मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

गांव की तपिश...


अचानक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब कहा कि वे आंदोलनरत किसान नेताओं से सिर्फ एक फोन दूर हैं, तो इसका मतलब साफ है कि गांव-गांव से उठ रहे आवाज अब उनके कानों में सुनाई पडऩे लगी है और वे इस आंदोलन के विस्तार से विचलित हैं, बेचैन हैं।

किसान आंदोलन का यह एक ऐसा सच है, जिसे नजरअंदाज करना आसान नहीं है क्योंकि तमाम सरकारी प्रपंच और अवरोध के बाद भी किसान अपनी मांगों पर टिके हुए हैं वे एक इंच जमीन छोडऩे को तैयार नहीं है ऐसे में सरकार के सामने दुविधा है कि वह कैसे तीनों कानून को रद्द करें।

दरअसल किसानों ने यह जान लिया है कि तीनों कृषि कानून उनकी हालत बदतर कर देगा और वे कहीं के नहीं रहेंगे। क्योंकि जहां के भी किसानों के विकास के नाम यह अपनी जमीनें दी है उनकी हालत मजदूर की हो गई है। मुआवजे के रुप में दी जाने वाली रकम कब खर्च होता है यह पता नहीं चलता और सरकार रोजगार देने की बजाय भीख देने में ध्यान देती है।

यही वजह है कि तीनों कानून के विरोध गांव-गांव से लोग दिल्ली पहुंचने लगे हैं। इतनी बड़ी तादात में किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं कि सरकार का सारा प्रपंच धरा का धरा रह गया है।

ऐसे में सवाल यह है कि आखिर सरकार यह तीन कानून लाने में क्यों अड़ी हुई है? इसका सीधा और साफ मतलब है कि सरकार बनाने के लिए पार्टियों को पैसों की जरूरत है और पैसा किसान नहीं कार्पोरेट देता है। इसलिए कार्पोरेट के इशारे पर यह कानून लाया गया कि कोई किसान अदालत का दरवाजा खटखटाकर बेवजह उनके मंसूबे को ध्वस्त न कर दे। बेहिसाब स्टॉक से लेकर कांट्रेक्ट खेती वाले इस कानून का मतलब ही किसानों को नोच खाना है।

ऐसे में सरकार के सामने दिक्कत यह है कि पांच ट्रिलियन का जो सपना वह देख रही है वह बगैर कार्पोरेट के कैसे पूरा होगी, इसलिए ये तीनों कानून भी इसी मंशा से बनाई गई है लेकिन सरकार की यह मंशा इस बार किसानों ने भांप ली है और अब तो गांव-गांव में आंदोलन की सुगबुगाहट शुरु हो गई है जिसकी तपिश ने प्रधानमंत्री को एक फोन दूर तक ला दिया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें