया कि डोरोथी की भविष्यवाणी हवा-हवाई है, लेकिन आप हैरान हो जायेंगे की भविष्यवाणी झूठी होने पर उनके भक्त और कट्टर हो गये, इन भक्तों का तर्क था कि डोरोथी के पूण्य प्रताप की वजह से कयामत टल गई। 

शायद ऐसा ही कुछ वर्तमान में चल रहा है, आप अस्पताल की कमी बताओं वे 70 साल में आ जायेंगे, आप ऑक्सीजन की कमी बोलिये वे 70 साल में आ जायेंगे, आप कुछ भी समस्या बताओ वे 70 साल में आ ही जायेंगे। कहेंगे अवतारी तो समस्या से निजाद का पूरा प्रयास कर रहे हैं लेकिन 70 साल ? असल में ये लोग फंस चुके है, सांप-छुंछुदर सी स्थिति है फिर कौन व्यक्ति अपने को गलत कहेगा। फिर कौन चाहेगा कि लोग कहे देखों मुर्ख बनकर चले गए थे। इसलिए कोरोना की दूसरी लहर ने तबाही मचाई, तो इसके लिए राज्यों को दोष देना शुरु हो गया।

वे यह कतई नहीं बताएंगे कि लोग उत्तरप्रदेश में ही नही, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड में भी मर रहे है। और हम बायस्ड लोग वहां के मुख्यमंत्री को कुछ नही बोलते। मैं बताता हूँ क्यों नही बोलते.. 

1- आयात निर्यात की नीति, केंद्र बनाता है। राज्य नही। दवा , वैक्सीन का कृत्रिम अभाव, निर्यातलिप्सा की वजह से बना है। (अदार पूनावाला ने लन्दन में प्रोपर्टी खरीद ली। क्यों, इसलिए कि विदेश का पैसा विदेश में ठिकाने लगाना था। निर्यात की अनुमति न मिलती तब??? तब पूनावाला इलेक्टरल बांड नही खरीद पाते।) 

2- इसी वैक्सीन माफिया के फायदे के लिए ये कोविशील्ड की अनुमति लटकाए हुए थे। मगर पिछली बार जब मामले बढ़े, तो मजबूरी में उसे अनुमति दी। कम्पटीशन खड़ा हो गया। अब तीसरा कॉम्पटीशन नही चाहिए था। इसलिए विदेश में धड़ल्ले से बन बिक यूज हो रही स्पुतनिक वगेरह को लोकल ट्रायल की शर्त रख दी। याने छह आठ महीने लटकाने का प्लान था। राहुल के पत्र के बाद इसे भी मजबूरी में अनुमत करना पड़ा। याने पूरे वक्त ये दवाओं का कृत्रिम अभाव पैदा करते रहे।

3-  पीएम केयर के नाम पर हर कम्पनी का सीएसआर का पैसा अपने पास खींच लिया। क्या किया उसका?? ठेके दिये अनाम-गैर अनुभवी कम्पनी को। वक्त पर सप्लाई नही मिली। हस्पताल दवाओं, इक्विपमेंट की कमी से जूझ रहे हैं। 

4- सीएम फोन कर रहे हैं, क्यों कर रहे है, रेमेडीसीवीर चाहिए। पीएम नही बात कर सकते , क्यों रैली कर रहे हैं। रेमेडीसीवीर क्यों नही है, इसलिए कि तमाम दवा कम्पनियों को धकाधक लायसेंस नही दे रहे। 

5- दवा नही, तो मरीज का जल्दी सुधार नही। दो दिन की जगह पांच दिन बेड ऑक्युपाई कर रहा है। जाहिर है जगह की कमी होगी। अब आप दीजिये स्टेट को दोष। क्योकि हेल्थ तो स्टेट का मसला है।

रविवार, 25 अप्रैल 2021

जन की बात-9

 

सुना था सत्ता का नशा, प्रेम और मदिरा के नशे से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है, वह विवेक शून्य तो हो ही जाता है, संवेदना शून्य हो जाता है, उसकी जिव्हा ही अनाप-शनाप नहीं बोलता बल्कि मर्यादा भी भूल जाता है। वह सत्ता मद में इस कदर चूर हो जाता है कि वह अपनी ओर उठने वाली हर उंगलियों को काट देना चाहता है। असहमति के स्वर उसे देशद्रोह लगता है और जनता की पीड़ा से खुशी! उसे जनसरोकार से कोई  मतलब नहीं होता, वह तो सत्ता में बने रहने के षडय़ंत्र में व्यस्त रहता है।

कोरोना के बढ़ते प्रकोप से हर कोई चिंतित था, शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसके बांधव या परिचितों को कोरोना ने अपना ग्रास नहीं बनाया हो। लेकिन, सत्ता चिंतित होने का आंडबर ही कर रही थी क्योंकि उसे चिंता होती तो सालभर में चिकित्सा व्यवस्था कहां से कहां पहुंच जाता, आक्सीजन के अभाव में त्राहिमाम नहीं मचता। न ही कुंभ का आयोजन होता न ही चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने का उपक्रम होता। क्या लंबे अरसे के षडय़ंत्र के बाद मिली सत्ता का मोह इस तरह हावी है कि वह मनुष्यों को कीड़े मकोड़े की तरह मारने का उपक्रम कर रही है।

जब सब तरफ आलोचना होने लगी, सभी दल लोगों के निशाने पर आने लगे तब राहुल गांधी ने चुनावी रैली से दूर रहने की घोषणा कर दी। वास्तव में यह महत्वपूर्ण निर्णय था लेकिन जो लोग मध्यप्रदेश के मोह में पहली लहर को भयावह बनाने में कोई कमी नहीं रखी थी वे अब बंगाल में सत्ता के लिए निर्णय शून्य थे।

कांग्रेस के इस निर्णय से बेशर्मी की चादर हटने की उम्मीद थी लेकिन बड़ी मुश्किल से सत्तर साल में मिली सत्ता को बनाये रखने का मोह उनसे छोड़ देने की कल्पना ही बेमानी है जो झूठ-षडय़ंत्र, अफवाह और नफरत पर विश्वास रखते हैं। हालांकि इस परिस्थिति के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है क्योंकि उनसे रूढि़वादी और नफरती लोगों के आक्षेप से स्वयं को कमजोर और डरपोक बना लिया। सबसे पहले राजीव गांधी उस आक्षेप से डर गये कि उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए शहबानों के फैसले को बदल दिया, यही से वे लोग हावी होने लगे जो इस देश के सामाजिक सौहार्द के दुश्मन थे, जो अंग्रेजों के फूट डालो राज करों की नीति के प्रशंसक थे, जिसके लिए हिटलर की तरह श्रेष्ठता ही जीवन का पैमाना था।

मुस्लिम तुष्टिकरण के आक्षेप से कांग्रेस इस कदर डर गई कि वह जनेऊ धारण करने लगी, पूजा पाठ के प्रदर्शन में उतर आई। लेकिन यजि कांग्रेस ही आक्षेपों से डर गई तो फिर गांधी, नेहरु, पटेल, विवेकानंद, सुभाष, टैगोर की इस देवभूमि को लंका बनने से कौन रोक सकता है। आरोपों से बचने के लिए कांग्रेस के नेताओं में होड़ ही कुंठित धर्मालंबियों के खादपानी का काम करता है। किसी के आक्षेप से यदि जन नेता अपने मूल कर्म से भटक जाए तो इस देश के दलित, अल्पसंख्यक गरीबों का क्या होगा? न्याय, सत्य का क्या होगा।

लेकिन कांग्रेसी गांधी के राह से भटक गये, और गांधी की राह से भटकने का सीधा सीधा अर्थ था सच से दूर होना। स्वयं को विलासी बनाना, संवेदना शून्य होना। कमजोर और डरपोक होना।

कोरोना का कहर अब भी उफान पर था, लेकिन भाजपा के मंत्री तो अब भी बंगाल फतह के लिए मरे जा रहे थे, इसलिए वे ममता बेनर्जी के एक साथ चुनाव और राहुल गांधी के रैली से असहमति पर बेशर्मी से कह रहे थे कि यह तो कप्तान के जहाज को डूबते समझ का निर्णय है। क्या सत्ता इतनी बेशर्म होता है? हां होती है जब सत्ता झूठ की बुनियाद पर टिकी हो, नफरत के बीज तो फलीभूत हुआ हो। याद कीजिए 2014 का वह दिन जब कहा गया कि पहली बार कोई हिन्दू प्रधानमंत्री? याद कीजिए संसद की सीढिय़ों पर माधा टेकना? लेकिन इससे पहले तिरंगा को अशुभ बताने, संविधान को गलत बताने, आरक्षण की आलोचना को याद कर लेना।

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

जन की बात-8

 

समस्या जड़ में हो, और हम ईलाज पत्तों में, तनों में ढूंढने की कोशिश करते रहेंगे तो क्या होगा? क्या इस देश में आपदा पहली बार आई है? इससे पहले भी आपदा आई है लेकिन इतना जन आक्रोश इससे पहले कभी नहीं था, न ही इतने बिलखते लोग न लाशों से पटती श्मशान, कब्रिस्तान?

जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी रही, लोगों की नौकरी जा रही थी, लोग मर रहे थे तब भी इस आपदा को इस देश ने मिल बांटकर अपने भीतर घुसने नहीं दिया था, दरअसल नेतृत्व की सूझबूझ हम सबकों एक किये हुए था और एकता की ताकत के आगे कोई विपदा टिक नहीं सकती। लेकिन पिछले वर्षों में नेतृत्व ने क्या किया, इस देश के भाईचारे की ताकत को सत्ता के लालच में सबसे पहले तोड़ा, वे भूल गये कि हम आजाद भी इसलिए हुए क्योंकि हिन्दू मुस्लिम सभी ने एक साथ आंदोलन किया था, अपना बलिदान दिया था, वरना हमारे राजाओं ने तो पहले ही मुगलों को सत्ता सौंप दी थी।

कोरोना के इस विपदा के लिए नमस्ते ट्रम्प, मध्यप्रदेश की सत्ता का मोह और अब कुंभ और बंगाल-असम चुनाव की सत्ता के मोह को दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। बिलखते लोग, टपकती लाशों पर ठहाका की बात भी बेमानी होने लगा है क्योंकि जिन्हें धर्म देश समाज से प्यारा सत्ता हो गया उनसे कितनी भी तरह की उम्मीद ही बेमानी है। लोकतंत्र को वे समझते है या जीते हैं परिवार चलाने के चिंतन को समझते हैं या परिवार को जीते हैं। क्योकि लोकतंत्र की पहली इकाई परिवार है। प्रभु राम जब दंडकारण्य पहुंचे और कई ग्रामों को राक्षसों की गुलामी से मुक्त करने लगे तो उनके समक्ष भी यह सवाल आया कि आखिर कोई समाज सामूहिकता से कैसे रह सकता है। तब प्रभु राम ने लोगों को परिवार बुद्धि से चलने का मार्ग बताया था। उन्होंने कहा था कि एक परिवार में माता-पिता आजीविका उपार्जित करते हैं, या केवल पिता धनार्जन करता है, किन्तु सबसे अधिक व्यय बच्चों पर किया जाता है। यदि एक व्यक्ति रुगण हो जाये तो उसके हिस्से का कार्य भी कर देते हैं। पिता समर्थ है तो बाहर का काम कर अजीविका अर्जित करता है, घर में जो कठिन कार्य है, जिसे पत्नी व बच्चे नहीं कर सकते, वह भी करता है और यथा आवश्यकता अपने परिवार की रक्षा भी करता है। क्योंकि वह समर्थ है और अपने को परिवार का अंग मानता है। यदि किसी दुर्घटनावश पति बीमार या पंगु हो जाये तो पत्नी बाहर का काम कर धर्नाजन भी करती है, पति की सेवा भी करती है, बच्चों को भी देखती है और घर का काम, खाना-पकाना भी करती है। यही नहीं कमजोर बच्चों को विशेष संरक्षण व ज्यादा दुलार भी मिलता है। 

यही स्थिति देश और समाज की है। जिस तरह से परिवार में एक व्यक्ति का स्वार्थ परिवार को बिखेर देता है उसी तरह से देश व समाज में भी ऐसे स्वार्थी लोगों से मुसिबत आ जाती है। प्रभु राम ने इसका उपाय भी बताया है कि ऐसे लोगों का बहिष्कार किया जाना चाहिए क्योंकि फिर उसकी प्रवृत्ति राक्षसी होने लगी है। जरा देर रुक कर सोचिए? क्या यह सब नहीं हो रहा है? परिवार का दर्द, बच्चों का जो दर्द जानता है वही जनता का दर्द समझ सकता है।

इस देश में भी सभी जाति और धर्म के लोग बसे हुए है। प्रभु राम ने उनमें कोई विभेद नहीं किया, सबको सत्य और न्याय के एक तराजू में तौला लेकिन जो लोग राम के नाम पर सत्ता हासिल कर रहे है वे क्या कर रहे हैं। अपने धर्म को श्रेष्ठ बताते तो है लेकिन धर्म के मार्ग पर क्या कोई चल पा रहा है। धर्म ग्रन्थ में  ऐसे कितने ही उदाहरण है जब विपदा का प्रतिकार में सबका एका रहा। आज भी इस देश में कोरोना से लडऩे की जो कहानी आ रही है, क्या वह उन कुंठित धर्मावंलियों को उनकी कुंठा से बाहर निकलने का मार्ग नहीं दिखाता। मंदिर-मस्जिद सहित कितने ही जगह कोरेन्टाईन सेंटर खुल गये, सिख समाज, जैन समाज लंगर चला रहा, मुस्लिम युवक जान बचाने अपनी जान दांव पर लगाा रहे, एक मुस्लिम युवक ने तो अपनी बाईस लाख की कार तक बेच दी। सब तरफ सब मिलजुलकर कर कार्य कर रहे हैं। लेकिन सत्ता अब भी अपनी गलती मानने तैयार नहीं है, वह तो मीटिंग के प्रसारण से भी इसलिए डर रही है ताकि उनकी पोल न खुल जाये।

कैसे लोकतंत्र और कैसी सत्ता के साये में हम जी रहे है। जब जनहित की मीटिंग है तो इसके प्रसारण से क्या आपत्ति होनी चाहिए। क्या इस तरह की हर मीटिंग का  प्रसारण नहीं होना चाहिए ताकि जनता यह जो जान सके कि उसके जनसेवक उनके लिए ईमानदारी से काम कर रहे हैं? इससे सत्ता का भ्रम दूर होगा लेकिन जब सत्ता बेईमान हो तो वह ऐसे किसी प्रसारण के लिए कैसे तैयार होगी?

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

जन की बात-7


पहले भी कई बार इस देश के लोगों ने इस सत्ता की नासमझी, नालायकी से त्रस्त हुए हैं, इस बार कोरोना को लेकर सत्ता ने जिस तरह से लापरवाही की, उसका परिणाम सबके सामने है, मुफ्त ईलाज और घर पहुंच सेवा करने की बजाय वह अब भी राज्यों में सत्ता हासिल करने और बहुसंख्य हिन्दु को खुश करने कुंभ के आयोजन को प्रश्रय देने में लगी रही।

यह सत्ता का खेल था, उनकी इच्छा थी, उनकी आवश्यकता थी या एक तरह का रोग था, कहना कठिन है लेकिन नोटबंदी, पूर्व सूचना के लॉकडाउन, निजीकरण, किसान बिल, सीएए सहित अनेक उदाहरण है। कल के राष्ट्र के नाम संदेश के बाद अब तो आम लोग भी बोलने लगे हैं कि इस सत्ता के शिष्ट अथवा संस्कृत व्यवहार की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। वह लोगों को अकारण परेशान कर सकते है सकारण भी।

ऐसे में क्या पीड़ा और अपमान को चुपचाप पी जायें? क्या इस लोकतांत्रिक देश में काएई अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर सकता? ऐसे लोगों को देशद्रोही कहने का अधिकार सत्ता को किसने दिया है? बलात्कारियों का, हत्यारों का सिर्फ हिन्दू होने पर संरक्षण का कैसा अधिकार चल रहा है। क्या इस देश के लोग टैक्स नहीं देते तब उन्हें इस आपदा में भी मुफ्त ईलाज कोई सरकार न दे तो इसका क्या मतलब है। क्या लोगों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं है, जब सब मनुष्य समान है तो फिर धर्म के आधार पर भेद क्यों? जब राज्य चलाने बराबर टैक्स भरत हैं तब इस आपदा में भी मुफ्त ईलाज क्यों नहीं।

दुख तो इस बात का है कि सत्ता के पास इस कोरोना के त्राहिमाम् का कोई समाधान नहीं है, और वह एक नये तरह का खेल दिखाकर (संदेश) चला जाता है। ये ठीक है कि इन दिनों देश को बदलने की कोशिश की गई? अपने हिसाब से सत्ता ने देश को हांका है लेकिन लोगों को पीड़ा पहुंचाकर, या पीडि़त को उसके हाल पर छोड़कर सत्ता चालने की परम्परा क्या उचित है। ऐसा नहीं है कि पूर्व के सरकारों ने लोगों को सर आंखों पर बिठा रखा था लेकिन इस सत्ता ने तो एक के बाद एक ऐसे निर्णय लिये  है या लापरवाही की है जिससे आप लोग ही ज्यादा प्रताडि़त हुए हैं।

डब्ल्यूएचओ की दिसम्बर से ही चेतावनी देने के बाद भी निर्णय लेने में मार्च बिता देना, फिर दूसरी लहर की चेतावनी के बाद भी लापरवाह रहना क्या सत्ता के लिए उचित था? क्या इस घोर लापरवाही की सजा आम जन नहीं भुगत रहे हैं, भुगत ही नहीं रहे अब तो लाशें गिरनी लगी हैं। ये ठीक है कि यह देश मर्यादा पुरुषोत्तम राम का देश है लेकिन यदि जनता अमर्यादित हो गई तब क्या होगा? किसान आंदोलन से गुस्साएं लोगों ने किस तरह से भाजपा विधायक को पिटा यह संकेत नहीं है कि मर्यादा की भी अपनी सीमा है, पीडि़त जन जब सड़कों पर उतरते हैं तो  फिर क्या होता है?

अब तो पूरी देवभूमि भगवान के भरोसे हो चली है, सत्ता अब भी राजनैतिक स्पर्धा में मस्त है, विपक्ष के सुझाव भी उन्हें देशद्रोह लगता है, हालात का चित्रण भी उन्हें बर्दाश्त नहीं है। वे  अब भी यह मानने को तैयार नहीं है कि आजादी के सत्तर साल के कठिन परिश्रम ने देश को उन्नति के नए शिखर तक पहुंचाया है, ये ठीक है कि इस दौरान सत्ता कहीं कहीं निर्दयी हुई है लेकिन इस परिश्रम को सिर्फ राजनैतिक स्वार्थ के लिए सिरे से नकार देना, कौन सी प्रवृत्ति है।

देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से हो रही मौत के प्रति क्या सत्ता की कोई जवाबदेही नहीं बनती, क्या केन्द्र सरकार इतनी संवेदनाशून्य है कि वह अपनेे नागिरकों को मुफ्त में ईलाज तो छोड़ वैक्सीन तक नहीं लगा सकती। संघ तो अपने को संस्कारी और सेवाभावी कहकर अपनी पीठ ठोकता रहा है तब उसका डिग्रीधारी की निष्ठुरता, संवेदनहीनता, अमर्यादित बोल से संघ के कथित संस्कार पर उंगली नहीं उठना चाहिए। सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था, खुली आंखों से महामारी के प्रकोप का तांडव सबके सामने है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लापरवाही स्पष्ट थी, बगैर मास्क की रैलियां, कुंभ स्नान मौत को आमंत्रित करने जैसा था। लेकिन, संघ के संस्कार, झूठ और नफरत की राजनीति से उन पढ़े लिखे लोगों का विवेक भी चला गया है जो इस देश की प्रगति में आगे रह सकते हैं, सत्ता के अन्याय का खिलाफत कर सकते है। पता नहीं हिन्दू-मुस्लिम के बीज ने उन्हें क्या बना दिया है कि वे सच को जानते हुए भी सत्य का समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। क्या वे हिन्दुत्व के उस खतरे से डरे हुए हैं कायर हो गये हैं जो कभी संभव ही नहीं है। जिन्हें लगता है कि वह मर रहा है, मुझे क्या? मैं सुरक्षित हूं, तो वे जान ले जाति-धर्म देखकर आपदा प्रहार नहीं करता। यदि आप यह सोचते हैं कि अस्पताल में सिर्फ वे ही जायेंगे तो यह भी भूल है। और हां एक बात और समझ लो जिन लोग इसे नियति मान कर जी रहे हैं या खामोश है वे जान लें कि नियति मानकर अपने अधिकार के लिए नहीं लडऩा सत्ता की राक्षसी प्रवृत्ति को ही बढ़ावा देना है, नियति उन लोगों का गढ़ा शब्द है जो अपनी सत्ता की दुर्बलता को छुपाना चाहते हैं।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

जन की बात-6

 

विभिन्न प्रदेशों में रिकार्ड मौतें, देश में कोरोना ने नया रिकार्ड बनाया और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन में देश को लॉकडाउन को अंतिम विकल्प बताना क्या यह संकेत नहीं है कि बंगाल का चुनाव तो निपट जाने दो।

जब भी इस देश को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संबोधित किया है अजीब सा सन्नाटा पसरा है, इस बार तो मरघट सी शांति रही। ये ठीक है कि कुछ लोगों को केवल धार्मिक स्थल और श्मशान में ही शांति मिलती है लेकिन उनका क्या जो घर परिवार में, समाज में, सुख-शांति से रहते हैं। हमने इसी जगह पर कितनी बार लिखा है कि चुनाव में मुद्दा नागरिकों के मूल-भूत सुविधा होनी चाहिए, जाति-धर्म से उपर उठकर व्यवस्था पर वोट डालना होगा, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, बेरोजगारी, अपराध, भ्रष्टाचार पर वोट हो लेकिन न किसी सत्ता ने इसे स्वीकार किया न ही किसी धार्मिक और जाति से बंधे कुंठित लोगों ने ही माना।

तब, जब आज महामारी की इस भीषण त्रासदी से लोग प्रभावित हो रहे है तो भी सत्ता उन्हें धर्म और जाति में ही उलझाने में लगी है। हमने बार-बार कहा है कि सत्ता का एक ही चरित्र हो गया है वह अपनी रईसी और सत्ता बरकरार रखने के लिए फूट डालो राज करो की नीति का ही इस्तेमाल करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस संबोधन से रही-सही उम्मीद भी न टूटी हो तो शायद कोविड के ट्रिपल म्यूटेंट की प्रतीक्षा का इंतजार कर लें। क्योंकि सत्ता कभी भी अपना दोष नहीं देखती, वह निर्दोष होती है? दोष तो बेबस जनता की आखों में है जो खुद तो कुछ करती नहीं सारा दोष सत्ता पर मढ़ देती है?

सोशल मीडिया में मोदी विरोधी अपना भड़ास निकाल कर जनता को ही दोषी ठहरा रहे हैं कि उन्हें तो मंदिर चाहिए था, वे अस्पताल या स्कूल की मांग कब की थी, सत्ता से लेकर पूरी मीडिया भी इस दूसरी लहर के लिए जनता को ही दोषी ठहरा रही है। जिस देश में आज भी लोग स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में, दो जून की रोटी की आपाधापी और परिवार पालने के संकट से मर रहे हो वहां सत्ता और मीडिया का कहना कि जनता लापरवाह है वह घर में बैठे तो फिर उनकी बुद्धि पर सवाल उठना ही चाहिए?

क्या सत्ता की ताकत है कि वह अपने देश के लोगों को इस महामारी में भी बिठा के खिला सके, और मुफ्त में ईलाज कर सके? जब यह ताकत ही नहीं है, और वे खुद देश के संस्थानों को एक-एक कर बेच खा रहे है तो फिर जनता कैसे घर में बैठकर जी सकती है? यह सवाल क्या मीडिया को नहीं उठाना चाहिए? यह देश का दुर्भाग्य है कि हमने उन्हें सत्ता सौंपी है जो यह भी नहीं कह पा रहा है कि जनता घर में रहे, हम भोजन और चिकित्सा की व्यवस्था मुफ्त कर रहे है? कोरोना से बचने के लिए घर में ही रहने की वकालत करने वाली सत्ता में है इतनी हिम्मत कि अपने देशवासियों या प्रदेशवासियों को यह दे सके। नहीं है, उसे तो अपनी रईसी बरकरार रखी है, वे सुविधा को लेकर जो भी फैसले लेंगे अपने लिए लेंग।

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

जन की बात-5

 

कोरोना, कोरोना, कोरोना... सब तरफ एक ही दृश्य, त्राहिमाम् त्राहिमाम्! इस देश के लोग बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के है इसलिए इसे ईश्वर का प्रकोप भी माना गया। धार्मिक हम भी है इसलिए जब चारों ओर करुण क्रुदन और लाशें दिखने लगी तो मन में यह सवाल भी आया कि ईश्वर आखिर हमें यह क्यों दिखाना चाहता है, ऐसा क्या पाप हुआ है जो ये दिन देखने पड़ रहे हैं, अपनों की पीड़ा में भी हम कुछ खास सहायता के लिए प्रस्तुत नहीं हो पा रहे हैं, अपनों के चेहरे तक नहीं देख पा रहे हैं?

और हमारी ही बनाई हुई सत्ता बड़े ही निर्लजता से कुंभ की अनुमति दे रहा है, चुनौवी रैली में भीड़ के सामने खुशी महसूस कर रहा है, क्या यह इस सत्ता को चयन करने का पाप भोग रहे हैं, नहीं नहीं इस रोग से तो पूरी धरती पी़ि़त है, शहर व कस्बों के जीव जंतु भी इस कहर से कहां बच सकें है, वो तो भला हो ईश्वर का कि अभी तक मनुष्यों ने जीव-जन्तु को बगैर धर्म से जोड़े सेवा कर रहे हैं, आवारा मवेशियों, स्वान और चिडिय़ों को भोजन दे रहे हैं।

वरना कुंठित धर्मालंबियों ने गाय-बकरा पता नहीं किस किस पर अपनी राजनीति साधने की कोशिश नहीं की है, गनीमत है गौ पालन का अधिकार छिनने का फरमान नहीं सुनाया गया। पिछले कुछ सालों में इस देश के लोगों ने क्या कम सत्रांश झेला है, नोटबंदी, जीएसटी जैसे मनमानी को छोड़ भी दे तो छिनता रोजगार, बढ़ती महंगाई से मध्यम वर्ग क्या गरीब नहीं होता जा रहा। उपर से बैंकों का कहर क्या मध्यम वर्ग को चूस नहीं ले रहा है, स्टेट बैक जब कहता है कि उसने मिनिमम बैलेंस से तीन सौ करोड़ से अधिक कमाये हैं तो क्या ये पैसे मध्यम वर्ग के नहीं है, या गरीबों के नहीं है, पेट्रोल-डीजल पर टैक्स क्या खून की आखरी बूंदे निचोड़ लेने का उपक्रम नहीं है। लेकिन हमारी धार्मिक आस्था ने सरकार की झूठ, नफरती किया कलाप और मनमानी को यह सोचकर नजर अंदाज नहीं किया कि हिन्दू राष्ट्र जरूरी है और इस देश के अल्पसंख्यकों और आरक्षित वर्गों के द्वारा हमारे अधिकार छिने जा रहे हैं, जबकि अल्पसंख्यकों और आरक्षित वर्गों को संरक्षण देना सरकार का काम है। 

ये ठीक है कि कांग्रेस ने भी बहुसंख्यक समाज की अनदेखी की, लेकिन इस देश की सामाजिक एकता को कभी खंडित नहीं किया, अपने शासनकाल में कई अभूतपूर्व निर्णय लिये, विकास के नये आयाम खोले, प्रेम के फूल भी खिलाये ये अलग बात है कि इस फूल में कीड़े लगने को नहीं रोक पाये। इसके लिए मैं आज भी कांग्रेस को दोषी मानता हूं कि फूल में लगने वाले कीड़ों का समुचित उपचार किया होता तो देश में प्रेम और सुगंध को ग्रहण नहीं लगता।

कोरोना भीषण महामारी के रुप में आया है, मित्र हो या सत्ता, उसकी असली परीक्षा तो आपदा काल में ही होती है और आपदा काल में सत्ता में दायित्वबोध न हो, जिम्मेदारी से मुंह मोड़ ले और केवल, सत्ता बचाने या उसे हासिल करने का ही उपक्रम करे तो इसका मतलब क्या है? यह उपक्रम तो वे लोग लगभग सौ सालों से कर रहे थे, तब कहीं जाकर सत्ता मिली है लेकिन अब भी इस देश के तीस फीसदी तो छोडिय़े बीस फीसदी भी हिन्दू यदि उनके साथ नहीं है तो इसकी वजह इस देश के अराध्य राम-कृष्ण है, इस देश के दर्शन में विवेकानंद, नानक कबीर है इस देश के हवा पानी में टैगोर, सुभाष, भगत सिंह आजाद हैं इस देश के जड़ में गांधी, नेहरु, पटेल हैं। 

इसलिए वे जड़ को काट देना चाहते हैं, इसलिए े राम-कृष्ण भगत-आजाद, विवेकानंद का सहारा लेना चाहते हैं, ताकि लोगों को भ्रमित कर सके। लेकिन ईश्वर जानते हैं कि जीवन क्या है, समाज में न्याय, सत्य का क्या महत्व है वे सिर्फ न्याय नहीं करते परीक्षा भी लेते हैं। तब अहिल्या प्रसंग में विश्वामित्र की स्वीकारोक्ति को याद करना चाहिए कि बड़ी मुश्किल से, बड़े छल-प्रपंच से जब सत्ता मिलती है तो उसका मोह भयावह होता है, सत्ता अन्यायी और झूठ परोसती है जनता को दिग्भ्रमित किया जाता है और यही राक्षसी प्रवृत्ति है।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

जन की बात -4

 

 अब भी कई थे लेकिन जवाब कहीं से नहीं आ रहा था, एक तरफ सत्ता इस महामारी से लडऩे का अंडबर कर रही थी तो दूसरी तरफ वही सत्ता चुनावी रैली में भीड़ देखकर खुशी मचा रहा था, संवेदनहीन सत्ता को देवभूमि में गिरती लाशें क्या दिखाई नहीं दे रहा था या फिर सत्ता की महत्वाकांक्षा ने उसे संवेदनशून्य कर दिया था।

परीक्षा में कठिन सवाल पहले हल करने की बात पर बहस होने लगा था, यह बात वही व्यक्ति कर सकता है जो यह तो मूर्ख हो या धूर्त! क्योंकि वह अपनी धूर्तता से बातों में लोगों का उलझा देना चाहता है ताकि मूलभूत जरूरतों की ओर से लोगों का ध्यान हट जाए और लोग फिजूल की बातों में लग जाए। पिछले सालों से इस देश में क्या यही नहीं चल रहा है?

तब कोरोना की भयावक स्थिति को निपटने और लोगों की जान माल की सुरक्षा करने का दायित्व क्या सरकार का नहीं है? यदि है तो इसका एकमात्र उपाय है जो सत्ता नहीं कर रही है, वह उपाय है सभी का मुफ्त में ईलाज, घर पहुंच सेवा और सभी तरह के उन आयोजनों की बंदिश जिसमें भीड़ जुटती है।

लेकिन हैरानी तो इस बात की है कि जो लोग मरकज में जुटे भीड़ पर विषवमन करते है वे कुंभ या चुनावी रैली की भीड़ पर बोलने से कायर डरपोक हो जाते हैं।

तब जब सब तरफ उदासी, सन्नाटा व रोशनी की उम्मीद खत्म होने लगी हो, कितने ही परिवार पर कहर टूट पड़ा हो तब सत्ता की बेरुखी से लोकतंत्र के प्रति अविश्वास क्या कम नहीं होगा? जबकि सत्ता को मानव समाज के हित के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना चाहिए?

और एक बात...

तुम ही राम हो...

क्या तुमने लाशें देखी है

नहीं, तुमने तो कोरोना के

कहर से तड़पते लोग भी

नहीं देखे हैं।

मैं जानता हूं कि

परिस्थितियां विपरीत है

दूर से अंधेरा आता

दिख रहा है

लेकिन कब तुमने

रोशनी की व्यवस्था की?

गिरती लाशें, बिखरता परिवार

और आंसुओं के सैलाब

पर भी जब हिन्दुत्व

भारी हो जाए तो 

व्यक्ति रावण हो जाता है,

दरअसल रावण व्यक्ति नहीं 

रावण प्रवृत्ति है।

रावण का मतलब

शिव भक्त होना नहीं है,

और न ही रामेश्वरम् बना देना,

रावण का मतलब है अन्याय,

तब स्वयं को, हर एक को

राम बनना होगा

सत्ता के इस अत्याचार पर

बोलना होगा

बेधड़क, निडर!

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

जन की बात-3

 

राम इस देश की मिट्टी, हवा, पानी कण-कण में बसे हैं, इससे किसे इंकार है लेकिन हम राम को मानने का ढकोसला करते हैं, आडंबर करते हैं, चिख-चिख कर जय श्री राम का नारा लगाते हैं लेकिन राम के मार्ग पर चलने से हिचकते हैं, दूर भागते है, राम के नाम पर लूट का जो परिदृश्य इस देश ने देखा है वैसा शायद किसी भी देश ने अपने देवता, गॉड या अल्लाह के नाम पर लूट नहीं देखा होगा।

इस कोरोना काल में भी सत्ता का चरित्र हिंसक है, संवेदना शून्य है। ऐसे में जो लोग प्रभु राम को पढ़े हैं उन्हें याद दिला दूं कि जब ताड़का वध के लिए गुरु विश्वामित्र ने राम को मांगा तो राजा दशरथ की स्थिति खराब हो गई वे वचन भंग करने तक तैयार हो गये लेकिन राजपुरोहित वशिष्ट ने विश्वामित्र को राम सौंप दिया। राम के साथ लक्ष्मण भी चले आए थे राह में गुरु विश्वामित्र ने दशरथ की स्थिति को वर्णित करते हुए और राक्षसी प्रवृत्ति के विस्तार को लेकर कहा कि जब कभी बुद्धि विलासी हो जाती है तो सत्ताधीस, डरपोक, कायर और कमजोर हो जाता है तब वह अपना पाप छुपाने का उपक्रम करता है, जनकल्याण से दूर हो जाता है, और वे ऐसे फैसले लेने लगते है जिससे आम आदमी की तकलीफे बढ़ जाए।

क्या राम के नाम पर ढकोसला करने वाली सत्ता ने इसे नहीं पढ़ा? या उसके लिए राम सिर्फ सत्ता प्राप्त करने का साधन मात्र है? प्रधानमंत्री वह होता है जिसके लिए प्रजा की ईच्छा सर्वोपरि हो लेकिन क्या ऐसा हो रहा है। वह तो अपने लिए सुख, विलास, सम्पन्नता और अधिकार को ही महत्वपूर्ण समझता है। तब अन्याय को बल मिलता है। क्या यह समय इसी तरह का नहीं हो चला है। पहले मध्यप्रदेश में सत्ता बनाने का मोह और अब बंगाल, असम में सत्ता हासिल करने का मोह क्या कोरोना से गिरती लाशों के लिए जिम्मेदार नहीं है? हर विरोध को देशद्रोह, या हिन्दू विरोधी कहकर हम किस तरह का देश बनाना चाहते हैं?

इतिहास इसलिए पढ़ाया जाता है ताकि हम अच्छी बातें सीखें और बुरी बातों से सबक लें। जिन लोगों ने भी मानवीय समानता और सबके प्रति न्याय की अनदेखी कर अपनी जाति और धर्म को श्रेष्ठ माना उसने इस संसार को, अपने देश को मुसिबत में डाला है। बीते सालों में इस देश को क्या मिला? हमने इतिहास से सबक लेने की बजाय इतिहास को कुरेदकर गलत व्याख्या की। जो काम अंग्रेजी सत्ता ने अपने राज्य लंबे समय तक चलाने के उपक्रम में फूट डालो राज करो का खेल खेला, आजादी के आंदोलन के प्रभाव को रोकने हिन्दू-मुस्लिम का आयोजन किया, क्या यह सत्ता के लिए अब भी जारी नहीं है।

याद कीजिए ताड़कावन में राक्षसों के प्रभाव को लेकर जब आर्य राजाओं ने चुप्पी साध ली तब विश्वामित्र ही ऐसे थे जो भविष्य को लेकर चिंतित थे, तब प्रभु राम ने गुरु विश्वामित्र से पूछा था कि आर्य राजाओं ने ताड़कावन क्षेत्र में राक्षसों का अधिकार स्वीकार कैसी कर लिया। राम के इस प्रश्न पर लक्ष्मण ने बड़े ही भोलेपन से कहा था जैसे रघुकुल पर कैकेयी का अधिकार सम्राट दशरथ ने स्वीकार कर लिया है न, गुरुवर?

लेकिन लक्ष्मण की कटुता पर हंसते हुए गुरु विश्वामित्र ने कहा था कि आर्य राजाओं ने न केवल राक्षसों का अधिकार स्वीकार कर लिया था बल्कि राजाओं ने यह कहकर भी समर्थन किया कि अत्यंत प्राचीन काल में पहले भी यहां राक्षसों की बस्ती थी। गुरु कहते जा रहे थे- यदि प्राचीन इतिहास के आधार पर ही राज्यों की सत्ता का निर्णय होगा, तो एक समय रावण ने अनरण्य की हत्या कर अयोध्या भी जीत ली थी तो क्या दशरथ अयोध्या भी रावण को दे देंगे?

क्या यह उन लोगों के लिए सबक लेने की बात नहीं है जो इतिहास के आधार पर सत्ता का निर्णय चाहते हैं, तब क्या हम वापस उसी राह पर चले जायें जहां जंगल राज था, सभ्यता नहीं था, यह देश सैकड़ों राज में खंडो में बंटा था। जो लोग अंग्रेजों के फूट डालो राज करो के परिणामस्वरुप पाकिस्तान बनने के परिदृश्य को भी नहीं देख पा रहे हैं वे कोरोना के लिए मोदी सत्ता की जिम्मेदारी कैसे तय कर पायेंगे? (जारी...)

जन की बात

 

देवभूमि में लगातार हो रही मौत से सत्ता के प्रति गुस्सा स्वाभाविक है लेकिन उससे भी ज्यादा गुस्सा उन लोगों के प्रति है जो सबकुछ देखते-समझते मौन है। जनमानस को इतना कायर और निहिर हमने कभी नहीं देखा। लगातार अपने ही आसपास हो रही मौत, आपदा में अवसर की तलाश करते नेता व्यापारी फिर भी मौन?

ये सच है कि जब से मोदी सत्ता आई है, सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलना देशद्रोह हो गया है, बहुत से लोग यह मानने लगे हैं या उनका अनुभव है कि इस सरकार से कोई अच्छी बात की जाये, या उनके गलत नीतियों के लिए कुछ बोला जाये तो वे तनिक भी लज्जित नहीं होते, उल्टा झगड़े पर उतारु हो जाते हैं। देशद्रोह कह देते हैं, पाकिस्तान चले जाने की बात करते हैं। सत्ता की ताकत और इस विषैले व्यवहार की वजह से कोई खुलकर विरोध नहीं करता। उनके अनुचित व्यवहार को देखते हुए सामान्यत: बहुत से लोग आंखे मूंद लेते हैं, मौन रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। विपक्ष भी ज्यादा कुछ नहीं कहता, उनके ही उघमहीनता की वजह से मोदी सत्ता का अहंकार सर चढ़कर बोल रहा है। वरना कोरोना के दूसरी लहर के बाद भी चुनावी रैली होती या कुंभ का आयोजन किया जाता।

जनता ही नहीं लगता है समूचा विपक्ष ही निरीह हो चला है वरना चुनाव आयोग की इतनी हिम्मत नहीं है कि इस भीषण महामारी में मरते हुए लोगों के बीच ऐसी चुनावी रैली की अनुमति दे जो सीधा सीधा जनसामान्य की हत्या करने जैसी हो। क्या इस देश का विपक्ष नैतिक-सामाजिक भावनाओं से शून्य, हतवीर्य तथा कायर और जड़ वस्तु नहीं बन गया है। पूरा देश कोरोना के कहर से लाशें गिन रहा है और अब तो कई अखाड़ों ने कुंभ के समाप्त करने की घोषणा कर दी है और बंगाल में ममता ने एक ही साथ बचे चुनाव को करा डालने का प्रस्ताव चुनाव आयोग को दे दिया है। 

तब बाकी विपक्ष क्यों यह प्रस्ताव नहीं देता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस तरह के प्रस्ताव की उम्मीद ही बेमानी है क्योंकि वे तो अपनी पूरी शक्ति बंगाल को जीतने में लगाये हुए हैं। भाजपा जानती है कि बंगाल में उनका कैडर नहीं है इसलिए चुनाव आयोग ने भी भाजपा की स्थिति को देखते हुए आधा दर्जन से अधिक चरण में चुनाव कराने का निर्णय लिया है तब भला बगैर सत्ता से पूछे वह बाकी बचे चुनाव कैसे एक साथ कराने का निर्णय ले सकती है।

शायद सत्ता को अभी और लाशें गिननी है। तब सवाल यही है कि क्या जनता की मौतों से बड़ी सत्ता है, क्या लोकतंत्र में किसी को इतना अधिकार है कि वह अपनी मनमानी कर ले। इस विषम परिस्थिति में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हजारों की रैली कर रहे हो तब आम जनमानस क्या सोचे? या उनकी सोच पर ही इस सत्ता ने पाबंदी लगा दी है।

शर्मनाक बात तो यह भी है कि समूचे विपक्ष में भी कोई ऐसा दमदार नेता नहीं है जो मौत की ओर ढकेलने के इस खेल का विरोध करे। हम किन परिस्थितियों में जी रहे हैं। क्या हमारी सत्ता सभ्यता संस्कृति से दूर हिंसक पशुओं से भी गये गुजरे नहीं हो गई है। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सत्ता महत्वपूर्ण है लेकिन लाशों पर खड़ा होकर सत्ता पाने की आकांक्षा रावण और राक्षसी प्रवृत्ति है।

रावण भी शिवभक्त था, उससे बड़ा शिवभक्त कौन था लेकिन किसी की पूजा और भक्ति देख उसकी राक्षसी प्रवृत्ति को नजर अंदाज करना मूर्खता होगी।

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण...

 

कोविड-19 अब 21 साबित होने लगा है, हर तरफ हाहाकार है, छोटे शहरों की हालत ज्यादा खराब है, अस्पतालों में बेड की कमी, और लापरवाही ने कितने ही घरों की रोशनी छिन ली, और यह आगे कब तक चलेगा कहना मुश्किल है।

कई शहरों में ताला लगने लगा है जिसे लॉकडाउन कहा जा रहा है, शासन-प्रशासन की बेबसी साफ दिखाई देने लगा है, दो गज की दूरी, मास्क जरूरी ही इस संक्रमण से बचने का एक मात्र उपाय है। लेकिन नेताओं को राजनीति करने से फुर्सत नहीं है वे इस आपदा को भी अवसर में बदलकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं।

सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई की तर्ज पर सत्ता और विपक्ष अपने में मस्त हैं, हालांकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बेबाकी से स्वीकार किया कि छत्तीसगढ़ में कोरोना बढऩे की कई वजहों में से एक वजह रोड सेफ्टी क्रिकेट टूर्नामेंट भी हो सकता है लेकिन असली वजह विदर्भ से होली त्यौहार के लिए आवाजाही है। आज के इस दौर में यह स्वीकारोक्ति भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हाउडी ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता बनाने की चाह में निर्णय की देरी की बात को आज तक केन्द्र की सत्ता मानने को तैयार नहीं है।

यह सभी जानते हैं कि राहुल गांधी सहित विपक्ष के कई नेता जनवरी-फरवरी से ही मोदी सत्ता को इसकी भयावकता पर चिंता जता रहे थे लेकिन निर्णय में देरी की वजह से न केवल कोरोना से मौतों के आकड़े बढ़े बल्कि 186 मौते गरीब मजदूरों की सड़कों पर हो गई। मध्यम वर्गों की हालत सबसे ज्यादा खराब हुई। बढ़ते संक्रमण ने देश की आर्थिक स्थिति को बदहाल कर दिया। ऐसे में याद कीजिए सत्ता ने अपनी गलती छुपाने किस तरह से नफरत फैलाकर अपने को पाक बताया था। तब्लिकी जमात और मौलाना साद तो कईयों को आज भी याद होगा लेकिन शायद वे नहीं जानते होंगे कि इस मामले में न्यायालय ने फैसले क्या दिये, सभी पर लगे आरोप निराधार पाये गए। विदेशी नागरिक अपने देश में लौट गए और मौलाना साद के रुप में जो नफरत फैलाई गई वह उन लोगों के दिलों में घर बना लिया जो अच्छे खासे पढ़े लिखे, डिग्रीधारी हैं।

ज्ञान पर नफरत का यह ध्वजारोहण नया नहीं है, हां तरीका नया है क्योंकि एक ही तरीका अपनाया गया तो लोग बेवकूफ नहीं बनेंगे। इसलिए हर बार पूरे सच में से आधे में अपना झूठ और नफरत की चाशनी लपेटी जाती है और इसे परोसा जाता है कि यही पूरी सच लगे।

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण नया नहीं है, धर्म और राष्ट्रवाद के चश्में ने अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे नौजवानों को अपनी चपेट में लिया है। ताजा उदाहरण  बंगाल का है, जिसमें ममता बैनर्जी सिर्फ इसलिए बानों बना दी गई क्योंकि वे अल्पसंख्यकों की पीड़ा के साथ खड़ी नजर आती है। सच तो यह है कि उन्होंने जिस सादगी के साथ मुख्यमंत्री को जिया है वैसा देखने को ही नहीं मिलेगा। विधायक-सांसद से लेकर मुख्यमंत्री तक के सफर में वह आज भी अपनी लिखी किताब की रायल्टी और पेटिंग बेचकर ही पैसा रखती है। न विधायक-सांसद का पेंशन न वेतन।

बकौल ज्योति बसु, 'ममता ही असली कामरेड है लेकिन गलत पार्टी में है। को नजरअंदाज कर भी दें तो जब आज अपने को सजने संवारने में गरीब से गरीब घर की लड़कियां भी हजारों रुपए खर्च करती है खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने को गरीब घर का बताते हुए लाखों रुपए चश्में, घड़ी व पहनावे फैशन पर करते हो तब ममता की सादगी से मुकाबला उसे बानों बनाकर ही किया जा सकता है। तब इस नफरती ध्वाजारोहण में शामिल कितने पढ़े लिखे हैं जो ममता को बानों कहने का विरोध करते हैं? क्या यह उन पढे-लिखे लोगों के क्षणिक स्वार्थ से यह ध्वजारोहण उचित है। मंडल कमीशन के बाद से जिस तरह से पढ़े-लिखे लोगों पर धर्म का कंबल डाला गया है, उसका दुष्परिणाम यह है कि अब मध्यम वर्ग बेबस है असहाय है और कुछ लोग शर्मसार तो हैं लेकिन खामोश कहना ठीक नहीं, भीतर ही भीतर घुन रहे हैं ।

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण का इतिहास जानना जरूरी है कि इसका इतिहास क्या है और कब से शुरु हुआ। इससे पहले ये जान ले कि इसकी शुरुआत कैसे हुई?

ऐतिहासिक तथ्य इसे हिटलर से शुरुआत होना बताते हैं। क्या इससे पहले भी शुरु हुआ? इतिहासकारों का अपना दावा है लेकिन एक बात तो तय है कि इसकी शुरुआत सत्ता और श्रेष्ठता पर आधारित है। सत्तासीन होने और स्वयं को श्रेष्ठ समझने-समझाने के साथ ही ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण हुआ है। क्योंकि बगैर पढ़े-लिखों को तो आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन पढ़े-लिखों में नफरत का ध्वजारोहण आसान नहीं होता क्योंकि वे पंचतंत्र के शेर आया शेर आया वाला चरवाहे की कहानी भी पढ़े लिखे होते है तो आदमखोर शेर के दलदल में सोने का कंगन दिखाकर शिकार करने की कहानी भी जानते हैं तब सवाल था ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण कैसे किया जाए।

हमने पहले ही कहा है कि आदमी तोता नहीं है जो रटा रटाया वाक्य 'शिकारी आयेगा, जाल फैलायेगा, दाना डालेगा, दाना नहीं चुगना, जाल में फंस जाओगे को बोलकर जाल में फंस जायेगा! इसलिए दिल और दिमाग को अलग करना जरूरी था। और यह काम भारत में अंग्रेजों ने किया। अंग्रेजों ने भारतीय को टाई पहनाना शुरु किया। टाई दिल यानी हृदय और दिमाग यानी मस्तिष्क के बीच गले में पहना जाता है। यानी ज्ञान पर नफरत की ध्वजारोहण की शुरुआत भारत में अंग्रेजों ने शुरु की। वह आजादी की लड़ाई का दौर था, अंग्रेजों ने भले ही 1857 की क्रांति को विफल कर दिया था, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़कर ही लंबे समय तक राज किया जा सकता था।

इतिहास चिख-चिख के कह रहा था कि शिवाजी से महाराणा प्रताप के लिए मुस्लिम और मुगलों की तरफ से हिन्दू युद्ध करते थे। कहीं धर्म को लेकर नफरत नहीं था। युद्ध केवल और केवल राजाओं की सत्ता प्राप्ति और सत्ता के विस्तार की वजह से होते थे। आम तौर पर हिन्दू-मुस्लिम सभी एक साथ रह रहे थे। जाति भेद तो था लेकिन वह जीवन जीने के तरीके को लेकर था। नफरत की दीवारें कैसे खड़ी की जाए ताकि जाति और धर्म की दीवार में जहर बोया जा सके यह काम अंग्रेजी सल्तनत का था। और इसी अंग्रेजी सल्तनत ने ही अपने स्वार्थ के लिए नफरत का जहर बोना शुरु किया। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय सेवक संघ का उदय हुआ। और भी संगठन बनने लगे।

1857 की क्रांति से डरे अंग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम एकता को कुठाराघात करने जहां बंग भंग जैसे कानून लाये तो दलितों को अलग करने पूना पेक्ट लाया गया। इस अंग्रेजी नीति में वे लोग फंसते चले गए, जिसमें स्वार्थ भरा था, या जिनमें संघर्ष का माद्दा नहीं था। उधर हिटलर की जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता ने पूरी दुनिया को विश्व युद्ध में झोक दिया तो उसी तरह की श्रेष्ठता की लड़ाई यहां भी होने लगी। इतिहास कुरेदे गये जिनका वर्तमान से कोई संबंध नहीं रहा। राजाओं की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम का मसाला लगाया गया जबकि वह केवल सत्ता की लड़ाई थी। राजाओं के फैसलों में हिन्दू मुस्लिम ढूंढा गया। यहां तक कि अफवाह, झूठ का सहारा लिया जाने लगा।  झूठ को अतिशयोक्ति तक ले जाकर नफरत के बीज बोए जाने लगे। 

लेकिन महात्मा गांधी दीवार बनकर खड़े हुए। नफरत के हर तीर पर ढाल बने रहे लेकिन अंग्रेजों की नीति को कामयाब होने से नहीं रोक पाये। देश का विभाजन नहीं रोक पाये। और विभाजन के बाद जब सत्ता नहीं मिली तो गांधी को ही मार डाला गया। 


रविवार, 18 अप्रैल 2021

जन की बात-२

 

न समय रुक रहा था, न करोनो का कहर ही रुक था। हां सत्ता का चरित्र पल-पल बदल रहा था । अपनी जिम्मेदारी और दायित्व से मुंह मोड़ते सत्ता की जब आलोचना बढऩे लगी तो वह तमाम विरोधी दलों से सुझाव का आबंडर करने लगी, दरबारी मीडिया को सरकार की प्रशंसा में लगा दिया और इस महामारी के बढ़ते प्रकोप के लिए जन मानस को ही जिम्मेदार ठहराया जाने लगा।

जबकि हकीकत यही है कि सत्ता ने इस महामारी के कम होते प्रभाव को लेकर घोर लापरवाही बरती। जिसकी वजह से जब कोरोना का दूसरा लहरा आया तो अस्पताल, दवाई, चिकित्सकों की अनदेखी का पोल खुल गया। विश्व के दूसरे संस्थानों से मिले 50 हजार करोड़ के अलावा पीएम केयर फंड के पैसों का समुचित उपयोग नहीं किया गया जिसकी वजह से चिकित्सा सुविधा बदहाल की बदहाल रही।

जिस तरह से निजी अस्पतालों ने अपदा को अवसर में तब्दिल किया उस पर भी सत्ता की अनदेखी रही। दवाई, आक्सीजन के बगैर दम तोड़ती जिन्दगी के बीच भी कुंभ के आयोजन की अनुमति और चुनौती रैलियों में हजारों की भीड़ जुटाई गई। मोदी सत्ता को सिर्फ और सिर्फ यश चाहिए। जनता की आंखों में, मन में सत्ता प्रमुख का चरित्र खंडित नहीं होना चाहिए। नफरत-झूठ-अफवाह के चलाये शब्द बाण को धर्म और राष्ट्रवाद की चाशनी में परोसने की जिम्मेदारी दरबारी मीडिया की थी। धर्म और राष्ट्रप्रेम का ऐसा आबंडर किसने देखा था। नफरत का वेग इस कदर हावी था कि प्रधानमंत्री जैसा शख्स हर गांव में कब्रिस्तान के मुकाबले श्मशान खड़ा करना चाहता था। (फतेहपुर की जनसभा)

शायद राजा की ईच्छा ईश्वर ने पूरी कर दी थी? हर जगह से जलती चिता के ताप लोग उद्देलित थे, दुखी थे, लेकिन अब भी दरबारी मीडिया सत्ता के महिमा मंडन में लगी थी। कल तक मरकज को कोरोना फैलाने की वजह बताने वाली मीडिया कुंभ और चुनावी रैली पर मौन साध रखा था। मीडिया ने मौन तो एनआरसी और किसान आंदोलन पर भी साध रखा था। लोकतंत्र में सत्ता और मीडिया का सुख किसी अभिशाप की तरह है, जो व्यक्ति को दूसरों की व्यथा की ओर से अंधा कर देता है। मीडिया और सत्ता जितने साधारण होगे लोगों की व्यथा उतनी ही स्पष्ट दिखाई देती है, लेकिन जब सत्ता अपनी रईसी बचाने में व्यस्त हो जाये और मीडिया को रुतबा और पैसों की भूख हो तो जनमानस यूं ही लाशों में तब्दिल होता रहेगा।

हैरानी तो तब होती है जब कोई कहता है मैंने गरीबी देखी है, अभाव में जिया है और सत्ता आते ही सबसे पहले अपने सुख सुविधा के इंतजाम में उन वर्गों की अनदेखी करता है जो उपेक्षित हैं या जिन्हें सरकार के संरक्षण की ज्यादा जरूरत है। हैरानी तब और अधिक होती है जब  वह पूंजीपतियों की गोद में बैठकर, पूंजीपतियों के अनुरुप कानून बनाता है। कितने उदाहरण है जो सत्ता के प्रति घृणा उत्पन्न करती है, नोटबंदी की लाईन में मरते लोग, जीएसटी की चक्रव्यूह में आत्महत्या करते व्यापारी, मॉब लिचिंग और बलात्कार के आरोपियों की जयकारा और दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचारियों को संरक्षण, किसान आंदोलन से मरते किसान के बाद भी किसी सत्ता में करुणा न जगे तो इसका क्या मतलब है। अनेक अवसर में सत्ता ने अपनी मनमानी और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने अहंकार को बढ़ाया है। राफेल का मामला हो या तरुण गोगाई सहित कई नियुक्तियां? लेकिन सत्ता ने धर्म और राष्ट्रवाद का जो भ्रम फैलाया है, उससे जनमानस भ्रमित है और अपना हित नहीं देख पा रही है। (जारी...)

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

संवेदना, दायित्व, अधिकार...

 

इस देश ने कई बवंडर देखें है, यह कोरोना का बवंडर भी थम जायेगा? लेकिन सत्ता की जनमानस के प्रति उपेक्षा याद रहेगी! याद तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ताली-थाली, दीप प्रज्जवलन और टीका उत्सव भी याद रहेगा। आपदा को अवसर में बदलने की सीख तो कई व्यापारी अभी से ही याद कर रहे हैं। ऐसे समय में संवेदना शून्य सरकार और उसके दायित्व को लेकर सवाल खड़ा करना कितना उचित है?

हैरानी तो इस बा की है कि जो लोग कल तक सत्ता की रईसी के लिए लगातार बेचे जा रहे सार्वजनिक उपक्रम और सरकारी संस्थानों के निजीकरण को लेकर सत्ता के साथ खड़े थे वे भी निजी अस्पतालों की कमाई को लूट रहे हैं। हालांकि यह मौका निजीकरण के विरोध का नहीं है लेकिन जो लोग निजीकरण के समर्थक हैं उनके लिए निजी अस्पताल और निजी स्कूल की इस दौर में भी कमाई चेतावनी है।

दरअसल आज भी लोगों को अपने अधिकार का पता ही नहीं है, लोकतंत्र में सरकारें क्यों बनाई जाती है यह वे जानते ही नहीं है, क्योंकि पिछले कई दशकों से उनके दिमाग में यही भरा गया कि सरकार मंदिर नहीं बनवा रही है, अल्पसंख्यकों को ज्यादा तवज्जों दे रही है, आरक्षण के नाम पर सवर्ण समाज का हक और प्रतिभा का गला घोंटा जा रहा है।

जबकि लोकतंत्र में सरकार इसलिए बनाई जाती है ताकि वह आम लोगों के मूलभूत सुविधाओं का ध्यान रखें, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधा अधिकाधिक लोगों को मिले। आपदा के समय किसी को कोई तकलीफ न हो, चोरी, लूट और अन्य अपराध से लोग सुरक्षित जीवन जी सके। टैक्स का बोझ न हो अऔर हर आदमी सुख पूर्वक जीवन जीये, सबको काम मिले।

लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि न सरकारों ने जनता को उनका अधिकार समझाया और न ही सत्ता ने अपने दायित्व को ही पूरा किया। जो समझदार थे, नामी-गिरामी थे, पैसे वाले थे उनके गले में पट्टा डाल दिया गया ताकि वे किसी एक दल के होकर रह जाए और अपने दल की राक्षसी प्रवृत्ति पर भी खामोश रहे। लोकतंत्र में सत्ता महत्वपूर्ण नहीं होता और न ही धर्म जाति महत्वपूर्ण होता है लेकिन सत्ता में बैठने का  लोभ ने इसे हवा दी। और इस हवा के साथ लोग बहते चले गए? उन्हें लगा कि उनका दायित्व सिर्फ अपनी धर्म और जाति की श्रेष्ठता ही है।

ही वजह है कि गांधी और अम्बेडकर की तारीफ करने पर कुछ लोगों के पेट में दर्द होने लगा? उन्हें बताया गया कि हमारा ध्वज का रंग कुछ और है, संविधान गलत है। धर्म नहीं रहेगा तो देश का क्या मतलब!

लेकिन इतिहास गवाह है जिस देश ने भी धर्म अधिक महत्व दिया वह देश न तो ठीक से तरक्की कर पाया और न ही वहां लोकतंत्र ही बच सका। बात कोरोना के बवंडर से शुरु हुई थी इसलिए इस पर ही बात होनी चाहिए। लेकिन इस देवभूमि में जिस तरह लाशें गिर रही है उसे लेकर अब गुस्सा ही है, लगता है सरकार अब भी अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। वह अब भी आपदा में अवसर तलाश रही है क्योंकि चुनाव में हजारों की भीड़ और कुंभ में लाखों की भीड़ में वह अपना निजी फायदा देख रही है। तब सवाल यही है कि कौन अपने अधिकार बोध को जागृत करे। और संवेदना शून्य सरकार पर प्रहार करे।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

कोरोना की दूसरी लहर और मोदी सत्ता...

 

कोरोना की दूसरी लहर इतनी भयावह होगी, यह किसने सोचा था? क्या पहली लहर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए चेतावनी थी कि वह पूरा ध्यान स्वास्थ्य सुविधा पर दे? सवाल कई है क्योंकि अस्पताल और दवाई से जूझ रहे लोगों को यह जानना चाहिए कि पिछले साल कोरोना की पहली लहर से निबटने डब्ल्यू.एस.ओ, आईएमएफ और एशियन डेवलपमेंट बैंक ने भारत को करीब 53 हजार 620 करोड़ रुपए दिये थे ताकि मोदी सत्ता स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करे। इसके अलावा पीएम केयर फंड में भी करोड़ों अरबों रुपए जमा हुए थे! लेकिन मोदी सत्ता ने क्या किया?

सवाल बहुत से है लेकिन सारे सवाल का हिन्दू-मुस्लिम ही जवाब हो तो फिर गुस्सा और करुणा में लाशें गिनने के अलावा जनता कर भी क्या सकती है। देश का कोई राज्य नहीं है जहां स्वास्थ्य सुविधा मजबूत हो, हर जगह सरकारी लापरवाही साफ दिख रहा है, उपर से कुंभ और चुनाव ने मोदी सत्ता की लापरवाही के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं?

कोरोना को लेकर जब पिछले साल सारी दुनिया उपाय ढूंढ रही थी तब हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नमस्ते ट्रम्प के चक्कर में थे लेकिन इसका दुष्परिणाम क्या हुआ। न यार मिला न बिसार सनम के तर्ज पर कोरोना तो बढ़ा ही अमेरिका से दुश्मनी अलग मोल ले ली। लापरवाही यही नहीं रुकी जब तक मध्यप्रदेश में सत्ता नहीं बन गई तब तक हाथ बांधे इंतजार किया गया। राहुल गांधी ने जब कोरोना को सुनामी और अर्थव्यवस्था को लेकर चेतावनी दी तो मोदी सत्ता सहित पूरी भाजपा मजाक बनाने लगे। यानी जिस सत्ता को विपक्ष का अच्छा सुझाव भी गंवारा नहीं उस सत्ता के अहंकार का असर जनता ही भुगतेगी। लेकिन सत्ता इन सब बातों से इसलिए बेपवाह है क्योंकि उनके पास लोगों का दिल जीतने धर्म और राष्ट्रवाद का ब्रम्हा है।

खैर सवाल तो यही है कि सालभर के समय मिलने के बाद भी मोदी सत्ता ने अस्पताल दवाई और डॉक्टर के बारे में क्या किया। कुछ नहीं किया और हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा कहा जाए तो गलत नहीं है। दुनिया की शायद यह पहली सत्ता है जिसका विरोध करना देशद्रोह है, पैसों का हिसाब मांगना देशद्रोही और हिन्दू विरोधी है। कब्रिस्तान की तरह श्मशान में बढ़ोत्तरी की मंशा सबके सामने है। उपर से सत्ता का जिम्मेदारी से भागना तो बेशर्मी की हद पार करना है। हर बात पर हिन्दू-मुस्लिम और राष्ट्रवाद के ढोंग ने देश के सामने भयावह संकट खड़ा कर दिया है। चिकित्सा सुविधा को मजाक बना देने और निजी अस्पतालों को प्रश्रय देने का नतीजा सबके सामने है। तब सवाल है आम आदमी क्या करे, एक तरफ सरकारी अस्पतालों में सुविधा का अभाव और दूसरी तरफ निजी अस्पतालों की महंगी होती चिकित्सा सुविधा में आम जन मरे नहीं तो क्या होगा। हम निजी अस्पताल की चिकित्सा व्यवस्था को लूट इसलिए नहीं कहेंगे क्योंकि ये सिस्टम क अंग है। जब सरकार ही सुविधा देने के नाम पर कमीशनखोरी और लूट मचा रखी है तब किसी एक संस्थान पर लूट का आरोप बेमानी है।

जब सत्ता ही आपदा को अवसर में बदलने का राग अलाप रहा हो तो कालाबाजारी कैसे गलत हो सकता है आखिर वे गलत क्या कर रहे है। जैसी राजा वैसी प्रजा तो 2014 के बाद से चल रही है।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण-2

 

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि इसका इतिहास क्या है और कब से शुरु हुआ। इससे पहले ये जान ले कि इसकी शुरुआत कैसे हुई?

ऐतिहासिक तथ्य इसे हिटलर से शुरुआत होना बताते हैं। क्या इससे पहले भी शुरु हुआ? इतिहासकारों का अपना दावा है लेकिन एक बात तो तय है कि इसकी शुरुआत सत्ता और श्रेष्ठता पर आधारित है। सत्तासीन होने और स्वयं को श्रेष्ठ समझने-समझाने के साथ ही ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण हुआ है। क्योंकि बगैर पढ़े-लिखों को तो आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन पढ़े-लिखाों में नफरत का ध्वजारोहण आसान नहीं होता क्योंकि वे पंचतंत्र के शेर आया शेर आया वाला चरवाहे की कहानी भी पढ़े लिखे होते है तो आदमखोर शेर के दलदल में सोने का कंगन दिखाकर शिकार करने की कहानी भी जानते हैं तब सवाल था ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण कैसे किया जाए।

हमने पहले ही कहा है कि आदमी तोता नहीं है जो रटा रटाया वाक्य 'शिकारी आयेगा, जाल फैलायेगा, दाना डालेगा, दाना नहीं चुगना, जाल में फंस जाओगÓे को बोलकर जाल में फंस जायेगा! इसलिए दिल और दिमाग को अलग करना जरूरी था। और यह काम भारत में अंग्रेजों ने किया। अंग्रेजों ने भारतीय को टाई पहनाना शुरु किया। टाई दिल यानी हृदय और दिमाग यानी मस्तिष्क के बीच गले में पहना जाता है। यानी ज्ञान पर नफरत की ध्वजारोहण की शुरुआत भारत में अंग्रेजों ने शुरु की। वह आजादी की लड़ाई का दौर था, अंग्रेजों ने भले ही 1857 की क्रांति को विफल कर दिया था, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़कर ही लंबे समय तक राज किया जा सकता था।

इतिहास चिख-चिख के कह रहा था कि शिवाजी से महाराणा प्रताप के लिए मुस्लिम और मुगलों की तरफ से हिन्दू युद्ध करते थे। कहीं धर्म को लेकर नफरत नहीं था। युद्ध केवल और केवल राजाओं की सत्ता प्राप्ति और सत्ता के विस्तार की वजह से होते थे। आम तौर पर हिन्दू-मुस्लिम सभी एक साथ रह रहे थे। जाति भेद तो था लेकिन वह जीवन जीने के तरीके को लेकर था। नफरत की दीवारें कैसे खड़ी की जाए ताकि जाति और धर्म की दीवार में जहर बोया जा सके यह काम अंग्रेजी सल्तनत का था। और इसी अंग्रेजी सल्तनत ने ही अपने स्वार्थ के लिए नफरत का जहर बोना शुरु किया। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय सेवक संघ का उदय हुआ। और भी संगठन बनने लगे।

1857 की क्रांति से डरे अंग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम एकता को कुठाराघात करने जहां बंग भंग जैसे कानून लाये तो दलितों को अलग करने पूना पेक्ट लाया गया। इस अंग्रेजी नीति में वे लोग फंसते चले गए, जिसमें स्वार्थ भरा था, या जिनमें संघर्ष का माद्दा नहीं था। उधर हिटलर की जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता ने पूरी दुनिया को विश्व युद्ध में झोक दिया तो उसी तरह की श्रेष्ठता की लड़ाई यहां भी होने लगी। इतिहास कुरेदे गये जिनका वर्तमान से कोई संबंध नहीं रहा। राजाओं की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम का मसाला लगाया गया जबकि वह केवल सत्ता की लड़ाई थी। राजाओं के फैसलों में हिन्दू मुस्लिम ढूंढा गया। यहां तक कि अफवाह, झूठ का सहारा लिया जाने लगा।  झूठ को अतिशयोक्ति तक ले जाकर नफरत के बीज बोए जाने लगे। 

लेकिन महात्मा गांधी दीवार बनकर खड़े हुए। नफरत के हर तीर पर ढाल बने रहे लेकिन अंग्रेजों की नीति को कामयाब होने से नहीं रोक पाये। देश का विभाजन नहीं रोक पाये। और विभाजन के बाद जब सत्ता नहीं मिली तो गांधी को ही मार डाला गया। (जारी...)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

आपदा में अवसर...

 

जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आपदा में अवसर की बात कही थी तब भी वे लोग ताली बजा रहे थे, जो हिन्दू कुंठा से ग्रस्त थे, उन्हें तो मोदी की हर बात अच्गछी लगती है चाहे वह कितना भी अधार्मिक हो या अनैतिक हो। ये वे लोग है जो ईवीएम के विरोध को भाजपा का विरोध मानते हैं और भाजपा के विरोध को देश का।

खैर बात यहां महामारी में आपदा में अवसर की बात पर ही चर्चा होनी चाहिए क्योंकि ये बात प्रधानमंत्री ने कहा थी और उसका परिणाम कालाबाजारी से लेकर निजी अस्पतालो में दिखाई देने लगा है। बहुत पहले शायद स्कूल के दिनों में कहीं सुना था कि आपदा में अवसर नहीं सेवा ही धर्म होना चाहिए और कोई भी लोकतांत्रिक और सेवाभावी जनसेवक महामारी में आपदा में अवसर की बात नहीं कर सकता लेकिन तब मेरे इस बात को लेकर भक्तों ने मुझसे लड़ाई भी कर ली थी और कुछ तो आज भी बात नहीं करते।

तब यह भी कहा गया कि महामारी जैसे आपदा में अवसर की प्रतिज्ञा गिद्ध, सियार और लकड़बग्घे करते हैं, उनके लिए महामारी से प्रभावित लाशें शानदार दावतें होती है और ये उनके लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। जिस देश में एक व्यक्ति के सुख और दुख में पूरा गांव का गांव, या मोहल्ला का मोहल्ला शामिल होता है वहां महामारी के आपदा में उत्सव की बात कोई सोच भी कैसे सकता है लेकिन अंधेर नगरी, अंधेर राजा की कहानी भी याद न हो तो फिर पढऩे-लिखने का मतलब ही क्या है?

आपदा में अवसर की तलाश ज्यादातर वे लोग करते हैं जिनके खून में व्यापार है। और यह बात जब कोई स्वयं स्वीकार कर ले तो याद कीजिए 1965 और 1971 का वह युद्ध जब कुछ व्यापारी कालाबाजारी कर आपदा में अवसर का लाभ ले रहे थे। लेकिन तब सत्ता ने सेवा को धर्म बताकर कितने ही व्यापारियों के हृदय परिवर्तन किये थे लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री ही आपदा में अवसर जैसे शब्दों का प्रयोग करेगा तो उसका परिणाम क्या होगा?

लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही कालाबाजारी और अब निजी अस्पतालों की लूट से आम जनमानस में भय व्याप्त है। भयमुक्त शासन का कहीं पता नहीं है। लेकिन हमारा आज भी मानना है कि आपदा में अवसर की तलाश करने की बजाय आपदा में सेवा धर्म किया जाए!

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

सातवां बेड़ा...

 

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में विदेशी  हस्तक्षेप को लेकर बाइडन ने साफ कह दिया था कि इसकी प्रतिक्रिया मिलेगी ! तब किसने सोचा था कि अमेरिका का निशाना सिर्फ रूस नहीं भारत भी होगा।

भारत के मामले में बिना चुनौती के इस तरह से सातवें बेड़े के भारतीय ईईंजेड में प्रवेश क्या अबकी बार ट्रम्प सरकार की प्रतिक्रिया है। अपने जहाज को भारत की सीमा में प्रवेश कराकर जिस तरह से प्रेस नोट जारी किया गया है वह पूरी दुनिया को जानकारी देना ही नहीं भारत की फजीहत करना भी है।

भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया ये बता रही है कि ऐसा हुआ है। विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में लिखा है कि यूएन कन्वेशन के तहत कोई भी देश, किसी दूसरे देश की ईईजेड में देश की अनुमति के बिना हथियार और साजो समान से लदे फ्लीट के साथ प्रवेश नहीं कर सकता। यदि जहाज में व्यापारिक वस्तएं है तो अनुमति की जरूरत नहीं।

हालांकि अमेरिका इसे अधिकार और आजादी का इस्तेमाल करने का दावा कर रही है और इसे फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशन बता रही है और यह भी कहा है कि भारत के समुन्दर को लेकर किये जा रहे दावे को वह नहीं मानते और आगे भी ऐसा करते रहेंगे।

यह एक तरह से भारतीय संप्रभुता को खुलकर चुनौती है लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी हैरान कर देने वाला है। सांतवा बेड़ा नाम सुनकर 1971 जेहन में आने लगता है। तब पाकिस्तान पर हमला करने पर अमेरिका के द्वारा धमकी दी जा रही थी वो सातवां बेड़ा भेजेंगे। और अमेरिका ने हिन्द महासागर में सातवां बेड़ा उतार भी दिया लेकिन तब इस देश की लौह महिला ने अमेरिका को आंख दिखाकर न केवल सांतवा बेड़ा को लौटने मजबूर कर दिया था बल्कि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे।

अमेरिका द्वारा किये गये इस सार्वजनिक फजिहत से पहले पाठकों को यह जान लेना चाहिए कि इंदिरा गांधी उसी जवाहर लाल नेहरु की बेटी और राहुल गांधी की दादी है जिन पर परिवारवाद का आरोप जड़ा जाता है और 70 साल में कुछ नहीं किया का दावा किया जाता है। हैरानी तो यह है कि 70 साल में कुछ नहीं करने का दावा वे लोग भी समर्थन करते हैं जो सायकल से कार में पहुंच गए?

खैर राजनीति में झूठ नफरत और अफवाह ही जिनकी सोच हो उनके बारे में ज्यादा क्या कहा जाए? जिस तरह से झूठ और नफरत की दीवार खड़ी हुई है उसी तरह से ये गिर भी जायेगी? लेकिन तब देर न हो जाए।

ऐसे में यदि चीन के बाद दूर बैठे अमेरिका भी यदि भारतीय संप्रभुता को चुनौती देने लगे तो इसका करार जवाब दिया जाना चाहिए क्योंकि अमेरिका हर चुप्पी को कमजोरी समझता है तब अमेरिका यह भी जान ले कि कमजोर देश नहीं सत्ता  हो सकता है!

रविवार, 11 अप्रैल 2021

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण...


कोविड-19 अब 21 साबित होने लगा है, हर तरफ हाहाकार है, छोटे शहरों की हालत ज्यादा खराब है, अस्पतालों में बेड की कमी, और लापरवाही ने कितने ही घरों की रोशनी छिन ली, और यह आगे कब तक चलेगा कहना मुश्किल है।

कई शहरों में ताला लगने लगा है जिसे लॉकडाउन कहा जा रहा है, शासन-प्रशासन की बेबसी साफ दिखाई देने लगा है, दो गज की दूरी, मास्क जरूरी ही इस संक्रमण से बचने का एक मात्र उपाय है। लेकिन नेताओं को राजनीति करने से फुर्सत नहीं है वे इस आपदा को भी अवसर में बदलकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं।

सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई की तर्ज पर सत्ता और विपक्ष अपने में मस्त हैं, हालांकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बेबाकी से स्वीकार किया कि छत्तीसगढ़ में कोरोना बढऩे की कई वजहों में से एक वजह रोड सेफ्टी क्रिकेट टूर्नामेंट भी हो सकता है लेकिन असली वजह विदर्भ से होली त्यौहार के लिए आवाजाही है। आज के इस दौर में यह स्वीकारोक्ति भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हाउडी ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता बनाने की चाह में निर्णय की देरी की बात को आज तक केन्द्र की सत्ता मानने को तैयार नहीं है।

यह सभी जानते हैं कि राहुल गांधई सहित विपक्ष के कई नेता जनवरी-फरवरी से ही मोदी सत्ता को इसकी भयावकता पर चिंता जता रहे थे लेकिन निर्णय में देरी की वजह से न केवल कोरोना से मौतों के आकड़े बढ़े बल्कि 186 मौते गरीब मजदूरों की सड़कों पर हो गई। मध्यम वर्गों की हालत सबसे ज्यादा खराब हुई। बढ़ते संक्रमण ने देश की आर्थिक स्थिति को बदहाल कर दिया। ऐसे में याद कीजिए सत्ता ने अपनी गलती छुपाने किस तरह से नफरत फैलाकर अपने को पाक बताया था। तब्लिकी जमात और मौलाना साद तो कईयों को आज भी याद होगा लेकिन शायद वे नहीं जानते होंगे कि इस मामले में न्यायालय ने फैसले क्या दिये, सभी पर लगे आरोप निराधार पाये गए। विदेशी नागरिक अपने देश में लौट गए और मौलाना साद के रुप में जो नफरत फैलाई गई वह उन लोगों के दिलों में घर बना लिया जो अच्छे खासे पढ़े लिखे, डिग्रीधारी हैं।

ज्ञान पर नफरत का यह ध्वजारोहण नया नहीं है, हां तरीका नया है क्योंकि एक ही तरीका अपनाया गया तो लोग बेवकूफ नहीं बनेंगे। इसलिए हर बार पूरे सच में से आधे में अपना झूठ और नफरत की चाशनी लपेटी जाती है और इसे परोसा जाता है कि यही पूरी सचा लगे।

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण नया नहीं है, धर्म और राष्ट्रवाद के चश्में ने अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे नौजवानों को अपनी चपेट में लिया है। ताजा उदाहरण  बंगाल का है, जिसमें ममता बैनर्जी सिर्फ इसलिए बानों बना दी गई क्योंकि वे अल्पसंख्यकों की पीड़ा के साथ खड़ी नजर आती है। सच तो यह है कि उन्होंने जिस सादगी के साथ मुख्यमंत्री को जिया है वैसा देखने को ही नहीं मिलेगा। विधायक-सांसद से लेकर मुख्यमंत्री तक के सफर में वह आज भी अपनी लिखी किताब की रायल्टी और पेटिंग बेचकर ही पैसा रखती है। न विधायक-सांसद का पेंशन न वेतन।

बकौल ज्योति बसु, 'ममता ही असली कामरेड है लेकिन गलत पार्टी में हैÓ। को नजरअंदाज कर भी दें तो जब आज अपने को सजने संवारने में गरीब से गरीब घर की लड़कियां भी हजारों रुपए खर्च करती है खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने को गरीब घर का बताते हुए लाखों रुपए चश्में, घड़ी व पहनावे फैशन पर करते हो तब ममता की सादगी से मुकाबला उसे बानों बनाकर ही किया जा सकता है। तब इस नफरती ध्वाजारोहण में शामिल कितने पढ़े लिखे हैं जो ममता को बानों कहने का विरोध करते हैं? क्या यह उन पढे-लिखे लोगों के क्षणिक स्वार्थ से यह ध्वजारोहण उचित है। मंडल कमीशन के बाद से जिस तरह से पढ़े-लिखे लोगों पर धर्म का कंबल डाला गया है, उसका दुष्परिणाम यह है कि अब मध्यम वर्ग बेबस है असहाय है और कुछ लोग शर्मसार तो हैं लेकिन खामोश कहना ठीक नहीं, भीतर ही भीतर घुस रहे हैं।

(जारी...)

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

शाबास प्रधानमंत्री जी...

 

क्या बात है... देश में फिर कोरोना हाहाकार मचाने लगा है। रोज हजारों लोग मरने लगे हैं, देश की जनता तो सीधी-साधी है और सबसे भोले हैं हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी। और उनसे भी लाख गुना सीधे है हमारे गृहमंत्री अमित शाह जी। दुनिया में आग लग जाए इन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर पहुंच जायेंगे बंगाल और जुटा लेंगे लाखों की भीड़।

मुझे एक बात प्रधानमंत्री से सीधी पूछनी है कि क्या आपकी रैलियों में जो भीड़ जुट रही है उससे कोरोना नहीं फैलता क्या? चंद रुपयों की खातिर रैली में आने वालों के लिए तो भूख पहले से ही महत्वपूर्ण रहा है लेकिन देश में जिस तरह से कोरोना के कहर से लाशों में लोग तब्दिल हो रहे हैं क्या वह भई दिखाई नहीं दे रहा है या चुनावी जीत के लिए लोगों की जान को दांव में लगा देना उचित है?

शाबास की हेडलाईन इसलिए लगाया ताकि भाजपा के वे लोग भी पढ़े और एक बार चिंतन करें कि चुनावी जीत क्या इतना जरूरी है। प्रधानमंत्री जी आप देश के मुखिया हैं और मुखिया का व्यवहार और कर्तव्य सब लोगों के हित के लिए होना चाहिए। हम मानते हैं कि चुनाव में जीत महत्वपूर्ण है लेकिन एक दो राज्य गंवा देने से क्या फर्क पड़ जायेगा, पहले भी तो छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली गंवा ही चुके हो।

एक तरफ देश में कोरोना ने हाहाकार मचा दिया है, नाईट कफ्र्यू, लॉकडाउन ने आम आदमी को प्रताडि़त किया है तो दूसरी ओर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावी सभा लेने में व्यस्त है, दिनभर चुनावी सभा और शाम को दो गज की दूरी और मास्क जरूरी की बात क्या बेमानी नहीं है।

हमने पहले ही कहा है कि इस देश में कोरोना के लिए हाउडी ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता की भूख ही जिम्मेदार है, और इस बार फिर कहते हैं कि चुनावी सभा में जुटाये जा रहे भीड़ इस देश को नरक बना देने वाला है। सत्ता और राजनेताओं की बेशर्मी के कितने ही किस्से हैं लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री ही चुनावी जीत के लिए जनता की जान को ही दांव पर लगा दे तो इसका मतलब साफ है कि हाउडी ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सत्ता बनते तक का इंतजार भी क्या ऐसा ही कुछ नहीं था।

हैरानी तो इस बात की है कि करोड़ों लोगों की जान दांव में लगते देख भी राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट ने आंखे बंद कर रखी है बाजार में भीड़ पर हल्ला मचाने वाली मीडिया को भी चुनावी रैली में भीड़ जुटाने वालों के तलवे चाटना पसंद है। जब देश की तमाम संवैधानिक संस्था, समाजसेवी कलाकार सब चुप हो तो जनता क्या करें।

वैसे भी इस देश ने गरीबी और भूखमरी के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं, चंद पैसों के लिए जो लोग अपनी जान को जोखिम में डाल रहे हैं उनका ही दोष गिनाया जायेगा, कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि प्रधानमंत्री की चुनावी सभा से कोरोना की स्थिति आने वाले दिनों में भयावह होने वाला है। लेकिन प्रधानमंत्री जी अब तो फैसला लिजिए, लोगों को बख्श दीजिए, बंगाल तो आते-जाते रहेगा लेकिन जब लोग ही नहीं रहेंगे तब...!

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

मेरा नाम जोकर...

 

इतिहास अपने आप को दोहराता है, जान लिजिए कि, राजकपूर ने एक फिल्म बनाई थई- मेरा नाम जोकर! अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बनाई यह फिल्म अपनी पहली रीलिज में बुरी तरह पीठ गई, राज कपूर का सब कुछ लूट गया, यहां तक कि उनकी स्टूडियों तक के बिकने की नौबत आ गई लेकिन वे अकेले थे, संभल गए। यदि नहीं संभलते तब भी उनका परिवार सड़क पर आता फिर पता नहीं क्या होता!

