रविवार, 12 अप्रैल 2020

कट्टरता और श्रेष्ठता - 2


मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कैसे उन लोगों के मन में बैठे डर को दूर करूं जो यह तय कर चुके है कि मोदी सरकार आई तो उनका नुकसान होगा या नहीं आई तो यह देश एक और मुस्लिम राष्ट्र की तरफ कदम बढ़ायेगा।
राकेश विनय ही नहीं शहर में कितने ही लोग थे जो इस डर को हवा दे रहे थे और इस पूरी कहानी में हर उस घटना को ज्यादा प्रचारित किया जा रहा था जिसमें दोनों ही धर्म के लोग जुड़े थे।
मसलन राकेश को कश्मीर से भगाये कश्मीरी पंडित तो दिखाई देता था लेकिन उड़ीसा में चले मारवाड़ी भगाओं आंदोलन या आमचीं मुंबई के तहत गैर महाराष्ट्रियनो पर अत्याचार का सलवा जुडुम में खाली हुए पांच सौ गांव इसलिए राकेश को नहीं दिखलाई देता था क्योंकि उसमें मुसलमान या ईसाई नहीं होते थे।
हिन्दू लड़के के हिन्दू लड़की को प्यार या शादी के नाम पर धोखे का मामला उस ढंग से कभी नहीं उभारा गया जिस ढंग से लव जेहाद के नाम पर अभियान चलाया गया। बलात्कार के मामले मे भी घटना में राजनैतिक फायदे देखे जाने लगे तो लगने लगा था कि हम किस तरह का भारत निर्माण कर रहे हैं।
ऐसा लगता कि लोगों के दिलों दिमाग में इसे न केवल बैठा दिया गया है बल्कि उसे किसी बीज की तरह बो दिया गया है और इस बीज ने अपनी जड़े उनकी रगो में खून के साथ बढ़ता चला जा रहा है और अपनी पकड़ रगो के शिराओं पर मजबूत कर ली है।
मैं अपने शहर मे ही इस डर को महसूस करने लगा था। टूटे हुए आईनों में उभरा हर शख्स कुछ अधूरा सा लगने लगा था। सामाजिक सौहाद्र्र और अमन शांति के लिए पूरे देश में अपनी अलग पहचान बना चुके इस शहर की दिवारे कई बार दरकती हुई दिखाई देने लगता था। सोचता था यह डर हकीकत न हो।
कोई भी शख्स किसी दूसरे धर्म के बेतुकापन पर बात करने को तैयार नहीं था जबकि अमल में लाना न लाना उनकी मर्जी है लेकिन बात तो की ही जानी चाहिए।
सूरज कुमार या संतोष जी ही कुछ गंभीर थे जिन्हें मैं पूछ सकता था इसलिए राजनीति के इस हिन्दूकरण के हिंसक होते प्रहार पर मैं अक्सर सवाल छोड़ देता था। वे एक सीमा तक ही जवाब देते फिर श्रेष्ठता की परिभाषा गढऩा शुरू कर देते।
राफेल के मुद्दे को भी संतोष जी ने बड़ी सफाई से जब हिन्दू-मुस्लिम की तरफ मोड़ दिया तो मैं हतप्रभ रहने के सिवाय क्या कर सकता था। नक्सली हमले से मर रहे आदिवासियों की मौत पर वे चिंता तो जाहिर करते लेकिन उनकी चिंतन आतंकवाद की चिंता से ईतर हो जाती। अखलाक या रोहित वेमुला के मुद्दे भी इनके लिए बेमानी हो जाते लेकिन उत्तप्रदेश के किसी सुदूर गांव में कुछ मुसलमान गुण्डों द्वारा घर में घुसकर तोडफ़ोड़ और मारपीट देश की अस्मिता पर आघात हो जाता था।
ऐसा ही कुछ उलट अकील या हासीम के साथ होता। 84 के सिख विरोधी दंगे उन्हें मामूली लगते लेकिन गुजरात में हुए कत्लेआम उनके लिए आज भी बड़ा हादसा था। जबकि दोनों ही मामले पर सरकार द्वारा कत्लेआम कराये जाने या कत्लेआम को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है।
यह बाते जो दोनों ही धर्म के लिए लोग हर घटना को अपने नजरिये से देखने की वजह से ही दिक्कतें हुई थी और सामाजिक ताना बाना न केवल छिन्न भिन्न हुआ था बल्कि दिलों में प्यार की जगह नफरत या डर ने स्थान बना लिया था।
मैं और मेरा , सारी लड़ाई की जड़ यहीं से शुरू हो रहा था। स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के फेर में आदमी किस तरह एक-दूसरे के प्रति कठोर होता जा रहा था कि वह टस से मस होना नहीं चाह रहा था। हर ऐसे व्यक्ति में जड़े उग आया था जो मजबूती से गहराई में लगातार समाता जा रहा था।
आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि मौजूदा हालात को लेकर मैं कितना उदास हूं। मेरी जितनी चिंता पहले के माहौल को पुर्नस्थापना की होती उतनी ही तेजी से कोई न कोई ऐसा वाक्या देश में हो जाता था कि हिन्दू या मुस्लिम के झंडाबरदार फिर खड़े हो जाते और उसका असर यहां साफ दिखाई पड़ता।
मैने कितने ही बार धर्म के इस्तेमाल कर सत्ता हासिल करने की राजनैतिक शैली का उदाहरण दिया ताकि माहौल हल्का हो सके। सब जानते थे कि मैं झूठ नहीं बोलता हूं लेकिन इसे वे महज अपवाद करार देते थे।
मेरे शहर में पहले भी माहौल खराब कर राजनातिक फायदे की कोशिश हो चुकी है। एक बार एक फैंसी स्टोर चलाने वाले मुस्लिम युवक ने एक सिंघी परिवार की युवती को लेकर भाग गया। मैं जानता था कि ये दोनों एक दूसरे से बेहतंहा मोहब्बत करते थे। मेरा एक दोस्त था विरेन्द्र वह उस मुस्लिम युवक का दोस्त था इसलिए गाहे बगाहे पूरे मामले को मैं जानता था लेकिन इस मामले को राजनैतिक ढंग देकर हिन्दू मुस्लिम तक ले जाया गया और शहर में जुलूस निकाले गये जुलूस में तमाम तरह के हिन्दू संगठनों के लोग शामिल ते। सिंघी समाज से जुड़े एक प्यापारी नेता ने इस मामले का नेतृत्वकर्ता हो चुका था और बाद में वह विधायक भी बना।
पुलिस  दबाव में प्रेमी जोड़ा लौट आया। दोनों को अलग कर दिया गया। प्रशासन के दबाव में युवक भी अपना अलग रास्ता अख्तियार कर लिया.
हैरान तो मैं तब हुआ जब इस घटना के कुछ ही महीने बाद एक जुलूस कौमी एकता जिन्दाबाद के नारे के साथ पहुंचा और इस बार भी जुलूस का नेतृत्व सिंघी समाज का वहीं व्यापारी नेता कर रहा था और उसके साथ वह जुगल जोड़ी के नाम से चर्चित मुस्लिम समाज का व्यापारी नेता भी जुलुस के सामने था। कुछ ही महीने पहले हिन्दू एकता का नारा लगाने वाले को कौमी एकता का नारा लगाते कलेक्टोरेट परिसर में दाखिल होते देख जब इसकी वजह ढूंढी तो पता चला कि इस बार ब्राम्हण समाज के किसी युवक ने सिंधी समाज के युवती को ले भागा था।
यानी जिसे राजनीति करनी है वह हर हाल में धर्म का इस्तेमाल अपनी सुविधा अनुसार कर ही लेता है और अब लोग इनके नारे में कट्टरता या उन्माद के स्तर तक जा पहुंचते है।
ऐसी कितनो ही जानकारी मेरे पास थी और मै गाहे बगाहे इन घटनाओं का जिक्र कर राजनीति में धर्म के इस्तेमाल से होने वाले खतरे से आगाह करता रहा हूं। लेकिन राजनीति की हवा उस लू की तरह शैतानी हवा है जो जान ले लेने का डर पैदा करती है। वह किसी भी साक्ष्य या तर्क को नहीं मानती है उसके भीतर का डर इस कदर भयावह हो जाती है कि उसकी अपनी धार्मिक श्रेष्ठता खतरे में दिखाई देने लगता है और मौजूदा हालात को उसी तरह बना दिया गया था। राकेश तो साफ कहता था कि यदि मोदी हार गया तो यह देश का हिन्दु खतरे में पड़ जायेगा। कश्मीर की तरह दूसरे राज्यों की हालत खराब हो जायेगी। हिन्दू अपने ही देश में मारे जायेंगे। अपने कथन को सही साबित करने वह इस तरह का कुतर्क का सहारा लेता था कि समझदार व्यक्ति हंसे बिना नहीं रह सकता था। लेकिन इस तरह की बात करने वाला राकेश अकेला नहीं था। निक्की भी अमूमन यही बात करता था लेकिन निक्की यह बात करने में थोड़ी समझदारी दिखाता था। क्योंकि वह जानता कि वह गलत कह रहा है। निक्की की समझदारी के पीछे उसका भीरुपन भी था वह सीधे टकराहट से बचता था।
राकेश उज्जड़ किसम् का था इसलिए वह धर्मान्तरण से राष्ट्रान्तरण की सावरकर थ्योरी को ही मानता था। उसे तो जहां चार मुसलमान वहां एक पाकिस्तान कहने से भी गुरेज नहीं था।
दरअसल हम सब एक दूसरे को इतना कम जानते है मौजूदा परिस्थितियों के बाद ही इसका पता चला था इसलिए तकलीफ ज्यादा हुई थी
और गुस्सा भी ज्यादा था। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें