सोमवार, 1 मार्च 2021

चुनाव, स्टेडियम, जनसरोकार

 

निर्वाचन आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। किसान आंदोलन के दौर में हो रहे इस चुनाव का परिणाम क्या होगा? और इससे मोदी सत्ता को कोई फर्क पड़ेगा कहना कठिन है क्योंकि सत्ता की रईसी को कायम रखने का जो तरीका वर्तमान दौर में चल पड़ा है उससे जन सरोकार कोई मायने नहीं रखता।

जन सरोकार सामने रखता तो बंगाल को लेकर जो बवाल काटा जा रहा है उसका कोई मतलब ही नहीं होता। क्योंकि बंगाल में ममता बेनर्जी को लेकर जिस तरह के सवाल खड़ा किया जा रहा है वह राजनीति का महज एक हिस्सा है। बंगाल इस देश का ऐसा राज्य है जिसकी तुलना भाजपा शासित प्रदेशों से की जाये तो वह बीस ही बैठेगा।  जीडीपी ग्रोथ हो या कृषि उत्पादन, बेरोजगारी दर की ही बात कर ली जाये तो वह भाजपा शासित उत्तरप्रदेश, हरियाणा, बिहार से बेहतर स्थिति में है, तब सवाल यह है कि क्या ये सब चुनाव में मुद्दे बनेंगे।

बिल्कुल नहीं बनेंगे क्योंकि ये मुद्दे भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते है। सवाल उठ सकता है कि बंगाल को यह किस दम पर बेहतर करने का दावा कर रहे है जबकि उसके द्वारा शासित प्रदेश उत्तर प्रदेश, हरियाणा में बेरोजगारी दर बंगाल के मुकाबले क्यों खराब है। पर केपिटल इंकम के मामले में भी बंगाल की स्थिति उत्तर प्रदेश -बिहार से बेहतर है।

ऐसे में क्या बंगाल में चुनाव का मुद्दा राष्ट्रवाद और धर्म नहीं होगा? यह सवाल भले ही गैर जरूरी लगे लेकिन सच तो यही है कि  इन राज्यों के चुनाव में भाजपा को सत्ता तक लाने के लिए यही एकमात्र मुद्दा है।

हम यह नहीं कहते कि किसान आंदोलन के इस दौर में भाजपा कृषि बिल को लेकर कोई मुद्दा छोड़ सकता है बल्कि यह देखना होगा कि किसान आंदोलन का इस चुनाव में क्या असर होगा। बढ़ती महंगाई भी मुद्दा बनेगा। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत का असर चुनाव में कितना पडेगा?

सत्ता की रईसी को लेकर जो लोग नाराज है वे कई तरह के मुद्दों को हवा दे सकते हैं लेकिन क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम का नाम गुपचुप ढंग से नरेन्द्र मोदी स्टेडियम किया जाना इन चुनाव का मुद्दा होगा?

हालांकि इस नामकरण को लेकर जब सवाल उठने लगे तो इसकी सफाई में केन्द्रीय मंत्री तो सामने आये ही ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप युनिर्वसिटी के छात्र भी गांधी-नेहरु परिवार के नाम पर देशभर में चल रहे संस्थानों, सड़क चौक की सूची जारी कर दी। लेकिन वे जब अपनी ही सूची में फंसने लगे तो नेहरु के भारत रत्न को लेकर सवाल खड़ा करना शुरु कर दिया लेकिन नेहरु के भारत रत्न को लेकर सवाल खड़ा करने वाले यह भूल गये कि नेहरु को भारत रत्न तब के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने बगैर केन्द्रीय सत्ता के सिफारिश की ही थी और उनके साथ सर्वपल्ली राधा कृष्णन सहित कई लोग थे जो तब सत्ता में थे।

लेकिन चुपचाप स्टेडियम का नामकरण कहीं वह डर तो नहीं है कि सत्ता जाने के बाद क्या होगा? खैर मामला कुछ भी हो लेकिन सोशल मीडिया में वायरल हो रहे इस मुद्दे में सबसे मजेदार मुद्दा हिटलर और सद्दाम हुसैन के द्वारा नामकरण को लेकर की जा रही तुलना है। ऐसे में इन राज्यों के चुनाव में एक बात तो तय है कि राजनीति जनसरोकार से दूर होता जा रहा है और चुनाव जीतने का मतलब सत्ता की रईसी को भोगना है। जन सरोकार कोई मायने नहीं रखता।

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