खैर यह इतिहास की बातें हैं, लेकिन मेरा नाम जोकर का इतिहास इस बार पूरे देश में दोहराया गया, राजनीति में बन रही यह फिल्म पूरा हुआ है या नहीं कहना कठिन है, लेकिन इस फिल्म में कई जोकर हैं, और अब भी कई जोकर की भूमिका के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। सालों से बन रही इस फिल्म के निर्माता पर्दे के पीछे से नये-नये जोकर ढूंढते हैं, जो सत्ता के बाहर रहते कुछ कहते हैं लेकिन सत्ता में आते ही अपनी ही जुबान से पलट जाते हैं, लेकिन जोकर की भूमिका मिलने और फिल्म पूरी करने की चाह में या पूरी फिल्म देखने की चाह में लोग किसी का नहीं सुन रहे हैं।

नफरत, अफवाह झूठ के मसाले रोज डाले जा रहे हैं और जोकर की अदाकारी पर ताली बजाने वालों की कमी नहीं हैं। यह फिल्म अभी पूरी भी नहीं हुई है तब कितने ही लोग बर्बाद होने लगे हैं और जब फिल्म पूरी होगी तो पता नहीं क्या होगा। हैरानी की बात तो यह है कि फिल्म पूरी होने की ईच्छा रखने वाले भी अब सड़कों पर आने लगे हैं लेकिन दूसरों को बर्बाद करने का शौक में कहां देखता है कि वह खुद और उसका घर बर्बाद हो रहा है।

मतलब साफ है, समझदार के लिए ईशारा काफी है। जीएसटी से लेकर राजनीति में अपराधियों की खिलाफत करने वाले आज खुद ही अपराधग्रस्त होने लगे हैं। नोटबंदी, लॉकडाउन, जीएसटी, निजीकरण, महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की व्यथा पर इनके पुराने भाषण सुन लीजिए। इसके बाद भी आंखे न खुले तो जोकर बनने तैयार हो जाईये।

वैसे राजनीति का खेल कौन समझता है? इसलिए आश्वासन पर हर बार वोट पढ़ते जाते हैं। सत्ता की रईसी बरकरार रखने के उपक्रम भी कौन देखता है, क्योंकि जब गले में दुरंगा पट्टा बंधा हो तो हरकत भी दुरंगा ही होगा। कोरोना महामारी के खतरे पर ही राजनीति हैरान करने वाली है, ताली थाली, दीपक जलाने के तमाम उपक्रम के बीच यदि फिल्म पूरी होते देखने की चाह बनी हुई है तो इसका मतलब साफ है कि दोरंगे पट्टे ने आपके गले को इस कदर बांध रखा है कि मस्तिक और दिल को जोडऩे वाला नस अलग हो चुका है अब सिर्फ वही होगा जो जोकर दिखायेगा। फिल्में पूरी हो या ना हो ट्रेलर को हिट किया जायेगा, गानों से कमाई होगी और फिल्म पूरी होते देखने की चाह में जोर बनते लोग यही सोचते रहेंगे कि देशद्रोही फिल्म ही नहीं बनने देना चाहते!

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

कानून से उपर सत्ता और बेबसी...

 

नक्सली हमले के बाद देश के गृहमंत्री अमित शाह का छत्तीसगढ़ दौरा इन दिनों सुर्खियों में है तो उसकी वजह बगैर मास्क की वे तमाम तस्वीरें है जो साबित करती है कि सत्ता के आगे जनता कितनी बेबस है।

अब जब न्यायालय में कार में अकेले सफर करने वाले को मास्क लगाने को उचित बता रहा है तब सोचिये देश के गृहमंत्री की इन तस्वीरों का मतलब क्या है। कहते हैं कि हर अपराधी की शुरुआत झूठ बोलने की आदत से शुरु होती है और यह सफर रंगा-बिल्ला या कुख्यात तक पहुंच जाता है, इसी तरह सार्वजनिक जीवन में छोटी-छोटी बातों का महत्व है। यही छोटी बात आम आदमी के जीवन को प्रभावित करता है।

ये सच है कि हर व्यक्ति का अपने जीवन में बहुत कुछ निजी होता है लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीते है उनकी छोटी सी छोटी बात भी जनमानस को प्रभावित करता है। ऐसे में गृहमंत्री का मास्क नहीं लगाना चुनावी रैलियों में भीड़ और कुंभ या सामाजिक कार्यक्रमों में भीड़ का क्या प्रभाव पड़ता होगा यह सहज ही समझा जा सकता है।

देश केवल कोरोना की महामारी से त्रस्त नहीं है बल्कि झूठ, नफरत और अफवाह के उस जंजाल में भी फंस चुका है जिसके चलते हालात बदतर होते जा रहे हैं। हमारा दावा है कि कोरोना जैसी महामारी नहीं भी आती तब भी देश के हालात इसी तरह केे होते क्योंकि सत्ता पाने के लिए जो बीज बोया गया है उसका परिणाम तो दुखद होना ही था।

कानून को सत्ता के दम पर ठेंगा दिखाने की परम्परा चल पड़ी है, कितने ही उदाहरण है जब सत्ता ने अपनी मनमानी से जनता को बेबस कर दिया है, और अब तो झूठ, नफरत और अफवाह की चाशनी में सत्ता ने जनमानस के दिमाग में नस्लवाद का ऐसा जहर भर दिया है जिसका असर आसानी से जाने वाला इसलिए भी नहीं है क्योंकि सत्ता पाने की राह में सभी जहर बो रहे हैं। याद कीजिए सीएए के विरोध में बैठे लोगों को किस हद तक जलील किया गया वह याद नहीं है तो किसान आंदोलन को ही याद कर लीजिए, अफवाहबाजों ने क्या कुछ नहीं किया। इसके बाद भी यदि किसी को स्यिूमर स्पीड सोसायटी पर भरोसा है तो इसका मतलब साफ है कि विरोध का हर स्वर मुल्ला मुलायम या ममता बेगम के तमके के लिए तैयार रहे।

क्या इस देश में कोई बहुसंख्यक समाज का व्यक्ति किसी अल्पसंख्यक के लिए खड़ा नहीं हो सकता! पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें नई नहीं है और सत्ता के लिए राजनैतिक दल ये दावा करने से नहीं चुकते कि अल्पसंख्यक उनका हक छिन रहे हैं और पहले ही अव्यवस्था से दुखी व्यक्ति आसानी से ऐसे लोगों की बातों में आ जाते हैं।

ऐसे में यदि अमित शाह के मास्क नहीं पहनने पर उनकी पार्टी के लोग खामोश हो या दूसरे का पाप गिनाने लगे तो समझ लिजिए पट्टा ने दिल और दिमाग दोनों को अलग कर इस हद तक जकड़ लिया है कि मस्तिष्क कुंद हो गया है। और जनता बेचारी तो बेबस है।

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

लॉकडाउन का अर्थ...

 

क्या कोरोना से निपटने का लॉकडाउन ही एकमात्र उपाय है? पिछला अनुभव बेहद कटु है? लॉकडाउन से देश में हाहाकार मच गया था, भूखे-बिलखते बच्चे, पटरी में मरते परिवार और प्लेटफार्म में मृत मां के साथ बच्चे, पुलिसिया अत्याचार से लेकर संवेदनहीन सरकारों के चेहरे सामने आ जाते हैं, लॉकडाउन समस्या का हल होता तो देश में लॉकडाउन के बाद कोरोना का विस्तार नहीं होता!

तब क्या उपाय है? इस सवाल को उठाये जाने की जरूरत है! एक लॉकडाउन के तुगलगी फरमान को जनता ने भुगता है, मर मर के जीते लोग और सिसक-सिसक के मरते लोगों की पीड़ा को पूरे देश ने महसूस किया है। असल में यह देश उस ढंग का बना ही नहीं है कि लॉकडाउन किया जा सके, न हमारी जीवनशैली वैसी है। तब एक ही उपाय है, जागरुकता और सख्ती! उससे न व्यापारियों को दिक्कत होगी न आम लोगों को। इस भीषण गर्मी में यदि सुबह 6 बजे से शाम पांच बजे तक ही कारोबार की छूट हो तो घर से वहीं निकलेंगे जिन्हें जरूरी है।

लेकिन शर्मनाक तो यह है कि कोरोना को राजनीति ने भी अपनी जुगाड़ बना लिया है, आपदा को अवसर में बदलने की राजनैतिक महत्वांकाक्षा आसमान पर है। पांच राज्यों के चुनाव से लेकर कुंभ तक राजनीति अपने चश्में से देख रहा है। तब लॉकडाउन का अर्थ केवल लोगों को परेशान करना नहीं तो और क्या है?

ये सच है कि कोरोना का यह दौर बेहद डरावना और भयावह है, और केन्द्र सरकार की तुगलगी फरमान ने इसे और भयावह बना दिया है। लोगों की नौकरी जाने लगी और गरीबी, भूखमरी बढऩे लगी। लेकिन यकीन मानिये यदि कोरोना नहीं आता तब भी केन्द्र की नीति से यह सब होना तय था।

जो देश आरबीआई के रिजर्व फंड और अपने संसाधनों को बेचता चला जाता है वहां आम आदमी की खुशहाली पर ग्रहण लगता ही है। ऐसे में कोरोना का आना दुबले पर दो आषाढ़ है, पहला आषाढ़ तो हमने चुना है लेकिन दूसरा आषाढ़ से बचा जा सकता है, शाम से सरकारी सख्ती और दिन में जरूरी हो तभी घर से निकलने के नियम का पालन!

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

सत्ता की राजनीति...

 

नक्सली हमले में मारे गये जवानों के अंतिम संस्कार के दौरान परिजनों की तस्वीरें बेहद भावुक और भीतर तक हिला देने वाली है। हालांकि आम लोग इसे कुछ दिनों बाद भूल जायेंगे नेताओं और सरकार की तो बात ही करना बेमानी है क्योंकि सत्ता की क्रूरता और संवेदनहीनता की लम्बी कहानी है।

अचानक लॉकडाउन से मजदूरों और मध्यम वर्गों की बदहाली की तस्वीरों को अब कौन याद रखता है। और यदि सत्ता को यह सब याद भी है तो वह पुनर्रावृत्ति रोकने के लिए क्या कर रही है।

महामारी की बात छोड़ भी दे तो धर्म और जाति में नफरत बोने वाले भी कहां चुप है। वे आज भी अपने को श्रेष्ठ कहते हुए दूसरे का अपमान करने से नहीं चुकते। इस दुनिया में शायद ही कुछ लोग होंगे जो अपने धर्मों का पूरी तरह पालन करते होंगे लेकिन उन्हें दूसरे धर्म से और उसे मानने वालों से बेहद नफरत है और वे अपनी नफरत का इजहार सार्वजनिक रुप से करने से भी नहीं हिचकते।

दरअसल नक्सली से लेकर दंगे और जाति से लेकर धर्म की वजह से जो अशांति फैली है, मारकाट मचा है उसके मूल में  सत्ता और उसकी राजनीति ही है। सत्ता पाने के लिए और सत्ता की रईसी बरकरार रखने के खेल में आम आदमी पिसता चला जा रहा है।

सत्ता की वजह से ही गलत लोगों को फलने-फूलने का मौका मिलता है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है। सौ करोड़ की वसूली का मामला हैरान कर देने वाला है, जिस देश में बेरोजगारी और भूखमरी बढ़ते जा रही है वहां सत्ता की रईसी की कल्पना की बेमानी है। राफेल डील का मामला भी संदिग्ध होता रहा है, सत्ता की ताकत का अहसास तो पहले से ही था लेकिन फ्रेच जर्नर के दावे ने इसकी पुष्टि कर दी। यदि दो सरकारों के बीच हुए सौदो में भी कमीशन या दलाली होने लगी है तो जान लिजिए की सत्ता ने इसे सिस्टम बना दिया है। ऐसे में अब तो सत्ता यह कहकर सारे अपराधों से मुक्ति भी पा सकती है कि जनता ने उन्हें पांच साल के लिए चुना है इसलिए इन पांच वर्षों में वे जो करें सब सही है। 

याद कीजिए छत्तीसगढ़ में एक घोटाले पर जब विपक्ष ने सवाल उठाया था तो तब के तत्कालीन मुख्यमंत्री का जवाब था 'जब बेचने वाले को आपत्ति नहीं, खरीदने वाले को आपत्ति नहीं तो विपक्ष को क्यों आपत्ति हो रही है।Ó

निजीकरण के होड़ में क्या यही सब कुछ नहीं हो रहा है, सरकार धड़ाधड़ सब बेच रही है और कई एसेट्स तो कम कीमत में बेची जा रही है।

ऐसे में बिहार में जब छात्र सिर्फ इसलिए तोडफ़ोड़ करते है कि उनकी पढ़ाई का नुकसान अब बर्दाश्त नहीं तो इसका मतलब क्या है? चार माह से कृषि कानून के खिलाफ बैठे किसानों की अनदेखी क्या सत्ता के धौंस की कहानी नहीं है। तब नक्सली हमले को लेकर जवानों की शहादत की तस्वीरों का क्या मतलब? सत्ता के लिए विकास का मतलब कमीशनखोरी और निजीकरण ही रह गया है तब बदहाल होते लोगों की चिंता कौन करें।

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

बंद कर दो ये नरसंहार...!

 

बीजापुर में नक्सलियों ने फिर दो दर्जन से अधिक जवानों की हत्या कर दी, अपनी इस कामयाबी पर नक्सली जश्न मना रहे होंगे? लेकिन उन मजदूर और किसानों का क्या जिनके बेटे सालों से नक्सलियों के हमले में मारे जा रहे हैं?

मुझे एक बात नक्सलियों से सीधी पूछनी है कि क्या जवानों को मार देने से उनका राज आ जायेगा? जो लोग अपने बूढ़े मां-बाप और पत्नी बच्चों को छोड़कर नौकरी में आते हैं, उनकी क्या गलती है! इस हमले में कई नक्सली भी मारे गये हैं, उनकी लाशें देखकर भी यदि तुम्हें तरस नहीं आता तो इसका मतलब साफ है कि जो कुछ भी तुम कर रहे हो वह तुम्हारा धंधा है! धंधा तो आजकल नेता भी कर रहे हैं ऐसे में क्या तुम्हारी और नेताओं में सांठ-गांठ नहीं चल रही है?

एक बात और पूछनी है मुझे नक्सलियों से क्या ये हमला भी झीरम कांड की तरह कोई साजिश है? यह सवाल इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि जिस तरह से झीरम हमले को सत्ता बचाने की साजिश के रुप में देखा जा रहा था वैसे ही इस हमले को भी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के असम के चुनावी दौरे से देखा जा रहा है।

हर हमले की जिम्मेदारी लेकर अपने सीने को 56 इंच बताने वालों नक्सली क्या यह भी बता पाओंगे कि यह हमला भी किसी राजनैतिक साजिश का हिस्सा है या नहीं। खैर तुम लोग कुछ नहीं बताओंगे लेकिन जनता जान चुकी है कि नक्सली अब किसी मुद्दे पर नहीं सिर्फ पैसों के लिए लड़ाई लड़ते हैं और जब पैसा  और सत्ता ही सबकुछ है तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि इसमें गरीब किसान मजदूर के बच्चे मरे या किसी की सत्ता हिले! तुम्हें तो बस पैसा चाहिए।

लेकिन एक बात ध्यान रखना मौत किसी की भी अच्छई नहीं होती और इस मौत के बाद उनके परिजनों की आह से कोई नहीं बच पायेगा? इसलिए अब भी वक्त है, ये नरसंहार बंद कर दो और व्यवस्था की कमजोरी से लडऩे के लिए अहिंसा के रास्ते पर आ जाओं।

नफरत, झूठ, अफवाह और हिंसा से हासिल सत्ता की न उम्र अधिक होती है और न ही इस रास्ते से सत्ता हासिल करने वाला ही कभी सुखी रहता है। हालांकि तुम्हें इन बातों से क्या मतलब, क्योंकि तुम लोग या तो ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हो या ईश्वर के नाम पर अपनी रोटी सेकते हो। फिर भी एक बार और कहूंगा बार-बार कहूंगा बंद करो ये नरसंहार!

रविवार, 4 अप्रैल 2021

ये चेतावनी है...!

 

पंजाब में भाजपा के विधायक नारंग की किसानों ने पिटाई कर नंगा कर दिया। खबर को लेकर निंदा करते हुए जो प्रतिक्रिया आ रही है वह हैरान करने वाली है। इनमें से सबसे हैरान करने वाली प्रतिक्रिया थी, वे किसान थे यदि भाजपा या संघ के होते तो मॉब लिचिंग होता!

हमारी सोच, हमारी दशा क्या होते जा रहा है, गांधी-नेहरू के भारत से इतर हम इस देश को कहां ले जा रहे है, नानक-बुद्ध-महावीर के इस देश में ऐसी प्रतिक्रिया का कोई स्थान नहीं होना चाहिए लेकिन बीते सालों में राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की चाशनी में अच्छे दिन का सपना दिखाकर जो जहर फैलाया गया उसकी प्रतिक्रिया का अंदेशा किसे था?

कुर्सी की लड़ाई ने पहले ही इस देश में लोगों को बांटने का काम किया है और जब लड़ाई किसी को खत्म करने की ईच्छा में तब्दिल हो जाये तो इसका नुकसान समाज और देश भुगतता है। विरोधियों को समाप्त करने की सोच लोकतांत्रिक नहीं है यह सोच राजा महाराजा या तानाशाही सोच है।

हमने पहले ही कहा है कि यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष नहीं होगा तो सत्ता के खिलाफ विपक्ष की भूमिका में जनता सड़कों पर आ जायेगी और यह क्रांति कहलाता है और क्रांति से सत्ता और उनसे जुड़े लोग ही प्रभावित होते हैं।

पंजाब में भाजपा विधायक के साथ जो कुछ हुआ वह सत्ता के लिए चेतावनी है क्योंकि जनता का क्रोध को कमजोर करने का काम विपक्ष करता है, अपनी तकलीफ को विपक्ष के द्वारा उठाये जाने से आम आदमी थोड़ी राहत महसूस करता है और अपनी बात सत्ता तक पहुंच जाने से नरम भी पड़ता है लेकिन सोटिये जब विपक्ष नहीं होगा तब क्या वह अपनी तकलीफ सीधे सत्ता तक पहुंचाने की कोशिश नहीं करेगा। और इस कोशिश में वह क्या करेगा, अकेला हो तो स्वयं को नुकसान पहुंचाएगा और भीड़ हो तो प्रदर्शन तोडफ़ोड़ और...!

ऐसे में इस घटना से मुंह फेर लेने का मतलब क्या है? इस घटना के लिए जितने किसान दोषी है उससे ज्यादा दोषी वह सत्ता है जो मनमानी में विपक्ष को ही समाप्त कर देना चाहता है। चार माह से किसान आंदोलित है और सत्ता के पास यदि बात करने का भी समय न हो तो इसका मतलब क्या है।

सवाल किसानों की मांगों के उचित-अनुचित का नहीं है, सवाल तो यही है कि जब इस कानून में किसान अपनी बरबादी देख रहे हैं तो फिर उसे सत्ता क्यों थोपना चाहती है। चुनाव जीत कर सत्ता हासिल करने का यह कतई मतलब नहीं है कि उसे मनमानी की छूट है। और न ही यह मतलब है कि हारे हुए नेता कुछ बोल न सके।

ऐसे में यजि जनता विपक्ष की भूमिका में न आ जाये यह सत्ता को देखनी है!

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

लोकतंत्र की डकैती !

 

सवाल यह नहीं है कि ईवीएम में गड़बड़ी की जा सकती है या नहीं? सवाल तो यह है कि भाजपा और कम्यूनिस्ट पार्टी को छोड़ जब देश की तमाम पार्टियों ने ईवीएम से चुनाव को संदिग्ध बताकर विरोध किया है तब ईवीएम से चुनाव क्यों? और इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि ईवीएम के विरोध पर केवल भाजपा के लोग ही क्यों चिढ़ते है?

क्या ईवीएम से चुनाव निष्पक्ष नहीं हो रहा है? यह सवाल सबसे पहले 2009 में भाजपा के लालकृष्ण आडवानी ने ही उठाये थे  और फिर एक अन्य भाजपाई नेता नरसिम्हन ने तो ईवीएम से फ्राड चुनाव को लेकर पूरी किताब ही लिख दी है। ऐसे में जब ईवीएम को लेकर संदिग्धता बनी हुई है तो क्या इस देश के लोकतंत्र को हड़पा जा रहा है।

पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में भी ईवीएम को लेकर हर दौर में सवाल उठ रहे हैं। सवाल तो चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी उठे हैं। याद कीजिए टीएन शेषण का दौर तो लगगता ही नहीं कि चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था भी है।

असम में भाजपा प्रत्याशी के बेलेरो से ईवीएम बरामदगी का मामला ही चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफई है। हालांकि चुनाव आयोग ने स्वयं को निष्पक्ष बताने चार अफसरों को निलंबित कर उस बूथ में फिर से मतदान कराने का निर्णय लिया है लेकिन सच तो यह है कि बाकी केन्द्रों में सब ठीक-ठाक हुआ है उसकी गारंटी कौन देगा?

हैरानी की बात तो यह है कि इस पूरे मामले में भाजपा की तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया जिससे लोगों में चुनाव को लेकर भरोसा जगे। हालांकि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षियों ने तो भाजपा नेता कृष्णेन्द्रु पॉल की उम्मीदवारी खारिज करने की मांग की है लेकिन पॉल अभी तक भाजपा में बने हुए है।

लोकतंत्र की डकैती पूंजीवाद का शगल है, और पूंजीवाद का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि सत्ता का हस्तांतरण भी पूंजी के बल पर होने लगा है। अब तो सोशल मीडिया में कई तरह के किस्से पढ़े जा सकते हैं। असम हो या मणिपुर यहां तक कि मध्यप्रदेश में सत्ता का हस्तांतरण कैसे हुआ यह किसी से छिपा नहीं है, ऐसे में आम आदमी अपने को ठगा महसूस नहीं करे तो क्या करें।

वोट किसी को भी दो सरकार तो हमारी ही बनेगी का खेल क्या लोकतंत्र की डकैती नहीं है?

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

कहानी कुछ अलग है...

 

ये रोटी के लिए झगड़ते बंदरों को मुर्ख बनाते सियार की कहानी कतई नहीं है और न ही डाकू गब्बर सिंह की ही कहानी है यह तो साफ-साफ उस सोने के कंगन के लालच में दलदल में बैठे आदमखोर के पास लाकर अपनी मौत मरने की कहानी है।

गुलनार साहेब ने कहा था कि बेहतर की तलाश में ऐसा न हो कि हम बेहतरीन दिन खो दें। लेकिन दिवारों में लिखी ईबादत को कौन पूछता है? सबकी अपनी सोच है और अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढऩे की आजादी। ऐसे में हम किसी को आदर्श भले ही कह दें लेकिन उस रास्ते पर कौन चलता है।

अच्छे दिन आयेंगे का मतलब का हम बेहतर चाहते हैं, हर व्यक्ति चाहता है कि उसका आने वाला दिन बेहतर हो लेकिन ठंड से बचने के लिए कोई घर को ही आग नहीं लगाता। सत्ता का अपना चरित्र है और सत्ताधारी नेताओं के चरित्र की बात ही बेमानी है, विपक्ष में रहते जिन मुद्दों पर वह हाय तौबा मचाती है, सत्ता आते ही वही मुद्दे उन्हें देशद्रोही लगने लगता है! देशद्रोही की नई परिभाषाएं गढ़ी जाने लगी है, आलोचना को बर्दाश्त करने की ताकत सत्ता के पास कब रही है। 

सत्ता पाने नफरत की दीवारें खड़ी करने का खेल तो स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से ही शुरु हो गया था। साथ ही शुरु हुआ था हिन्दुत्व का खेल। इस खेल को मजेदार और विजयी बनाने नफरत, अफवाह और झूठ की चाशनी में लपेटा जाने लगा। अच्छे दिन के सपने दिखाये जाने लगे। हिन्दूत्व के अस्तित्व को खतरा बताने के लिए लालच देने का दौर का लंबा इतिहास है। पंचतंत्र के उस आदमखोर शेर की तरह सोने का कंगन तलाशा गया और जो भी इस कंगन को पाने जाता वह मारा जाता लेकिन वह कहानी है, इसलिए इसमें फेरबदल किया गया। कंगन की जगह अच्छे दिन के सपने सजाये गए। उस कहानी में तो सिर्फ लालची आदमी मारा जाता था लेकिन इस कहानी में सद्भावना, प्रेम, एकता, भाईचारा समाप्त होने लगी लेकिन बेहतर की तलाश में समाप्त होते रिश्ते की मौन परवाह करता है। कीचड़ मौजूद रहे बस। सत्ता की यही कोशिश रही ताकि लोग फंसते रहेे।

लोकतंत्र का मतलब ही बदल गया। लोकतंत्र का मतलब जन सरोकार की बजाय चुनावी जीत हो गया। और उस आस्था को इतना बड़ा कर दिया गया जो अंधविश्वास के रास्ते पर चल पड़े। आस्था से उत्पन्न अंधविश्वास की पराकाष्ठा सबके सामने है, जिस देश में सत्य और अहिंसा के दम पर आजादी मिली वहां झूठ स्वीकार्य हो गया, यह अलग बात है कि जो लोग अपनी पत्नी और बच्चे के झूठ पर क्रोधित हो जाते हैं उन्हें साहेब का झूठ अपनी बरबादी और देश की बरबादी के स्तर पर पसंद है।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

म्यांमार से दिल्ली...

 

म्यांमार में अब रोहिंग्या नहीं है, लेकिन म्यांमार एक बार फिर जल रहा है, सेना की गोली से अब तक म्यांमार में पांच सौ लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन इस नरसंहार के पहले बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु ने जो नफरत फैलाई थई उसके चलते रोहिंग्या दर-बदर हंै। विराथु तब जीत गये थे और आज भी सेना के साथ खड़े विजयी मुस्कान लिए हुए हैं। म्यांमार में लोकतंत्र समाप्त हो गया है, सत्ता सेना के पास है।

क्या यह इस देश के लिए सबक नहीं होना चाहिए। कट्टरपंथई ताकतें जिस तरह से अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बना रहे हैं उसके बाद क्या कट्टरपंथियों को पालना उचित होगा? इन कट्टरपंथियों को जिस तरह से सत्ता का संरक्षण प्राप्त है वह किसी से छुपा नहीं है, सत्ता के संरक्षण में ही मॉब लिचिंग हो या बलात्कार के आरोपी हो सभी को सम्मानित किया जाना, और इस सम्मान का सार्वजनिक प्रदर्शन का मतलब क्या है।

हम संवैधानिक संस्थानों की वर्तमान में स्थिति को लेकर कोई टिप्पणी करने की बजाय कोरोना काल में तब्लिकी और किसान आंदोलन के समय सिख समुदाय के खालिस्तानी का उदाहरण ही पर्याप्त समझते हैं। और इसे ही चेतावनी मानते हैं। बहुसंख्यकवाद से ग्रस्त होकर मानवीय मूल्यों की अनदेखी करना या उसे नुकसान पहुंचाना किसी भी देश के लिए सैनिक शासन या तानाशाही शासन का मार्ग प्रशस्त करता है।

जो लोग टाईम मेग्जिन में अशीन विराथू को बौद्ध आतंकवाद का चेहरा घोषित करने पर अजान बने रहे या नजरअंदाज करते रहे वे जान ले कि अशीन विराथू अब अपने ही लोगों के लाशों पर चढ़कर सत्ता प्राप्त करने में लगे हैं? हम यह नहीं कहते कि अमेरिका के कुछ संस्थानों ने यहां के कुछ संस्थानों पर अशीन विराथू की तरह आतंकवाद का चेहरा चिपकाया है वह उचित अनुचित के तराजू में कहां है लेकिन यह एक तरह की चेतावनी है।

किसी भी देश में बहुसंख्यक समाज तभी तक लोकतांत्रिक व्यवस्था में फल-फूल सकता है जब तक उनके देश के अल्पसंख्यक वर्ग बगैर डर-भय के जीवन यापन करते हैं। हर देश ने अपने देश के अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा दी है, कमजोर वर्गों को आगे बढ़ाने का उपक्रम किया है और इस उपक्रम में बहुसंख्यक कट्टरपंथी बाधा डालते रहे हैं, हक मारे जाने का झूठा बवाल खड़ा करते रहे हैं और इस बवाल को जिसने भी सच मान ाउस देश में सत्ता तानाशाही हुई है और देश बर्बाद!