बुधवार, 18 मार्च 2020

अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता...


पूरे देश में इस समय राजनीति जिस तरह से चल रही है उसके एक ही मायने है कि राजनैतिक दल ही नहीं विधायकों व सांसदों को भी हर हाल में सत्ता की मलाई चाहिए? आम लोगों से दूर होते न्याय से किसी को लेना देना नहीं है पहले चुनाव जीतने किसी दल का सहारा लो फिर सत्ता की मलाई के लिए नीति सिद्धांत त्याग कर सत्ता की ताकत के साथ खड़े हो जाओं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज के भाजपा प्रवेश का तो यही मतलब निकाला जा सकता है।
बात ज्योतिरादित्य सिंधिया से ही शुरु किया जाना चाहिए। अठ्ठारह साल के राजनैतिक सफर में दस साल मंत्री और 17 साल सांसद रहने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया की गिनती कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में होते रही है। माधवराव सिंधिया के बाद जिस तरह से श्रीमती सोनिया गांधी के स्नेह और सानिध्य में ज्योतिरादित्य का राजनैतिक सफर शुरु हुआ था और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिनती होने लगी थी उसके बाद कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था कि वे सिर्फ एक लोकसभा का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से विदा हो जायेंगे।
इस अप्रत्याशित कदम ने कांग्रेस की राजनीति में भूचाल तो लाया ही है यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या नेताओं के लिए पद और सत्ता ही महत्वपूर्ण है और राजनैतिक पार्टियों में अब सिद्धांत और नीति कोई मायने नहीं रखते। दरअसल माधव राव सिंधिया ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता लाने में जो मेहनत की और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जिस तरह के तेवर दिखाये, खासकर प्रधानमंत्री मोदी को लेकर उनकी तल्ख टिप्पणी के बाद कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे भाजपा में चले जायेंगे और मोदी के रहते उनका भाजपा प्रवेश हो सकता है।
लेकिन आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है के प्राकृतिक सिद्धांत ने राजनीति के विपरित ध्रुव को ऐसा जोड़ा की राजनीति की परिभाषा ही बदल गई और सिंधिया जैसे दिग्गज कांग्रेसी भी यदि भाजपाई हो जाए तो फिर किस पार्टी के सिद्धांत पर बहस की जाए! और भरोसा किया जाए। जो सत्ता में है उन्हें हर हाल में सत्ता में बने रहना है और जो सत्ता में है उन्हें हर हाल में सत्ता चाहिए की नीति निर्धारित हो चुकी है तो फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि सरकार किसी की भी रहे। क्योंकि इसके बाद तो न व्यापम घोटाले मायने रखेंगे न नान घोटाले? बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, किसानों पर अत्याचार किसी भी बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। चुनाव जीतने के लिए किए गए वादों का ही मतलब है न कोई घोषणा का ही मतलब है। जिसके पास पूंजी की ताकत होगी वह उसे सत्ता की ताकत बनाकर सब कुछ हासिल कर ही लेगा।
पैसों की ताकत के दम पर विधायकों को अपने पाले में कर लो और सत्ता की एक चाबी अपने हाथ में रख लो। ज्योतिरादित्य खुद चुनाव हार गये लेकिन उनके पास पूंजी की जो ताकत है उसके चलते 22 विधायक उनके साथ है और जिसके पास भी ये 22 विधायक होंगे उनके लिए सिद्धांत नीति का क्या मतलब रहेगा आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे में मध्यप्रदेश की जनता किसी को भी चुन ले या किसी भी प्रदेश की जनता किसी को भी चुन ले इसका क्या मायने होगा?

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